उज्झान :-
वाल्मीकि रामायण ( ६/ ६५/ ८ ) में उज्जिहाना नगर का उल्लेख
मिलता है। मंजुला जायसवाल इसे
बदायूँ जिला स्थित ऊझानी ग्राम मानती है। पॉल के
अनुसार यह स्थान वास्तव में किंरव नदी के किनारे, कानपुर जिला
में स्थित उज्झान है, जहाँ से पुरावशेष भी प्राप्त हुए हैं।
भीतरगाँव :-
स्थानीय लोगों का मानना है कि इस स्थान का पुराना नाम
फूलपुर था। यह स्थान ईंटों से निर्मित गुप्तकालीन
मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर
वास्तुकला विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान
रखता है। इस स्थान से विभिन्न प्रकार की
मृण्मूर्तियाँ भी मिली है।
पिपरगाँव :-
पिपरगाँव कम्पिल से १६- १७ मील की दूरी पर तथा अलीगंज
से ३- ४ मील की दूरी पर पूरब की ओर स्थित है। इसका पुराना नाम पिप्पलग्राम था। यहाँ
से पुरानी ईंटें प्राप्त हुई हैं। हरिषेण कृत वृहत्कथा कोश
में इस बात का उल्लेख है कि कपिल नरेश
रत्न प्रर्भ ने यहाँ एक सरोवर का निर्माण करवाया था।
सेठ जिनदत्त ने यही एक जैन मंदिर बनवाया था।
रहटोइया :-
अहिच्छत्रा से करीब १० कि.मी. दक्षिण- पूर्व दिशा
में आंवला स्टेशन के निकट ही रहटोइया नामक एक गाँव है। गाँव के
समीप ही एक मौर्यकालीन खंडहर है। इस स्थान पर एक
बौद्ध विहार भी था। उससे संबद्ध एक मिट्टी की मोहर
मिली है।
रहटोइया से हमें कई प्रकार की
मुद्राएँ मिली हैं, जैसे --
-- दामभूति तथा वृषभमित्र पंचाल की
मुद्रा
-- पंचमार्क मुद्राएँ
-- सुमेरु पर्वत तथा हस्ति चिन्ह वाले ताम्बे की
मुद्राएँ
-- गुप्त शासकों की स्वर्ण मुद्राएँ
इसके अलावा हमें मिट्टी के बाट सदृश कई छोटे-
बड़े उपकरण व मालाओं के विभिन्न प्रकार के
मणके भी मिले हैं।
जाजमऊ :-
जाजमऊ कानपुर से ५ कि.मी. पूर्व गंगा के दाहिने तरफ अवस्थित है। कहा जाता है कि इसका पुराना नाम सिद्धपुरी
या सिद्धिपुर था। कहीं- कहीं इसका नाम
ययातिपुर भी मिलता है। यहाँ के टीलों के
उत्खनन से महत्वपूर्ण अवशेष मिले हैं। यहाँ
से प्राप्त मृण्मूर्तियाँ गुप्तकालीन मथुरा कला का प्रतिनिधित्व करती हुई प्रतीत होती है।
गुमथल :-
यह स्थान चंदौसी रेलवे स्टेशन से
मुरादाबाद की तर फ जाने पर पहला
रेलवे स्टेशन है। यहाँ एक प्राचीन खंडहर है। इस स्थान
से हमें मौर्य, शुंग, कुषाण और गुप्तकाल की
मृण्मूर्तियाँ तथा पंचालों की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। ज्यादातर
वस्तुएँ चंदौसी के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
कुदरकोट ( गोविधुमट )
:-
गोविधुमट को इटावा जिले के विधूना तहसील के कुदरकोट ग्राम को गोविधुमट के
रुप में पहचाना गया है। इस स्थान का उल्लेख पतंजलि के महाकाव्य
में मिलता है। उसमें इसे संकिसा से चार
योजन की दूरी पर बतलाया गया है।
कुदरकोट के बारे में जनश्रुति है कि एक
रानी ने इस स्थान पर, जो उस समय
वन था, में अपना एक कुण्डल खो दिया। बहुत प्रयत्नों के
बाद उसे यह कुण्डल मिल गया। उसने इसे स्थानीय देवता की कृपा
मानकर एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जो कुण्डल कोट के नाम
से प्रसिद्ध हुआ। कुदरकोट इसी शब्द का अपभ्रंश है।
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