मालवा

उज्जैन के ऐतिहासिक महत्व के स्थल

अमितेश कुमार


भतृहरि गुफा :-

यह ११ वीं सदी के एक मंदिर का अवशेष है, जिसकी बाद में मरम्मत की गई है। यहाँ स्थित एक पुराने शिवलिंग तथा उत्कीर्ण पत्थर के टुकड़ों से पता चलता है कि यह एक शैव मंदिर था। वर्तमान में यह नाथ संप्रदाय के महंतों के संरक्षणों में है।

चौबीस खम्भा दरवाजा :-

इस इमारत की छत चौबीस खम्भों के सहारे टिका हुआ है, अतः इसे चौबीस खम्भों दरवाजा के नाम से जाना जाता है। संभवतः यह मध्यकालीन महाकाली मंदिर जिसका एक हिस्सा वहाँ से कुछ दूरी पर स्थित है, के दरवाजों में से एक है। मूल संरचना को बाद में पुराने निर्माण सामग्रियों का प्रयोग कर संरक्षित करने की कोशिश की गई है। बाहरी दीवार जहाँ यह दरवाजा है "कोट' कहलाता है।

कालियादेह भवन :-

यह स्थान उज्जैन से उत्तर की ओर ६ मील की दूरी पर क्षिप्रा नदी में एक द्वीप के रुप में स्थित है। मुसलमानों के आगमन से पहले यह ब्रह्मकुण्ड के नाम से जाना जाता था। इसमें स्नान के लिए घाट बने थे तथा पीछे की तरफ मंदिर था। इस पुराने भवन को पत्थर के एक बाँध से पश्चिम की ओर जोड़ा गया है।

मालवा का खिलजी सुल्तान नासिर शाह ने लगभग १५०० ई. में यहाँ एक भवन निर्माण करवाया, जो ग्रीष्म ॠतु में शीतलता प्रदान कर सके। यह भवन वास्तुकला के माण्डु शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें नदी की पानी को कई हौजों में भरकर २० फीट कह ऊँचाई से उत्कीर्ण पत्थरों पर पतली धाराओं के रुप में गिराने का प्रबंध किया गया था। इससे नदी के ऊपर बना चबूतरा शीतल रहता था।

भवन में छोटी छतरियाँ तथा अन्य रचनाएँ बाद में, खास तौर पर मुगल काल में जोड़ी गई है। हाल में भी इन संरचना मौलिक रुप में कई परिवर्तन किये गये हैं।

महाकाल मंदिर :-

यह प्रसिद्ध मंदिर भारत के १२ ज्योतिलिंगों में से एक है। इसका निर्माण काल की निश्चित जानकारी नहीं मिलती। कहा जाता है कि गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने ही इसे बनवाया था। यहाँ प्रति वर्ष भारी संख्या मे श्रद्धालु आते हैं। सिंहस्थ मेला यहाँ १२ वर्ष में एक बार लगता है।

पहले इस मंदिर का शिखर सोने का था, जो मीलों दूर से भी दिख जाता था। ११ वीं सदी में जब यह जीर्ण होने लगा, तब राजा भोज ने इसकी मरम्मत करवाई थी। लेकिन बाद में मंदिर ने कई बार मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना किया। सन् १२३५ में दिल्ली के सुल्तान शमसुद्दीन इल्तुतमिश ने मालवा जीतने के बाद इस मंदिर को तुड़वा डाला, महाकाल का लिंग पास के कोटि तीर्थ में फिकवा डाला तथा अनेक स्वर्ण- मूर्तियों को अपने साथ लेकर चला गया। ५०० वर्षों तक महाकाल का पता नहीं चला। इस मंदिर पर लोगों का विश्वास हमेशा बना रहा। प्राचीन मंदिर के खंडहर अब भी विद्यमान हैं। इसे "बूंदे महाकाल' के रुप में जाना जाता है। 

वर्तमान मंदिर जो १८ वीं सदी में बना है, मंदिर के ही पुराने स्थल के निकट ही स्थित इसे ग्वालियर राज्य के संस्थापक रानोजी सिंधिया के दिवान रामचंद्र बाबा ने बनवाया था।

गोपाल मंदिर :-

शहर के मध्य में स्थ्ति यह मंदिर यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। इसे सन् १८३३ में महाराजा दौलतराव की महारानी बैजी बाई ने बनवाया था। इसमें भगवान श्री कृष्ण ( गोपाल ) की प्रतिमा है। दरवाजे चाँदी के हैं।

घाट :-

क्षिप्रा नदी के किनारे बने घाटों पर श्रद्धालुओं की भीड़ आती है। सिंहस्थ मेला के समय यहाँ स्नान करने वालों की भीड़ बढ़ जाती है।

खगोलीय प्रेक्षा गृह / वेधशाला :-

शहर में दक्षिण की ओर क्षिप्रा के दाहिनी तरफ जयसिंहपुर नामक स्थान में बना यह प्रेक्षा गृह "जंतर महल' के नाम से जाना जाता है। इसे जयपुर के महाराजा जयसिंह ने सन् १७३३ ई. में बनवाया। उन दिनों वे मालवा के प्रशासन नियुक्त हुए थे। जैसा कि भारत के खगोलशास्री तथा भूगोलवेत्ता यह मानते आये हैं कि देशांतर रेखा उज्जैन से होकर गुजरती है। अतः यहाँ के प्रेक्षागृह का भी विशेष महत्व रहा है।

यहाँ चार यत्र लगाये गये हैं -- समरात यंत्र, नाद वलम यंत्र, दिगांरा यंत्र तथा मिट्टी यंत्र। इन यंत्रों का सन् १९२५ में महाराजा माधवराव सिंधिया ने मरम्मत करवाया था।

हरसिद्ध देवी का मंदिर :-

यह मंदिर महाकाल के निकट ही स्थित है। कहा जाता है कि जब विक्रमादित्य ने बहुत काल तक देवी की अराधना की थी, तब उनके आराधना से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया तथा उनकी मनोकामना पूरी की। नवरात्रि के दिनों में नौ दिनों तक यहाँ बड़ा उत्सव होता है।

महाकाली मंदिर :-

उज्जैन में महाकाली का भी एक प्रसिद्ध मंदिर है। कहा जाता है कि महाकवि कालिदास ने उग्र तब किया और उसी के फलस्वरुप "महाकवि' बन पायें।

अंकपात :-

कहा जाता है कि यही वह स्थान है, जहाँ श्री कृष्ण ने सुदामा के साथ संदिपनी मुनि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त किया था।

इसके अलावा भी कई स्थल जैसे क्षीर- सागर, भाडैश्वर महादेव का मंदिर, योगेश्वर महादेव का मंदिर, बाल भैरव, काल भैरव मंगलेश्वर आदि कई स्थान ऐतिहासिक महत्व के हैं। 

 

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