अतरंजीखेड़ा :-
यह स्थान एटा से १६ कि.मी. की दूरी पर
उत्तर की तरफ स्थित हैं। इसके किनारे काली नदी बहती है। ह्मवेनसांग ने अपने
यात्रा- विवरण में इस नगर का नाम पोलीशन कहा है।
यह स्थान पुरातात्विक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ स्थित टीले की
लंबाई ३९६० फीट, चौड़ाई १५०० फीट तथा ऊँचाई ६५
फीट है। उत्खनन के दौरान कई महत्वपूर्ण अवशेष
मिले हैं। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रा. आर. गौड़ ने यहाँ
मिली वस्तुओं को ११०० ई. पू. तक पुरानी
बताया है। यहाँ से मिली मृण्मूर्तियाँ, प्रस्तर
मूर्तियाँ तथा सिक्कों प्रायः प्रथम शती ई. पू.
से ६ वीं शती ई. के बीच के हैं। कुषाण
सम्राट् हुविष्क की ताम्र मुद्रायें ढ़ालने के ठप्पे (
साँचे ) भी यहाँ मिले हैं। टीले पर स्थित
शिव मंदिर से प्राप्त अनेक शिवलिंग
भी बहुत पुराने हैं।
स्थानीय किवदंती है कि यह स्थान राजा
वेणु की राजधानी थी। उसने यहाँ एक
मजबूर किला बनवाया था, जो इस नगर को चारों तर फ से घेरे हुए
था।
जनखत ( जनक क्षेत्र ) :-
प्राचीन पंचाल में जनखत एक महत्वपूर्ण स्थान था। यह नगर कन्नौज
से दक्षिण- पश्चिम में २८ कि. मी. पर स्थित है। कहा जाता है कि यह स्थान मिथिला के
राजा जनक से संबंधित है। गाँव के निकट स्थित टीला इस स्थान के
भग्नावशेष हैं। यहाँ से कुछ महत्वपूर्ण
पुरावशेष भी मिले हैं।
कठघरा ( कटिंघरा ) :-
यह स्थान एटा से २७ कि. मी. पूर्व में काली नदी के किनारे स्थित है। इसके निकट ५ छोटे- छोटे टीलेनुमा खंडहर है। प्राप्त
साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि ये मंदिर थे। एक टीले
में रामायण के कई दृश्यों वाले मृतफलक
मिले हैं, जिनपर गुप्तकालीन लिपि
में लेख भी खुदे हैं।
नोहखेड़ा ( नोहवा ) :-
जलेसर तहसील में स्थित नोहवा नाम
से जाना जाने वाला यह गाँव एटा से
लगभग ३२ कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ गुप्तकालीन अवशेष पर्याप्त
मात्रा में मिले हैं। यहीं से प्राप्त एक स्रीमूर्ति जिसे "रुक्मिणी' कहा गया है,
अत्यंत कलात्मक है। कहा जाता है कि इसके निकट कुंटल ( कुंडिनपुर ) नामक स्थान था, जहाँ
से श्रीकृष्ण रुक्मिणी को लेकर गये थे।
नोहवा से ५ कि. मी. की दूरी पर नरौली नामक स्थान है। यहाँ कई
मंदिरों के भग्नावशेष मिले हैं।
अहिच्छत्रा :-
यह स्थान बरेली नगर से २५ कि. मी. दक्षिण- पश्चिम
में रामनगर के पास स्थित है। आंवला
रेलवे स्टेशन से यह १० मील उत्तर दिशा की तरफ पड़ता है। इसकी स्थिति २८#ं ५' उ.
