प्रेमचन्द : जीवन परिचय


प्रेमचन्द द्वारा रुढ़ीवाद का विरोध

जिस समय प्रेमचन्द का जन्म हुआ वह युग सामाजिक - धार्मिक रुढ़ीवाद से भरा हुआ था। इस रुढ़ीवाद से स्वयं प्रेमचन्द भी प्रभावित हुए। जब आपने कथा-साहित्य का सफर शुरु किया अनेकों प्रकार के रुढ़ीवाद से ग्रस्त समाज को यथा शक्ति कला के शस्र से मुक्त कराने का संकल्प लिया। अपनी कहानी के बालक के माध्यम से यह घोषणा करते हुए कहा कि "मैं निरर्थक रुढियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ।"

 

समाज में व्यप्त रुढियाँ

सामाजिक रुढियों के संदर्भ में प्रेमचन्द ने वैवाहिक रुढियों जैसे अनमेल विवाह, बहुविवाह, अभिभावकों द्वारा आयोजित विवाह, पुनर्विवाह, दहेज प्रथा, विधवा विवाह, पर्दाप्रथा, बाल विवाह, वृद्धविवाह, पतिव्रत धर्म तथावारंगना वृद्धि के संबंध में बड़ी संवेदना और सचेतना के साथ लिखा है।

तत्कालीन समाज में यह बात घर कर गई थी कि तीन पुत्रों के बाद जन्म लेने वाली पुत्री अपशकुन होती है। उन्होंने इस रुढि का अपनी कहानी 'तेंतर' के माध्यम से कड़ा विरोध किया है। होली के अवसर पर पाये जाने वाली रुढि की निन्दा करते हुए वह कहते हैं कि अगर पीने - पिलाने के बावजूद होली एक पवित्र त्योहार है तो चोरी और रिश्वतखोरी को भी पवित्र मानना चाहिए। उनके अनुसार त्योहारों का मतलब है अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही है। आर्थिक जटिलताओं के बावजूद आतिथ्य - सत्कार को मयार्दा एवं प्रतिष्ठा का प्रश्न मान लेने जैसे रुढि की भी उन्होंने निन्दा की है।

 

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धार्मिक रुढियाँ

प्रेमचन्द महान साहित्यकार के साथ - साथ एक महान दार्शनिक भी थे प्रेमचन्द की दार्शनिक निगाहों ने धर्म की आड़ में लोगों का शोषण करने वालों को अच्छी तरह भाँप लिया था। वह उनके वाह्य विधि - विधानों एवं आंतरिक अशुद्धियों को पहचान चुके थे। इन सब को परख कर प्रेमचन्द से प्रण ले लिया था कि वह धार्मिक रुढिवादिता को खत्म करने का प्रयास करेंगे। 

वह मानते थे कि धार्मिक रुढियों का कारण ब्राह्मण और मंदिर हैं। उन्होंने यहीं से अपना अभियान शुरु किया। इसके लिए कई कहानियाँ लिखी गई। जैसे - रामलीला, निमंत्रण, हिंसा परमो धर्मः (मानसरोवर-५) मनुष्य का परम धर्म - गुरुमंत्र, बाबाजी का भोग तथा पंडित मोटेराम की डायरी। पंडित मोटेराम की डायरी का एक अंश प्रस्तुत है: -

