मेरा टेसू झंई अड़ा
सांझी किवदन्ती और कुछ गीत
बुन्देलखंण्ड की दो बाल खेल परम्पराओं का समकालीन स्वरुप

- मुश्ताक खान


 

 

 

भूमिका

खेल खेल में कलात्मक गतिविधियों द्वारा बच्चों को कैसे संस्कारित करना यह लोक समुदाय अच्छी तरह समझता था। शायद तभी कुछ ऐसे अवसर जुटायें गये जिन पर बालक बालिकायें अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों को तुष्ट भी कर सकें और उन्हें अपनी परम्पओं का भान भी हो सके। ऐसे ही दो अवसर हैं सांझी और ठेसू के खेल। यूं तो यह दौनों खेल अधिकांश उत्तर भारत में लोकप्रिय है परन्तु बुन्देलखण्ड में इनकी अपनी ही छटा है। टेसू का खेल ग्वालियर और आसपास के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खैला जाता है, यहां इसे बालक ही नहीं युवा भी खेलते हैं। ग्वालियर यधपि बुन्देलखण्ड का हिस्सा नहीं है किन्तु ग्वालियर स्टेट के समय में बुन्देलखण्ड का एक बड़ा हिस्सा इसके अन्र्तगत आता था। साथ ही सांस्कृतिक रिसाव की प्रक्रिया के कारण यहां की बोली में बुन्देली की छाप स्पषट दीखती है। सांझी बनाते समय बालिकायें जो गीत गाती हैं वे तो पूरे के पूरे बुन्देली बोली के हैं।

टेसू खेलने की प्रथा अब धीरे कम होती जा रही है इस कारण इसे खेलते समय गाये जाने वाले गीत भी विस्मृत होते जा रहे हैं। बहुत प्रयत्न करने पर भी मुझे इसके ज्यादा उदाहरण नहीं मिल सके। टेसू और सांझी के गीतों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि सांझी गीत व्यवस्थित और निश्चित विषय वस्तु को लेकर चलते है। जबकि टेसू गीत मात्र तुकबन्दियां प्रतित होती हैं। प्रस्तुत विवरण केवल ग्वालियर और आसपास के क्षेत्र में १९८४ में किये सर्वेक्षण पर आधारित है।

मध्य प्रदेश के मानचित्र में ग्वालियर की स्थिति


बुन्देलखण्ड अपनी लोक परम्पराऔं की विविधता और जीवन्तता के कारण एक विशेष स्थान रखता है। क्वांर ओर कार्तिक दोनों ही माह यहां की लोक कलाओं की दृषिट से बहुत महत्वपूर्ण है। पितृपक्ष के आरंभ से ही क्वांरी लड़कियों द्वारा सांझी खेली जाती है और गांव नगरों के मुहल्ले के मुहल्ले चत्र वीथिकायों का रुप लेते हैं। दीवारें रंगीन पन्नीयों और रंगबिरंगे फूलों से सजी आकृतियों से भर जाती है। फिर नौ दिन के नौरते में लड़कियां सुअटा की प्रतिमा बनाकर खेलती है। और तब दशहरे से शुरु होता है उदण्ड और खिलन्दड़े लड़कों का खेल टेसू। यूं तो टेसू की धूम सारे बुन्देलखण्ड में मचती है परन्तु ग्वालियर के टेसू विशेष रुप से प्रसिद्ध है।

दशहरे के दिन से ही ग्वालियर में, मेरा टेसू झंई अड़ा खाने को मांगे दही बड़ा, दही बड़े में पन्नी, धर दो झंई अठन्नी। गाते हुए लड़कों की टोलियां गली मुहल्लों मे हाथ में टेसू लिये घूमती फिरती हैं। टेसू का यह त्योहार अत्यन्त प्राचीन समय से ही यहां मानाया जाता है इस त्योहार का आरंभ महानवमी से हो जाता है और इसका समापन शरदपूर्णिमा को टैसू और सांझी के विवाह के साथ होता है।

