रुहेलखण्ड

Rohilkhand


संक्षिप्त इतिहास

रुहेलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास

वर्तमान रुहेलखण्ड का इतिहास लगभग
4000 वर्ष प्राचीन है। प्राचीन काल में यह पंचाल राज्य के उत्तरी पंचाल के रुप में , बौद्ध काल में 16 महाजनपदों में पंचाल जनपद , मध्य काल में कठेर अथवा कठेहर तथा ब्रिटिश काल में रुहेलखण्ड के नाम से जाना जाता था ।

रुहेलखण्ड के इतिहास का संक्षिप्त विवरण क्रमबद्ध रुप से इस निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है --

प्राचीन काल में रुहेलखण्ड -- प्राचीन काल में यह क्षेत्र पंचाल राज्य तथा विभाजित पंचाल के उत्तरी पंचाल में नाम से जाना जाता था। पूर्व दिशा में गोमती, पश्चिम में यमुना , दक्षिण में चंबल तथा उत्तर में हिमालय की तलहटी से घिरे पंचाल का भारतीय संस्कृति के विकास एवं संवर्धन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

प्राचीन काल में कुमायूँ के मैदानी क्षेत्र से लेकर चम्बल नदी तथा गोमती नदी तक विस्तृत यह क्षेत्र प्राचीन काल से छठी शताब्दी ई० पू० तक पंचाल राज्य के अन्तर्गत रहा। इसके पंचाल नामकरण के बारे में अनेक मान्यतायें हैं जैसे भरतवंशी राजा भ्रम्यश्व के पाँच पुत्रों में बंटने के कारण अथवा कृवि , तुर्वश , केशिन , सृंजय एवं सोमक पाँच वंशों द्वारा यहाँ राज्य करने के कारण प्राचीन काल में इसका नाम पंचाल पड़ा इत्यादि।

प्राचीन काल में जब आर्य शक्ति का केन्द्र ब्रह्मावर्त था तब पंचाल एक समुन्नत राज्य था। राजा भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा , इन्ही सम्राट भरत का राज्य सरस्वती नदी से लेकर अयोध्या तक फैला हुआ था तब गंगा - यमुना के दोआब में स्थित पंचाल उनके राज्य का सम्पन्न भाग था। सम्राट भरत के ही काल में राजा हस्ति हुए जिन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई । राजा हस्ति के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा था तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था। राजा सुदास का संवरण से युद्ध हुआ जिसे कुछ विद्वान ॠग्वेद में वर्णित ' दाशराज्ञ युद्ध ' से समीकृत करते हैं। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का बहुत विस्तार हुआ ।

राजा सुदास के पश्चात संवरण के पुत्र कुरु ने अपनी शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रुप से 'कुरु - पंचाल ' कहलाया। परन्तु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतन्त्र हो गया।

महाभारत काल -- महाभारत में वर्णित विवरणों के अनुसार शांतनु के समय पंचाल का राजा द्वीभठ था जिसके पौत्र राजा द्रुपद ने पंचाल राज्य पर राज्य किया तथा अहिच्छत्रा को अपना राजधानी बनाया, किन्तु द्रोणाचार्य से शत्रुता हो जाने पर द्रोण ने राजा द्रुपद को पराजित कर उत्तरी पंचाल को अपने अधीन कर लिया तथा दक्षिण पंचाल द्रुपद को दे दिया । द्रुपद की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर काम्पिल्य में हुआ जो दक्षिण पंचाल की राजधानी थी। महाभारत युद्ध में उत्तरी पंचाल ने पाण्डवों का साथ दिया तथा युद्ध के उपरांत भीम ने अपना विजय यात्रा पंचाल प्रदेश से ही प्रारम्भ की तथा कौशल , अयोध्या , काशी अंग , चेदि और मत्स्य राज्यों को अपने अधीन किया था ( महाभारत सभा पर्व ,अ०-
14 )। महाभारत युद्ध के पश्चात पंचाल पर पाण्डवों के वंशज तथा बाद में नाग राजाओं का अधिकार रहा ।

बौद्ध काल -- पुराणों में महाभारत युद्ध से लेकर नन्दवंश के राजाओं तक
27 राजाओं का उल्लेख मिलता है लेकिन उनके नामों का वर्णन नहीं मिलता है। छठी शताब्दी ई० पू में पंचाल सोलह जनपदों में एक था, जिसका वर्णन बौद्ध ग्रंथ ' अंगुत्तर निकाय ' में मिलता है।

