कुमाऊँ या कूर्माचल मुख्यत: तीन जिलों में विभाजित है।
१. अल्मोड़ा
२. नैनीताल
३. पिथौरागढ़
भारतवर्ष के धुर उत्तर में स्थित हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों और दक्षिण में तराई-भावर से आवेष्टित २८०४'३ से ३००.४९' उत्तरी अक्षांस और ७८०.४४ से ८१०.४ पूर्वी देशान्तर के बीच अवस्थित भू-भाग 'कुमाऊँ' कहलाता है। सांस्कृतिक वैभव, प्राकृतिक सौंदर्य और सम्पदा से श्री सम्पन्न कुमाऊँ अंचल की एक विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान है।
यहाँ के आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, प्रथा-परम्परा, रीति-रिवाज, धर्म-विश्वास, गीत-नृत्य, भाषा बोली सबका एक विशिष्ट स्थानीय रंग है।
औद्योगिक वैज्ञानिकता के जड़-विकास से कई अर्थों में यह भू-भाग अछूता है। अपनी विशिष्ट सामाजिक संरचना में बद्ध यहाँ की लोक परम्परा मैदानी क्षेत्रों से पर्याप्त भिन्न है। लोक साहित्य की यहाँ समृद्ध वाचिक परम्परा विद्यमान है, जो पीढी-दर-पीढ़ी आज भी जीवन्त है।
वनों के अन्धाधुन्ध कटान से यहाँ आज पर्यावरण-सन्तुलन गड़बड़ा गया है। कई दुर्लभ वनस्पतियाँ और जीव-जन्तु आज विलुप्त हो गये हैं या नामशेष रह गये हैं। कुमाऊँ क्षेत्र में अभी भी जैव सम्पत्ति का अक्षय भंडार है जिसका मुख्य कारण इस क्षेत्र के निवासियों का पशु पक्षियों एवं अन्य जानवरों के प्रति लगाव तथा उनके संरक्षण के प्रति जागरुकता ही है, जैसे धिनौड़ी (चड़ि), आदि पक्षियों के लिए घरों की छत के नीचे (सामान्यत: बन्धारी के नीचे) तिकोनी जगह छोड़ देना, जिनमें यह पक्षी स्वछन्द, उन्मुक्त एवं स्वतन्त्र जीवन व्यतीत कर सकें, धार्मिक स्थानों के आसप-पास विचरण कर रहे जानवरों को मारना अशुभ समझना तथा जानवरों को मारने के फलस्वरुप पाप लगने का व अनिष्ट होने का डर आदि। इसी मान्यता के अनुरुप ही बाघ, साँप, बन्दर आदि जानवरों को न मारना, सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव व परम्परागत विश्वास ही इस क्षेत्र में वन प्राणियों के संरक्षण के प्रमुख कारण है।
इस क्षेत्र की परम्पराओं में उपलब्ध जैविकी का नृतात्विक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इन विभिन्न जैव पदार्थों से यहाँ के भिन्न-भिन्न लोक विश्वास भी जुड़े हैं। नीचे दिए गए जीवों से सम्बन्धित धारणाये, पारम्परिक मान्यतायें, आदि का विवेचन भी किया है।
(Mollusca ) मौल्स्का
१. कहुआ हाड़/कछवा हाड़ (कौड़/सीपी)
ये समुद्र के किनारे मिलते हैं। कुमाऊँनी लोग इन्हें बच्चों के गले में बाँधते हैं। लोक विश्वास है कि इनको बाँधने से बच्चों पर प्रेत बाधा का असर नहीं होता है।
ओलाईगोकीटा (Oligochaeta )
वर्ग
१. गिदौल /गदयूल (केंचुवा)