टैसू की उत्पत्ति और इस त्योहार के आरंभ के सम्बन्ध में यहां अनेक किवदंतियाँ प्रचलित है। जिला मुरैना की तहसील अम्बाह के रामनरायण शास्री बताते है कि टेसू का आरम्भ महाभारत काल से ही हो गया था। कुन्ती को क्वांरी अवस्था में ही उसे दो पुत्र उत्पन्न हुए थे जिनंमें पहला पुत्र बब्बरावाहन था जिसे कुन्ती जंगल में छोड़ आई थी। वह बड़ा विलक्षण बालक था वह पैदा होते ही सामान्य बालक से दुगनी रफतार से बढ़ने लगा और कुछ सालों बाद तो उसने बहुत ही उपद्रव करना शुरु कर दिया। पाण्डव उससे बहुत परेशान रहने लगे तो सुभद्रा ने भगवान कृष्ण से कहा कि वे उन्हें बब्बरावाहन के आतंक से बचाएं, तो कृष्ण भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन काट दी। परन्तु बब्बरावाहन तो अमृत पी गया था इस लिये वह मरा ही नही। तब कृष्ण ने उसके सिर को छेकुर के पेड़ पर रख दिया। लेकिन फिर भी बब्बरावाहन शान्त नहीं हुआ तो कृष्ण ने अपनी माया से सांझी को उत्पन्न किया और टेसू से उसका विवाह रचाया। जिला मुरैना के ग्रम भरतपुरा के गू ठाकुर नरोत्तम सिंह मावई बताते है कि बब्बरावाहन, भीमसेन का किसी राक्षसी से हुआ पुत्र था जिसे घटोत्कच भी कहा गया है। यह परमवीर और दानी पुरुष था। उसकी यह आन थी कि वह हमेशो युद्ध में हारने वाले राजा की ओर से लड़ता था। जब महाभारत का युद्ध शुरु हुआ तो कृष्ण यह जानते थे कि यदि बब्बरावाहन कौरवों की ओर मिल गया तो पाण्डव युद्ध कभी नहीं जीत पायेंगे, इसलिये एक दिन ब्राह्मण का वेश धरकर बब्बरावाहन के पास गये और उससे उसका परिचय मांगा। तब बब्बरावाहन कहने लगा कि वह बड़ा भारी योद्धा और महादानी है। तो कृष्ण ने उससे कहा कि यदि तुम ऐसे ही महादानी हो तो अपना सिर काट कर दे दो। और तब बब्बरावाहन ने अपना सिर काट कर कृष्ण जी को दे दिया परन्तु यह वचन मांगा कि वह उसके सिर को ऐसी जगह रखेंगे जहां से वह महाभारत का युद्ध देख सके। कृष्ण ने बब्बरावाहन को दिये वचन के अनुसार उसका सिर छेकुर के पेड़ पर रख दिया जहां से युद्ध का मैदान दिखता था। परन्तु जब भी कौरवों पाण्डवों की सेनाएं युद्ध के लिये पास आती थी तो बब्बरावाहन का सिर यह सोचकर कि हाय कैसे-कैसे योद्धा मैदान में है पर मैं इनसेलड़ न सका, जोर से हंसता था। कहते है उसकी हंसी से भयभीत होकर दोनों सेनाएं मीलों तक पीछे हट जाती थीं। इस प्रकार यह युद्ध कभी भी नहीं हो पायेगा यह सोचकर कृष्णजी ने जिस डाल पर बब्बरावाहन का सिर रखा हुआ था उसमें दीमक लगा दी। दीमक के कारण सिर नीचे गिर पड़ा और उसका मुख दूसरी ओर होने के कारण उसे युद्ध दिखाई देना बन्द हो गया। तब कहीं जाकर महाभारत का युद्ध आरम्भ हो सका।

ग्राम भरतपुरा के ही केदार सिंह बताते है कि बब्बरावाहन पिछले जन्म में भगवान का बहुत बड़ा भगत था परन्तु एक बार किसी बात पर एक ॠषि उससे नाराज हो गया और उसने शाप दिया कि तू अगले जन्म में राक्षस बनेगा। इस प्रकार बब्बरावाहन एक राक्षस था। हिन्दू लोक समुदाय में इसे टेसू के रुप में माना जाता है। तथा विवाहों का आरंभ होने से पहले टेसू और सांझी का विवाह रचाया जाता है ताकि जो शकुन-अपशकुन और विघ्न बाधाऐं आनी हैं, इन्हीं के विवाह में आ जाये और बाद में लोगों के बेटे बेटियों के विवाह अच्छी तरह सम्पन्न हो सकें।

