प्रेमचन्द : जीवन परिचय


प्रेमचन्द का लेखन और विभिन्न विषय

प्रेमचन्द ने अपने कथा - साहित्य में ऐसे अनेक विषयों को प्रस्तुत किया है जिनका सम्बन्ध आम जनता से दिखता है। आपके लेखन में प्रगतिशील चिन्तन व्यापक रुप से पाया जाता है। कुछ विषयों का संक्षिप्त विवरण :

सामाजिकता

प्रेमचन्द ने अपने कथा - साहित्य में सामाजिकता पर विशेष जोर दिया। आपने अपनी कृतियों के द्वारा समाज के दबे कुचले लोगों की समस्याओं पर प्रकाश डाला। इस क्षेत्र में आप प्रगतिशील लेखकों के उस्ताद माने जाते हैं। वह जिन्दगी भर ऐसे बहुत से राह-भटकों को रास्ता दिखाते रहे। आपके ख्याल में समाज में आर्थिक समानता होनी चाहिए। सदा दापने पूंजीवादी व्यवस्था की घोर निन्दा करते रहे। उनका मानना यह भी था कि प्रत्येक को श्रम करना चाहिए। आपने अपनी कृतियों द्वारा वर्ण - व्यवस्था की कड़ी निन्दा की है। उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी त्याग, तप और संयम के साथ बितायी। उन्होंने सामाजिक दायित्वों को सफलतापूर्वक निभाया।

 

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प्रेमचन्द और मानवतावाद

प्रेमचन्द एक महान दार्शनिक भी थे। उन्होंने अपने समय के सभी धर्मों को अपनी निगाह से परखा था और अन्ततः वे इस फैसले पर पहुंचे थे कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ लोग कर रहे हैं वह सब केवल अंधविश्वास है। वह लिखते हैं - "जिस समाज पर एक करोड़ कौतल मूसलचंदों के भरण पोषण का भार हो वह न कंगाल रहे तो दूसरा कौर रहे .......... उसने असली धर्म को छोड़कर, जिसका मूलतत्व समाज की उपयोगिता है, धर्म के ढोंग को धर्म मान लिया है। जबतक वह धर्म का असली रुप ग्रहण न करेगा उसके उद्धार की आशा नहीं" नाममात्र के धर्म को मानने वालों के व्यवहार से तंग आकर उन्होंने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की परम्परा में मानवधर्म की स्थापना की। 

उनका मानना था कि वही धर्म सर्वमान्य है जिसमें मानवता की बात कही गयी हो। मैं उसी धर्म का दास हूं जिसमें मानवता को प्रधानता दी गयी है। वह ऐसे देवता, नबी या पैगम्बर को दूर से ही सलाम करते हैं जो मानवता के विरुद्ध कुछ कहता है। कभी इस्लाम का कायल होने वाले प्रेमचन्द बाद में इस बात रुठ गये कि इस्लाम में भी मानवता सिर्फ इस्लाम तक ही सीमित है। उनका मानना था कि इस्लाम भी अन्य धर्मों की तरह गुटबंद है। उन्होंने सभी धर्मों की कमजोरी को देखकर समझकर एक ऐसे धर्म को अपना आदर्श बनाया था जो लोक सेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान, नेकनियति, शरीर और मन की पवित्रता आदि गुणों पर टिका हो।

 

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बाल - विवाह

प्रेमचन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त इस कुप्रथा को सामाजिक विष कहा है। इसकी निन्दा के लिए कई कहानियों की रचना की। सुभागी, लांछन (मानसरोबर-१) उन्माद (मानसरोवर - २) तथा नैराश्य लीला (मानसरोवर - ३) आदि कहानियों में बाल - विवाह के दुष्परिणामों पर उन्होंने छींटें कसे हैं। इन कहानियों में उन्होंने ऐसे कई चरित्र प्रस्तुत किये हैं जैसे सुभागी ग्यारह साल की उम्र में ही विधवा हो जाती है और नैराश्य लीला की कैलासकुमारी अभी गौना भी नहीं होता है कि वह विधवा हो जाती है। इसके बारे में उन्होंने एक जगह लिखा है कि "पाँच साल के दुल्हे तुम्हें भारत के सिवा और कहीं देखने को नहीं मिलेंगे।"

 