यह कुमाऊँ में सर्वत्र पाया जाता है। नम भूमि, खाद आदि स्थान इसका विशेष आवास है। कुमाऊँ में पहले प्रसवावस्था के दिनों में इन्हें पकाकर जच्चा को इसका सूप पिलाया जाता था। विश्वास किया जाता था कि इसके सूप से जच्चा में दूध की वृद्वि होती है। अब यह परम्परा समाप्त हो चुकी है (स्थानीय मान्यता)
मछली मारने वाले वंशी के काँटे में इसे फँसाकर चारे के रुप में भी इसका प्रयोग करते हैं।
अरैक्निडा (Arachnida ) वर्ग
१. बिच्छि (बिच्छू)
बिच्छु को तेल में पकाने के बाद उस तेल का खुजली में (विशेषतया गरदन वाले भाग में ) उपयोग किया जाता है। इस तेल का प्रयोग कान के दर्द में भी किया जाता है।
क्रस्टोशिया (Crustacea ) वर्ग
गँज्याड/ग्याँज/केकडा
यह ताल-तलैयों, नौलों व नदियों के किनारे में रहता है। लोग इसे पकड़कर मछली की भाँति खाते हैं। इसका सूप बड़ा स्वादिष्ट माना जाता है।
केकड़े की हड्डी की भस्क कई रोगों में दवा के रुप में दी जाती है।
कीट (Insecta ) वर्ग
१. कुरमुल/कुरमुऊ (कुरमुला)
कुरमुले की छाल को सुखाकर पानी के साथ पीसकर देने से बच्चों के पेंट की
जोंक खत्म हो जाता है।
२. किरमुल/किरमई/चींटी
चींटियों के बाँबियों से बाहर निकलने पर या अपने अण्डों को एक स्थान से दूसरेपर ले जाने की दशा में वर्षा की सम्भावना रहती है।
३. ग्वालि/ग्वाइ
किसी व्यक्ति के शरीर पर ग्वालि कीट के बैठने पर यह माना जाता है कि उसके लिए नए कपड़े बनेंगे। ग्वालि कीट सिर के जुँए के खा जाती है।
४. झिमौड़
लोक विश्वास है कि झिमौड़ के काटने से बुखार नहीं आता है। झिमौड़ के छत्ते को साँप की केंचुल, उड़द, राई और गाय के गोबर के साथ अभिमन्त्रित कर दूध न देने वाली गाय भैंस के थनों और मुँह के चारों और घुमाकर चौराहे में डाल देने पर गाय-भैंस दूध देने लगते हैं।
५. माख/मक्खी
घरेलु मक्खी को गुड़ एवं लाइकेन (पत्थर का दाद) के साथ मींचकर दाद पर लेप करने से दाद ठीक हो जाता है।
६. मौन/मून (मधुमक्खी)
शहद और घी को बराबर मात्रा में मिलाने से विष बन जाता है (स्थानीय मान्यता)। मधुमक्खी को बच्चे (द्रद्वेद्रठ्ठे) खाये जाते हैं। मधुमक्खी का आस-पास मँडराना शुभ माना जाता है।
७. पास फेल किड़
इस कीड़े को हाथ में रखकर बच्चे अपने पास-फेल होने का अनुमान लगाते हैं। यदि यह पास कहने पर उड़ता है तो पास तथा फेल कहने पर उड़ता है तो फेल होने की पूर्व सम्भावना होती है।
८. सुरमाई/चिमौली
यह हरे रंग का उड़ने वाला छोटा कीट है जो
लकड़ी के घरों में छत की बल्लियों आदि
में मिट्टी की बाँबी बनाता है। घर के
अन्दर इसका बाँबी बनाना शुभ माना जाता है।
काँण्ड्रिक्थीज (Chondrichthyes)
वर्ग (pisces)
१. माछ (मछली)
कुमाऊँ की नदियों में कई प्रकार की
मछलियाँ पाई जाती है। इनमें 'अस्याव'
मछली अधिक पसन्द की जाती है। लोक
मान्यता है कि मछली के सिर वाले
भाग को खाने से आँख की रोशनी तेज होती है।
इन्हें पकड़ने के लिए अल (बिच्छू घास की तरह का पौधा)
से बनी जाली का प्रयोग करते थे परन्तु