ग्वालियर के रामसिंह कुम्हार जो टेसू बनाकर बेचते भी है बताते है कि बब्बरावाहन का सिर छेकुर के पेड़ की डाल पर नहीं बल्कि पेड़ के नीचे तीन भालों का स्टेण्ड जैसा बनाकर उसके ऊपर रखा गया था, इसी लिये वे टेसू बनाते समय इसका स्टेण्ड हमेंशा तीन लकड़ियों का बनाते हैं।
ंगा।
ग्वालियर के जानकी काछी की बताई किवदंती इन सबसे अलग और विशिष्ट जान पड़ती है। उनके अनुसार बहुत साल पहले किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था, परिवार में लगभग साठ सत्तर व्यक्ति थे जो सभी रुप से सम्पन्न थे। इनमें से सबसे छोटे भाई की पत्नी मर चुकी थी, उसे बड़े भाइयों की पत्नियाँ बहुत परेशान करती थी इससे दुखी होकर वह अपनी पुत्री को लेकर घर छोड़कर दूसरे गांव चला गया यह गांव जंगल के किनारे एक सुन्दर गांव था। परन्तु उस जंगल में एक राक्षस रहता था। ब्राह्मण की रुपवान कन्या जब एक दिन पानी भरने गई थी तब उस राक्षस ने उसे देख लिया और वह उस पर मोहित हो गया। उसने लड़की से उसका परिचय लिया और उसके पिता से मिलने की इच्छा प्रकट की, तब लड़की ने कहा कि उसके पिता शाम के समय घर मिलते है। राक्षस शाम को ब्राह्मण के घर पहुंचा और उसकी लड़की से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। ब्राह्मण घबराया उसने सोचा यह राक्षस मना करने पर मानने वाला नहीं। इसलिये उसने राक्षस से कहा कि विवाह तो हो जायेगा परन्तु कुछ रस्में पूरी करनी पड़ेगी इसलिये कुछ दिन का समय लगेगा। पहले मेरी लड़की सोलह दिन गोबार की थपलियां बनाकर खेलेगी तब राक्षस ने कहा ठीक है मैं सोलह दिन बाद आ इस बीच ब्राह्मण ने अपने परिवार के लोगों को सहायता के लिये बुलाने का पत्र लिख दिया। क्वार माह के यह सोलह दिन सोलह सराद के दिन माने जाते हैं। और इन दिनों ब्राह्मण की लड़की जो गोबर की थपलियों से खेल खेली वह सांझी या चन्दा-तरैयां कहलाया और तभी से सांझी खेलने की परम्परा का आरम्भ हुआ। सोलह दिन बीतने पर राक्षस आया परन्तु ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं पहुंच पाये इस लिये उसने फिर बहाना बनाया कि अब उसकी लड़की नौ दिन मिट्टी के गौर बनाकर खेलेगी। राक्षस नौ दिन बाद वापस आने का कह कर फिर चला गया। तभी से यह नौ दिन नौरता कहलाये और इन दिनों सुअटा खेलने की प्रथा शुरु हुई। नौ दिन भी खत्म हो गये पर ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं आ पाये और राक्षस फिर आ गया, तब ब्राह्मण ने उससे कहा अब केवल आखरी र रह गई है। अब पांच दिन तुम और मेरी बेटी घर घर भीख मांगोगे तब शरद पूर्णिमा के दिन तुम्हारी शादी हो सकेगी। राक्षस इस बात के लिये भी मान गया। तभी से दशहरे से शरद पूर्णिमा तक उस राक्षस के नाम पर टेसू और ब्राह्मण की लड़की के नाम पर सांझी मांगने की प्रथा का आरंभ हुआ। इस प्रकार जब भीख मांगते पांच दिन बीत गये और ब्राह्मण के परिवार के लोग नहीं आये तो ब्राह्मण निराश हो गया और उसे अपनी पुत्री का विवाह राक्षस से करने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो शरद पूर्णिमा के दिन उसने विवाह निश्चित कर दिया। लेकिन अभी विवाह के साढ़े तीन फेरे ही पड़े थे कि ब्राह्मण के परिवार के लोग आ गये और उन्होने उस राक्षस को मार डाला। और क्योंकि उनकी लड़की का आधा विवाह राक्षस से हो चुका था इसलिये उसे भी भ्रष्ट मान कर उन्होने उसे भी मार डाला इसीलिये टेसू और सांझी का पूरा विवाह नहीं होने दिया जाता, उन्हें बीच में ही तोड़ दिया जाता है। ब्राह्मण के भाइयों ने सोचा न उनका छोटा भाई घर छोड़ कर भागता और न ही उनके कुल को इस प्रकार दाग लगता इसलिये सारी खराबी का कारण वही है और उन्होनें उस ब्राह्मण को भी मार डाला। इसीलिये नोरता में मिटटी के गौर बनाकर खेला जाने वाला सूअटा टेसू के विवाह के बाद उस ब्राह्मण पिता के प्रतीक सुअटा के रुप में अन्तिम दिन फोड़ दिया जाता है।

सत्य चाहें कुछ भी हो परन्तु इस बहाने लोगों को एक कलात्मक अभिव्यक्ति का अवसर अवश्य प्राप्त हो जाता है। टेसू खेलना तो महानवमी से आरंभ होता है परन्तू कुम्हार इनका बनाना काफि पहले से आरंभ कर देते हैं। जिन गांवों में कुम्हार नहीं है वहाँ अनेक लोग अपने लिये टेसू स्वयं ही बनाते है।

