मालवा

शिक्षा तथा साहित्य

अमितेश कुमार


विवेच्यकालीन राजनीतिक एकता और आर्थिक संपन्नता के वातावरण में जो शांतिपूर्ण व्यवस्था स्थापित हुई, उसके कारण शिक्षा तथा साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इस काल की शिक्षा एवं साहित्य की प्रगति का उल्लेख इस प्रकार है।

 

आलोच्यकालीन मालवा में शिक्षा

इस काल में पूर्वकाल से चली आ रही शिक्षा- पद्धति में काई विशेष परिवर्तन नहीं आया। राजधानी- नगर एवं धार्मिक स्थल शिक्षा- केंद्र के रुप में प्रतिष्ठित हुए, जिनमें मालवा का प्रसिद्ध उज्जयिनी नगर विशेष रुप से उल्लेखीय है।

कैलाशचंद जैन का मानना है कि इस काल में शिक्षा की कोई सुसंगठित व्यवस्था नहीं थी। प्राचीन काल से गुरु प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति की धुरी था। वह अपने कर्तव्य के रुप में विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करता था और विद्यार्थियों के संरक्षक से प्राप्त दक्षिणा से वह संतुष्ट रहता था। कुल अठारह विद्याओं की शिक्षा दी जाती थीं, जिनमें चार वेद, छः वेदांग , पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्र, धनुर्वेद, गांधर्व वेद और अर्थशास्र सम्मिलित थे। गुप्तकालीन अभिलेखों तथा पुराणों में चौदह विद्याओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है। उन चौदह विद्याओं का ज्ञान किसी भी मेधावी, ब्राह्मण के लिए सुलभ और सहज था।

इस काल में व्यवसाय के अधिक प्रचार के कारण भारतीय नगरों में कभी- कभी व्यावसायिक शिक्षा देने वाले आचार्य रहते थे। इन आचार्यो की प्रयोगशालाओं में विद्यार्थी अपने बंधुओं की आज्ञा पाने के उपरांत मनोवांछित शिल्प में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए आता था। आचार्य, विद्यार्थी को अपने पुत्र के समान समझते हुए, उसे नि:शुल्क शिक्षा देता था तथा उसके भोजन एवं वस्र की व्यवस्था भी करता था। शिल्प की पूर्ण शिक्षा तथा आचार्य की अनुमति लेने के उपरांत घर लौटने वाला विद्यार्थी, शिल्प का विशेषज्ञ माना जाता था। 

वात्स्यायन के ""कामसूत्र'' में विदित होता है कि इस काल में साधारण शिक्षा के साथ- साथ विविध कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। उच्च कुल की स्रियाँ गान, नृत्य- कला, चित्रकला तथा गृह को सुसज्जित करने की शिक्षा प्राप्त करती थी।

 

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