जन्म के दसवें या बारहवें दिन बच्चे का नाम रखा जाता है। इस संस्कार के समय माता, बालक को शुद्ध वस्र से ढ़ँककर एवं उसके सिर को जल से गीला कर पिता की गोद में देती है।
इसके पश्चात् प्रजापति, तिथि, नक्षत्र तथा उनके देवताओं, अग्नि तथा सोम की आहुतियाँ दी जाती
हैं। तत्पश्चात् पिता शिशु के दाहिने कान की ओर झुकता हुआ उसके नाम का उच्चारण करता है। आजकल नामकरण संस्कार पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। संस्कृति पर पड़ने वाले अन्यान्य बाह्य प्रभावों के कारण ही आजकल अजीब- अजीब नाम सुनाई पड़ते हैं।
ऐतिहासिक समीक्षण :-
यथार्थ में आधुनिक युग में हिंदू संस्कारों का शुभारंभ नामकरण संस्कार से ही होता है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसका सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में पाया जाता है, किंतु उस काल में इसके साथ किसी प्रकार की आनुष्ठानिक प्रक्रिया का समायोजन नहीं हुआ था, अर्थात् यह कार्य बिना किसी आनुष्ठानिक आडम्बर के संपन्न कर लिया जाता था। इनमें इसके संबंध में जो विवरण पाया जाता है,
उसके अनुसार शिशु का पिता जननाशौच काल के व्यतीत होने पर अगले दिन प्रातः काल स्नानादि करके तीन ब्राह्मणों को भोजन कराकर वर्ण तथा लिंग के अनुसार शिशु के नाम का चयन कर उसे रख लेता था।
उल्लेख्य है कि नामकरण की समयावधि के विषय में प्राचीन सूत्रकारों तथा स्मृतिकारों में बड़ा मतभेद पाया जाता है, यथा - आश्व. शांखा., गोभिल, खादिर, काठक एवं वृहदारण्यकोपनिषद् के मत से कतिपय धर्मशास्रोकारों के मत से भी शिशु का नामकरण जन्म के दिन ही कर दिया जाना चाहिए। महर्षि पतंजलि द्वारा भी इसे ही मान्यता दी गयी है।
प्रसवाशौच :-
नामकरण संस्कार के संदर्भ में गृह्यसूत्रों में प्राप्त संक्षिप्त विवरणों से व्यक्त है कि इससे संबद्ध अनेक आनुष्ठानिक तत्वों का विकास गृह्यसूत्रोत्र काल में हुआ है। इसके गृह्यसूत्र कालीन विवरणों को देखने से स्पष्ट है कि इसका मात्र उद्देश्य था, प्रसवजन्य अशौच की शुद्धि तथा शिशु को लोकव्यवहार के लिए एक व्यक्तिगत नाम देना। इससे संबद्ध वैदिक मंत्रों का प्रयोग भी सर्वप्रथम गोभिल. में ही पाया जाता है।
इसकी समयावधि के विषय में मनु दसवें के अतिरिक्त बारहवें अथवा अन्य किसी भी शुभ दिन में इसे किये जाने का विधान करते हैं, पर साथ- ही यह भी उल्लेखनीय है कि अधिकतर गृह्यसूत्रों में ग्यारहवें दिन को ही इसके लिए अधिक उपयुक्त माना गया है।
नामचयन :-
नवजात शिशु के नामचयन के संदर्भ में वैदिक तथा वैदिकोत्तर साहित्य में अनेक प्रकार का वैविध्य पाया जाता है, पर भाष्य करते हुए सायण ने वैदिक काल में चार प्रकार के नामों के प्रचलन का उल्लेख किया है,
जो कि इस प्रकार हुआ करते थे -
(1. ) शिशु के जन्म के नक्षत्र पर आधारित
"नक्षत्र नाम',
(2. ) जातकर्म के समय माता पिता के द्वारा रखा गया
"गुप्त नाम',
(3. ) नामकरण संस्कार के समय रखा गया व्यावहारिक
नाम,
(4. ) यज्ञकर्म विशेष के संपादन के आधार पर रखा जाने वाला नाम
"याज्ञिक नाम'।
ॠग्वैदिक काल में व्यक्ति के चार नाम हुआ करते थे -
नामचयन का संरचनात्मक रुप :-
हम देखते हैं कि गृ. सू. काल में आकर नाम चयन के संरचनात्मक पक्षों - ध्वन्यात्मक, अक्षरात्मक तथा व्याकरणात्मक रुपों पर भी ध्यान दिया जाने लगा था। अक्षरात्मक स्तर पर नामाक्षरों की संख्या
2- 8
तक ( हिरण्य 5 , शाखा.