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विधवा - विवाह

प्रेमचन्द के ख्याल से विधवा विवाह समाज के लिए एक अच्छा कारनामा था। इससे सामाजिक बुराईयों को मिटाया जा सकता था। वह कहते थे कि विधवा विवाह समाज के लिए आदर्श है। उनके शब्दों में मैंने एक बोया हुआ खेत लिया तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूँगा कि उसे किसी दूसरे ने बोया था। वह मानते थे कि वह व्यक्ति जो विधवा से विवाह 
करता है और पति के दायित्वों को जिम्मेदारी समझकर निभाता है वो समाज के लिए आदर्श है।

 

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नारी : राजनीतिक चेतना

प्रेमचन्द ने बहुत कहानियां ऐसी लिखी जिनका सम्बन्ध राजनीतिक चेतना से है। इनमें कुछ निम्नलिखित हैं : 

माँ, अनुभव, तावान, कुत्सा, डामुल का कैदी (मानसरोवर - २), माता का हृदय, धिक्कार, लैला (मानसरोवर - ३), सती, (मानसरोवर - ५), राजा हरदोल, रानी सारंधा, जुगनू की चमक (मानसरोवर - ६), जेल, पत्नी से पति शराब की दुकान, समरयात्रा, सुहाग की साड़ी(मानसरोवर - ७), आहुति तथा होली का उपहार (कफन), सती राजा हादौल, रानी सारंधा, विक्रमादित्य का तेगा लेला आदि कहानियों के माध्यम से इतिहास की छाया में भारत इतिहास प्रसिद्ध नारियों के चरित्र उभारकर प्रेमचन्द ने नारी - जाति में राष्ट्रीय चेतना उभारने का विशेष प्रयास किया है। 

'सती' कहानी एक ऐसी कहानी है जिसे नारी जाति में राष्ट्रीय चेतना जगाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी माना गया है। गाँधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में नारियों के सहयोग और जवान युवक - युवतियों के मन तरंगित हो रही राजनीतिक चेतना के अनुभव को प्रेमचन्द ने अपनी कहानी में प्रस्तुत किया है।

 

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नारी शिक्षा

नारी शिक्षा की दिशा में प्रेमचन्द की अवधारणा यह थी कि स्रियों को शिक्षित किया जाय और उनको वह सभी अधिकार दिये जायें जो पुरुषों को प्राप्त हैं। अधिकार दिये जाने के साथ - साथ उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें ऐसी कोई पाश्चात्य पद्धति में न जाने दिया जाए जिससे वह विलास बन जाए और अपने कर्तव्य से विमुख हो जाए। उन्होंने विलासिता को बुरा नहीं कहा बल्कि राजनीतिक दृष्टि से पराधीन तथा आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हुए भारत के युवकों और युवतियों का अपने देश और समाज की स्थिति को भूलकर अंग्रेजी पद्धति की नकल करना प्रेमचन्द को क्षुब्ध करता था।

 

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पुरुष - नारी समानता

आपकी कहानी 'शान्ति', 'झांकी', 'शिकार (मानसरोवर न० १), कुसुम, 'जीवन का शाप', 'गृह - नीति' (मानसरोवर न० २), लाछन (मानसरोवर - ५), तथा रहस्य कहानियाँ ऐसी हैं जहाँ वे पुरुष की भांति नारी की भी स्वतंत्रता चाहते हैं। उनका मानना था कि अगर पुरुष नारी का गुलाम नहीं है तो वह भी पुरुष की लौंडी नहीं है। और अगर पुरुष उसका गुलाम है तो नारी भी उसकी लौंडी है। दोनों बराबर है।

 

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छुआछूत और प्रेमचन्द

छुआछूत के बारे में गाँधी जी ने कहा था, "अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अंग नहीं है, बल्कि उसमें घुसी हुई सड़न है, बहम है, पाप है, और उसको दूर करना एक - एक हिन्दू का धर्म है, उसका परम कर्तव्य है।

गाँधी जी सभी वर्गों के समर्थन के चक्कर में छुआछूत की लड़ाई से भटक गए। लेकिन प्रेमचन्द ने गाँधीजी से प्रेरणा लेकर इस लड़ाई में कूदे थे अतः अंततः निन्दा करते रहे। गाँधीजी के खिलाफ जन्मों से नहीं बल्कि कर्मों के आधार पर जाति को माना। प्रेमचन्द इस मामले में गाँधी जी से आगे थे।

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धार्मिक सहिष्णुता एवं गाँधीजी

