विश्व के धार्मिक संप्रदायों में हिंदू संप्रदाय ही एक ऐसा संप्रदाय है, जिसमें श्राद्ध जैसी संस्था की सत्ता पायी जाती है, जिसके माध्यम से व्यक्ति न केवल अपनी विगत तीन पीढियों के पितरों - पिता, पितामह तथा प्रपितामह के प्रति ही अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है, अपितु अपने ॠषियों एवं पितृदेवों- वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों के प्रति भी अपनी श्रद्धा अर्पित करता है। श्राद्ध
देवताओं के रुप में मान्य इन पितृदेवों ( वसु, रुद्र, आदित्य ) के विषय में स्मृतिकारों तथा पुराणकारों का कहना है कि ये श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्व पुरुषों को संतुष्टि प्रदान करते हैं। मार्कण्डेय. (
29.38 ) तथा मत्स्य (
19.11- 12 ) पुराणों में कहा गया है कि पितामह लोग (पूर्वपितर ) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, संपत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष सभी प्रकार के सुख एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।
इस संदर्भ में उल्लेख्य है कि आधुनिक मानसिकता से प्रभावित लोगों के समान ही श्राद्ध की वैधता एवं उपयोगिता के प्रति शंकालुओं की आशंकाओं का निराकरण करने के लिए ॠषियों ने मत्स्य पुराण (
19.2 ) में यही प्रश्न उठाया है कि वह भोजन जिसे श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों को खिलाया जाता
है या जिसे पितरों के निमित्त अग्नि को समर्पित किया जाता है, उन पितरों को कैसे मिलता है, जो कि अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार भिन्न- भिन्न योनियों में शरीर धारण कर चुके होते हैं इसके उत्तर में वहाँ पर ( वही,
19.3- 9 ) में कहा गया है कि वैदिक वचनों के अनुसार पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रमशः वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के समान माने गये हैं, जो कि श्रद्ध पूर्वक प्रदत्त पिण्ड, तपंण, आहुतियों आदि को श्राद्ध के समय उच्चरित नाम, गोत्र आदि के अनुसार सत्तत् पितरों तक पहुँचाते हैं। यदि कोई पितर अपने श्रेष्ठ कर्मों के फलस्वरुप देवत्व को प्राप्त हो चुके हो, तो उनके लिए श्राद्ध में प्रदत्त भोजन अमृत हो जाता है और वह उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे असुर ( दैत्य ) कोटि को प्राप्त हो गये हो, तो वह उनके पास भांति- भांति के सुख भोगों के रुप में पहुँचता है। और यदि वे पशुयोनि को प्राप्त हो गये हों, तो यही उनका भोज्य ( घासादि ) बन जाता है। इसी प्रकार यदि वे सरीसृप आदि योनियों को प्राप्त हो गये
हों तो वह वायु बनकर उनका भक्ष्य बन जाता है।
इसी प्रकार विश्वरुप ( याज्ञ. 1.165 पर ) का भी कहना है कि "वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता
हैं जो कि सभी स्थानों में अपनी पहुँच रखते हैं। अतः पितर लोग जहाँ भी हों वे इससे उन्हें संतुष्ट कर सकते हैं। विष्णु. ध. सू. (
20, 34- 36 ) में कहा गया है कि ""मृतात्मा श्राद्ध में स्वधा के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में रसास्वादन करता है। वह चाहे ( स्वर्ग में ) देवरुप में हो या नरक में अर्थात् यातनालोक में, या निम्न पशुओं की योनि में हो, या मानवरुप में, उसके
सम्बन्धियों द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास पहुँचता है। जब श्राद्ध संपादित होता है, तो मृतात्मा तथा श्राद्धकर्ता दोनों को तेज, समृद्धि एवं संपत्ति प्राप्त होती है।
श्राद्ध अर्थात् पूर्वज पूजा के विषय में विचार करने पर प्रतीत होता है कि इसे अस्तित्व में लाने में आदिम मानव की वह संकल्पना सक्रिय रही होगी, जिसमें कि पितरों ( मृतकों ) की कल्याणकारी एवं अकल्याणकारी शक्तियों की कल्पना की गयी थी। उनकी धारणा थी कि मृतपूर्वज ( पितर ) अपने जीवित वंशजों का कल्याण तथा अकल्याण दोनों ही करने का सामर्थ्य रखते हैं। इस संदर्भ में उल्लेख्य है कि मृतपूर्वजों के तुष्टीकरण के लिए आदिम युगों में जो पूजा, अर्चना की जाती थी, अथवा उनकी स्मृति में जो उत्सवों का आयोजन किया जाता था, उसे ही कालांतर में वैदिक पौराहित्य ने श्राद्ध का रुप दे डाला। आर्यजाति के अंतर्मन पर इस आदम पितरपूजा की
उपर्युक्त धारणा इतनी दृढ़मूल होकर बैठी हुई थी कि वैदिकोत्तर कालों में पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक जैसे दार्शनिक सिद्धांतों अथवा आत्मा, परमात्मा एवं मोक्ष आदि के गहन शास्रीय विवेचनों के विकास के बाद भी आर्यजन अपनी इस पुरातन परंपरा का परित्याग नहीं कर पाये थे। इसकी पुष्टि वैदिकोत्तर साहित्य में अनेक रुपों में पायी जाती है। सूत्रग्रथों तथा स्मृतिग्रंथों में आर्यों की इस धारणा के अनेक उदाहरण पाये जाते है, यथा पितर लोग काकादि पक्षियों के रुप में विचरण करते हैं, उन्हें भोजन से रोकना नहीं चाहिए। वायुपुराण (
75,13,15 , उत्तरार्ध,
13.13- 15 ) में कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग ( आमंत्रित ) ब्राह्मणों में वायुरुप में प्रविष्ट हो जाते हैं। योग्य ब्राह्मणों को अन्न वस्रादि देने से वे प्रसन्न होते हैं।
(शर्मा, डी० डी० हिन्दू संस्कारों का - ऐतिहासिक
एवं सांस्कृतिक समीक्षण)
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