कुमारसंभव की कथा का आरंभ हिमालय के वर्णन से होता है। हिमालय के विवाह पितरों की मानसी कन्या मेना से हुआ। इसी दंपती से कन्या पार्वती का जन्म हुआ। धीरे- धीरे पार्वती नवयुवती हुई। वह अनुपम सुंदरी थी। ब्रह्मा ने अपने हाथों से सामग्री संचित करके पार्वती की अंगरचना की थी। एक दिन नारद वहाँ आये और पार्वती को देखकर कहा कि वह शिव की पत्नी बनेगी। हिमालय शिव को जानता था। उन्होंने शिव से विवाह करना तो ठीक समझा, पर अपनी ओर से प्रस्ताव करना उसे उचित न प्रतीत हुआ। इधर सती की मृत्यु के पश्चात शिव हिमालय की एक रमणीय चोटी पर तप कर रहे थे। एक दिन पार्वती को लेकर हिमालय उनकी पूजा करने गया, फिर पार्वती ने शिव की पूजा की। पार्वती वहीं रहकर नित्य शिव की पूजा करने लगी। इस दृश्य का वर्णन कालिदास के शब्दों में है --
अवचितवलिपुष्पा वेदिसम्मार्गदक्षा
नियमविधिजलानां बर्हिषां चोपनेत्री।
गिरिशमुपचचार प्रत्यहं सा सुकेशी
नियमितपरिखेदा तच्छिरश्चन्द्रपादै:।
द्वितीय सर्ग में तारकासुर के अत्याचार से दु:खी देवता इंद्र को नेता बना कर ब्रह्मा के पास पहुँचे। ब्रह्मा ने उनके दु:ख का कारण जाना और बताया कि तारक को महादेव का पुत्र ही मार सकेगा। बस, पार्वती को शिव की पत्नी बनाना है। इसके लिए इंद्र ने काम का आह्मवान किया। काम आये वसंत को लेकर --
अथ से ललितयोषिद्भ्रूलताचारुश्रृड्गं
रतिवलयपदाड्के चापमासज्य कण्ठे।
सहचरमधुहस्तन्यस्तचूताड्करास्रः
शतमखमुपतस्थे प्रांजलि: पुष्पधन्वा।
इंद्र ने उसे अपना काम बताया कि शिव के मन में पार्वती के प्रति अनुराग उत्पन्न करो। काम उद्यत हो गये और अपने सहचर वसंत और पत्नी रति के साथ शिव के समाधि- स्थल पर जा पहुँचे। वसंत ने सारे वातावरण को सकाम कर दिया और तब --
मधु द्विरेफः कुसुमैकपात्रे पपौ प्रियां स्वामनुवर्तमानः।
श्रृंगेण च स्पर्शनिमीलिताक्षी मृगीमकण्डूयत कृष्णसारः।।
भ्रमर और भ्रमरी एक ही पुष्प में मधुपान करने लगे। ये तो जीवधारी ही हैं। जड़ वृक्षों की कामुकता देखते ही बनती थी। उन्होंने भी अपनी शाखारुपी भुजाओं को फैलाकर लताओं का आलिंगन किया। ऐसे वातावरण में योगी शिव के समीप काम पहुँचा। उन्हें देखकर काम के धनुर्बाण अनजाने ही हाथ से गिर गये। वह डरा, पर तभी सुंदरी पार्वती के रुप में उसे सहारा दिखाई दिया। वह शंकर की सेवा करने आ पहुँची थी। उसी समय शिव की समाधि समाप्त हुई। पार्वती उनकी सेवा करने आ पहुँची थी। उसी समय शिव की समाधि समाप्त हुई। पार्वती उनकी सेवा में रत थी।
यही अवसर था कि काम अपना काम बनाता। पार्वती ने मंदाकिनी के कमलों की माला शिव को पहनाई ही थी कि काम ने शिव पर सम्मोहनास्रसंधान किया। शिव ने वातावरण की कामुकता का कारण देखा कि काम बाण- प्रहार करने ही वाला है। क्रोध से शिव के तीसरे नेत्र से अग्नि का प्रवाह निकला और काम जल कर भ हो गया।
शिव ने निर्णय लिया कि स्रियों को निकट रहने देने का यही परिणाम है। वे वहाँ से अंतर्धान हो गये। पार्वती भी निराश हुई। तभी हिमालय उसे गोद में उठाकर अपने घर ले गया। दुर्दशा हुई रति की। चतुर्थ सर्ग में रति का पति के लिए विलाप है। वह सती होने ही वाली थी। तभी उसे आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि काम से शीघ्र ही तुम्हारा पुनः संगम होगा।