वर्तमान में मछली पकड़ने की जाली
में नाइलौन का तागा प्रयोग करते हैं। काँटे (बंशी)
से भी मछली पकड़ी जाती है। कुछ स्थानीय
लोग तालाबों, नदियों में खीना, रामबाँस और
लाल मिट्टी के मिले द्रव का प्रयोग
ब्लीचिंग पाउडर की तरह करके मछलियाँ पकड़ते हैं।
सरीसृप (Reptilia )
वर्ग
१. ग्वाड़/ग्वाँ (गोट)
गोह को तेल में पकाकर उस तेल से
मालिश करने पर बात रोग ठीक हो जाता है।
२. स्याँप (साँप)
साँपों की लड़ाई देखना अशुभ समझा जाता है।
साँप की केंचुल दरवाजे के ऊपर रखने
से मकान को न नहीं लगती और बच्चों को
भूत प्रेत का डर नहीं लगता। साँप रास्ता काटे तो कार्य
में बाधा आती है। बड़े साँप, नाग आदि
शिव का अवतार माने जाते हैं। कुछ साँप
मणि युक्त या पाँव वाले होते हैं।
भाग्यवान लोग ही इन्हे देख पाते हैं।
साँप की मणि मिलने पर व्यक्ति धनधान्य
से पूर्ण हो जाता है। जीवित साँप की पूँछ
सात बार माथे पर रगड़ने से सिरदर्द नहीं होता और न
बुखार आता है। साँप की केंचुल की राख को
सरसों के तेल में मिलाकर अंजन का
लेप करने से आँखों के अधिकांश रोग ठीक हो जाते हैं।
पक्षी (Aves)
वर्ग
१. कबूतर
वायु प्रसूत या लकवे की बीमारी में कबूतर का
माँस खिलाया जाता है जिससे रोगी ठीक होता है।
२. काँव/काउ (कौवा)
कौवे का कड़क कर बोलना अशुभ होता है। कौवे का सिर पर पीटना अशुभ
माना जाता है। प्रात: काल यदि आंगन
में कौवा तीन बार काँव-काँव करे तो मेहमान के आगमन की पूर्व
सूचना होती है। मकर संक्रान्ति के दिन कौवे का पूजन होता हे तथा तरह-तरह के पकवान,
विशेषत: घुघुत (चार के अंक के आकार के आटे के घुघुत
बनाकर व घी में तलकर) बनाकर कौवे को खिलाये जाते हैं। इस दिन कौवे का जूठा घुघुत
यदि गाय भैंस को खिलाया जाता है तो
मान्यता है कि उनकी बछियायें ही होंगी।
३. कुकुड़ (मुर्गी)
आम तौर पर मुर्गी का माँस खाया जाता है।
मुर्गी के अण्डे को उबालकर छील लिया जाता है। फिर उसे
रात भर नमक से ढक कर रखा जाता है। प्रात: उठते ही यह
अण्डा सर्वप्रथम यदि पीलिया के रोगी को खिलाया जाए तो पीलिया ठीक हो
जाता है।
४. गौंताइ/गौताइ/गौंतार
यह चिड़िया घरों के अन्दर या बरामदे की छत पर मिट्टी का घोंसला
बनाती है। इसका घोंसला बनाना शुभ
माना जाता है। घोंसला टूटने की स्थिति
में लोग सहारा देकर इसे बचाये
रखते हैं। इन पक्षियों का झुण्ड बनाकर
मँडराना वर्षा का सूचक होता है।
५. घिनौड़/पन चड़ि/गीण/चड़ि (गौरैया)
बच्चों की नाभि में सूजन आने की दशा
में गौरेया की बीट लगाने से आराम रहता है।
मम्स (Mumps ) पर गौरैया का बीट लगाने
से वे ठीक हो जाते हैं। पहाड़ में घरों की छत के नीचे गौरैया के घोंसले के
लिए लकड़ी में छेद (पिंजड़े) छोड़े जाते हैं।
६. घुघुत (फाख्ता)
इसका माँस वात के रोगी को दिया जाता है।
वायु प्रसूत से पीड़ित महिला को घुघुत का
