रुहेलखण्ड

Rohilkhand


द्वादशह्मिक श्राद्ध- तपंण

सपिण्डीकरण :-

बारहवें दिन के पिण्ड का प्रयोजन होता है, मृतात्मा को उसके पितृलोकस्थ पूर्व पितरों से मिलाना। इसके साथ ही और्ध्वदेहिक अनुष्ठानों की समाप्ति हो जाती है। इसमें मृतक के निमित्त बनाये गये पिण्ड के अतिरिक्त उसके तीन पूर्वजों के निमित्त तीन अतिरिक्त पिण्ड बनाकर उन्हें मिला दिये जाने के कारण इस दिन के पिण्ड दान को "सपिण्डीकरण' कहा जाता है। इसके साथ ही उसका सम्बन्ध पूर्वगामी चतुर्थ पीढ़ी से विच्छिन्न हो जाता है। विश्वास किया जाता है कि इसके साथ ही अब तक इस लोक में ही भटकती हुई प्रेतात्मा प्रेतमण्डल से मुक्त होकर पितृलोक में अपने सपिण्डी पितरों में सम्मिलित हो जाती है।

मत्स्यपुराण (
18,5- 7 ) में भी मृत्यु के उपरांत प्रेतात्मा के लिए 12 दिन तक पिण्डदान का विधान किया गया है और कहा गया है कि ये उसकी परलोक यात्रा में सम्बल का काम करते हैं और उसे संतोष प्रदान करते हैं।

जलदान के समान ही पिण्डदान के सम्बन्ध में भी विभिन्न ग्रंथों में मतभेद पाया जाता है, यथा याज्ञ. (
3.16 ) के अनुसार पितृयज्ञ की व्यवस्थानुरुप तीन दिनों तक एक- एक पिण्ड दिया जाना चाहिए। विष्णु. ( 19.13 ) के मत से अशौच काल में प्रतिदिन एक- एक पिंड दिया जाना चाहिए। शातातप ने तीन दिन में 10 पिण्डों का विधान किया है, जिनका विभाजन यम ने इस रुप में किया है - प्रथम दिन तीन, दूसरे दिन चार तथा तीसरे दिन तीन, किंतु दक्ष के द्वारा यह विभाजन 1,4,5 के रुप में किया गया है।

गृह्यसूत्रों तथा संस्कारपद्धतियों के अनुसार और्ध्वदेहिक क्रियाओं का समापन बारहवें दिन (द्वादशाह ) के लिए विहित अनुष्ठानों के साथ ही हो जाता है। उत्तरी भारत के कतिपय हिंदू समुदायों में अंत्येष्टि का अंतिम कृत्य बारहवें के बजाय तेरहवें दिन भी किया जाता है, जिसे "तेरहवी' कहा जाता है। इन दोनों में ही आनुष्ठानिक रुप न्यूनाधिक मात्रा में समान होता है। उल्लेख्य है कि इसका रुप गृह्यसूत्रों में विहित अनुष्ठानों की तुलना में बहुत अधिक विस्तृत एवं विविधात्मक हो गया है। संक्षेप में इसे निम्न रुप में प्रस्तुत किया जा सकता है:

यमपूजा :-

इस दिन के लिए विहित मुख्य कृत्यों- सपिण्डीकरण, तपंण आदि के अतिरिक्त जो अन्यतम विशिष्ट अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है, वह है "यमपूजा'। एतदर्थ एक वेदी पर यम की प्रतीक चावलों की ढेरी लगाकर, हाथ में यव- गंध- अक्षत- पुष्प लेकर "ऊँ यमाय त्वा मखाय.' आदि वैदिक मंत्रों से यम का आवाहन एवं पूजन किया जाता है।

पितृ आवाहन :-

यमपूजा के उपरांत "पितृ आवाहन' नामक अनुष्ठान किया जाता है, जिसमें एक चौकी पर पीला वस्र बिछाकर उस पर चावलों की ढेरी पर एक दीपक प्रज्वलित किया जाता है। तदनंतर हाथ में अक्षत लेकर मृतात्मा का आवाहन किया जाता है और वैदिक मंत्रों के साथ उसका षोडशोपचार पूजन किया जाता है।

तपंण :-

इस दिन सम्पादित किये जाने वाले कृत्यों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, तपंण तथा सपिण्डीकरण। तपंण के अंतर्गत दोनों हाथों की अनामिकाओं में कुशों से बनायी गयी पवित्रियों (गाँठ लगाकर छल्ले के रुप में निर्मित अंगूठियों ) को धारण कर वैदिक मंत्रों के साथ देव, ॠषि, पितर, यम आदि का क्रमशः आवाहन, पूजन एवं नमस्कार किया जाता है, तदनंतर अपसव्य यज्ञोपवीती होकर दुग्ध, यव, तण्डुल, चंदन, पुष्प आदि से युक्त जल को कुशखण्डों के साथ "देवतीर्थमुद्रा' में ( दोनों हाथों की हथेलियों को अंजलि के रुप में संयुक्त करके उनके अग्रभाग से ) इन सबका तपंण किया जाता है।

(
1. ) देवतपंण :-

इसमें सर्वप्रथम "आगच्छन्तु महाभागा:' इस मंत्र से सभी देवताओं के अतिरिक्त यक्ष, गंधर्व, अप्सरस्, नाग, पर्वत, पशु, भूत, राक्षस, पिशाच आदि का आवाहन करके पूर्वाभिमुख होकर सभी का तपंण किया जाता है।

(
2. ) ॠषितपंण :-

इसी प्रकार उपर्युक्त रुप में ही मरीच्यादि दस ॠषियों का आवाहन पूजन करके उनका तपंण किया जाता है।