कुमारसंभव के पांचवें सर्ग में पार्वती के पुनः तप करने के लिए गौरी- शिखर पर जाने की चर्चा है। उसने कठोर तप करना प्रारंभ किया। एक दिन एक ब्रह्मचारी वहाँ आया। उसने पार्वती से उसकी तपस्या विषयक प्रश्न पूछने के पश्चात कहा कि तुम किस प्रयोजन से तपस्या करती हो ? क्या विवाह के लिए वर- प्राप्ति उद्देश्य है ? पार्वती ने नि:श्वास लिया तो ब्रह्मचारी ने जान लिया कि यही बात है। उसने कहा कि वह कौन व्यक्ति है, जिसे तुम पाना चाहती हो ? मेरी तपस्या से ही उसे पाओ, पर पहले बताओं कि वह कौन है ? पार्वती ने अपनी सखी से इस प्रश्न का उत्तर देने का संकेत किया। सखी ने कहा कि यह शिव को पति रुप में पाना चाहती है। फिर तो ब्रह्मचारी ने कहा -- परिहास कर रही हो, क्या कि यह सुंदरी शिव के बूढ़े बैल पर अर्धांड्गिनी बन कर बैठेगी ? कोई भी वरेण्यय वस्तु भला शिव में है ? पार्वती ने उत्तर दिया -- तुम क्या जानो शिव को ? मंद- बुद्धि महात्माओं को नहीं समझ सकते। ये सब लाग- डाँट की बातें रहीं। अंत में पार्वती ने कह दिया कि मेरा मन शिव में रमा है। तुम्हारी आलोचना से मुझे कोई प्रयोजन नहीं। फिर भी वटु कुछ कहना ही चाहता था, तो पार्वनी ने उसे रोकने से यही अच्छा समझा कि स्वयं अन्यत्र चली जाऊँ। उसने ज्यों ही जाने का प्रयास किया कि वह वटु शिव रुप में प्रकट हो गया। उसने कहा --
अद्यप्रभृत्यवनताड्गि तवास्मि दासः।
पार्वती उन्हें स्वयं दास रुप में स्वीकार करने में असमर्थ थी। उसने कहा कि मेरे पिता मेरे दाता हैं। इसके लिए शिव ने सप्तर्षियों को बुलाकर नियोजित किया कि मेरे लिए हिमालय से पार्वती की याचना करें। ॠषि वहाँ से ओषधिप्रस्थ आकर हिमालय से मिले और पार्वती की
याचना की। विवाह की तिथि तीन दिन के पश्चात् निर्णीत हुई।
सातवें सर्ग में शिव की बारात के आने और उनके साथ पार्वती के विवाह का वर्णन है। आठवें सर्ग में शिव और पार्वती के दाम्पत्योचित काम- क्रीड़ाओं का वर्णन है। वे एक मास तक ससुराल में ही रहे। इसके पश्तात् यत्र- तत्र सुंदर स्थानों पर भ्रमण करते हुए उन्होंने विहार किया। उन्होंने मेरु, मंदर, कैलास, मलय, आकाश- गंगा, नंदन वन, गंधमादन आदि स्थानों पर विहारावास किया। इस प्रकार --
समदिवसनिशीथं संगिनस्तत्र शम्भो:
शतमगमदृतूनां साग्रमेका निशेव।।
कुमारसंभव महाकाव्य की रचना संभवतः पूरी न हो सकी। इसमें तो नायक कुमार का जन्म तक न हो सका, जिसकी पूर्व सूचना कालिदास ने पाँचवें सर्ग में दी है --
गुहोsपि येषां प्रथमाप्तजन्मनां न पुत्रवात्सल्यमपाकरिष्यति।।
आठवें सर्ग के अंत तक पहुँचने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ कथा समाप्त नहीं की गई है। इसके आगे इसे चलना ही चाहिए।
परवर्ती युग के किसी महाकवि ने आठवें सर्ग के आगे की कथा तारकासुर वध तक नव सर्गों में पूरी की है। इन नव सर्गों में काव्य का स्तर पर्याप्त ऊँचा है, किंतु कालिदासीय काव्य- स्तर तक नहीं उठ सका है।
विश्लेषण
