इस संस्कार
में पिता समाज को बालक के जन्म की
सूचना देता है और कहता है कि-हे
बालक मैं तुझ को ईश्वर का बनाया हुआ घृत और शहद चटाता हूँ, जिससे कि तू विद्वानों द्वारा
सुरक्षित होकर इस लोक में सौ वर्ष तक धर्मपूर्वक जीवन
व्यतीत करें। बालक का जन्म होने के
बाद यह संस्कार किया जाता था। होम करने के
बाद पिता बालक का स्पर्श करता था और उसे
सूँघता था। इसके बाद वह बालक के कान
में आशीर्वाद के मंत्र पढ़ता था, जिससे कि
बालक दीर्घायु हो और प्रखरबुद्धि
वाला हो। बालक को शहद और घी चटाया जाता था। इस घी
में सोना भी घिसा जाता था। माता उसे अपने स्तनों
से पहली बार दूध पिलाती थी। इसके
बाद बालक की नाल काटी जाती थी। आयुर्वेद के
अनुसार शहद से पित्त और घी से कफ का
शमन होता है और घी और सोने
से बुद्धि प्रखर होती है। इस संस्कार का प्रमुख
उद्देश्य बालक को स्वस्थ और प्रखरबुद्धि
वाला बनाना था।
जातकर्म संस्कार के प्रमुख उपांग हैं :-
मेधाजनन, प्रसूतिकाहोम, आयुष्यकरण, अंसाभिमर्षण, पंचब्राह्मणस्थापन,
मात्र्यभिमंत्रण, स्तनप्रतिधान व प्रतिरक्षात्मक अनुष्ठान। इनका विवरण निम्न
रुपों में पाया जाता है :
शिशु के जन्म के साथ ही उसका पिता नाभिनाल के छेदन
से पूर्व ही एक संस्कार करता था, जिसे
"जातकर्म संस्कार' कहा जाता था। इसके दो
भाग होते थे, जिन्हें "मेधाजनन' तथा "आयुष्य'
अथवा "आयुष्यकरण' कहा जाता था। आयुष्य के अंतिम
भाग को "बल' भी कहा जाता था। इनका विवरण गृह्यसूत्रों
में प्राप्त होता है, किंतु इनमें इसकी प्रक्रिया के
सम्बन्ध में मतैक्य नहीं पाया जाता है। आश्व. (
1.15. 2 ) के
अनुसार यह कृत्य मां और धाय को छोड़कर किसी
अन्य व्यक्ति के द्वारा शिशु को स्पर्श किये जाने
से पूर्व किया जाना चाहिए। गोभिल (
2.2.32 )
में भी यही माना गया है। इनके आनुष्ठानिक
रुपों का विवरण निम्न रुपों में पाया जाता है :-
क. मेधाजनन -
गृह्यसूत्रीय परंपरा में इसे अनुष्ठित किये जाने के
संदर्भ में दो विधाएँ देखी जाती हैं,
अर्थात् आश्व. तथा सांखा. के अनुसार पिता के द्वारा नवजात
शिशु के दाहिने कान में किये जाने
वाले "मंत्रोच्चार को ही मेधाजनन' कहा गया है, किंतु
वैखा., हिरण्य. तथा गोभिल में पिता के द्वारा नवजात
शिशु को दधि- घृत का मिश्रण चटाने को। परंतु पारस्कर के
अनुसार इस अनुष्ठान में शिशु का पिता एक
सुवर्णयुक्त पात्र मे मधु एवं घृत को
रखकर अथवा केवल घृत को ही रखकर
मंत्रोच्चार पूर्वक अपनी अनामिका अंगुली
से उसे अभिमंत्रित कर शिशु की जिह्मवा पर
लगाता था। इस मंत्र में उसके लिए तीनों
वेदों तथा अथर्ववेद के ज्ञान को उसमें समाहित होने की कामना की जाती थी, किंतु वृहदारण्यकोपनिषद् (
6.4.24-28 ) के
अनुसार "पुत्रोत्पत्ति के उपरांत पिता प्रसूतिकाग्नि को प्रज्वलित करके एक कांस्य पात्र
में दधि- घृत को मिश्रण करके वैदिक
मंत्रों का पाठ करता था तथा शिशु के कान के पास अपने मुंह को
ले जाकर तीन बार "वाक्' शब्द का उच्चारण करता था। तदनंतर उसकी जीभ
में सोने की शलाका ( चम्मच से ) दधि- घृत-
मधु का मिश्रण लगाता था। इस समय उपर्युक्त
मंत्र का पाठ करता था, जिसमें कहा गया है "मैं तुझमें "भू'
रखता हूँ, "भूवः' रखता हूँ, "स्वः' रखता हूँ, "भूर्भुवः स्वः'
सभी को एक साथ रखता हूँ। इसके बाद
