मालवा

शिक्षा तथा साहित्य

बौद्ध, जैन तथा अन्य लेखकों का साहित्य

कालिदास

अमितेश कुमार


भारतीय प्रतिभा के ज्योतिर्मय सूर्य महाकवि कालिदास ने अपनी प्रखर प्रज्ञा के प्रकाश द्वारा न केवल भारतभूमि को अपितु समस्त विश्व को आलोकित किया है। वे भारतवर्ष के एक मात्र ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपने साहित्य में भारत की समग्र सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। साथ ही विश्वजनीत संगीत का स्वर मुखरित करके वे विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवियों की अग्रपंक्ति में भी स्थित हैं।

कालिदास स्वभावतः विनयी थे। उन्होंने अपने श्रेष्ठ ग्रंथ रघुवंश के आरंभ में कहा है कि मैं मंद हूँ। मुझे कवि का यश पाने की लालसा है। मेरे ऊपर लोग वैसे ही हँसेंगे, जैसे उस बौने पर, जो अपनी बाहों को उठाकर उस फल को पाने की चेष्टा करता है, जो केवल ऊँचे लोगों की ही पकड़ में आते हैं। उन्होंने स्वयं अपने कृतित्व को बहुमान नहीं दिया। उनका कहना है कि मैंने तो संकलन मात्र किया है।

कालिदास की सूक्तियों से उनकी चरित्रगत अन्य विशेषतायें प्रकट होती हैं, यथा --

कालिदास मित्र बनाने में अपने स्वभाव - माधुर्य के कारण बहुत दक्ष थे । उनका कहना है --

यतः सतां सन्नतगात्रि संगतं मनीषिभि: साप्तपदीनमुच्यते।
सम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहु:।

कालिदास गुणों का आदर करते थे , चाहे वे वृद्ध में हों या बालक में या स्री में। यथा--

स्रीपुमानित्यनास्थैषा वृत्तं हि महितं सताम्।।
पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते।
न धर्मवृर्द्धषु वयः समीक्ष्यते।

कालिदास स्वभावतः अतिशय उदार थे। वे संग्रह का श्रेष्ठ उपयोग यही मानते थे कि उससे किसी की भलाई, उपकार या कठिनाई दूर करने की योजना कार्यान्वित की जाय --

सहस्त्रगुणमुत्स्त्रष्टुमादत्ते हि रसं रवि:।
त्यागाय संभृतार्थानाम्।
आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव।
आपन्नार्तिप्रशमनफला: संपदो ह्युत्तमानाम्।

कालिदास के इसी स्वभाव से रघु और कौत्स जैसे पात्र निर्मित हुए और उनके ब्रह्मचारी ने पार्वती से कहा --

ममापि पूर्वाश्रमसंचितं तपः।
तदर्धभागेन लभ कांक्षितम्।।

काम बने चाहे ने बने, नीच से भीख नहीं माँगनी चाहिए --

याच्यां मोघा वरमधिगुणे नाधमें लब्धकामा।

शिक्षा और विद्या प्राप्त का सर्वोच्च उद्देश्य है कि उसके द्वारा अपने चतुर्दिश की वस्तुओं के प्रति सहानुभूति हो -- यह कालिदास के सुसंस्कृत स्वभाव से पूर्णरुप से प्रतिफलित होता है। सभी वर्ग और देशों के छोटे- बड़े मानव ही नहीं, अपितु पशु- पक्षी और ठीकरों के प्रति भी उनके हृदय में सहानुभूतिपूर्ण स्थान था। 

परंतु कालिदास ने इस समस्त ग्रंथराशि का सार लेकर भी मौलिकता एवं क्रांतिकारिता का परिचय दिया है। 

समग्र रघुवंश, दिलीप, रघु या अज कालिदास की आशाओं और आकांक्षाओं की प्रतिच्छाया के मूर्त रुप हैं। ऐसी स्थिति में उसके व्यक्तित्व का महिमशाली विराट स्वरुप कौत्स से लेकर राम तक के भावोन्मेष में प्रकट है। एक ही श्लोक में कालिदास के व्यक्तित्व की रुप- रेखा सम्पुटित है --

जनस्थसाकेतनिवासिनस्तौ
द्वावप्यभूतामभिनन्द्यसत्त्वौ।
गुरुप्रदेयाधिकनि:स्पृहोsर्थी
नृपोsर्थिकामादधिकप्रदश्च।।

साकेत के निवासियों के लिए कौत्स और रघु दोनों ही समान रुप से अभिनन्दनीय थे। प्रार्थी गुरु के लिए देय धन से अधिक लेना नहीं चाहता था और राजा प्रार्थी की माँग से अधिक देना चाहता था।

इस एक श्लोक में आचार्य, शिष्य, राजा और प्रजा के रुप में कालिदास के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है।

कालिदास ने लिखा है कि हिमालय ""स्थितः पृथि इव मानदण्डः'' अर्थात् यह पर्वत पृथिवी का मानदण्ड है। हिमालय और पृथिवी को न केवल अपनी दृष्टि में रखते हुए, अपितु मानस- पटल पर अलंकृत करके उसने जो काव्य लिखा, वह विश्व संस्कृति का शाश्वत मानदण्ड हे। इसके कलात्मक पक्ष का वर्णन कविवर रवींद्रनाथ ने इस प्रकार किया है --

