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आलोच्यकाल में साहित्य के विविध क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। ब्राह्मम्ण- साहित्य, बौद्ध- साहित्य तथा जैन- साहित्य में धर्म, दर्शन, काव्य, नाटक, काम- शास्र, ज्योतिष तथा शिल्प- शास्र आदि विषयों से संबंधित महत्वपूर्ण कृतियों का सृजन हुआ। संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में भी कई की महान विभूतियों का आविर्भाव हुआ। कई विद्वानों की रचनायें आज भी विविध ग्रंथों तथा प्रस्तर खण्डों पर सुरक्षित हैं, जिनसे हमें तत्कालीन साहित्यिक विकास की जानकारी प्राप्त होती है।
राजशेखर ने ""काव्यमीमांसा'' में लिखा है कि उज्जयिनी में विद्वानों की एक मण्डली रहती थी, जो प्रसिद्ध काव्यकारों की कृतियों की परीक्षा लेती थी। इस विद्वत् मण्डली की स्वीकृति से किसी लेखक की कृति को विशिष्ट रचना मान लिया जाता था। कालिदास,
भर्तृमण्छ, भारवि, अमरु, हरिश्चंद्र एवं चंद्रगुप्त आदि के ग्रंथों की परीक्षा उज्जयिनी की विद्वत मण्डली ने की थी।
विवेच्यकालीन काव्यकारों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है--
१. वे रचनाकार जिनके बारे में एक मात्र अभिलेखों से ही जानकारी प्राप्त मिलती है। इस श्रेणी के कवियों में वीरसेन, रविल, वत्सभ तथा वासुल विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
२. मालवों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े ऐसे वे रचनाकार जिनकी रचनाएँ पूर्णतः या अंशतः आज भी उपलब्ध हैं से जुड़े रचनाकार -
वीरसेन
वीरसेन, चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के नव- रत्नों में से एक थे। वे पाटलिपुत्र के निवासी थे तथा उनका कुल नाम शाष तथा गोत्र- नाम कौत्स था। वीरसेन व्याकरण, न्याय तथा राजनीति के ज्ञाता थे। साथ- साथ एक कवि के रुप में भी प्रतिष्ठित थे। विद्वानों का मत है कि उदयगिरि गुफा में अंकित लेख उसी के द्वारा लिखा गया था। मालवा विजय के समय वह चंद्रगुप्त द्वितीय के साथ वहाँ गया था।
रविल
रविल मालवा के ही एक कवि थे। उन की एक मात्र कृति के रुप में प्रभाकर का मंदसोर प्रस्तर अभिलेख मालवा सं. ५२४उ(४६७ ई.) मिलता है। इस अभिलेख से विदित होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों से छीने गये मालवा प्रदेश का राज्यपाल गोविंदगुप्त था और उसकी राजधानी उज्जयिनी थी। इससे मालवा की राजनीतिक स्थिति के साथ- साथ बौद्ध धर्म के विकास की झलक मिलती है। इस अभिलेख में ""धम्म'' शब्द का उल्लेख मिलता है, जो बौद्ध धर्म के बौद्ध धर्म और संघ का द्योतक है।
वत्सभ
कुमारगुप्त प्रथम का समकालीन वत्सभ एक स्थानीय कवि था। उसने मालवा सं. ५२९ (४७३ ई.) में मंदसौर प्रशस्ति की रचना की थी। यह मालवा के इतिहास एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की महत्वपूर्ण जानकारी देती है। अलंकार के नियमों का अनुसरण करते हुए अपने श्लोकों में दशपुर नगर की राजनीति धर्म, अर्थ एवं कला के संबंध में महत्वपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया है।
इस प्रशस्ति में तंतुवाय-
श्रेणी के उल्लेख द्वारा दशपुर (पश्चिमी
मालवा) में श्रेणी संगठन का वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर
सूर्यमंदिर के वर्णन से उस नगर में प्रचलित
सूर्योपासना की धार्मिक भावना को तथा
मालवा में प्रचलित शिखरयुक्त प्राचीन
मंदिरों की वास्तुगत विशेषताओं का निरुपण किया है। इस प्रशस्ति
से यह भी विदित है कि दशपुर में कई
मंजिलों वाले भव्य भवनों का निर्माण किया जाता था तथा वहाँ
उद्यान, तड़ाग आदि की शोभा दर्शनीय थी।
अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है।