प्रेमचन्द कहते हैं - "मैं एक इन्सान हूँ और जो इन्सानियत रखता हो, इन्सान का काम करता है, मैं वही हूँ और ऐसे ही लोगों को चाहता हूँ। प्रेमचन्द साम्प्रदायिकता को ऐसा पाप मानते हैं जिसका कोई प्रायश्चित नहीं। अतः व्यक्तिगत रुप से वे इस कम्यूनल प्रोपगंडा का गोरों का गोरों से मुकाबला करने के लिए तैयार थे। इस सम्बन्ध में प्रेमचन्द की दृष्टि पूर्ण वैज्ञानिक रही है। वे कहते हैं कि मैं उस धर्म को कभी स्वीकार नहीं करना चाहता जो मुझे यह सिखाता हो कि इन्सानियत, हमदर्दी और भाईचारा सब-कुछ अपने ही धर्म वालों के लिए है और उस दायरे के बाहर जितने लोग हैं सभी गैर हैं, और उन्हें जिन्दा रहने का कोई हक नहीं, तो मै उस धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज्यादा पसंद कर्रूंगा। 

प्रेमचन्द का मानना था कि साम्प्रदायिक झगड़ा ज्यादातर मामलों में राजनीतिक हित साधने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ करती हैं। वह छोटे - छोटे झगड़ों को बड़ा रुप देकर बड़ा बना देंगे और अपना उल्लू सीधा करते हैं।

 

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साम्प्रदायिकता और प्रेमचन्द

प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए अपनी अनेक कहानियों में साम्प्रदायिक झगड़े की बुराई और परिणामों का उल्लेख किया। मुक्तिधन, क्षमा, (मानसरोवर-३) स्मृतिका, पुजारी (मानसरोवर-४) मंत्र हिंसा परमो धर्म (मानसरोवर-५) जिहाद (मानसरोवर-७) ब्रह्म का स्वांग तथा खून सफेद (मानसरोवर-८) ये ऐसी कहानियां हैं जिसके माध्यम से प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिक वैषम्य के स्वर को दूरदराज तक पहुंचाने की कोशिश की है। 

'मंत्र' कहानी में उन्होंने एक ऐतिहासिक घटना को माध्यम बनाया कि जब १९२०-२२ ई० में हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई तो चारों तरफ लोग खुश हो गए। लेकिन यह खुशी ज्यादा दिनों तक न रह सकी क्योंकि इसको भंग करने की साजिश ब्रिटिश शासकों के द्वारा होने लगी वह भंग भी कर दिया गया। 'मुक्तिधन' रहमान के द्वारा गाय के प्रति प्रेम दिखाकर हिन्दू-मुस्लिम सोहार्द बनाए रखने का प्रयास किया गया है।

हिंसा परोधर्मः के माध्यम से धर्म के नाम पर सारे देश में फैली ऐसी अराजकता को प्रस्तुत किया है जिसके सुनने या पढ़ने से दिल तार-तार होने लगता है। वे कहते हैं कि सत्य, अहिंसा, प्रेम तथा न्याय धर्म से गायब होने लगे थे। हर तरफ असत्य, हिंसा और द्वेष ही छा गया था। इन सब का कारण वह ब्राह्मणों और मौलवियों को मानते थे। उनके ख्याल से ऐसे लोगों ने अपने स्वार्थ को साधने के लिए धर्म का प्रयोग शुरु कर दिया है। 

वह मानते थे कि सभी धर्म को तिलांजली देकर मानव-धर्म को अपनाया जाए। जिसमें प्रेम, अहिंसा और एक दूसरे के दुख-दर्द को समझने और बांटने का पूरा अवसर हो। उनका कहना था कि उस मजहब या धर्म के सामने माथा झुकाने से क्या लाभ मिलेगा जिस धर्म में निष्क्रियता ने घर कर लिया हो जो धर्म केवल अपने को ही जीना सिखाता हो।

इस महान साहित्यकार ने सदा मानव धर्म को ही शीर्षस्थ स्थान प्रदान किया। उनके अनुसार इस धर्म के अंतर्गत मनुष्य का मनुष्य रहना अनिवार्य है। परोपकार के लिए कुछ त्याग भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। प्रेमचन्द के जीवनदर्शन का मूलतत्व मानवतावाद है। वह मानवतावाद को सबसे पहले मानते थे। वही मानवता वाद जो मनुष्य की तरफदारी करने वाला हो।

 

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Content prepared by M. Rehman

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