मृतक संस्कार
पाणिग्रहण संस्कार के समान ही मृतक संस्कारों का इतिहास भी अति प्राचीन एवं विश्वव्यापी रहा है। इसके आनुष्ठानिक रुप भी इतने विविधात्मक हैं कि उन सब का आंकलन एक प्रभाग में किया जा सकना कठिन है। उसके कतिपय विशिष्ट पक्ष, जिनका समीक्षण यहाँ पर किया गया है, वे इस प्रकार है :-
मृतक संस्कार की पुरातनता एवं सार्वभौमिकता :-
विश्व की अधिकतर आदिम तथा विकसित जातियों तथा सामाजिक वर्गों में संपन्न किये जाने वाले तीन प्रमुख संस्कारों, जातकर्म, विवाह और अंत्येष्टि में से अंत्येष्टि ही एक ऐसा संस्कार है, जो कि निरपवाद रुप में सभी मानव संप्रदायों में आदिम काल से
सम्पन्न किया जाता रहा है। इसकी पुरातनता तथा विश्वव्यापकता के निर्विवाद प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, पुरातात्विक खुदाइयों से प्राप्त मृतकावशेष। प्रागैतिहासिक मानव किसी अन्य संस्कार को
सम्पन्न करता था या नहीं, इस संदर्भ में यद्यपि निर्विवाद रुप में कुछ कह पाना कठिन है, किंतु मृतक
सम्बन्धी इन अवशेषों के आधार पर निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि वह इसे अवश्य
सम्पन्न करता था।
दार्शनिक पृष्ठभूमि :-
इस संस्कार के तथा इससे सम्बन्ध विविध अनुष्ठानों के मूल में
सम्भवतः न्यूनाधिक बौद्धिक सम्पदा के धनी मानव के लिए मृत्यु के रहस्य को तथा मरणोपरांत जीव की नियति के रहस्य को न समझ पाना ही रहा होगा। इसे समझने के बौद्धिक प्रयासों ने उसकी जिन संकल्पनाओं व धारणाओं को जन्म दिया, उन्होंने ही समुदाय विशेष के द्वारा
सम्पादित किये जाने वाले मृतक संस्कार संबंधी अनुष्ठानों की रुप- रेखाओं का निर्धारण किया होगा, ऐसा मानना असंगत न होगा।
इस संस्कार की सार्वभौमिक तथा निरवच्छिन्नता का अन्य कारण यह भी रहा है कि
मृत्यु जीवन का एक ऐसा शाश्वत् सत्य है, जिसे कोई भी नकार नहीं सकता है। जन्म, विवाह आदि न शाश्वत हैं और न अपरिहार्य ही। इनका होना या न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। किंतु किसी भी जीवन धारण करने वाले प्राणी के लिए मृत्यु एक ऐसी अपरिहार्य घटना है, जिसका उसे निरंतर साक्षात्कार होता रहता है, पर सब कुछ उसकी आँखों के सामने घटित होते रहने पर भी वह इसके रहस्य को न समझ संकल्पनाएँ करता रहा है तथा मृतक के साथ अपने अति
निकट सम्बन्धों के कारण मरणोपरांत भी उसके मंगल की कामना से अनेक ऐसे अनुष्ठानों का आयोजन करता रहा है, जिन्हें कि वह उसे मृतात्मा के लिए सुख एवं शांति के दायक तथा लोकांतर में उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं का अपहारक समझता है।
मृत्यु तथा मरणोपरांत जीव की गति के
