उपर्युक्त वैवाहिक अनुष्ठानों के अतिरिक्त और भी कई औपचारिकताएँ हैं, जिन्हें हिंदू विवाहों
में अनुपालन किया जाता है। उनका उल्लेख केवल किन्ही ग्रंथ विशेषों अथवा पद्धति विशेषों में ही पाये जाने पर भी वैवाहिक अनुष्ठानों के ऐतिहासिक पक्ष की जानकारी के लिए उन पर भी प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है, ऐसे ही कतिपय शास्राचार तथा लोकाचार है :-
(1. )
मंगनी :-
कन्या का हाथ माँगने के लिए वर की ओर से कन्या के पिता के पास व्यक्तियों को भेजे जाने का उल्लेख
ॠग्वेद (
x.85.8- 9 ) में पाया जाता है तथा इस औपचारिकता का उल्लेख शाखा.
(1.6.1- 4 ), बौधा. (
1.1.14- 15 ), आप.(
2.16, 4.1-2 ) में भी किया गया है, किंतु आश्व. तथा पार. गृह्यसूत्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
(2. )
काल- मुहूर्त चयन :-
हिंदू विवाहों में इसके लिए शुभ दिन, मास एवं मुहूर्त चयन भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। किंतु इसके ऐतिहासिक परिपेक्ष्य को देखने से पता चलता है कि इसका रुप विभिन्न कालों में बदलता रहा है। वैदिक काल में जबकि इसमें अभी ज्योतिष का प्रवेश नहीं हुआ था, ॠग्वेद के विवाह सूक्त (
x.85.13 ) में कहा गया है -- "अघाओ ( मघाओं ) में गायें संहत की जाती है और कन्या ( विवाहित होकर ) पिता के घर से फाल्गुनियों में ले जायी जाती है।'' इसके बाद इसी की प्रतिध्वनि आप. गृ. सू. (
3.1-2 ) में भी सुनी जाती है, जिसमें कहा गया है -- " मघाओं में गायें स्वीकार की जाती हैं और फाल्गुनियों में ( विवाहिता ) कन्या ( पति के घर को ) जाती हैं।'' इसका अभिप्राय यह है कि उस काल में विवाह के लिए फाल्गुनी नक्षत्रों को अथवा फाल्गुन मास को शुभ समझा जाता था। किंतु आश्व.गृ. सू.(
1.41 ) को देखने से पता चलता है कि अब इसके लिए अयन, मास, पक्ष, नक्षत्र पर भी विचार किया जाने लगा था, क्योंकि इसके अनुसार चौल, उपनयन, गोदान ( चूड़ाकर्म ) एवं विवाह से
सम्बन्ध अनुष्ठान उत्तरायण में शुक्लपक्ष में किसी भी चांद्र नक्षत्र में किये जाने चाहिए। किंतु आप.गृ. सू. का कहना है कि शिशिर ॠतु के दो मास अर्थात् माघ और फाल्गुन तथा ग्रीष्म ॠतु के दो मास अर्थात् ज्येष्ठ और आषाढ़ को छोड़कर सभी ॠतुएँ विवाह के लिए उपयुक्त है।
उल्लेख्य है कि इस संदर्भ में आधुनिक विचारणा के समान ही कौशिक सूत्र
(75.2-4 ) में कार्तिक पूर्णिमा से लेकर वैसाख पूर्णिमा तक अथवा चैत्र के आधे भाग को छोड़कर विवाह के लिए सभी उत्तम काल हैं, किंतु मध्यकालीन निबंधों तथा "उद्वाहतत्व' आदि पद्धतियों में विवाह के लिए चैत्र तथा पौष मासों का निषेध किया गया है तथा अन्य सभी को इसके लिए शुभ माना जाता है।
विवाह के लिए शुभाशुभ कालों के
सम्बन्ध में मत वैविध्य की स्थिति को देखते हुए
"संस्काररत्नमाला' ( पृ. 460 ) में सुझाव दिया गया है कि सूत्रकारों तथा स्मृतिकारों के इन मतभेदों को देखते हुए लोगों को अपने- अपने देशाचारों का पालन करना चाहिए। किंतु ज्येष्ठ मास में माता- पिता की ज्येष्ठ संततियों का अर्थात् पुत्र तथा ज्येष्ठ पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए। किंतु देखा जाता है कि मध्यकाल में आकर मास तथा ॠतु