अक्षांस तथा ७९#ं२५' पूर्वी देशांतर है।
अहिच्छत्रा प्राचीन उत्तर पंचाल की राजधानी हुआ करती थी। कई प्राचीन साहित्यिक प्रमाणों,
मुद्रा तथा अभिलेखों में इससे मिलते- जुलते तथा कुछ भिन्न नाम
भी मिलते हैं, जैसे अघिच्छत्रा, अहिच्छत्र, अहिच्छेत्र, छत्रवती,
संख्यावती, परिचक्रा, परिवक्रा आदि परिचक्रा और परिवक्रा नाम
शतपथ ब्राह्मण में मिलते हैं। अहिच्छत्रा नगरी के नामकरण के कारणों का
वैसे तो कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं
मिलता है, लेकिन इस संदर्भ में कई
मत प्रचलित है, जिनका उल्लेख इस प्रकार है :-
( १.) कहा जाता है कि इस नगरी को राजा आदि ने
बनवाया था, जिसके नाम पर इसे आदि- कोट के नाम
से जाना जाने लगा। एक दिन एक अहीर जाति का
व्यक्ति जब किले की भूमि पर सोया हुआ था, तब उसके ऊपर एक नाग ने
फण से छाया कर दी। पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य ने जब यह दृश्य देखा, तब उन्होंने भविष्यवाणी की कि यह
व्यक्ति एक दिन इस प्रदेश का राजा बनेगा।
बाद में यह भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। वह
राजा बना। राजा बनने के बाद उसने एक दुर्ग ( कोट ) का निर्माण किया। उसी का नाम आदिकोट
रखा। बाद में यही नाम बदलकर अहिच्छत्रा हो गया।
महाभारत काव्य पर विचार करने पर उपरोक्त घटना कल्पित
लगती है। महाभारत के अनुसार अहिच्छत्रा द्रोणाचार्य
से पहले ही विद्यमान थी। उनके बाल्यकाल
में ही द्रुपद के पिता पृषत अहिच्छत्रा पर
शासन कर रहे थे।
( २.) एक अन्य जनश्रुति के अनुसार अहिच्छेत्रा का प्राचीन नाम
संख्यावती था तथा यह कुरुजांगल देश की
राजधानी थी। एक बार जब जैन तीथर्ंकर पार्श्वनाथ इस नगर
में ठहरे हुए थे,
तब कमठ नामक दानव ने ऊपर लगातार
बारिश करनी शुरु कर दी। उनी रक्षा के
लिए नागराज और उनकी पत्नी ने छत्राकार होकर पार्श्वनाथ को इस घटना के
बाद से ही संख्यावती अहिच्छत्रा कहा जाने
लगा।
यह जनश्रुति भी तर्कहीन लगती है, क्योंकि पार्श्वनाथ
से पूर्ववर्ती साहित्य में भी "अहिच्छत्रा' नाम का उल्लेख आ चुका है।
( ३.) यहाँ के मंदिरों में स्थान- स्थान पर
साँप ( अहि ) के फण के आकार के छत्र बने हैं,
अतः इस स्थान का नाम अहिच्छत्रा पड़ा। इस प्रकार के छत्र जैनतीथर्ंकरों की
मूर्तियों में भी देखे जा सकते हैं।
अहिच्छत्रा का उल्लेख कई साहित्यिक ग्रंथों
में मिलता है। चीनी यात्री ह्मवेन- सांग ने
भी अपने यात्रा- विवरण में अहिच्छत्रा का उल्लेख किया है। उसने
लिखा है कि इस नगरी का फैलाव लगभग २ कांस था। यहाँ
बौद्धों के ६१० संघाराम थे। उनमें संमित्तीय
संस्था के टीनयानी संप्रदाय के एक हजार भिक्षु निवास करते थे। देव
मंदिर कुल ९ थे। इन मंदिरों में पाशुपत
संप्रदाय के तीन सौ साधु रहते थे। इनमें ईश्वर के
लिए बलि प्रदान करने की प्रथा थी। ह्मवेनसांग के
अनुसार, नगर के बाहर एक नाग झील
भी थी। उसके किनारे मौर्य- सम्राट् अशोक द्वारा
बनवाया हुआ एक स्तूप भी था। कहा जाता है कि इस स्थान पर महात्मा
बुद्ध ने नागराज को सात दिन तक धर्म का उपदेश दिया था।