6 , बौधा.
8 ) का विधान पाया जाता है। व्याकरण की दृष्टि से नामघटकों का रुप संज्ञा अ क्रिया/ कृदति- तद्धित एवं सोपसर्ग तथा ध्वन्यात्मक दृष्टि से आदि, अंत में घोष- अघोष तथा हस्व- दीर्घ आदि का विधान पाया जाता है।
इस संदर्भ में पार. गृ. सू. का विधान है कि पुरुष शिशु का नाम समाक्षर अर्थात् दो, चार अक्षरों वाला हो। इस का प्रारंभ घोष ध्वनियों अर्थात् स्वर अथवा व्यंजन वर्गों के तृतीय, चतुर्थ,
पंचम वणाç ( ग, घ, ड़, द, ध, न आदि ) अथवा हकार से हो, मध्य में अन्तस्थ ध्वनियाँ ( य, र, ल, व ) हों, अंतिम अक्षर की मात्रा दीर्घ हो और यह संपूर्ण पद "कृत् प्रत्यायान्त' ( कृदंत प्रत्यय से निष्पन्न) हो, किंतु इसके विपरीत कन्या शिशु का नाम विषमाक्षर ( एक, तीन ) युक्त हो, अंत में आकारान्त हो तथा तद्धितप्रत्ययनिष्पन्न हो। इसके अतिरिक्त इनके साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शिशु के लिए क्रमशः इनके वर्णसूचक पदों शर्म, वर्म तथा गुप्त का भी योग किया जाय। वर्णसूचक पदों की सूची में अन्त्यंज वर्ण का उल्लेख वर्ण का उल्लेख न होने से स्पष्ट है कि इस काल में इस वर्ग के लोगों का नामकरण संस्कार नहीं होता था।
नामकरण संस्कार की आनुष्ठानिक प्रक्रिया :-
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उत्तर प्रदेश के तथा उसके आसपास के मैदानी भागों में पुरोहित उसके जन्म नक्षत्र के अनुसार उसके नाम का चयन कर, उसे एक कांसे की थाली या काष्ट पट्टिका पर केसर युक्त चंदन से अथवा रोली से लिखकर उसे एक नूतन वस्र खण्ड से आच्छादित कर देता है। पुनः आनुष्ठानिक प्रक्रियाओं की समाप्ति पर उसे अनावृत कर वहाँ उपस्थित सब लोगों को दिखा कर उस नाम की घोषणा करता है।
किंतु उत्तर प्रदेश के रुहेलखण्ड एवं पर्वतीय क्षेत्रों में कर्मकाण्ड की आनुष्ठानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के उपरांत पुरोहित एक श्वेत वस्र खण्ड पर कुंकुम या रोली से शिशु के जन्मनक्षत्रानुरुप नाम के साथ उसके कुलदेवता, जन्ममास से संबद्ध दो अन्य नाम तथा साथ में माता- पिता द्वारा सुझाया गया स्वचयित व्यावहारिक नाम लिखता है। उसे एक शंख में आवेष्टित कर शिशु के कान के पास ले जाकर पिता, माता तथा पारिवारिक वृद्ध जनों के द्वारा इन नामों को "अमुक शर्मा / वर्माच्सि दीर्घायुर्भव' कह कर बारी- बारी से उच्चारित किया जाता है।
अन्य क्षेत्रों में इससे भिन्न परंपरा के भी दर्शन होते हैं।
इसी प्रकार आनुष्ठानिक स्तर पर भी मध्यकाल में रचित संस्कार पद्धतियों में इसके साथ और भी अनेक अनुष्ठानों को जोड़ दिया गया है, यथा - अभिषेक, मेखलाबंधन, मधुप्राशन, पृथ्वीपूजन, प्रत्यावर्तन सूर्यदर्शन आदि।
इन अनुष्ठानों के संबंध में कहा जाता है कि "अभिषेक के द्वारा शिशु के पूर्व जन्म से आगत कुसंस्कारों तथा दोषों का निराकरण होता है। इसमें कलशस्थापन में कलश के जल में गंगाजल मिला कर "आपोहिष्ठा मयोभुवः० ( यजु०