सम्बन्ध में संकल्पित धारणाओं तथा विश्वासों का मानव मन पर ऐसा गहरा अमिट प्रभाव रहा है कि उच्च बौद्धिक चिंतन के स्तर पर इसके रहस्य को समझ लेने पर भी भावनात्मक स्तर पर वह अपने पुरातन संस्कारों से मुक्त नहीं हो सका है। हिंदू समाज को ही लीजिए जिसमें कि आर्यों के महान चिंतकों व साधकों, ॠषियों, मुनियों, योगियों व दार्शनिकों ने अपने- अपने ढ़ंग से मृत्यु तथा मरणोपरांत जीव की गति के रहस्य को समझ लेने के उपरांत समय- समय पर आध्यात्मिक तत्वों के निर्देशक अनेक ग्रंथों में इसका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है तथा सूत्र रुप में अपने निष्कर्षों को भी प्रस्तुत किया है यथा, गीता में मृत्यु की अपिहार्यता के
सम्बन्ध में व्यक्त विचार ""जातस्य हि ध्रुवों मृत्यु'' के तथ्य परक दृष्टि कोण से बहुत पहले ही बौधायन भी इसे इसी रुप में अभिव्यक्त कर चुके थे।
इसी प्रकार जीवात्मा के स्वरुप तथा उसके अमरत्व के
सम्बन्ध में भी अनेक दार्शनिकों के द्वारा स्पष्ट रुप से तत्वबोधात्मक वचनों से घोषित किया जाता रहा -- ""ब्रह्मसत्यं जगन्मि जीवो ब्रह्मेव नापरः'', ""सोडहम्, अहं ब्रर्ह्मस्मि'', न जायते म्रियते वा कदाचित्, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।'' अजो नित्य शश्वतोड यं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे इत्यादि।किंतु यह हिंदू समाज इसके पौराणिकों द्वारा प्रचारित
विचारों, यथा - यमदूतों के द्वारा मृतक के प्राणों का हरण कर उसे यमराज के दरबार में प्रस्तुत किये जाने, मार्ग में पड़ने वाले दुस्तर दूषित सरिता वैतरणी को पार करने, यम के दरबार में जीव के विभिन्न कृत्यों के लिए उसे विभिन्न प्रकार के
नरको की यातनायें भुगतने तथा चौरासी लाख योनियों में भटकने जैसी संकल्पनाओं से मुक्त नहीं हो सकता है। फलतः इस समाज के परमज्ञानी, तपस्वी, लोकोपकारी एवं पवित्रात्मा व्यक्ति के लिए भी उसकी संतति के द्वारा वही सारे और्ध्वदेहिक कृत्य किये जाते हैं, जो कि एक परम
लम्पट, दुराचारी व्यक्ति के लिए किये जाते हैं।
आनुष्ठानिक विस्तार
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अब यहाँ पर हम कतिपय उन मृतकानुष्ठानों पर प्रकाश डालने का यत्न करेंगे, जिनका विकास सूत्रोत्तरकाल अर्थात् पुराण काल में हुआ है। इसमें से देह के विसर्जन से पूर्व किये जाने वाले कतिपय महत्वपूर्ण अनुष्ठान इस प्रकार पाये जाते
हैं :-
दशदान :-
"शुद्धिप्रकाश' ( पृ. 151-52 ) में कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु निश्चित मानकर उसे भूमि पर लिटा दिया गया हो, तो उसके पुत्र अथवा किसी निकट संबंधी के द्वारा उससे निम्नलिखित वस्तुओं का परिगणन कराया गया है, वे हैं - गो, भूमि, तिल, सुवर्ण, घृत, वस्र, धान्य, गुड़ रजत तथा लवण।
वैतरणी :-
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि वैतरणी की संकल्पना "अनुस्तरणी' की स्थनापन्नता के रुप में की गयी थी। इसके अनुष्ठान के
सम्बन्ध में कहा गया है कि व्यक्ति को मरणासन्न जानकर उसके समक्ष एक बछड़े सहित गाय को लाकर उसे व्यक्ति के हाथ में उसकी पूँछ को पकड़ा कर संकल्प पूर्वक उसका दान करना चाहिए। उसे यह नाम दिये जाने का आधार यही है कि इसकी पूँछ को पकड़कर मृतात्मा यमलोक के मार्ग में पड़ने वाली वैतरणी नामक भयावह नदी को सरलता पूर्वक पार कर सकता है।