जैन ग्रंथ ' विविध तीर्थकल्प ' में पंचाल के राजा ' हरिषेण ' का उल्लेख मिलता है जिसे यहाँ का 10 वाँ चक्रवर्ती राजा कहा गया है। जातक ग्रंथों द्वारा बौद्ध युग के जो वर्णन प्राप्त हुए हैं उनके अनुसार तत्कालीन युग में पंचाल का व्यापारिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान था । बौद्धकाल में पंचाल एक सम्पन्न राज्य था जहाँ हिन्दू, बौद्ध , जैन धर्म फलता - फूलता रहा।

मौर्य काल -- मौर्यकाल में पंचाल भी चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्राज्य का अंग था । कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ ' अर्थशास्र ' में उत्तरी पंचाल की राजधानी अहिच्छत्रा के मोतियों के बारे में उल्लेख किया है , जो दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। इसके अतिरिक्त मौर्यकाल में पंचाल के बारे में कोई अन्य विशेष साहित्यिक विवरण प्राप्त नहीं होते , यद्यपि पुरातात्विक परिपेक्ष्य में अहिच्छत्रा व इसके आस - पास के क्षेत्र से मौर्यकालीन पुरावशेष (मृदभाण्ड ,मृण्मूर्तियां, मनके व ईटें आदि) प्रकाश में आए है, जिनसे मौर्यकाल में पंचाल क्षेत्र की सांस्कृतिक गतिविधियों पर प्रकाश पड़ता है।

शुंग एवं कुषाण काल -- अहिच्छत्रा में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षणों में कुछ ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जो इस क्षेत्र पर शुंग राजाओं को आधिपत्य को दर्शाते हैं तथा इसके साथ ही अहिच्छत्रा , एवं क्षेत्र के अन्य जनपदों के पुरातात्विक सर्वेक्षणों में अनेक कुषाणकालीन ताम्र मुद्रायें तथा मृण्मूर्तियों के प्रकाश में आने से ज्ञात होता है कि कुषाण काल में यह क्षेत्र भी कुषाण राजाओं के अधीन था तथा यहाँ बस्तियों व संस्कृतियों का अस्तित्व था।

गुप्तकाल -- गुप्तकाल में समुद्रगुप्त द्वारा अधिकार किये जाने के बाद लगभग दो सौ वर्षों तक पंचाल गुप्त राजाओं के अधीन रहा तथा गुप्त युग के अधीन रहा तथा गुप्तयुग के स्वर्ण युग का भागीदार रहा । इस काल में पंचाल व अहिच्छत्रा का सांस्कृतिक विकास प्रचुरता से हुआ अहिच्छत्रा के पुरातात्विक उत्खनन में गुप्तकालीन पुरावशेष बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं जिनमें जैन , बौद्ध, हिन्दू मूर्तियों, स्थापत्य निर्माण (मन्दिर व अन्य) आदि प्रमुख उल्लेखनीय है। यहाँ से प्राप्त गुप्त नामधारी जयगुप्त, रुद्रगुप्त, दामगुप्त के सिक्के भी यहाँ गुप्तों के अधिपत्य को दर्शाते हैं।

इसके अतिरिक्त क्षेत्र के शाहजहाँपुर जिले में पुरातात्विक सर्वेक्षण में शोधकर्ता डॉ० राजीव पाण्डेय को अनेक पुरास्थलों से गुप्तकालीन स्थापत्य - निर्माण के अवशेष के रुप में ईटे, प्रस्तर मूर्तियां , मृण्मूर्तियां एवं मृण्पात्रों की प्राप्ति से भी इस क्षेत्र में गुप्तकालीन सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रमाण मिलते हैं। प्राचीन उत्तरी पंचाल क्षेत्र ( वर्तमान रुहेलखण्ड ) से महत्वपूर्ण गुप्तकालीन कृति के रुप में शाहजहाँपुर से प्राप्त नारी की स्वर्ण मूर्ति प्रमुख उल्लेखनीय है जिसे चौथी - पाँचवीं श० की गुप्तकालीन कृति माना जाता है ,जो वर्तमान समय में लखनऊ के राज्य संग्रहालय में है।

