मालवा

उज्जैन का योगदान

अमितेश कुमार


उज्जैन एक वैभवशाली नगर रहा है। एक समय यह व्यापार का प्रमुख केंद्र था। यहाँ से सुलेमानी पत्थर, मणि, सूतीपत्र आदि सुपारा तथा भड़ौच आदि बंदरगाहों से होते हुए विदेशों में निर्यात किया जाता था। यहाँ से जहामांसी प्राप्त होती है। औषधियों का यहाँ प्रचूर भंडार था। आइने- अकबरी के अनुसार इस नगर की आय राज्य के अन्य नगरों के अपेक्षाकृत अधिक थी।

मौर्यों के काल में यह नगर में पाटलिपुत्र की तरह ही एक नगरवेक्षिका समिति की व्यवस्था थी। यह नगर अनेक विभागों में विभक्त था। प्रत्येक विभाग का नाम उसके संस्थापक अथवा उसमें निवास करने वाले नागरिकों की श्रेणी के नाम पर थे।

इसी नगर को सर्वप्रथम मध्याह्म रेखा की जानकारी मिल गई थी। सूर्य- सिद्धांत के रचयिता भास्कराचार्य ने अपने ग्रंथ में इस नगर की अक्षांस तथा देशांतर रेखाओं के संबंध में लिखा है। उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि उज्जयिनी से समस्त भूमंडल की परिधि का सोलहवां भाग है।

उज्जैन ने कई प्रतिष्ठित रचनाकारों को आश्रय दिया है। कालिदास, बाण, भवभूति, भारवि, अलबेरुनी, भर्तृहरि, सोमदेव जैसे कई प्रसिद्ध रचनाकारों ने इसका सजीव चित्रण करते हुए इसकी महिमा बताने की कोशिश की है। कालिदास ने मेघदूत में इस नगरी का विस्तृत उल्लेख किया है। उन्होंने श्लोकों के माध्यम से यहाँ की अपार समृद्धि, क्षिप्रा नदी, संबंधित कथाएँ, महादेव का मंदिर, संध्याकाल की आरती तथा नृत्य और रात्रि में अभिसारिकाओं के प्रेम- मिलन का चित्रण बड़ी विस्तार से किया है।

उज्जैन भारत के सप्त महापुरियों में से एक माना जाता है। कई शताब्दियों तक यह नगरी ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन धर्मों की शिक्षा का केंद्र रही। सम्राट् अशोक तथा संवत प्रवर्तक विक्रमादित्य के समय यहाँ विद्यापीठ खोले गये थे। सातवाहनों के काल में यहाँ प्राकृत की विशष उन्नति हुई। 
गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने संस्कृत को प्रधानता दी। ज्योतिष के विभिन्न अंगों की शिक्षा के लिए उज्जयिनी का विश्वविद्यालय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। गुप्तकाल में संस्कृत काव्य के अलावा नाट्यशास्र की उच्च शिक्षा के लिए भी यह नगरी जाना जाता था। भवभूति के नाटक काल- प्रिय नाथ या महाकाल के मंदिर के सामने खेले जाते थे।


मुद्राएँ

उज्जैन के ऐतिहासिक स्रोतों में मुद्राओं का विशेष योगदान है। इस नगरी के नाम से प्रसिद्ध उज्जैन मुद्रा यहाँ की राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं व्यावसायिक इतिहास पर प्रकाश डालती है। इन सिक्कों पर एक प्रकार का चिंह खुदा हुआ होता था, जिसमें धन चिंह के चारों सिरों पर एक- एक बिंदू बनाई गई होती थी। इन चिंहों के अनेक विस्तृत रुप भी पाये गये हैं, जो संभवतः शुभ- संकेत द्योतक स्वास्तिक का ही रुपांतर है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि धन चिंह व उसके चारों तरफ बने बिंदूओं से उज्जैन के चारों तरफ बसे नगरों और समृद्ध क्षेत्रों से उसके संबंध का बोध होता है। इसी प्रकार के चिंह सुदूरवर्ती आंध्रप्रदेश के राजाओं के सिक्कों पर भी मिलते हैं। इससे उज्जैन के विस्तीर्ण क्षेत्र, उसकी घनी बस्ती, उनके संपर्क, आवागमन तथा व्यवसायिक संबंधों का पता चलता है।