सम्बन्धी विचारधारणा के अतिरिक्त ग्रह, नक्षत्र, मूहूर्त
सम्बन्धी विचार भी किया जाने लगा था। जिसके अंतर्गत विवाह के लिए नियत किये जाने वाले शुभ दिन तथा कन्यादान के लग्न ( मुहूर्त ) आदि के अतिरिक्त वर- वधू की जन्म- कुण्डलियों का मिलान भी आवश्यक समझा जाने लगा था, जिसका कि इससे पूर्व के ग्रंथों में कहीं भी कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है।
(3. )
वाग्दान :-
गृह्यसूत्रों में इसकी आनुष्ठानिक औपचारिकता का उल्लेख केवल सांखा. (
1.6.5-6 ) में पाया जाता है। किंतु बाद में "संस्कारमाला' आदि मध्यकालीन पद्धतियों में इसका विस्तृत रुप देखने को मिलने लगता है।
(4. )
नान्दीश्राद्ध एवं पुण्याहवाचन :-
मध्यकालीन पद्धतियों तथा आधुनिक संस्कार पद्धतियों में विवाह संस्कार के पूर्वांग पूजा के रुप में नांदीश्राद्ध तथा पुण्याहवाचन जैसे आनुष्ठानिक कृत्यों को उसका एक अभिन्न अंग माना जाता है, किंतु गृह्यसूत्रों में बौधा. (
1.1.24 ) को छोड़कर अन्य सभी इस विषय में मौन हैं।
(5. )
स्नापन, परिधापन तथा सन्नहन :-
विवाह संस्कार में पूर्व वधू को मंगल स्नान कराने, नूतन वस्र पहनाने तथा उसकी कटि में धागे या कुश तंतुओं की मेखला बाँधने की आनुष्ठानिक औपचारिकता का उल्लेख केवल आप.गृ.सू.
(4.8 ) तथा काठक.(
25.4 ) में ही पाया जाता है। इसमें पार. (1.4 ) में केवल दो आभूषण पहनाने का एवं मानव.(
1.11.4- 6 ) में केवल परिधापन तथा सन्नहन का विधान पाया जाता है।
(6. )
कंकणबंधन :-
आधुनिक विवाह संस्कार में कंकण कंगना बंधन को इसका एक अपरिहार्य अंग बना दिया गया है, किंतु सूत्रसाहित्य में इसका उल्लेख केवल शांखा
(1.12.6- 8 )तथा कौशिकसूत्र (
76.8 ) में ही पाया जाता है।
(7. )
तैल हरिद्रारोपण :-
तेल और कच्ची हल्दी से तैयार किये गये उबटन को वधू के शरीर पर लगाने के उपरांत उसके अवशिष्ठ भाग को शरीर पर लगाने का विधान केवल "संस्कारकौस्तुभ' तथा "धर्मसिंधु' जैसे मध्यकालीन प्रबंधग्रंथों में देखने को मिलता है। उल्लेख्य है कि किन्हीं समाजों में वर का अवशिष्ट उबटन कन्या के लिए भेजा जाता है।
(8 . )
अग्निपरिणमन :-
"लाजाहोम' के उपरांत वर तथा वधू के द्वारा अग्नि तथा कलश की प्रदक्षिणा का विधान शांखा. (
1.13.4 ) तथा हिरण्य. (
1.20.81 ) को छोड़कर अन्य किसी गृ.सू. में नहीं पाया जाता है।
(9 . )
सूर्योद्वीक्षण :-
इसी प्रकार सप्तपदी के अनंतर वधू को सूर्य की ओर देखने के लिए प्रेरित करने का विधान भी पार. १.८ को छोड़कर अन्य किसी गृ.सू. में नहीं पाया जाता है।
(1 0 . )
ध्रुवारुन्धतीदर्शन :-
इस अनुष्ठान के सम्बन्ध में विभिन्न गृह्यसूत्रों के विधानों में महत्वपूर्ण अंतर पाया जाता है। आश्व.(
1.7.7.22 ) में इसमें सप्तर्षिमंडल को भी सम्मिलित किया गया है। मानव.(
1.14.9 ) ने इसके साथ एक अन्य तारक "जीवंती' को भी जोड़ दिया है। भार.(
1.19 ) ने इसके साथ कतिपय अन्य नक्षत्रों की भी परिगणना कर डाली है। आप. ध्रुव तथा अरुंधती दोनों का विधान करते हैं, तो पार. केवल ध्रुव का (
1.8 )।