माँस खिलाते हैं।
७. चील
जमीन से उड़ती चील की छाया वाली मिट्टी पकाने पर
मनोकामना पूर्ण होती है।
८. टिट्याँ (टिटहरी)
इसके अण्डे की जर्दी (yolk ) को बार-बार सिर पर
लगाने से सन्निपात (Typhoid ) ज्वर ठीक होता है। स्थानीय
वैद्य इसके अण्डे को गाय या भैंस के ताजे गोबर
में बन्द कर रखते हैं जिससे अण्डा फूटता नहीं और वर्षों
सुरक्षित रहता है।
९. तीतर
तीतर का माँस खाने से वात रोग ठीक हो जाता है। तीतर
या किसी भी पक्षी का सिर नहीं खाया जाता है। इससे कुमाऊँनी
में एक कहावत जुड़ी है - 'तीतर जतुक चतुर'।
१०. बाज/बूट्यों
आसमान में उड़ता बाज यदि स्थिर हो जाए तो वर्षा होने की
सम्भावना होती है। थिरकते बाज को निशाना
साध कर मारने से कई लाभ होते है, ऐसी
मान्यता है।
११. मल्या (खंजन)
वात रोगी को मल्या का माँस देते हैं।
वायु प्रसूत में भी इसका माँस उपयुक्त
माना जाता हैं।
१२ मोर
यह कुमाऊँ के तराई भावर क्षेत्र में
मिलते हैं। इसका पंख पवित्र व शुभ
माना जाता है। उसका पंखों का प्रयोग ओझा
लोग झाड़ फूँक में करते हैं। जले-कटे स्थान पर हाथ के
बदले मोर-पंख से दवा लगाई जाती हैं। कान
में मोर के पंजे को घिसकर डालने
से कान का बहना बंद हो जाता है।
मोर के पंख की डण्डी (rachis ) नाक-कान के छिद्रों
में भी डाली जाती है क्योंकि यह माना जाता है कि इसको डालने
से नाक-कान (छिद्र के पास) नहीं पकते हैं तथा
साथ-साथ छिद्र भी बड़े होते हैं।
१३. लमूपुछिया/लमूपुछड़ी
प्रसूत की बीमारी में इसका शिकार खिलाने
से बीमारी ठीक हो जाती है। इस पक्षी
से कुमाऊँनी की "कुकुलि दी पान-पान" विषयक
लोक कथा जुड़ी है।
१४. सिटौल/सिण्टालु/सिण्टई (देशी
मैना)
शरीर के किसी हिस्से से यदि बाल गिरने
लगते हैं तो इस पक्षी का खून लगाने
से खैर सी यह बीमारी ठीक हो जाती है। इनका झुण्ड जब "साँप-साँप" कहकर चहकता है, तो आस-पास
साँप या बिल्ली होते हैं। इससे कुमाऊँनी की एक कहावत
भी जुड़ी है - "गू नि खूँ, गू नि खूँ, गू नि खूँ कि खूँ"।
१५. स्तनि (कस्तूरी मृग)
१. नर कस्तूरी मृग की नाभि से कस्तूरी निकालकर इसका प्रयोग कई प्रकार की दवाओं
में किया जाता है।
२. गै/गोरु (गाय)
पेड़ पौधों को कीड़े-मकोड़ों से बचाने के
लिए गाय का गोबर का भ (राख) ड़ाला जाता है। गाय के गोबर के कन्ड़ों की
राख अनाजों में ड़ालने से कीड़ा नहीं
लगता। गाय का दूध अनेक रोगों में लाभप्रद होता है।
बातरोग में गाय के घी की मालिश की जाती है। गाय के दूध
से बना मक्खन सिर पर मलने से ठंडक
मिलती है। गाय का गोबर और मूत्र
शुद्ध माना जाता है। शवयात्रा से लौटने,
रुजस्वला होने, प्रसूता होने आदि
में गोमूत्र सिर पर शरीर पर छिड़का और पिया जाता है। गोमूत्र
अनेक रोगों को नष्ट करता है।
३. ध्वड़ (घोड़ा)
घोड़े के बाल से मुस्कुट (मस्से) काटने का काम
लिया जाता है। घोड़े की लीद उबालकर, कपड़छान करके छने द्रव को पेट दर्द