मुरैना और भिण्ड जिले में टेसू का केवल आधा शरीर ही बनाया जाता है। कुछ गांवों में तो लोग टेसू का केवल सिर ही बनाते हैं क्योंकि टेसू का सर काट कर छेकुर के पेड़ पर रख दिया गया था और यह खेल सात दिन तक चलता है। क्योंकि यह मान्यता है कि टेसू का सिर सात दिन तक पेड पर रखा रहा था। ग्वालियर में टेसू का स्वरुप एक दम भिन्न है यहां इस का स्वरुप मराठा राजा महाराजाओं के समान है। तीन लकड़ियों के बने स्टेण्ड पर वह सिन्धिया पगड़ी बांधे अंगरखा, चूड़ीदार पजामा पहने दो दो रानियों के बीच बैठा मजे से हुक्का पी रहा है। कमर में तलवार बंधी है और कोई कोई कुम्हारों ने तो उसे सफेद घोड़े पर तलवार घुमाते हुए भी बनाया है।

ग्वालियर में टेसू बनाने की कला का सिन्धिया युग में बहुत विकास हुआ। कुम्हारों की व्यव्तिगत कल्पनाशीलता, स्थानीय राजवंश और अभिजात वर्ग के प्रभाव ने पुरखें से चली आ रही इस परम्परा को यहां अपना विशेष रुप प्रदान कर दिया है। सिंधिया शसनकाल में एक समय ऐसा भी था जब टेसू खेलने की प्रथा सरदारों-सामान्तों के बच्चों में भी प्रचलित थी उस समय टेसू की भी कायाकल्प हुई और वह कुरुप दीनहीन राक्षसी स्वरुप को त्याग कर मराठा राजसी रुप में आ गया। क्योंकि अमीरों के बच्चों द्वारा अधिक मूल्य पर टेसू खरीदें जाने की सम्भावना रहती थी इसलिये कुम्हारों ने बड़े बड़े और सुन्दर टेसू बनाने आरंभ किया। इस प्रकार के टेसुओं की बड़ी दुकानें ग्वालियर में गश्त के ताजिये के पास लगने लगी जहां रात में गैस बत्ती के प्रकाश में चमकीली पन्नियों से सजे टेसू झिलमिलाते थे। यह दुकाने आज भी उसी प्रकार लगती हैं।

टेसू की मुख्य आकृति का ढांचा तीन लकड़ियों को जोड़ कर बनाया गया स्टेण्ड होता है जिस पर बीच में दीया, मोमबत्ती रखने का स्थान होता है। गांवो में जहां केवल टेसू का सिर बनाया जाता है उस पर गेरु पीली मिट्टी, चूना और काजल से रंगाई की जाती है। कोई कोई टेसू की आंख के स्थान पर कौढियां लगाते हैं। और बांस की तीलियों में पतंगी कागज की झालर भी चिपका देते है। कहीं टेसू की मुखाकृति भयंकर राक्षस जैसी होती है तो कहीं साधारण मनुष्य जैसी, परन्तु ग्वालियर में इनकी सजावट कुछ आधुनिक हो गई है। यहां इनकी रंगाई कच्चे चटकीलें रंगों से ब्रश द्वारा सफाई से की जाती है। कुम्हार सांचों द्वारा सैकड़ो की तादाद में टेसू बनाते हैं। उन पर पहले खड़िया का सफेद रंग किया जाता है फिर उनका चूड़ीदार पजामा, अंगरखा, पगड़ी अलग अलग रंगों से रंगी जाती है उन पर सुनहरी और रुपहली रंग से सजावट की जाती है और कुशल कारीगारों द्वारा आंख नाक आदि बनाये जाते है। कुछ कुम्हार तो टेसू का पूरा राज दरबार ही बना देते हैं जिसके मध्य में टेसू सिंहासन पर विराजमान होते हैं आस पास दासियां हुक्का लिये बैठी हैं बीच में नर्तकी नृत्य कर रही है और बाहर सतर्क दरबान पहरा दे रहें। सारी आकृति का ढांचा बांस का बना होता है जिस पर चमकीली पन्नियों के फूल पत्ती चिपकाये जाते हैं।

दशहरे से पूर्णिमा तक लड़को की टोलियां टेसू और लड़कियों की टोलियां सांझी लिये घर घर घूमकर गीत गाते और पैसे मांगते है। वैसे तो प्रत्येक स्थान के कुछ स्थानीय गीत होते है परन्तु एक टेसू गीत जो ग्वालियर, भिण्ड़ मुरैना, में समान रुप से प्रचलित है।

इमली की जड़ से निकली पतंग
नौ सौ मोती झलके रंग
एक रंग मैने मांग लिया
चल घोड़े सलाम किया
मारुंगा भई मारुंगा
दील्ली जाय पछाडूंगा
एक रोट खोटा
दे सांझी में सोटा
सोटा गिरा ताल में
दे दारी के गाल में

 

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Content prepared by Mushtak Khan

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