ईसा- पूर्व चौथी या तीसरी सदी ( मौर्य काल के आसपास ) तक यहाँ आहत मुद्राओं का प्रचलन रहा। यहाँ की कुछ आहत मुद्राएँ अन्य समकालीन आहत मुद्राओं से भिन्न है। तक्षशिला और कौशांबी की कुछ चिंहांकित मुद्राएँ महेश्वर और उसके पास कसरावद नामक स्थान पर मिली है। ये सभी ताम्र- मुद्राएँ हैं, जो मुद्रा- शास्र के सिद्धांतानुसार अधिक दूर तक प्रवास नहीं करते ।इसके बाद से उज्जैन चिंह वाली मुद्राएँ मिलनी शुरु हो जाती है।

चिंहांकित मुद्राओं के बाद अनंतर जातीय और स्थानीय मुद्राओं का काल माना जाता है, जो चिंहित सिक्कों के ही परिवर्धित रुप कहे जा सकते हैं। मुद्रा- शास्र में इन मुद्राएँ सात वर्गों में विभक्त की गई है। इनके भी कई उपवर्ग हैं। ऐसी ज्यादातर मुद्राएँ अभिलेखहीन हैं, जिससे उनके कालक्रम को जानने का एक मात्र साधन उनपर अंकित चिंह ही है। संभवतः २ री सदी के मध्य से ही मुद्राओं पर लेख आने शुरु हुए। उज्जैन की मुद्राओं पर "ऊ- जिनीय' शब्द मिलता है। इसके बाद की मुद्राओं में स्थान के साथ- साथ शासकों के नाम आने लगे, जो अंततः शासक के नाम के रुप में रह गये। बाद में यह विरुदों से युक्त हो गया। 

इस श्रेणी के सिक्कों में वैसे हैं, जिसमें एक ओर "जिष्णु' शब्द ब्राह्मी लिपि में खुदा है और दूसरी तरफ शंख, चक्र और त्रिपुण्ड का आकार है। वैसे तो उज्जैन शैव मत के केंद्र के रुप में जाना जाता है, लेकिन सिक्कों में शंख, चक्र आदि का दिखना यह निश्चित करता है कि कभी-न-कभी यहाँ वैष्णव धर्म का भी प्राबल्य रहा होगा। लिपि की दृष्टि से ये मुद्राएँ चौथी सदी ई. की लगती है, जो गुप्तकाल था। चंद्रगुप्त द्वितीय ( ३८०- ४१३ ई. ) के सिक्कों का यहाँ मिलना यह बताता है कि पश्चिमी मालवा पर अधिकार करने वाला वह पहला गुप्त नरेश था। मुद्राओं पर अधिकार करने वाला वह पहला गुप्त नरेश था। मुद्राओं पर अंकित "जिष्णु' संभवतः इस भू- भाग पर अधिकार करने वाले चंद्रगुप्त द्वारा प्रचलित मुद्राएँ हो सकती है, जिसका अर्थ "जयशील' हो सकता है।

यहाँ कुछ ऐसी भी मुद्राएँ बनी है, जिसकें एक ओर कलश या सिंह है तथा दूसरी ओर कुछ बिखरे अक्षर, जिन्हें मिलाकर "रामगुप्त' शब्द बनता है। रामगुप्त चंद्रगुप्त का बड़ा भाई था और उसके पूर्व का शासक भी। ये मुद्राएँ गुप्तकाल की अन्य मुद्राओं से कुछ हद तक असमानता रखती है। इसका आकार और तौल गुप्त- मुद्राओं से भिन्न, मालव- मुद्राओं के सदृश है, जिससे यह पता चलता है कि गुप्त शासकों ने मुद्राएँ ढ़ालने में मालव सिक्कों का ही अनुसरण किया था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस समय तक निश्चित रुप से ही मालव जाति के लोग यहाँ आकर बस गये थे।

गुप्तकाल के बाद से उज्जैन के इतिहसा की जानकारी के कई अन्य स्रोत भी सामने आ जाते थे। सिक्के विशेष सहायता नहीं देते।

