उत्तरांचल प्रदेश के कुमाऊँ अंचल के कौसानी गाँव
में प्रकृति के सुकुमार कवि सुमुत्रानंदन पंत का जन्म
सन् १९०० में हुआ। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर
मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा।
शिशु का नाम रखा गया गुसाई दत्त।
गुसाई दत्त की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा
में हुई। सन् १९१८ में वे अपने मँझले
भाई के साथ काशी आ गए और क्वींस कॉलेज
में पढ़ने लगे। वहाँ से मैट्रिक उत्तीर्ण करने के
बाद वे इलाहाबाद चले गए। उन्हें अपना पसंद नहीं था, इसलिए उन्होंने अपना नाम
रख लिया - सुमित्रानंदन पंत। यहाँ
म्योर कॉलेज में उन्होंने इंटर में प्रवेश लिया। महात्मा गांधी के आह्मवान पर
अगले वर्ष उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी,
संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी का अध्ययन करने
लगे।
सुमित्रानंदन सात वर्ष की उम्र में ही जब
वे चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे, कविता
लिखने लग गए थे। सन् १९०७ से १९१८ के काल को
स्वयं कवि ने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण
माना है। इस काल की कविताएँ वीणा
में संकलित हैं। सन् १९२२ में उच्छवास और १९२८
में पल्लव का प्रकाशन हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ
अन्य काव्य कृतियाँ हैं - ग्रंथि, गुंजन, ग्राम्या,
युंगात, स्वर्ण-किरण, स्वर्णधूलि, कला और
बूढ़ा चाँद, लोकायतन, निदेबरा, सत्यकाम आदि।
सन् १९७७ में सुमित्रानंदन पंत का देहावसान हो गया।
अपने कृतित्व के लिए पंत जी को विविध पुरस्कारों
से सम्मानित किया गया। कला और बूढ़ा चाँद के
लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, लोकायतन पर
सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार एवं चिदंबार पर इन्हें
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।
पंत जी की प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति-प्रेम और
सौंदर्य की छटा मिलती है, जिसका उत्कर्ष
उनकी छायावादी रचनाओं पल्लव और गुंजन
में देखने को मिलता है। सन् १९३६ के आस-पास
वे माक्र्सवाद से प्रभावित हुए। युगांत और ग्राम्या की
अनेक रचनाओं पर माक्र्स का प्रभाव स्पष्ट
रुप से देख जा सकता है। कवि की उत्तरकालीन
रचनाओं पर अरविंद की विचारधारा की छाप है।
पंत जी सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति और
सचल दृश्यों के चित्रण में अन्यतम हैं। इनकी भाषा
बड़ी सशक्त एवं समृध है। मधुर भावों और कोमलकांत गीतों के
लिए सिधहस्त हैं।
आ: धरती कितना देती है, कविता में कवि अपने
बचपन की एक भूल को याद करते हुए धरती को
रत्न प्रसविनी रुप का चित्रण कर रहा है। 'हम जैसा
बोएँगे वैसा ही पाएँगे' का संदेश देते हुए कवि ने
मानवता की फसल उगाने के लिए समता,
ममता और क्षमता के बीज बोने पर बल दिया है।
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