हे कवीन्द्र कालिदास, कल्पकुंजवने
निभृते बसिया आछ प्रयसीर सने।
यौवनेर यौवराज्य- सिंहासन' परे
मरकत पादपीठ- वहनेर तरे
रयेछे समस्त धरस, समस्त गगन 
स्वर्ण राजछत्र ऊध्र्वे करेछे धारण
शुधु तोमादेर परे, छय सेवादासी
छय ॠतु फिरे फिरे नृत्य करे आसि,
नव- नव पात्र भरि ढालि देय तारा
नव- नव वर्णमयी मदिरार धारा
तोमादेर तृषित यौवने, त्रिभुवन
एक खानि अन्तःपुर, वासरभवन।
नाई दु:ख, नाइ दैन्य, नाइ जनप्राणी
तुमि शुधु आछ राजा, आछे तव रानी।

इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं कि अप्रतिम शास्रज्ञान के साथ कवि का लोक- ज्ञान भी असाधारण था। उन्होंने भारतभूमि को न केवल बाह्य चक्षुओं से अपितु अन्तश्चक्षुओं से भी भरपूर देखा। इन्हीं सब के फलस्वरुप विश्व को कालिदास के काव्यों के रुप में एक सार्वदेशिक और सार्वकालिक संगीत का अमर एवं अनन्य वरदान मिल सका।

सौंदर्य के तो ये अनन्य उपासक ही थे। इस समस्त सृष्टि में सौंदर्य का शायद ही कोई ऐसा रुप हो, जो इस सौंदर्य- पारखी कवि की दृष्टि से बच सका हो, स्वर्ग और पृथ्वी का कोई ऐसा पदार्थ नहीं, जिसके सौंदर्य का महाकवि ने न देखा- परखा हो। कवि के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है,""भारत वर्ष के ॠषियों, संतों, कलाकारों, राजपुरुषों और विचारकों ने जो कुछ उत्तम और महान दिया है, उसके सहस्रों वर्षों के इतिहास का जो कुछ सौंदर्य है, उसने मनुष्य को पशुसुलभ धरातल से उठाकर देवत्व के प्रतिष्ठित करने की जितनी विधियों का संधान किया है, उन सबको ललितमोहन और सशक्त वाणी देने का काम कालिदास ने किया है।''

कालिदास के युग में मनु के द्वारा प्रवर्तित संस्कृति सम्मानास्पद थी। कवि ने समकालीन प्रजा की आदर्श आचार- पद्धति का वर्ण किया है --

रेखामात्रमपि क्षुण्णादामनोर्वत्र्मनः परम्
न व्यतीयु: प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः।।

अर्थात् प्रजा मनु के द्वारा प्रतिपादित मार्ग से तनिक भी विचलित नहीं होती थी। ऐसी प्रजा सर्वथा सुखी थी, क्योंकि राजा प्रजा के अभ्युदय के लिए नित्य प्रयत्नशील था --

यथा -- प्रजानामेवभूत्यर्थ स ताभ्यो बलिमग्रहीत्

राजा का चरित प्रजा के समक्ष आदर्श था।

कालिदास आश्रम- व्यवस्था के प्रतिपालक थे। वे कोरी अभिलाषा के द्वारा रघुवंश के आदि मध्य और अंत में इस अभिमत का प्रतिपादन करने में नहीं चूके। रघुवंश के आरंभ में उन्होंने रघुवंशियों के विषय में बताया है --

शैशवेsभ्यस्त- विद्यानां यौवने विषयैषिणाम्
वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।

राजाश्रय- प्राप्ति की दृष्टि से कालिदास का व्यक्तित्व पूर्ववर्ती कवियों से बहुत- कुछ भिन्न वातावरण में विकसित हुआ था। व्यास और वाल्मीकि महर्षि पहले और महाकवि पीछे थे। महाकवि अश्वघोष भी मूलतः बौद्धाचार्य थे, पर कालिदास थे राजकवि।

कालिदास के उपमानों के पर्यालोचन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनका ग्राम्य जीवन से निकट संपर्क था। उदाहरण के लिए देखिये --

सा किलाश्वासिता चण्डी भर्त्रा तत्संश्रुतौ वरौ।
उद्ववामेंद्रसिक्ता भूर्बिलग्नाविवोरगौ।।

(कैकेयी ने जो वर माँगे, वे वैसे ही थे, जैसे वर्षा से भीगी पृथिवी से बिल में छिपे दो साँप निकल पड़े हों। उपमान रुप में मानस- पटल पर अंकन इस दृश्य का केवल वही कर सकता है, जो ग्रामीण जीवन में रम चुका हो।)

कालिदास राजनीति के भी अद्भुत पारखी थे। रघुवंश में अतिथि की दिनचर्या तथा राजनीति विषयक व्यवस्थाओं के निरुपण में कवि ने अपने राजनीतिक ज्ञान का अच्छा प्रदर्शन किया है। राजकुमारों की दीक्षा, राजा के लिए निषिद्ध कर्म, राजा के लिए अनुमोदित मृगया, राजा के आवश्यक गुण, राज्य की प्रमुख शक्तियों, युद्ध नीति, दूताचार आदि का विधिवत् 
उल्लेख उनके राजनीतिक ज्ञान की पुष्टि करता है।

रघु, अज, उमा आदि शब्दों की छः व्युत्पत्तियों में तथा ""धातों स्थान इवादेश सुग्रीवं सन्यवेशयत्'' अपवाद इवोत्सर्ग व्यावर्तयितुमीश्वरः इत्यादि की उपमाओं में कवि ने व्याकरण- ज्ञान की सूक्ष्मता का परिचय दिया है। करण- विरम (इंद्रियनिग्रह) आदि अनेक आगमशास्रीय पारिभाषिक शब्दों द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि कालिदास का आगमों और तंत्रों पर भी पर्याप्त अधिकार था।

 

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