में देने से पेट दर्द कम हो जाता है। घोड़े की नाल को दरवाजे के ऊपर
लगाने से मकान को न नहीं लगती। घोड़े की नाल की
शनिवार को बनी अँगूठी पहनने से
शनिश्चर की दशा का प्रभाव कम होता है। घोड़े की
लीद विष्टा कूप (Sptic
tank ) में ड़ालने से उसमें कीड़े
उत्पन्न हो जाते हैं। घोड़े का मूत्र वायु, कफ और कृमिनाशक होता है।
४. चुथरौन/चुतरौल/चुतरौन
चुथरौल की हड्डी घिसकर नासूर
में लगाने से नासूर ठीक हो जाता है।
५. जड्यौ/जड़ीया (बारहसिंगा)
सिरदर्द में बारहसिंगे के सींग को पानी के
साथ घिसकर लेप करने से सिरदर्द ठाक हो जाता है।
मोतियाबिन्द में इसके सींग को घिसकर
लगाने से लाभ मिलता है। इसके सींग को घिसकर कान
में ड़ालने से कान का बहना बन्द हो जाता है। जड्यों का
सींग मक्के की कलगी से दाने निकालने के काम
भी आता है।
६. पणोद (उदबिलाव)
उदबिलाव का दीखना शुभ माना जाता है। इसका
माँस गर्म तासीर वाला होता है।
७. बल्द (बैल)
बैल की खाल से ढ़ोल नगाढ़े आदि गढ़े जाते हैं। जब गाय-बैल पूँछ उठाकर एकाएक तेज
भागते हैं या उछल-कूद करतै हैं तो वर्षा होती है।
८. बाकर (बकरी)
बकरी का पित्ताशय निगलने से आँखों की ज्योति
बढ़ती है। बकरी का दूध स्वास्थ्यवर्धक
माना जाता है। बकरी की सूखी मैगनी को पासकर घाव पर
लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाता है।
बकरी के आमाशय से हुडुक (Kettle-drum ) तथा त्वचा
से ढ़ोलक मढ़ी जाती है। बकरी के पाँवों का
सूप गर्म तासीर वाला होता है। बकरी की खाल को घरों
में बिछावन की तरह प्रयोग करते हैं।
९. बाग (बाघ) चीता
बातरोग या बदन दर्द में इसकी चर्बी की
मालिश से लाभ मिलता है। इसके नाखून और आदमी की
मूँछ के बाल ताबीज में बन्द कर बच्चों के गले
में बाँधने से उन्हें न नहीं लगती और उन्हें
भूत-प्रेत का डर नहीं रहता। इसके कन्धे की हड्डी जो
लाठी की तरह होती है सम्मोहन के काम
में आती है।
१०. बिरालु/बिराउ (बिल्ली)
बिल्ली का रोना अशुभ होता है। मुँह के दाद को
बिल्ली यदि अपने जीभ से चाटे तो दाद ठीक हो जाता है। पशुओं का टीला
(खाँसी) की बीमारी में पीठे के साथ
बिल्ली की विष्ठा देने से बीमारी ठाक हो जाती है।
बिल्ली का सद्य: निसृत औंरा (फली, बीजाँडासन
= placentra ) घर
में सँभालकर रखना शुभ माना जाता है। कहीं जाते
समय बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ
समझा जाता है। दो बिल्लियों का लड़ना अशुभ
माना जाता है। बिल्ली और साँप अपना-अपना पूँछ
हिलाकर मन्त्र युद्ध करते हैं इसमें जो हारता है वह मर जाता है ऐसी
मान्यता है।
११. भालु (भालू)
गठिया बात में भालू की चर्बी से मालिश करने पर पुराना
से पुराना गठिया बात रोग ठीक हो जाता है।
भालू के पित्ताशय (gall
bladder ) से मलेरिया
रोग का उपचार किया जाता है। पित्ताशय