बड़े स्तूप के अवशेष यहाँ पुरातात्विक
से मिले हैं।
पद्म- पुराण के ( पातालखण्ड ) में राम के अश्वमेघ का
वर्णन है। उसमें इस नगरी की चर्चा भी आयी है। इसका भाषानुवाद जो
रामाश्वमेघ के नाम से प्रकाशित किया गया, उसमें अहिच्छत्रा नगरी का
वर्णन इस प्रकार है :-
अहिच्छत्राक पुरी अति पावन, जन
संकुल सुठि सुखद सुहावन।
चारि वर्ण निजधर्म विराजै, ललना
लखि रति रम्भा लाजै।।
मणिभय रुचिर प्रसाद सुहाए, ॠद्धिसिद्धि नव निधि छवि छाये।
करत भांग सब लोक सुखारी, यज्ञ धर्म
व्रत सुख अधिकारी।।
वीर धीर सामंत सुजाना, धनुर्वेद ज्ञाता
बलवाना।
नीति रीति मति विद्यावंता, विप्र वेदमय गुणिगण
सेता।।
तहाँ मूपवर सुमदमिधाना, कराहि
राज बलकोश निधाना।
तेहि पुर निकट रुचिर उद्याना, देवालय विरचि
मणि नाना।
शोभा तासु वरणि नहीं जाई, तरु अनेक
सुरतरु सम छाई।
कुसुमित फलित विविध तरु बेली,
ललित लोल जपु काम सहेली।
ॠतु बसंत सोहत सब काला, जनुजन जुवगण करत निहाला।
राजहंस कोकिल खग पुंजहि, खहि मधुर
मधुकर गण गुंजहि।
मणि सोपान सोह नव सरसी, विकय चित्र पंकज
मधु वरसी।
मणिमय बैठक कंचन भीनी, सोहत मनहुँ काम जग जीती।
यह विधि नगरवाटिका सोहै, देखत
सुर नर के मन मोहै।
निरखि द्वार ते पुर के शोभा, राम
भ्रात सेनप मनलोभा।
देखत सुखद वाटिका आई, वाजिराज प्रविशे तहं धाई।।
अहिच्छत्रा के
शासक :-
महाभारत के युद्ध से पहले अहिच्छत्रा पर पृषत के पुत्र द्रुपद का
राज्य था। द्रुपद और द्रोण सहपाठी थे।
बचपन में द्रुपद के किसी वचन की पूर्ति न कर पाने के कारण द्रोण को अपमानित होना पड़ा था। द्रोण ने गुरुदक्षिणा के
रुप में कौरव- पांडवों को द्रुपद को पकड़कर
लाने को कहा। शिष्यों ने द्रुपद को द्रोण के
सामने उपस्थित कर दिया। द्रोण ने दया
भाव से द्रुपद आधा राज्य छोड़ दिया और शेष आधे को अपने
अधीन कर दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य का अहिच्छत्रा पर अधिकार हो गया। महाभारत
युद्ध के बाद सारा राज्य पाण्डव पुत्रों के
अधीन आ गये। कहा जाता है, उस समय
से मौर्य काल तक यहाँ २७ राजाओं ने
शासन किया। उसके बाद यह क्षेत्र मौर्य
शासकों के अधीन हो गया। इस समय इस नगरी की
विशेष प्रसिद्धि हुई। मौर्य काल के
बाद यह क्षेत्र एक राज्य के रुप में स्वतंत्र तथा स्थानीय
शासकों के अधीन हो गया। इस स्थान
से मिलने वाले मोहरों और मुद्राओं
से यहाँ के शासकों के नाम की जानकारी
मिलती है। उनके नाम इस प्रकार है -- दामभूति, वृषभमित्र,
वंगपाल, यज्ञसेन, पुष्यसेन, वसुसेन,
युगसेन, भद्रघोष, रुद्रघोष, अणुमित्र, अग्निमित्र, विजयमित्र, इंद्रमित्र, विष्णुमित्र, प्रजापतिमित्र,
वसुमित्र, शिवमित्र, जयमित्र, भद्रमित्र, ध्रुवमित्र, जयगुप्त,
रुद्रगुप्त, श्रीनंदि, शिवनंदि, अच्युत, महेश्वर,
यज्ञमित्र, रेवतीमित्र, सूर्यमित्र, भूमिमित्र,
भानुमित्र, फल्गुनीमित्र, पृथिवीमित्र, विश्वपाल,
वरुणमित्र, नन्दिगुप्त
उत्खनन :-
अहिच्छत्रा के उत्खनन में ३०० ई. पू. से लेकर ११०० ई. तक की नौ तहें पायी गई है। यहाँ
सबसे पहले उत्खनन कार्य सन् १८३३ ई.