11. 50.- 52 ) मंत्र से शिशु का अभिषेक किया जाता है।
"मेखलाबंधन' में शिशु का पिता शिशु की कमर में इस अवसर के
लिए विशेष रुप से तैयार की गयी मेखली ( करधनी ) को बाँधता है। उल्लेख्य है कि इस में उसी गृह्य सूत्रीय मंत्र "इयं दुरुक्तं परिबाधमाना० का उच्चारण किया जाता है, जो कि उपनयन संस्कार के समय किये जाने वाले मेखलाबंधन में किया जाता है। इसके प्रतीकात्मक उद्देश्य के विषय में कहा जाता है कि इसके द्वारा शिशु में तत्परता, जागरुकता एवं संयमशीलता की भावना का आधार किया जाता है।
कई पद्धतियों में जातकर्म के स्थान पर नामकर्म के समय पर शिशु की वाणी में माधुर्य का आधार किये जाने के उद्देश्य से "मधुप्राशन' कराया जाता है। श्वेत को पवित्रता एवं निर्विकारता का प्रतीक माने जाने के कारण इसके लिए चाँदी के चम्मच का प्रयोग किया जाता है।
इनके अतिरिक्त कुछ पद्धतियों में "प्रत्यावर्तन' नामक अनुष्ठान का भी विधान पाया जाता है, जिसमें नामकरण संस्कार के अंत में भूमिपूजन के बाद माँ- शिशु को अपने पति की गोद में रखती है तथा उसके बाद वह उसे परिवार के सबसे वृद्ध व्यक्ति की गोद में रखता है और वे बारी- बारी से आयुक्रम से एक- दूसरे की गोदी में रखते जाते हैं। जिसका अभिप्राय होता है कि सभी पर सम्मिलित रुप से इस असहाय शिशु की रक्षा एवं भरण- पोषण का उत्तरदायित्व है।
"कर्मकाण्डप्रदीप' में तो इसके साथ पूरे कर्मकाण्ड को ही जोड़ दिया गया है। तदनुसार शिशु तथा प्रसूता को स्नान कराकर, प्रसवकक्ष को गोमय- मृत्तिका से शुद्ध करके, शिशु के पिता से पूर्वाड् पूजा के अंगभूत पूजासंकल्प, प्रधानसंकल्प, स्वास्तिवाचन, गणेशपूजन, अग्निस्थापन, आज्यहोम, पंचगव्यहोम, पुण्याहवाचन, शांतिपाठ आदि के साथ ही अभिनिष्क्रमण, सूर्यपूजन, भूमिपूजन, भूम्युपवेशन, अंत में जीवमातृका पूजन, वसोधारापातन आदि भी संपन्न कराये जाते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक लोकाधारित विधान भी विहित किये गये हैं।
किन्हीं- किन्हीं पद्धतियों में भूमिपूजन तथा प्रत्यावर्तन के अतिरिक्त लोकदर्शन नामक लोकाचार का भी विधान पाया जाता है, जिसके अंतर्गत परिवार का कोई वृद्ध व्यक्ति शिशु को गोदी में लेकर उसे घर के बाहर खुले स्थान में भ्रमण कराता है। इस अवसर पर यजुर्वेद (
13/ 4 ) के
मंत्र- 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे.....कस्मैदेवाय हविषा विधेम' का उच्चारण किया जाता है।
कतिपय संस्कार पद्धतियों में नामकर्म संबंधी सारी क्रियाओं की समाप्ति पर आचार्य द्वारा शिशु को गोदी में लेकर उसके कान में निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करने तथा अन्य में आचार्य तथा अन्य सभी अभिभावकों के द्वारा उसे "हे बाल ! त्वमायुष्मान्, वर्चस्वी, तेजस्वी श्रीमान् भूया:' कह कर आशीर्वाद देने का भी विधान पाया जाता है।
अभिनिष्क्रमण एवं सूर्यदर्शनः
निष्क्रमण का अर्थ है "निकलना' अर्थात्