"क्या नाम है कि मैं पंडित मोटेराम ........ बात करने में मैं पक्का फिकेत हूँ। बस यही समझलो कि कोई निमन्त्रण भर दे दे, फिर मैं अपनी बातों से ऐसा ज्ञान घोलता हूँ, वेद - शास्रों की ऐसी व्याख्या करता हूँ कि क्या मजाल कोई यजमान उल्लू न हो जाय। योगासन, हस्तरेखा, सन्तान शास्र, वशीकरण आदि सभी विधाएं जिन पर सेठ महाजनों का पक्का विश्वास है, मेरी जिह्मवा पर है। अगर पूछो कि क्यों पंडित मोटेराम शास्री, आपने इन विधाओं को पढ़ा भी है? मैं डंके की चोट के साथ कहता हूँ कि मैंने कभी नहीं पढ़ा। इन विधाओं का क्या रोना हमने कभी विद्या नहीं पढ़ी है। पूरे लंठ हैं, निरक्षर महान, लेकिन फिर भी किसी बड़े से बड़े पुस्तक - चाटू, शास्रघोटूँ पंडित का सामना करा दो, चपेट न दूँ तो मेरा नाम मोटेराम नहीं। ऐसा रऐटूं कि पंडित जी को भागने का भी रास्ता न मिले। 

पाठक कहेंगे यह असंभव है कि एक पूर्ख आदमी महान पंडित कैसे खोदेगा। मैं कहता हूँ प्रियवर, पुस्तक चाटने से कोई विद्वान नहीं हो जाता है। जो विद्वान आज इस युग में श्राद्ध, पिण्डदान और वर्णाश्रम में विश्वास रखता है, जो आज गोबर और गोमूत्र को पवित्र समझता है, जो देवपूजा को मुक्ति का साधन समझता है, वह विद्वान कैसे हो सकता है। मैं खुद यजमानों से यह सब कृत्य करवाता हूँ। नि:संदेह जानता हूँ, हलवा और कलाकन्द किसी आत्मा के पेट में नहीं, मेरे पेट में जाता है फिर भी यजमानों को मुड़ता हूँ। क्योंकि यह मेरी जीविका है। यजमान स्वयं बेवकूफ बनते हैं पाँच पैसे का गऊदान करके भवसागर पार उतरना चाहता है। उसे मैं कैसे मना करुँ कि यह उनके लिए मि है।"

प्रस्तुत आत्मकथा से ब्राह्मणों के गादड़ चिट्ठा खुलकर सामने आ गए हों और इससे धार्मिक रुढियों को भी आघात पहुंचाया है। तत्कालीन समाज में व्याप्त रुढि मृतक भोज पर प्रेमचन्द कह गये हैं कि यह कैसी परम्परा है कि मरने के बाद परिवार के बचे हुए लोग मृतक भोज करवायें। जबकि जाने वाला अपने पीछे फूटी कौड़ी भी नहीं छोड़ कर गया है। परिवार में इतना पैसा नहीं है कि वह अपने बच्चों को पालन-पोषण के साथ-साथ पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा कर सके। 

बिरादरी के सरगने विधवा पत्नी के पास बचे आभूषण और मकान के बलबूते पर ही सही मगर वह मृतक के परिवार से हर हाल में मृतक भोज चाहते हैं क्योंकि यह उनके नाक के कट जाने जैसा है। सरगने की बात मानकर या दबाव में आकर बेचारा परिवार मृतक भोज देने के लिए तैयार हो जाता है और सालों तक कर्ज में डूबा रहता है। यह धार्मिक रुढ़ी धर्म की आड़ में ही हुआ करती है।

प्रेमचन्द जैसा महान साहित्यकार एवं दार्शनिक यह मानता है कि नेकी और बदी की सबसे बड़ी पहचान व्यक्ति का अपना दिल है। दिल जिस काम को बुरा कहता हो वह काम हर हाल में बुरा है और जिस काम को अच्छा कह दे वह काम हर हाल में अच्छा है। 

प्रेमचन्द स्वर्ग - नरक के बारे में कहते हैं कि स्वर्ग - नरक की चिंता में वह लोग रहते हैं जो अपाहिज, कर्त्तव्यहीन एवं निर्जीव होते हैं। मनुष्य का स्वर्ग - नरक सब इसी पृथ्वी पर है। उनके अनुसार पुनर्जन्म गोरखधंधा तथा धोखे में डालने वाला है।

 

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Content prepared by M. Rehman

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