शिशु को सम्बोधित करते हुए कहता था
"तू वेद है।"" और उसका एक गुप्त नाम
भी रखता था।
ख. प्रसूतिका होम :-
इसके सम्बन्ध में भी गृह्यसूत्रों में मतभेद पाया जाता है। आश्व. ( परिशिष्ट
1.26 ) के
अनुसार इसे घृत- मधु प्राशन से पूर्व
में किया जाना चाहिए, किंतु बोधा. (
2.1.13 ) के
अनुसार सम्पूर्ण कृत्यों के उपरांत, सांखा ने इसे छोड़ दिया है।
ग. आयुष्करण :-
मेधाजनन अनुष्ठान के उपरांत शिशु की दीर्घायु की कामना
से एक अन्य अनुष्ठान किया जाता था, जिसे "आयुष्करण' कहा गया है। पार. के
अनुसार इसमें शिशु का पिता उसके कान
में (अथवा किसी के अनुसार नाभि के पास ) अपने मुंह को
ले जाकर कहता था- ""अग्नि वनस्पतियों
से, यज्ञ दक्षिणा से, ब्रह्म ब्राह्मणों से, सोम औषधियों
से, देवता अमृत से, पितृगण स्वधा से,
समुद्र नदियों से आयुष्मान् है, अतएव
मैं तत्तत् पदार्थों से तुझे आयुष्मान् करता हूँ।'' वह इन
मंत्रों को तीन बार दुहराता था।
घ. अंसाभिमर्षण :-
इसके साथ की पुत्र की शतायु की कामना करने
वाले पिता के लिए यह भी निर्देश दिया गया है कि वह पुत्र के
कंधों का स्पर्श करके दस
मंत्रों वाले एक "वत्सप्र' नामक अनुवाक् का पाठ करे। इसे "अंसाभिमंत्रण' कहा गया है। इसमें पार. तथा
भार. के द्वारा तो उपर्युक्त अनुवाक् का पाठ दो
बार किये जाने का विधान किया गया है।
ड़. पंचब्राह्मणस्थापना :-
इसके उपरांत पाँच ब्राह्मणों को ( चारों को चार दिशाओं
में और पाँचवें को मध्य में ) खड़ा करके
उनसे कुमार को अपने श्वासों के द्वारा
अनुप्राणित करने का अनुरोध करता था। इसमें पूर्व दिशा
में स्थित ब्राह्मण "प्राण' शब्द का, दक्षिणस्थ "व्यान' का पश्चिमस्थ "अपान' का,
उत्तरस्थ "उदान' का तथा मध्यस्थ ऊपर की ओर देखता हुआ "समान' शब्द का
उच्चारण करता था, अर्थात् ब्राह्मणों के उपलब्ध न होने पर पिता
स्वयं ही शिशु के चारों ओर घूमता हुआ प्रश्वास के
साथ इन पाँचों प्राणों के नामों का उच्चारण करता था।
च. देशाभिमंत्रण :-
इसके बाद जिस स्थान पर शिशु का जन्म हुआ हो, वहाँ पर जाकर एक
मंत्र ( वेद ते भूमिर्ऱ्हदयं. ) से उस भूमि का
यशोगान करता हुआ, सौ वर्ष तक पुत्र के
साथ स्वस्थ जीवन बिताने की कामना करता था। तदनंतर
शिशु का स्पर्श करके कहता था - "हे पुत्र तुम आत्मा हो,
अतः पाषाण के समान दृढ़, परशु के समान
शक्तिशाली, सुवर्ण के समान तेजस्वी होकर,
सौ साल तक जियो। आयुष्य के इसी अंश का "बल' कहा जाता है।
छ. मात्र्यमिमंत्रण :-
इसके अनंतर वह शिशु की माता के समीप जाकर उसका अभिमंत्रण करते हुए
शिशु की जन्मपत्री माता के यशोगान के
रुप में कहता था -- "हे मैत्रावरुणि ! तुम ईडा के
समान हो, वीर हो, तुमने वीर पुत्र को जन्मा है। इसलिए तुम
वीरप्रसू जननी हो। तुमने हमें वीर पुत्रवान् होने का
सौभाग्य प्रदान किया है।
ज. स्तनप्रतिधान :-
इसके उपरांत शिशु का पिता पार., भार. तथा वृहदारण्यक के
अनुसार ( कहीं केवल एक स्तन के लिए तथा कहीं दोनों स्तनों के
लिए ) मंत्रोच्चार पूर्वक पहले प्रसूता के दाहिने स्तन का फिर
बायें स्तन का प्रक्षालन करके शिशु के मुंह में देता था। इसके
बाद प्रसूति के सिर के पास एक जलभरित पात्र
रखा जाता था। जिसमें जल से प्रार्थना की जाती थी, "हे जल ! तुम देवताओं के प्रति जिस प्रकार जागरुक रहते हों, उसी प्रकार इस पुत्रवती प्रसूता के प्रति