में हेडग्रान ने करवाया। उस समय एक स्तूप के चारों ओर खुदाई हुई थी।
सर कनिघम का मानना है कि वह वही अशोक निर्मित स्तूप है, जिसका उल्लेख ह्मवेनसांग ने अपने
यात्रा- विवरण में किया है। मुख्य दुर्ग
से बाहर स्थित इस स्तूप को स्थानीय
लोग इसे "पिनसारी का चक्कर' के नाम
से जानते हैं।
उत्खनन को दूसरी बार शुरुआत सन् १८६३-६३ ई.
में स्वयं सर कनिघम ने करवाया था। इस
बार दुर्ग के भीतरी भाग में स्थित तीन टीलों की खुदाई हुई। यहाँ प्राप्त
सबसे ऊँचा मंदिर दुर्ग के बाहर की
समतल भूमि से १६५ फीट की ऊँचाई पर था। इस
मंदिर के ऊपर एक विशाल शिवलिंग
रखा हुआ है। पत्थर निर्मित इस शिवलिंग को स्थानीय
लोग भीमगदा के नाम से जानते हैं। इसके अलावा
अन्य दो मंदिर क्रमशः ३५ फीट तथा ३० फीट ऊँचे हैं।
मुख्य दुर्ग के पश्चिमी द्वार से बाहर की तरफ
लगभग १००० फीट की दूरी पर भी उत्खनन कार्य हुए। दुर्ग के
उत्तर- पूर्व दिशा में स्थित दो टीलों की खुदाई
में बहुत- सी शिव प्रतिमाएँ मिली है। हो
सकता है, यहाँ भी शिव मंदिर हो। कनिंघम का
मत है कि इन मंदिर तथा मूर्तियों को
मुस्लिम आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया था।
नसरतगंज गाँव के पश्चिम में स्थित कटारीखेड़ा नामक टीले की खुदाई
में यहाँ बौद्ध मंदिर तथा बुद्ध प्रतिमा
मिली है। इसके समीप स्थिति एक अनय टीलों की खुदाई
में पार्श्वनाथ के मंदिर का प्रमाण मिलता है। इसके अलावा कई जैन नग्नमूर्तियाँ
भी मिली है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने यहाँ
सबसे पहली बार सन् १९४०- ४४ में उत्खनन का कार्य किया और फिर पुनः १९६४- ६५ ई.
में भी। इन खुदाईयों में सोने, चाँदी
वाताम्बे की मुद्राएँ, प्रस्तर व मिट्टी की
मूर्तियाँ आदि कई चीजें प्राप्त हुई। यहाँ
से प्राप्त मिट्टी के कुछ बर्तनों पर
स्वास्तिक, नन्दिपद, शंख, मत्स्य आदि का कलापूर्ण अलंकरण किया गया। दुर्ग के पूर्वी
भाग की चहारदीवारी को दोनों ओर
से खोदने पर १६ फीट ८ इंच मोटी दीवार
मिली। पुनः मकान, सड़क व मंदिर भी
मिले।
इन खुदाईयों में मिलने वाले साक्ष्यों के
विश्लेषण से पता चलता है कि यह नगर
मौर्यकाल से लेकर पूर्व मध्य युग तक
ललित कला का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ
मिले शिव मंदिर, स्तूप, पार्श्वनाथ
मंदिर व प्रतिमाएँ यह इंगित करती है कि यह स्थान धार्मिक
रुप से भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। मिट्टी निर्मित कुछ
मूर्तियाँ तो मौर्यकाल या उनसे भी पहले की है।
मुद्राए ँ :-
अहिच्छत्रा की खुदाई से प्राप्त मुद्राओं में पांचाल
राजाओं का नाम देखा जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ
से और भी कई मुद्राएँ मिली हैं :-
१. कार्षापण, सुमेरु, पर्वत तथा हाथी के चित्रांकन
वाली ताम्र मुद्राएँ
२. अमाघमूर्ति कुणिंद, कनिष्क, हुविष्क,
वासुदेव आदि की कुषाण कालीन मुद्राएँ,
३. गुप्त राजाओं जैसे समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमार गुप्त, हरि गुप्त आदि की
सोने, चाँदी व ताँबे की मुद्राएँ
४. आदिवराह मिहिरभोज और विग्रहपाल की चाँदी की
मुद्राएँ
५. इंडोशसेनियन और इंडोग्रीक ताम्र
मुद्राएँ
६. थौधेयों की बहुधान्यक और जय प्रकार की
मुद्राएँ
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