 

उत्खनन :-

राज्य पुरातत्व विभाग ने यहाँ के तीन स्थलों वैश्य टेकड़ी, कुम्हार टेकड़ी और गढ़ भैरवगढ़ में उत्खनन करवाया। इसमें कई मृदभाण्ड व उसके टुकड़े, विविध प्रकार के मार्ग, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, पाषाण्स्र एवं ताम्रास्र, ताम्र- मुद्राएँ तथा कई अस्थि पं प्राप्त हुई है। इस खुदाई में उनके गृह- निर्माण शैली की भी जानकारी मिली।

भारतीय पुरातत्व विभाग ने यहाँ के तीन स्थलों वैश्य टेकड़ी, कुम्हार टेकड़ी और गढ़ तथा भैरवगढ़ में उत्खनन करवाया। इसमें कई मृद्भाण्ड व उसके टुकड़े, विविध प्रकार के मणि, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, पाषाणास्र एवं ताम्रास्र, ताम्र- मुद्राएँ तथा कई अस्थिपं प्राप्त हुई हैं। इस खुदाई में उनके गृह- निर्माण शैली की भी जानकारी मिली।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने गढ़ कलिका के मंदिर के निकट खुदाई का कार्य करवाया है। इस स्थान के विधिवत खुदाई से कई पुरातात्विक साक्ष्य सामने आये हैं। उत्खनन से पता चलता है कि यह स्थान ईसा पूव्र ७ वीं सदी से लेकर मध्यकाल के अंत ( १४ वीं सदी ) तक बसा हुआ था। शुरु की दो शताब्दियों के बारे में पता चलता है कि यहाँ की बस्ती के आसपास मिट्टी का प्राकार बना था, जिसमें लोहे तथा बाँस का प्रयोग किया गया था। प्राकार का पश्चिमी भाग नदी के बाहरी हिस्से में लकड़ी के दूहों और पटियों की एक सुव्यवस्थित कतार बनाई गई थी। प्राकार के बाहरी किनारों में छोड़े हुए जगह संभवतः इसके प्रवेश- द्वार थे। घर मिट्टी, पत्थर व पक्की ईंटों के बनते थे। निम्न- श्रेणी के लोग प्राकार से बाहर रहते थे।

५वीं सदी ई. पू. से लोगों का जीवन स्तर समुन्नत होता चला गया। किले को पानी से बचाने के लिए उसकी भींत कुछ उठा दी गई थी तथा बाहर की तरफ एक ईंट की दीवार बना दी गई थी। फर्श में पलस्तर का प्रयोग होने लगा था। घरों की छड़े लंबे कवेलुओं से ढ़कीं होती थी। ईंटों के तलघर भी बनने लगे थे।

धीरे- धीरे लोहे व ताम्बे का व्यवसाय बढ़ा। लोहे से भांति- भांति के औजार बनाये जाने लगे। खुदाई में उस समय की एक भट्टी का भी प्रमाण मिला है। कई स्थानों पर मिट्टी और मूल्यवान पत्थरों से बने गुटिकाएँ मिली है। संभवतः इन तैयार वस्तुओं का निर्यात भी किया जाता था। इसके अलावा यहाँ हाथी दाँत, पकी मिट्टी व पत्थरो की बनी वस्तुएँ, केश- सवर्तिकाएँ, बुनने की सूचियाँ, खेल के पासे, चूड़ियाँ, बाजूबंद, कंघे, दपंण के हत्थे आदि कई चीजें मिली है, जो वहाँ के लोगों की समुन्नत दिनचर्या का मान कराती है।

धीरे- धीरे वस्तुओं की बनावट सुगढ़ होती गई। ताम्र मुद्राओं में कई विविधताएँ आ गई। इनकी संख्या भी पहले के अपेक्षा बढ़ गई। १४ वीं सदी आते- आते मुस्लिम आक्रमणों से यहाँ की सभ्यता में ह्रास के लक्षण दिखने लगे। लोग इन पुरातात्विक स्थलों को छोड़कर दूसरे स्थानों में बस गये।

 

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