संस्कार शब्द का अर्थ है, शुद्धिकरण। जीवात्मा जब एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जन्म लेना है, तो उसके पूर्व जन्म के प्रभाव उसके साथ जाते हैं। इन प्रभावों का वाहक सूक्ष्म शरीर होता है, जो जीवात्मा के साथ एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में जाता है। इन प्रभावों में कुछ बुरे होते हैं और कुछ भले। बच्चा भले और बुरे प्रभावों को लेकर नए जीवन में प्रवेश करता है। संस्कारों का उद्देश्य है कि पूर्व जन्म के बुरे प्रभावों का धीरे- धीरे अंत हो जाए और अच्छे प्रभावों की उन्नति हो।
संस्कार के दो रुप होते हैं - एक आंतरिक रुप और दूसरा बाह्य रुप। बाह्य रुप का नाम रीतिरिवाज है। यह आंतरिक रुप की रक्षा करता है। हमारा इस जीवन में प्रवेश करने का मुख्य प्रयोजन यह है कि पूर्व जन्म में जिस अवस्था तक हम आत्मिक उन्नति कर चुके हैं, इस जन्म में उससे अधिक उन्नति करें। आंतरिक रुप हमारी जीवन- चर्या है। यह कुछ नियमों
पर आधारित हो तभी मनुष्य आत्मिक उन्नति कर
सकता है।
ॠग्वेद में संस्कारों का उल्लेख नहीं है, किन्तु इस ग्रंथ के कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है, इसलिए इस ग्रंथ के संस्कारों की विशेष जानकारी नहीं मिलती। अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का पहले से अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा मिलती है।
इस प्रकार गृह्यसूत्रों से पूर्व हमें संस्कारों के पूरे नियम नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि
गृहसूत्रों से पूर्व पारंपरिक प्रथाओं के आधार पर ही संस्कार होते थे। सबसे पहले गृहसूत्रों में ही संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार का उल्लेख है। इसके बाद गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न- प्राशन, चूड़ा- कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अधिकतर गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा करना अशुभ समझा जाता था। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता
था।
संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से था जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे, किंतु हिंदू संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना
भी था। वैदिक साहित्य में "संस्कार'
शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। संस्कारों का विवेचन मुख्य रुप से गृह्यसूत्रों में ही मिलता है, किंतु इनमें भी संस्कार शब्द का प्रयोग यज्ञ सामग्री के पवित्रीकरण के अर्थ में किया गया है। वैखानस स्मृति सूत्र (
200 से
500 ई. ) में सबसे पहले शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अंतर मिलता है।
मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है। कुमारिल ( ई. आठवीं सदी ) ने तंत्रवार्तिक ग्रंथ में इसके कुछ भिन्न विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार मनुष्य दो प्रकार से योग्य बनता है - पूर्व- कर्म के दोषों को दूर करने से और नए गुणों के उत्पादन से। संस्कार ये दोनों ही काम करते हैं। इस प्रकार प्राचीन भारत में संस्कारों का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व था। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था। ये संस्कार इस जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करते थे, उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते थे। प्रत्येक संस्कार से पूर्व होम किया जाता था, किंतु व्यक्ति जिस गृह्यसूत्र का अनुकरण करता हो, उसी के अनुसार आहुतियों की संख्या, हव्यपदार्थों और मंत्रों के प्रयोग में अलग- अलग परिवारों में भिन्नता होती
थी।
संख्या
गौतम धर्मसूत्र
में संस्कारों की संख्या चालीस लिखी है।
ये चालीस संस्कार निम्नलिखित हैं:-
1. गर्भाधान, 2.
पुंसपन, 3.
सीमंतोन्नयन, 4.
जातकर्म, 5.
नामकरण, 6.
अन्न प्राशन, 7. चौल,
8.
उपनयन, 9-12 वेदों के चार
व्रत, 13.
स्नान, 14.
विवाह, 15-19
पंच दैनिक महायज्ञ, 20-26
सात पाकयज्ञ, 27-33
सात हविर्यज्ञ, 34-40
सात
सोमयज्ञ।
किंतु अधिकतर धर्मशास्रों ने वेदों के चार
व्रतों, पंच दैनिक महायज्ञों, सात पाकयज्ञों,
सात हविर्यज्ञों और सात सोमयज्ञों का
वर्णन संस्कारों में नहीं किया है।
'मन'ु ने गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण,
अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशांत,
समावर्तन, विवाह और श्मशान, इन तेरह
संस्कारों का उल्लेख किया है। 'याज्ञवल्क्य' ने
भी इन्हीं संस्कारों का वर्णन किया है। केवल केशांत का
वर्णन उसमें नहीं मिलता है, क्योंकि इस काल तक
वैदिक ग्रंथों के अध्ययन का प्रचलन बंद हो गया था।
बाद में रची गई पद्धतियों में संस्कारों की
संख्या सोलह दी है, किंतु गौतम धर्मसूत्र और गृह्यसूत्रों
में अंत्येष्टि संस्कार का उल्लेख नहीं है, क्योंकि अंत्येष्टि
संस्कार का वर्णन करना अशुभ माना जाता था।
'स्वामी दयानंद सरस्वती' ने अपनी संस्कार विधि तथा
'पंडित
भीमसेन शर्मा' ने अपनी षोडश संस्कार विधि
में सोलह संस्कारों का ही वर्णन किया है। इन दोनों
लेखकों ने अंत्येष्टि को सोलह संस्कारों
में सम्मिलित किया है।
गर्भावस्था में गर्भाधान, पुंसवन और
सीमंतोन्नयन तीन संस्कार होते हैं। इन तीनों का
उद्देश्य माता- पिता की जीवन- चर्या इस प्रकार की
बनाना है कि बालक अच्छे संस्कारों को
लेकर जन्म ले। जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण,
अन्न प्राशन, मुंडन, कर्ण बेध, ये छः संस्कार पाँच वर्ष की आयु
में समाप्त हो जाते हैं। बाल्यकाल में ही मनुष्य की आदतें
बनती हैं, अतः ये संस्कार बहुत जल्दी- जल्दी
रखे गये हैं। उपनयन और वेदारंभ
संस्कार ब्रह्मचर्याश्रम के प्रारंभ में प्रायः
साथ- साथ होते थे। समावर्तन और विवाह
संस्कार गृहस्थाश्रम के पूर्व होते हैं। उन्हें
भी साथ- साथ समझना चाहिए। वानप्रस्थ और
संन्यास संस्कार इन दोनों आश्रमों की
भूमिका मात्र हैं। अंत्येष्टि, संस्कार का
मृतक की आत्मा से संबंध नहीं होता। उसका
उद्देश्य तो मृत पुरुष के शरीर को
सुगंधित पदार्थों सहित जलाकर वायु
मण्डल में फैलाना है, जिससे दुगर्ंध आदि न
फैले।
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