शिशु को प्रथम बार घर से बाहर
निकालना। वैदिक संहिताओं में इस
संस्कार का कोई उल्लेख नहीं मिलता
है। गृह्यसूत्रों तथा स्मृतियों में यद्यपि
अभिनिष्क्रमण तथा सूर्यदर्शन का
विधान पाया जाता है, किंतु इसके
लिए मुहूर्त विशेष अथवा
अनुष्ठानविशेष का कोई प्रावधान
नहीं किया गया है। पारस्कर ( 9/ 17
)
तथा मनु (
2.34 ) यद्यपि शिशु को चौथे
महीने में घर से बाहर लाकर सूर्यदर्शन
कराने की बात कहते हैं, किंतु
बृहस्पति स्मृति के अनुसार
बारहवें दिन से लेकर चौथे
महीने तक उसे किसी दिन भी घर से
बाहर निकाला जा सकता है। यह एक
कर्मकाण्डीय आडम्बर से हीन संस्कार
था। शिशु की माता किसी भी निर्वात-
निर्मेघ दिन में, जब कि सूर्य प्रकाशमान
हो, शिशु को गोदी में लेकर
बाहर आती थी तथा उसे सूर्य का दर्शन
कराती थी। इस अवसर पर सामान्यतया
सूर्य की आराधना के रुप में
"तच्चक्षुर्देवहितम्०" मंत्र का उच्चारण
किया जाता था। इसके साथ ही
अभिनिष्क्रमण तथा सूर्यदर्शन का
अनुष्ठान संपन्न हो जाया करता था।
किंतु संस्कार पद्धतियों में इसे भी
एक सर्वांग परिपूर्ण अनुष्ठान का रुप
दे दिया गया है जो कि अब
नामकरण संस्कार के साथ ही संपन्न
किया जाता। उत्तर प्रदेश के रुहेलखण्ड
भागों में तो इसे मात्र सूर्यदर्शन
अथवा सूर्यनमस्कार के रुप में
अनुष्ठित किया जाता है, जिसमें
नामकरण का आनुष्ठानिक कृत्य पूरा
होने के बाद माता शिशु को गोद
में लेकर बाहर आती है और यजु०
के सूर्य की स्तुति परक मंत्र के साथ
शिशु को सूर्य का दर्शन कराती
है, किंतु "मुहूर्तसंग्रह' के अनुसार
अभिनिष्क्रमण का कार्य शिशु के मामा
के द्वारा किये जाने का तथा विष्णु
धर्मोत्तर के अनुसार उसकी धात्री के
द्वारा किये जाने का विधान पाया
जाता है।
इस उत्तरवर्ती विधान में इसके लिए
दिन विशेष के चयन तथा उस समय शंखध्वनि
आदि का भी विधान किया गया है। पर्वतीय
क्षेत्रों में प्रचलित संस्कार पद्धतियों
में नामकरण संबंधी सभी
अनुष्ठानों को करने के उपरांत शिशु
का पिता घर के प्रांगण में गोमय से
शुद्धीकृत स्थान में दसों दिशाओं के
स्वामियों, दिशाओं, चंद्र, सूर्य, वासुदेव,
गगन आदि के पूजन का संकल्प लेकर
जल में उन सभी का आवाहन करके एक-
एक कर सबका पूजन- आराधना करता
है। एतदर्थ ब्राह्मण को पृथक् रुप से
दक्षिणा देकर पति- पत्नी दोनों ही माँ
के अंक मे स्थित शिशु को लेकर स्वस्तिवाचन
पूर्वक सूर्य का पूजन करने के लिए
घर के बाहर आंगन में आते हैं।
वहाँ पर रक्त- चंदन से ताम्रपात्र पर
सूर्य का चित्रांकन करके पूजा संकल्प
लेकर "ध्येयः सदा सवितृमण्डल'
के उच्चारण के साथ सूर्य का ध्यान
करके तथा "आकृष्णेन रजसा०' इस मंत्र
से सूर्य का आवाहन, नीराजन आदि
कराया जाता है। शिशु सहित माँ
के द्वारा परिक्रमा पूर्ण कर सूर्यार्घ
देकर "तच्चक्षुर्देव हितम्०' इस मंत्र
से शिशु को सूर्य का दर्शन
कराकर ब्राह्मण को दक्षिणा दी जाती
है।
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