(
3. ) दिव्यमनुष्यतपंण :-

इसमें तपंण कर्ता यज्ञोपवीत को माला के रुप में कण्ठ में लंबायमान करके उत्तराभिमुख होकर "प्राजापत्यतीर्थमुद्रा' में अर्थात् कुशाओं के अग्रभाग को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका अंगुली के मूल में रखकर, इसी के सहारे तपंणार्थ दो- दो जलांजलियाँ छोड़ता है।

(
4. ) दिव्य पितृतपंण :-

यह तपंण दक्षिणाभिमुख होकर तथा यज्ञोपवीत को वितरित स्थिति में, अर्थात् दाहिने कंधे के ऊपर रखकर "पितृतीर्थमुद्रा' में अर्थात् कुशाओं के मूल तथा अग्रभागों को संयुक्त कर तथा उन्हें बीच में ग्रंथि देकर उसे तर्जनी एवं अंगुष्ठ के मध्य में स्थापित कर किया जाता है। इसमें मंत्रोच्चार पूर्वक दाहिनी ओर की अंजलि से अंगूठे के पास से जलापंण करते हुए तीन- तीन कर जलांजलि प्रदान की जाती है।

(
5. ) यमतपंण :-

इसमें "ऊँ यमाय धर्मराजाय.' इत्यादि मंत्र से यम को नमस्कार करके उनके निमित्त "पितृतीर्थमुद्रा' में ही तीन- तीन जलांजलियाँ अर्पित की जाती है।

(
6. ) मनुष्य- पितृ- तपंण :-

इसके अंतर्गत तपंणकर्ता पहले मंत्रोच्चार पूर्वक अपने गोत्र की तीनपीढियों के पितरों को तीन- तीन जलांजलियाँ अर्पित करता है। तदनंतर इसी प्रकार अपने मातुल गोत्रीय पितरों की तीन पीढियों के पितरों का तथा अपने अन्य मृत सम्बन्धियों का तपंण करता है और अंत में "देव, असुर यक्ष' आदि के रुप में प्राणिमात्र को जलापंण करता है।

(
7. ) वस्र निपीडनोदक तपंण :-

उपर्युक्त तपंणों को सम्पन्न करने के उपरांत वह एक शुद्ध एवं स्वच्छ वस्र खण्ड को जल में भिगो कर घर के बाहर ले जाता है तथा अपसव्य यज्ञोपवीती होकर अपने गोत्र की उन मृतात्माओं को जलांजलि अर्पित करता है, जो नि:संतान मर गये हैं। इसमें निम्नलिखित पौराणिक मंत्र का उच्चारण करता हुआ उस वस्र को अपने बांये भाग में पृथ्वी पर निचोड़ता है। मंत्र है :-

""ये के चास्मत् कुले जाता अपुत्रा: गोत्रिणो मृता:।
ते गृह्मणन्तु मया दत्तं वस्रनिष्पीडनोदकम्।।""

इस प्रकार अपने गोत्र के सभी ज्ञात- अज्ञान, पुत्रहीन पितरों की तृप्ति की कामना के साथ उन्हें अपनी जलांजलि अर्पित करता है

(
8. )  भीष्मतपंण :-

अंत में आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करके लोकहित में नित रहकर अपने अमूल्य उपदेशों के द्वारा आर्यों के समाज को धर्म तथा कर्तव्य के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करने वाले आर्यकुल की महानतम विभूति भीष्म पितामह के प्रति जलांजलि अर्पित की जाती है।

तपंण करने वाला व्यक्ति इस प्रकार देव- ॠषि- पितरों सहित प्राणिमात्र की तृप्ति के निमित्त उपर्युक्त रुपों में तपंण की समाप्ति पर सव्य यज्ञोपवीती होकर तथा अपनी अंजलि में पुनः जल लेकर प्रार्थनापरक मंत्रों के साथ बह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, मित्र, वरुण आदि समस्त देव शक्तियों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है ऐसी महान है हिंदू तपंण की परम्परा।

पंचबलि :-

उपर्युक्त सभी तपंणों की समाप्ति के उपरांत तपंणकर्ता मृतक के निमित्त पाँच बलियों का आयोजन करता है। इसमें वह केले के पत्तों अथवा किसी अन्य वृक्ष के हरे पत्तों से निर्मित पत्तलों पर गाय, कौवा, कुत्ता, देवता और कीट पतंगों के निमित्त उस दिन बनाए गये व्यंजनों में से थोड़ी- थोड़ी मात्रा में सारी चीजें रखता है। फिर उन्हें एक- एक करके अपने हाथ में उठाकर तदर्थ पृथक्- पृथक् संकल्प करके उन्हें ऐसे स्थान में जाकर रख देता है, जहाँ से वे उसे प्राप्त कर सकें। इसमें से देवता के निमित्त बनायी गयी बलि को ब्राह्मण को दे दिया जाता है। इस सामग्री में अन्य चीजों के साथ दही तथा उड़द के बड़े को आवश्यक माना जाता है।

सप्त पिण्डदान :-

इसके पश्चात जौ के आटे में तिल, शहद, घी, दूध मिलाकर सात पिण्ड तैयार किये जाते हैं, उन्हें एक पत्तल पर रखकर संकल्प पूर्वक एक- एक करके दाहिने हाथ से "पितृतीर्थमुद्रा' में एतदर्थ तैयार की गयी पत्तलों में रखा जाता है। इनमें से छः को तो ऊपर तपंण किये गये वर्गों में से प्रत्येक को एक- एक प्रदान कर दिया जाता है तथा सातवें को सम्बन्ध मृतात्मा को। (शर्मा, डी० डी० हिन्दू संस्कारों का - ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समीक्षण)

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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

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