कुमारसंभव के आठ सर्गों तक की कथावस्तु महाकाव्य के योग्य हैं और इस पर संस्कृत का एक सवोत्तम महाकाव्य प्रतीत हुआ है, किंतु भारतीय साहित्यिक परंपरा के अनुसार यह कथावस्तु रुपक के लिए अधिक समीचीन है। नाटक की कथावस्तु से मेल मिलाने पर स्पष्ट
प्रतीत होता है कि कथावस्तु का रुप श्रव्य से बढ़कर दृश्य होने की योग्यता रखता है।
कालिदास की रस- निष्पत्ति विषयक सर्वोच्च संपत्ति को देखकर उन्हें रसेश्वर की उपाधि दी गई है। राजशेखर ने कालिदास के शृड्गरात्मक ललितोद्गार की प्रशंसा की है।
भारतीय काव्य में नायकादि के चरित्र का विकास नहीं दिखाया जाता -- इस आरोप का अपवाद कालिदास की चरित्र- चित्रण कला में मिलता है। उन्होंने एक तपस्वी मोक्षार्थी को काम- परायण गृहस्थ बना दिया है। पार्वती के चरित्र में भी इसी प्रकार का विकास बन पड़ा है। इसमें नायिका ही नायक को प्रतिरुप में प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है। नायक तो विरक्त सा है।
अन्य काव्यों में इसके विपरीत नायक नायिका को प्राप्त करना चाहता है। वे नायक प्रधान काव्य हैं। इस काव्य में आदि से अंत तक नायिका का वृत्तान्त कवि ने विशेष रुचि से सन्निवेशित किया है। संभवतः ऐसा नायिका- प्रधान काव्य विशेष रुप से श्रृंगारित होना ही चाहिए। कन्या- भाव से उसे मुग्धा और मध्या नायिका में परिणत कर देना यह कालिदास की कला है।
कालिदास की दृष्टि में सर्वप्रथम आकर्षण की वस्तु रुप- सौंदर्य है, जिसका सर्वातिशायी अभ्युदय नायक- नायिका के लिए यौवन में और प्रकृति के लिए वसंत ॠतु में संभव होता है।
देवताओं के आदर्श को मानव- समाज में प्रचारित करने के लिए कालिदास ने उन्हें आचार- व्यवहार में मनुष्यता के अतिशय निकट ला दिया है। कुमारसंभव में सर्वप्रथम हिमालय को पुरुष- रुप देने के लिए उसके एक कुटुम्ब की कल्पना की गई है, जिसमें स्री, पुत्र और कन्या है।
कालिदास की अन्य रचनाओं की भाँति कुमारसंभव का शब्द- चयन वैदर्भी रीति और प्रसादगुण से मण्डिल है। आचार्य दण्डी ने लिखा है कि कालिदास वैदर्भी रीति के सर्वोच्च प्रतिष्ठाता हैं --
लिप्ता मधुद्रवेणासन् यस्य निर्विषया गिरः।
तेनेदं वत्र्म वैदर्भ कालिदासेन शोधितम्।।
कालिदास की शैली व्यंजनामयी है। शाब्दी व्यंजना का एक प्रसिद्ध उदाहरण है --
तां नारद: कामचरः कदाचित्
कन्यां किल प्रक्ष्य पितु: समीपे।
समादिदेशैकवधू भवित्री
प्रेम्णा शरीरार्धहरां हरस्य।।
इस श्लोक में "शरीरार्धहरां हरस्य' का व्यंजना से तात्पर्य है कि जो शिव सब कुछ हर लेते हैं, उसका भी आधा शरीर यह पार्वती हर लेगी।
कालिदास के छंदों के प्रयोग कहीं- कहीं भावानुवर्ती प्रतीत होते हैं। कुमारसंभव में उपजाति मालिनी, वसंततिलका, अनुष्टुप्, पुष्पिताग्रा, वंशस्थ, रथोद्धता, शार्दूलविक्रीडित, हरिणी तथा वैतालीय छंदों का प्रयोग मिलता है।
कुमारसंभव महाकाव्य है। जिस युग में इसकी रचना हुई, उसमें महाकाव्य की कोई परिभाषा सम्यक् रुप से निर्णीत नहीं थी, जैसी आगे चलकर मिलती है। महाकाव्य का आख्यान युद्धप्रधान होना चाहिए। कुमारसंभव के मूल भाग में युद्ध का आख्यान नहीं है। जैसा कुमारसंभव के नाम से स्पष्ट है, इसमें कुमार का जन्म प्रधान कथानक है, युद्ध नहीं। अन्य सभी दृष्टियों से कुमारसंभव उच्च कोटि का महाकाव्य प्रतीत होता है।
|