इस संस्कार में पिता प्रार्थना करता है कि हे विद्वानों हम कानों से अच्छी बातें सुने, आँखों से अच्छी वस्तुएँ देखें और हमारे शरीर के भिन्न अंग सुदृढ़ और अपने- अपने कर्तव्य पालने में समर्थ हो और हमारी आयु संसार के हित में व्यय हो। इसका यह अर्थ है कि पिता यह प्रार्थना करता है कि बालक का जीवन भी समाज के हितों में व्यय हो। बौधायन गृह्य- शेष- सूत्र के अनुसार बालक के जन्म से सातवें या आठवें महीने में उसके कानों की पालि छेदनी चाहिए। मनु ने इस संस्कार का उल्लेख नहीं किया है। संभवतः भारतीयों की मान्यता थी कि कर्णवेध करने से बालक स्वस्थ रहेगा।
कर्णवेध का महत्व :-
एक संस्कार विशेष अथवा अनुष्ठान विशेष के रुप में इसे प्रतिष्ठापित किये जाने के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में आयुर्विज्ञान संबंधी ग्रंथों में कर्णवेधन को स्वास्थ्यरक्षक तथा रोगोवरोधक माने जाने के कारण व्यक्ति की स्वास्थ्य रक्षा के लिए इसकी अनिवार्यता को ध्यान में रखकर इसे एक संस्कार का रुप देकर अन्य संस्कारों के समान ही इसे भी अनिवार्य कर दिया गया। इस संदर्भ में आचार्य सुश्रुत का कहना है,""रोगादि से रक्षा एवं कर्णाभूषणों को धारण करने के लिए कानों का वेधन कराना चाहिए।'' इसके साथ ही उनका यह भी कहना है कि ""अंडकोष
की वृद्धि, आंतों की वृद्धि, ( हर्निया ) के निरोध के लिए भी कर्णवेध कराना चाहिए।''
उल्लेख है कि यह "औकूपंचर' के नाम से जानी जाने वाली आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का ही एक रुप था।
पुरातन स्मृतियों में भी इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
जिन उत्तरवर्ती स्मृतियों एवं संस्कारपद्धतियों में इसका उल्लेख मिलता है, वहाँ भी इसका आनुष्ठानिक रुप बहुत संक्षिप्त रुप में पाया जाता है।
व्यासस्मृति के अनुसार इसे चौलकर्म ( चूड़ाकर्म ) के उपरांत किया जाना चाहिए, पर साथ ही "उपनयन' के साथ ही किये जाने की व्यवस्था दी गयी है। संस्कार पद्धतियों के अनुसार इसके लिए उपयुक्त समय तीसरा या पाँचवां वर्ष माना गया है।
क्रियाविधि :-
"कर्मकाण्डप्रदीप' के अनुसार बालक का पिता प्रातः कालीन स्नान संध्या से निवृत्त होकर पूर्वांग पूजा के निमित्त संकल्प लेकर गणेशपूजन, गौर्यादि षोडश मातृका पूजन, नान्दीश्राद्ध, पुण्याहवाचन करके कलशस्थापन पूर्वक नवग्रहपूजन करे। माता की गोदी में स्थित भूषणवस्रादि से अलंकृत शिशु को खाने के लिए तिलादि के लड्डू देकर लग्नदान संकल्प के बाद सोने या चाँदी की बाली से पहले "भद्रंकर्णेभि०' मंत्र के साथ दाहिने कान को फिर "वक्ष्यंत्री वेदागनीगन्ति०' से बांये कान को बीधे। ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर उनसे अभिषेक, तिलक, रक्षाबंधन, घृतच्छाया आदि करवा कर जीव मातृ का पूजन, नीराजन
करे।
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