इस प्रकार उपरोक्त पुरावशेषों की प्राप्ति से गुप्तकाल में इस क्षेत्र की सांस्कृतिक गतिविधियों पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है।

कन्नौज के अन्तर्गत पंचाल

गुप्त युग की अवनति के पश्चात छठी शताब्दी ई० में कन्नौज साम्राज्य के उन्नति के साथ ही पंचाल राज्य का स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया। पंचाल राज्य का क्षेत्र तथा वर्तमान में रुहेलखण्ड कहा जाने वाला यह क्षेत्र छठी ई० से
11 वीं श०ई० तक हर्षवर्धन, पाल - प्रतिहारों के अधीन कन्नौज का अंग रहा।

मौखरी काल से ही अहिच्छत्रा के वैभव का स्थान कन्नौज ने ले लिया । मौखरियों के पश्चात 7 वीं श० ई० में हर्ष के काल में अहिच्छत्रा का कन्नौज के अन्तर्गत काफी विकास हुआ। हर्ष के समय 7 वीं श० ई० में भारत आए चीनी यात्री ह्मवेनसांग ने अहिच्छत्रा नगर (वर्तमान बरेली जनपद में ) का विवरण अपनी पुस्तक में लिखा है। ह्मवेनसांग के अनुसार --' अहिच्छत्रा हर्ष के काल में एक वैभवशाली नगर था, यहाँ बौद्ध एवं ब्राहम्ण दोनों ही धर्मों का प्रभाव था। यहाँ 12 बौद्ध मठ थे जिनमें 1000 भिक्षु रहा करते थे साथ ही यहाँ 9 विशाल हिन्दू मन्दिर भी थे। पूरा नगर 17-18 ली अर्थात तीन मील क्षेत्रफल में था। '

इसके अतिरिक्त अहिच्छत्रा से लगभग 120 कि० मी० दूर शाहजहाँपुर जनपद के बाँसखेड़ा नामक ग्राम से 1894 ई० में प्राप्त " हर्ष के बाँसखेड़ा ताम्र अभिलेख "की प्राप्ति से भी हर्ष के काल में वर्तमान रुहेलखण्ड क्षेत्र में हर्षकालीन सांस्कृतिक गतिविधियों के पुरातात्विक प्रमाण भी प्राप्त होते हैं ।

हर्ष के पश्चात भी यह क्षेत्र पाल - राष्ट्रकूट - प्रतिहारों के शासन काल में कन्नौज के अन्तर्गत पूर्णतय: आबाद रहा ।

पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि प्राचीन उत्तरी पंचाल की राजधानी अहिच्छत्रा ( वर्तमान रुहेलखण्ड के बरेली जिले में स्थित ) का विध्वंस लगभग 11 वीं श० ई० में हुआ। सम्भवत: इस विध्वंस के कारण महमूद गजनबी के लगातार आक्रमण थे। इस विध्वंस के पश्चात अहिच्छत्रा का प्राचीन वैभव समाप्त हो गया तथा इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर मुस्लिम शक्तियां अपना आधिपत्य स्थापित करने में लग गई।

मध्य काल में रुहेलखण्ड

12 वीं शताब्दी ई० से 18 वीं श० ई० तक यह क्षेत्र ' कठेर ' अथवा ' कठेहर ' के नाम से प्रचलित रहा। कठेर की दक्षिण - पश्चिमी सीमा पर गंगा नदी, उत्तरी सीमा पर कुमायूँ का पहाड़ी क्षेत्र तथा पूर्वी सीमा पर अवध का क्षेत्र था। इसके अन्तर्गत वर्तमान रुहेलखण्ड का लगभग पूरा क्षेत्र आता था।

कठेहर (कठेर) के अन्तर्गत रुहेलखण्ड

महमूद गजनबी के आक्रमणों के पश्चात अहिच्छत्रा का वैभव समाप्त हो गया तथा इस क्षेत्र में प्रशासनिक एकता नहीं रही । प्रभुत्व व स्वामित्व के लिए विभिन्न राजपूत वंशों ने लगभग
200 वर्षों तक निरंतर संघर्ष किए । इन्हीं परिस्थितियों में कठेरिया राजपूतों ने यहाँ अपना वर्च स्थापित कर लिया। यह आधिपत्य सर्वप्रथम किस कठेहर राजपूत राजा ने तथा कब स्थापित किया इसके बारे में कोई निश्चित उल्लेख नहीं मिलता है । शाहजहाँपुर गजेटियर के अनुसार -- रुहेलखण्ड का पूर्वी भाग वाछिल राजपूतों के आधिपत्य में था जब तक कि सन् 1174 में कठेरिया राजपूतों ने यहाँ अपना आधिपत्य स्थापित नहीं कर लिया। इससे अनुमान होता है कि 1174-75 ई० से वर्तमान रुहेलखण्ड क्षेत्र पर कठेहरों का आधिपत्य स्थापित हुआ ।