भी जागरुक रहो।''
इसके बाद प्रसूतिकागृह के द्वार प्रदेश
में पंचभू संस्कार पूर्वक प्रसूताग्नि की स्थापना करके दस दिन तक प्रतिदिन प्रायः
सायं दुष्ट शक्तियों के निवारक मंत्रों के
साथ हवन किया करता था।
इसमें आगे यह भी कहा गया है कि यदि
शिशु रोये नहीं और उस पर कुमारग्रह (
बालग्रह दुष्ट शक्तियों के प्रभाव ) की आशंका हो, तो
बालक का पिता उसे गोदी में लेकर उत्तरीय
से या मत्स्य जाल से आच्छादित कर एक तांत्रिक प्रकार का
मंत्र बोलता था, जिसका अर्थ है -- "भीषण,
अतिभीषण कुमारग्रह एवं कर्कश ग्रहों
में मुख्य हे शुनक ! आपको नमस्कार है। आप इस कुमार को
मुक्त कर दें। यह सत्य है कि देवताओं ने तुम्हें कुमार का अधिग्रहण करने की
स्वीकृति दी है, पर हे शुनक ! फिर भी आप कुमार को छोड़ दीजिये आपका नमस्कार है। यह
भी सत्य है कि सरमा तुम्हारी माता तथा
सीसर तुम्हारे पिता हैं तथा श्याम और शवल तुम्हारे
भाई हैं। कुमार न रो रहा है, न हंस रहा है और न खिन्न हो रहा है, इसलिए हे
शुनक ! तुम इसे छोड़ दो।''
पारस्कर गृह्यसूत्र में प्राप्त उपर्युक्त विवरणों
से स्पष्ट है कि जातकर्म संस्कार के प्रमुख अनुष्ठान थे, (1. )
मेधाजनन, (2. ) आयुष्करण तथा (3. ) बल। इनमें "मेधाजनन' का
लक्ष्य था शिशु के पिता द्वारा उसकी बौद्धिक प्रतिभा के विकास के निमित्त उसे घृत एवं
मधु का प्राशन कराना, "आयुष्य' का प्रयोजन था देवशक्तियों
से बालक को दीर्घायु प्रदान करने की प्रार्थना करना तथा "बल' के द्वारा
शिशु की शारीरिक पुष्टता, वीरता एवं
शौर्य की अभिवृद्धि की कामना करना।
यहाँ पर इस संदर्भ में उपर्युक्त अनुष्ठानों के
सम्पादन के विषय में एक विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या
शिशु के प्रजनन के समय जब कि अभी जरायु की
भी पतन न हुआ हो और अभी शिशु का नालच्छेदन
भी न किया गया हो और प्रसूता अभी प्रसव
व्यथा तथा तज्जन्य विकृतियों से मुक्त न हुई हो, ऐसे
समय में पिता का यहाँ पर जाकर,
स्वयं ही नहीं चार ब्राह्मणों को भी साथ
लेकर ! इन अनुष्ठानों को संपादित करना
संभव था ? शिशु का नाभिनाल छेदन करके, उसे स्नान करा कर तथा प्रसूता एवं प्रसव स्थल को
स्वच्छ किये जाने के बाद, तो यह संभव एवं
संगत लगता है, पर उससे पूर्व उपर्युक्त स्थितियों
में इसका किया जाना प्रश्नात्मक ही कहा जा
सकता है।
जहाँ तक इसके उत्तरवर्ती विकास का प्रश्न है, उस
संदर्भ में देखा जाता है कि अन्य गृह्यसूत्रों की
भी लगभग वही स्थिति पायी जाती है, जो कि ऊपर
वर्णित की गयी है। गोभिल गृ. सू. के
अनुसार "मेधाजनन' संस्कार के समय पिता
शिशु को मधुघृत का प्राशन कराकर उसके कान
में कहता था "तू वेद है' तथा उसके
साथ उसका एक नाम भी रखता था, जिसे अभिचार
भय से गुप्त रखा जाता था। अतः यह नाम केवल उसके
माता- पिता को ही ज्ञात होता था। उल्लेख्य है कि गुप्त नाम
रखने की यह प्रथा अभी भी कई जातियों
में पायी जाती है। कतिपय ग्रंथों में इस अनुष्ठान के अंत
में गाथा गान कराने का भी विधान पाया जाता
है। (शर्मा, डी० डी० हिन्दू संस्कारों का
- ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समीक्षण)
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