पावनात्मक द्रव्य योग :-
यद्यपि मृतक के वायुस्थानों में सुवर्ण कणों के डाले जाने का विधान श्रौतसूत्रों में पाया जाता है
किंतु प्राणान्त के समय उसके मुँह में गंगाजल तथा तुलसीदल डालने का विधान पौराणिक काल की देन है। वैदिककाल तथा सूत्रकाल में इनका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इस काल में पुराणकारों के द्वारा गंगा तथा तुलसी की पावनात्मक महिमा को स्थापित
कर दिये जाने से मृतक की सद्गति एवं मोक्ष की कामना से मरते समय उसके मुँह में तुलसीदल तथा गंगाजल डालने की
परम्परा भी अस्तित्व में आ गयी तथा उत्तरकालीन संस्कार पद्धतियों में इसका विधान किया जाने लगा। इसमें वर्णित तुलसीदल तथा गंगाजल
के विशेष महत्व के प्रभावांतर्गत ही उत्तरवर्ती ग्रंथों में मृतक संस्कारों के संदर्भ में इनका विधान किया जाने लगा था।
केशवपन :-
इसके अतिरिक्त अंत्येष्टि से सम्बन्ध उत्तरवर्ती प्रबंध ग्रंथों तथा संस्कार पद्धतियों में शवयात्रा की तैयारी से लेकर शवदाह तक और भी अनेक ऐसे अनुष्ठानों का विधान पाया जाता है, जिनका कि स्मृति काल
तक कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है, यथा संस्कार संकल्प, मृतक पिण्डदान, चितास्थल की शुद्धीकरण, चितारचना
सम्बन्धी विधान, कपालक्रिया, कपोतावशेष आदि- आदि। इतना ही नहीं भिन्न- भिन्न लेखकों में इनके
सम्बन्ध में मतभेद की स्थिति भी पायी जाती है। उदाहरणार्थ, मृतकक्रिया करने वाले के द्वारा की जाने वाली केशवपन की क्रिया के विषय में शुद्धिप्रकाश, प्रायश्चित आदि में भिन्न- भिन्न विधान किया गया है।
इस संदर्भ में ""अंत्यकर्मदीपक'' का कहना है कि अंत्येष्टि क्रिया करने वाले पुत्र या अन्य कर्मकर्ता को सबसे पहले वमन करा कर स्नान करना चाहिए। यदि ऐसा स्थान न हो तो शव को स्नान कराने वाले जल में गंगाजल मिलाना अथवा गंगा, गया तथा अन्य तीर्थों का आवाहन करना चाहिए। इसके उपरांत शव पर भी घी या तिल के तेल का लेप करके पुनः उसे नहलाना चाहिए। तदंतर नूतन वस्र पहना कर यज्ञोपवीत, गोपी चंदन तथा तुलसी की माला से अलंकृत करना चाहिए तथा
सम्पूर्ण शरीर में चंदन, कपूर,
कुंमकुम कस्तुरी आदि संगंधित पदार्थों का लेप करना चाहिए। यदि अंत्येष्टि क्रिया रात्रि के समय की जा रही हो, तो कर्मकर्ता की वमन क्रिया अगले दिन की जानी चाहिए।
अन्य स्मृतियों में इसे दूसरे, तीसरे, पाँचवें, सातवें या ग्यारहवें दिन के श्राद्धकर्म के पूर्व किसी भी दिन किये जाने की व्यवस्था भी जाती है। उत्तरवर्ती संस्कार पद्धतियों में इस संदर्भ में यह विधान भी पाया जाता है कि वपन ( मुंडन ) केवल वही सपिण्डी कराये, जो कि प्रथम बार अपने माता- पिता की मृत्यु पर वपन करा चुके हों। "मदनपारिजात' का कहना है कि अंत्येष्टि कर्ता को वमनकर्ता को वमनकर्म प्रथम दिन तथा अशौच की समाप्ति पर करना चाहिए, किंतु शुद्धिकरण ( पृ.
162 ) में मिताक्षरा ( याज्ञ.