1200 ई० तक इस क्षेत्र में मुस्लिम शक्तियां सक्रिय हो चुकी थी। 1196 ई० में महमूद गौरी की प्रेरणा से कुतुबद्दीन ऐवक ने वर्तमान मुरादाबाद जिले के सम्भल तथा बदायूँ जिले के बदायूँ नगर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।

इस प्रकार मुस्लिम शक्तियों ने 13 बीं श० ई० तक इस पूरे रुहेलखण्ड क्षेत्र से कठेहरों को पराजित करके अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तथा अंग्रेजों के भारत में शासन से पूर्व तक यह क्षेत्र मुसलमानों के अधीन रहा।

कठेर क्षेत्र में रुहेलों का आगमन तथा रुहेलखण्ड का नामकरण (
1707 ई०)

18 बीं शताब्दी के प्रारम्भ में औरंगजेब की मृत्यु के बाद दिल्ली के मुगल शासक कमजोर हो गये तथा अपने राज्य के जमींदारों , जागीरदारों आदि पर उनका नियन्त्रण घटने लगा। उस समय इस कठेर क्षेत्र में भी अराजकता फैल गयी तथा यहाँ के जमींदार स्वतन्त्र हो गये।
इसी समय रुहेला पठानों ने कठेर क्षेत्र ( वर्तमान रुहेलखण्ड )में प्रवेश किया। यह लोग अफगानिस्तान में रोह नामक क्षेत्र से आये थे , इनके बारे में उर्दू फारसी की अनेक पुस्तकों में लिखा है। यह लोग रोह नामक क्षेत्र से आये थे अत: यहाँ इनको रुहेला पठान कहा गया। इनके आदि पुरुष दाऊद खाँ थे जो
1707 ई० में रोह से इस कठेर क्षेत्र में आये ।

इस प्रकार दाऊद खाँ के इस कठेर क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित करने के बाद उनके अन्य उत्तराधिकारियों ने यहाँ शासन किया तथा रुहेलों द्वारा इस क्षेत्र पर शासन करने के परिणामस्वरुप 1730 ई० से यह क्षेत्र (जो पूर्व में पंचाल व कठेर था) "रुहेलखण्ड" के नाम से जाना जाने लगा।

भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद 1763 से रुहेला सरदारों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध शुजाउद्दौला को सहायता देने के साथ ही रुहेलों का अपकर्ष प्रारम्भ हो गया तथा 1774 से 1801 ई० तक यह रुहेलखण्ड क्षेत्र अवध के नवाब शुजाउद्दौला के अधीन हो गया ।

अंग्रेजों के अधीन रुहेलखण्ड (
1801 -1947 )

नवम्बर
1801 ई० में रुहेलखण्ड पर अंग्रेजों (ईस्ट इण्डिया कम्पनी) का अधिकार हो गया तथा उन्होंने रुहेलखण्ड को कमिश्नरी बनाया। यद्यपि इस पूरे रुहेलखण्ड क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया परन्तु राजपूत, रुहेले, जंघारे आदि 1814 ई० तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।

1857 की क्रान्ति अथवा प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में बरेली के लोगों ने बढ़ - चढ़कर भाग लिया। दिल्ली के अन्तिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर ने पूर्व रुहेला नवाब हाफिज रहमत खाँ के पोते नवाब खान बहादुर खान को रुहेलखण्ड का नवाब घोषित कर दिया। 1857 के विद्रोह में रुहेलखण्ड की जनता ने नवाब खान के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह व संघर्ष किया। यद्यपि 1857 की क्रान्ति असफल हो गयी परन्तु देश के स्वतन्त्र होने ( 1947 ई० ) तक यहाँ अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष तथा आन्दोलन चलते रहे।

  | विषय सूची |


Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

Copyright IGNCA© 2004

सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।