इसी प्रकार शांखा.( 1.17.2 ) तथा हिरण्य.(
1.12.10 ) इस रात्रि को ध्रुवदर्शन तक वर एवं वधू दोनों के लिए मौन रहने का विधान करते हैं, तो आश्व. केवल वधू के लिए ही यह विधान करते हैं। इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि जहाँ अन्य गृह्यसूत्रकार ध्रुवारुंधती दर्शन का विधान पाणिग्रहण संस्कार के साथ ही करते हैं, वहाँ गोभिल (
2.3.8- 12 ) इसका विधान वधु के द्वारा पति के घर में प्रवेश के समय।
(11. ) मंगलसूत्र परिधान :-
सुवर्ण अथवा काले मूंगे के दानों को सुवर्ण रजतादि धातु के तार में अथवा सूत के डोरे में पिरोकर
सुहागचिंन्ह के रुप में वधू के गले में पहनाने तथा उसके द्वारा इसे पति के जीवनकाल में अविच्छिन्न रुप में धारण किये रखने का विधान किसी भी गृह्यसूत्र में अथवा ध.सू. ग्रंथ में नहीं पाया जाता है। शौनक तथा लघु आश्व. (
15.33 ) जैसी स्मृतियों में ही इसका सर्वप्रथम उल्लेख पाये जाने से यह स्मृतिकाल की देन प्रतीत होता है।
(1 2 . )अंचलग्रंथि :-
वर एवं वधू के उत्तरीयों के कोनों के बीच में हल्दी, सुपारी, मुद्रा आदि रखकर उनके छोरों को गांठ देकर बांधने तथा इसके साथ ही भांवरें लेने ( फेरे फेरने ) का विधान भी किसी गृह्यसूत्र में नहीं पाया जाता है। इसका विधान सर्वप्रथम "संस्कारकौस्तुभ' तथा "संस्कारप्रकाश' जैसे मध्यकालीन प्रबंध ग्रंथों में देखने को मिलता है।
(1 3 . )
आर्द्राक्षतारोपण :-
अर्थात् वर एवं वधू द्वारा दूध तथा घी में भींगे हुए चावलों को एक- दूसरे पर छिड़कना। यह अनुष्ठान केवल कतिपय क्षेत्रीय संस्कार पद्धतियों में ही पाया जाता है। इसके अनुसार विवाह के अवसर पर एक रजत अथवा तत्तुल्य किसी अन्य पात्र में थोड़ा- सा दूध तथा घी डालकर उसमें अक्षत चावल को सिंचित किया जाता है। तदनंतर वर- वधू को आमने- सामने करके पहले वर वधू की अंजलि में दो बार घृतमिश्रित, दुग्ध डालता है और फिर तीन
बार उन भीगे हुए चावलों को उसकी अंजलि में इस प्रकार डालता है कि उसकी अंजलि भर जाये। फिर वधूपक्ष का कोई व्यक्ति इसी प्रकार उन चावलों को वर की अंजलि में डालता है। इस समय कन्या का पिता उन दोनों के हाथों में एक- एक स्वर्णमुद्रा या स्वर्णखण्ड रखता है। इसके अतिरिक्त इस अनुष्ठान की कतिपय अन्य औपचारिकताओं का भी अनुपालन किया जाता है।
इसी प्रकार संस्कारकौस्तुभ, संस्काररत्नमाला, धर्मसिंधु आदि प्रबंधग्रंथों में और भी अनेक अनुष्ठानों का विधान पाया जाता है, जिसका आर्यावर्त के विभिन्न क्षेत्रों में तत्तत् लोकाचारों के रुप में अनुपालन किया जाता है, यथा "सीमांतपूजन' जिसमें वाग्दान से पूर्व वधू के गाँव में पहुँचने पर वर का तथा वर यात्रियों का औपचारिक स्वागत सत्कार किया जाता है। अथवा "हरगौरीपूजन', जिसके
अंतर्गत कन्यादान से पूर्व शिव तथा पार्वती की प्रतिमाओं / मूर्तियों अथवा चित्रों का पूजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त "इंद्राणीपूजन', शय्यादान के बाद "वर- वधू पूजन' आदि भी वैवाहिक अनुष्ठानों के रुप में अनेक क्षेत्रों में मान्य होते हैं।
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