वासुल
दशपुर के निवासी वासुल की रचना के
रुप में यशोधर्मा का तिथि- विहीन मंदसौर पाषाण- स्तंभ-
लेख प्राप्त हुआ है। संभवतः वह मालवा के
शासक यशोधर्मन का राजकवि था।
उपरोक्त अभिलेख से हमें मालवा नरेश
यशोधर्मन की उपलब्धियों के साथ- साथ दशपुर (मंदसौर)
में शैव धर्म के विकास का उल्लेख प्राप्त होता है।
यशोधर्मन के शासनकाल में मंदसौर
से दो अन्य पाषाण- अभिलेख प्राप्त हुये हैं, जिन पर कवि के नाम का उल्लेख नहीं है, बहुत
संभव है कि उन अभिलेखों की रचना वासुल द्वारा ही की गयी हो।
शूद्रक
शूद्रक आलोच्यकाल का एक महान नाटककार है, जिन्होंने पाँचवीं
शताब्दी ई. में ""मृच्छकटिक'' की रचना की थी।
शूद्रक के प्रारंम्भिक जीवन तथा निवास- स्थान के
बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं प्राप्त होती।
""मृच्छकटिक'' की घटनाओं का स्थान उज्जयिनी है। इसमें तत्कालीन
वर्ण- व्यवस्था, वेश्यावृत्ति, दास- प्रथा, धार्मिक जीवन, विभिन्न कलाओं, आर्थिक
समृद्धि आदि के वर्णन से हमें विवेच्ययुगीन
मालवा के उज्जयिनी नगर के राजनीतिक,
सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन की स्पष्ट
रुपरेखा मिलती है।
बाणभ
हर्ष कालीन ६०६ ई.- ६४८ ई. महाकवि बाण की गणना
संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड, विद्वानों में की जाती है। उन्होंने ""हर्षचरित'' तथा
""कादम्बरी'' जैसे महान ग्रंथों की
रचना की, साहित्य समाज का दपंण है --""इस कथन की पूरी अभिव्यक्ति हमें
बाण के इन दोनों रचनाओं में देखने को
मिलती है।
हर्षचरित से हमें कृष्णगुप्त, जीवितगुप्त, दामोदरगुप्त, महासेनगुप्त और
माधवगुप्त नामक उत्तर गुप्तवंशीय शासकों के परम्परागत इतिहास का पता चलता है।
कादम्बरी से हमें विदिशा तथा उज्जयिनी के
लोगों के सांस्कृतिक जीवन की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। विदिशा की
राजसभा में आयोजित होने वाली काव्य गोष्टी,
शास्र गोष्ठी, आख्यान गोष्ठी, चित्र गोष्ठी,
वीणा गोष्ठी, जल्प गोष्ठी, पद गोष्ठी आदि के
वर्णन से राजा की ललित कलाओं के पोषण और प्रतिपालन की
भावना को प्रदर्शित किया है। ""कादम्बरी''
में विदिशा तथा उज्जयिनी के राजप्रासादों का जो
वर्णन है, उससे हमें तत्कालीन वास्तुकला तथा
मूर्तिकला की विशेषताओं की स्पष्ट झलक
मिलती है।
बाणभ ने लिखा है कि उज्जयिनी व्यापार के कारण
सुवर्ण से भर गयी थी और यहाँ के
अनेक नागरिक करोड़पति ओर पद्मपति थे। यहाँ पर निगत,
श्रेणी, पूग आदि विभिन्न प्रकार के सार्वजनिक
संगठन थे और उनके अपने अलग- अलग अध्यक्ष (प्रधान) होते थे। नगर के चतुष्पथों पर
सोने के कलश से युक्त ऊँचे शिखरों
वाले मंदिरों का निर्माण किया गया था। कादम्बरी
में विदिशा की चाण्डाल कन्या के शरीर पर
लटकते हुए कंचुक, मजीठी रंग की रेशमी ओढ़नी,
माथे पर गोरोचना का तिलक, जघन भाग
में मेछला, कण्ठ में मुक्ताफलों का उज्जवल हार, कानों
में चंदन पल्लवों के अवतंश और कई
रंगों के जड़ाऊ कर्णाभरणों के वर्णन
से तत्कालीन विदिशा जनपद की स्रियों की
वेश- भूषा का ज्ञान प्राप्त प्राप्त होता है।
बाणभ के वर्णन के आधार पर कहा जा
सकता है कि विदिशा तथा उज्जयिनी आलोच्यकालीन
मालवा के समृद्धशाली नगर थे और वहाँ आर्थिक, धार्मिक एवं कला के क्षेत्र
में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस काल में
लिखे गए अन्य ग्रंथों में मत्स्यपुराण, नरसिंह पुराण,
शिव पुराण तथा स्कंदपुराण हैं, जिनमें
उज्जैन के पवित्र तीर्थों का उल्लेख मिलता है। इससे पता चलता है कि इन पुराणकारों का प्रत्यक्ष
या अप्रत्यक्ष रुप से उज्जैन से संबंध था।
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