3,17 पर) के मत का समर्थन करते हुए इस कर्म के लिए दिन तथा स्थान का निर्णय करने के संबंध में प्रचलित परंपरा पर अधिक बल दिया गया है।
दाहाग्नि :-
अंत्येष्टि सम्बन्धी वैदिक संदर्भों में दाहाग्नि के
सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किंतु गृह्यसूत्रीय साहित्य में इसके विषय में, स्पष्ट विधान पाया जाता है। तदनुसार आहिताग्नि व्यक्ति के शव का दाह ""आहिताग्नि'' की तीनों अग्नियों से, अनाहिताग्नि का केवल एक अग्नि से तथा अन्य लोगों का लौकिक अग्नि से किया जाना चाहिए।
मुखाग्निदान :-
मृतक के दाह के लिए मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति के विषय में यद्यपि वैदिक साहित्य में कोई उल्लेख नहीं पाया जाता
है किंतु बौधा.गृ.सू. में प्राप्त उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह कार्य मृतक के ज्येष्ठ पुत्र अथवा तत्स्थानीय किसी सपिण्डी कर्मकर्ता के द्वारा किया जाता होगा। गौतम पितृ. सू.(
2.23 ) में भी अंत्येष्टि कर्म को करने वाले के द्वारा ही मुखाग्नि दिये जाने की व्यवस्था दी गयी है। पार.गृ. सू. के भाष्यकार हरिहर के अनुसार पुत्र के अभाव में पत्नी के द्वारा इसे किये जाने की तथा गरुड़ पुराण में पत्नी के न होने पर सहोदर भाई द्वारा अथवा पुत्र के न रहने पर पुत्रवधू के द्वारा भी मुखाग्नि दिये जाने का विधान किया गया है। उत्तरवर्ती कालों में भ्रातृपुत्र (भतीजे) को भी पुत्र की समकक्षता प्रदान किये जाने से पुत्र के अभाव में इसे ही मुखाग्नि देने का अधिकारी समझा जाता है।
कपाल क्रिया :-
उत्तरकालीन संस्कार पद्धतियों में शवदाह से
सम्बन्ध और भी अनेक ऐसे अनुष्ठानों का समावेश कर दिया गया है, जिनका सूत्रकालीन साहित्य तक कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है। ऐसा ही एक अनुष्ठान है ""कपालक्रिया''। इसके अंतर्गत अंत्येष्टि संस्कार करने वाला व्यक्ति चिताग्नि देने के उपरांत शव के अर्धदग्ध हो जाने पर चिता पर घी तथा हवन सामग्री की आहुतियाँ देकर सभी शवयात्रियों के हाथों में चंदन की लकड़ी का टुकड़ा या हवन सामग्री देता है। तदुपरांत अंत्येष्टिकर्ता पूर्णाहुति के निमित्त शववाहन ( अर्थी ) से बचाकर रखे हुए बांस के डंडे की नोंक पर एक छिद्रयुक्त नारियल के गोले को अटकाकर ""ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदम्.'' के वैदिक मंत्र के साथ उसे भेदित तालु के स्थान पर रख देता है तथा शवयात्री अपने हाथों में ली हुई हवन सामग्री या चंदन की लकड़ी के टुकड़ों को मृतात्मा की शांति की प्रार्थना के साथ चिता में डाल देते हैं।
मध्यकालीन संस्कार पद्धतियों में निर्दिष्ट इस अनुष्ठान का वैदिक साहित्य से लेकर स्मृतिकालीन तक कहीं कोई उल्लेख न होने से ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में निश्चित रुप से यह कह
पाना कठिन है कि अंत्येष्टि सम्बन्धी आनुष्ठानिक प्रक्रियाओं में इसका समावेश सर्वप्रथम कब और किसके द्वारा किया गया। जहाँ तक इसके समावेश के संबंध में "क्यों' का प्रश्न है, उसके
सम्बन्ध में निश्चित रुप से तो नहीं पर अनुमानतः यह कहा जा सकता है कि
सम्भवतः "ब्रह्मरंध भेदन' की उस संकल्पना के अंतर्गत किया गया होगा, जिसका सर्वप्रथम उल्लेख बौधासन के पितृकल्पसूत्र में पाया जाता है तथा जिसमें कहा गया है कि अखण्ड ब्रह्मचारी तथा योगी के प्राण ब्रह्मरंध ( कपाल ) का भेदन करके निकलते हैं। किंतु गुहस्थ व्यक्ति में ब्रह्मचर्य के भंग हो जाने के कारण उसके प्राण मुखादि इंद्रियों से निकलते हैं। ऐसी स्थिति में यद्यपि "कपालक्रिया' की आवश्यकता नहीं होती है, किंतु इसका अनुष्ठान पुत्र के द्वारा अपने उस जनक के प्रति अपनी उस कृतज्ञता की भावभिव्यक्ति के रुप में प्रारम्भ किया गया होगा, जिसमें कि उसके उसे जन्म देने के लिए अपने ब्रह्मचर्य का परित्याग किया। कालांतर में पद्धतिकारों द्वारा इसे अंत्येष्टि प्रक्रिया के एक अनिवार्य अनुष्ठान का रुप दे दिया गया।
कपोतावशेष :-
इसी प्रकार का एक अन्य अनुष्ठान है "कपोतावशेष', जिसका उल्लेख स्मृतिकाल तक कहीं नहीं पाया जाता है। किंतु मध्यकालीन संस्कार पद्धतियों में ,जिनका अनुपालन आधुनिक पद्धति में भी किया जाता है, इसका सविवरण उल्लेख पाया जाता है। तद्नुसार शव के
सम्पूर्ण रुप से भस्मसात् हो जाने के उपरांत अंत में जब एक छोटा- सा मांसपिण्ड दुग्ध होने से रह जाता है, जो कि
सम्भवतः उसके हृदय का भाग होता है तथा जो एक कबूतर के मांस पिण्ड के बराबर होने के कारण "कपोतावशेष' कहलाता है। उसे चिताग्नि से बाहर निकाल कर दुग्ध मिश्रित जल अथवा शुद्ध जल से प्रक्षालित करके पहले से ही बचाकर रखे हुए शव वस्र के एक खण्ड में रखकर या तो, यदि चिता नदी तट पर हो, गहरे जल में विसर्जित
कर दिया जाता है, ताकि जल- जंतु उसका भक्षण कर लें या पानी के नीचे किसी भारी पाषाण खण्ड से दबाकर रख दिया जाता है।
इसके ऐतिहासिक विकास के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है कि यह भी उत्तरकालीन पौराणिकों की संकल्पना की देन है। क्योंकि गरुड़ पुराण से पूर्व किसी वैदिक ( श्रौतसूत्रीय ) अथवा गृह्यसूत्रीय
ग्रंथ में इस अनुष्ठान का कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है। लगता है उत्तरवर्ती पद्धतिकारों ने इसे गरुड़ पुराण पर आधारित "प्रेममंजरी' से ग्रहण किया
है अथवा यह भी संभव है कि यह ॠगवैदिक काल की निखातन प्रथा का एक प्रतीकात्मक अवशेष हो, अर्थात् याज्ञिक अनुष्ठानों के प्रभावांतर्गत शवदाह की प्रथा को वरीयता प्रदान कर दिये जाने पर भी आर्यों के अंतर्मन में कहीं "निखातन' की भाव अंतर्निहित रहा हो, जिसका सूत्रकाल में "अस्थिनिखातन' के रुप में तथा पुराणकाल में "कपोतावशेष' के निखातन के रुप में आनुष्ठानिक विधान किया गया हो।
चिंताग्निशमन :-
उपर्युक्त रुप में "कपोतावशेष' का विसर्जन कर दिये जाने के उपरांत अंत्येष्टि कर्ता के द्वारा चिता पर "वसोधारा' ( घी की धारा ) अर्पित की जाती है तथा अंत में मृतक के पुत्र अंजलि बाँध कर चिता की परिक्रमा करके अपनी अंजलियों से उस पर जल डाल कर चिताग्नि को शांत करते हैं।
वैदिक संहिताओं तथा सूत्र साहित्य में दाह- संस्कार के संदर्भ में चिताग्नि शमन के
सम्बन्ध में कोई उल्लेख या विवरण प्राप्त नहीं होता है। इतना ही नहीं, उनमें "कपालक्रिया' तथा "कपोताशेष' जैसे अनुष्ठानों का भी कोई अस्तित्व प्राप्त नहीं होता है। अतः चिताग्निशमन के प्रसंग के अभाव से यही प्रतीत होता है कि उस काल में लोग, जैसा कि कहीं- कहीं अभी भी देखा जाता है, चिता को पूर्ण रुप से प्रज्वलित करने के उपरांत घरों को वापस आ जाते होंगे। किंतु सूत्रोंत्तर काल में रचित संस्कार पद्धतियों में शव के पूर्ण रुप से भस्मसात् हो जाने तथा उसके "कपोतावशेष' का विसर्जन कर दिये जाने के उपरांत चिताग्नि के शमन का भी विधान किया गया है। तदनुसार मृतक के निकट
सम्बन्धी या सभी शवयात्रियों को चिता के अवशिष्ट अंगारों को दुग्ध मिश्रित जल से शांत करके ही आना चाहिए।
नोट- (इस अध्याय
के अधिकांश उद्धरण 'डा० डी० डी० शर्मा'
की पुस्तक ''हिन्दू संस्कारों का -
ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समीक्षण''
से लिए गये हैं। जिसके लिए हम
विद्वान लेखक का आभार व्यक्त करते
हैं।)
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