सुरक्षित रखने का तरीका - भालू का पित्ताशय निकालकर उसमें
साफ चावल के दाने भर दिए जाते हैं और इसे
वायु शुष्क (Air dry) कर दिया जाता है।
सूखने के बाद पित्ताशय के भीतर पीला पाउडर
बन जाता है, जो लम्बी अवधि तक प्रयोग
में लाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि
भालू औरतों के साथ सम्भोग की इच्छा
रखता है।
१२. भैंस तथा भैंसा/जती/जतिया
भैंस के गोबर का शरीर पर लेप करने और दूध, दही खाने
से भैंसिया पित्ती (बड़ी पित्ती) ठीक हो जाती है।
भैंस/भैंसा की खाल से ढोल-दमामौ
मढ़े जाते हैं। भैंस/भैंसा के गोबर की
भ पेड़ पौधों पर डालने से कीड़े-मकौड़े नष्ट हो जाते हैं।
भैंस की बछिया की खाल की ट्यूब बनाकर तैरने
में काम आती है। भैंस के ताजे खून में पाँव
रखने से मसूर खुम (पैर के तलवे की कील) ठीक हो जाती है। जिन
मन्दिरों में चैत या असौज में भैंस की
बलि दी जाती है वहाँ उक्त कष्ट से पीड़ित
रोगी उसमें पाँब रखते हैं। भैंस/भैंसा की जंगल
में पड़ी सींग के ऊपर जमी फफूँद (fungus ) को निकाल कर
लगाने से कण्ठ (गर्दन) खुजली ठीक हो जाती है।
भैंस या भैंसा का मूत्र बवासीर में
लाभप्रद होता है। यह उदर के रोगो
में भी लाभप्रद होता है। गाय-भैंसों
को जब 'छिपड़ी' नामक बीमारी होती है तो
उनके नाक मुँह सूख जाते हैं, आँतों
में छिपकली जैसी आकृति बन जाती है।
भैंस की खाल का रंग लाल हो जाता है। इस
बीमारी के इलाज के लिए लोग गाय
या भैंस की आँतों में बने छिपकलियों की आकृति के
माँस को टुकड़ों को निकाल लेते हैं और उन्हें
सुखा लेते हैं। जब गाय भैंसों को यह
बीमारी होती हैं तो छिपकली के आकार के
ये माँस के टुकड़े पानी में घिसकर, गाय के छिपड़ो को
बीमार भैंस को तथा भैंस को छिपड़ों को
बीमार गाय को देते हैं, जिससे उनकी
बीमारी तुरन्त ठीक हो जाती है।
१३. मुस (चूहा)
महिलाओं को प्रसूत की बीमारी में चूहे का
शिकार खिलाने से लाभ मिलता है। चूहे का
शिकार सद्य: प्रसूता को देने से उसका दूध
बढ़ जाता हैं। इसका शिकार खाने से
बवासीर के मस्से गिर जाते हैं। चूहे का
शिकार आँव की बीमारी में भी लाभप्रद होता है। चूहे की विष्टा को ककड़ी के
बीजों के साथ पीसकर नाभि पर लगाने
से तुरन्त पेशाब हो जाती है। चूहे का
शिकार आँखों की रोशनी बढ़ाता है। चूहे के बिल
से निकली मिट्टी मुस्कुटों पर रगड़ने
से वे ठीक हो जाते हैं।
१४. स्याल/स्याव (सियार)
सियार की खाल से ढोल-दमौं मढ़े जाते हैं। फ्यौण
(एक विशेष सियार) यदि तीन बार भौंके, तो किसी की निश्चित ही
मृत्यु होती है। लिंग और दोनों अंडकोष दबाने
से सियारों का भौंकना बंद हो जाता है। इस जानवर को बहुत चतुर
माना जाता है तथा इससे यह कहावत जुड़ी है - "स्यावक जसि
बुद्धि है जॉ"।
१५. सॅस (खरगाश)
दमा की बीमारी में खरगोश का माँस
लाभप्रद होता है।
१६. सङ्र/सुअर
दमा के रोगी के सुअर का माँस खिलाया दाता है।
सुअर के कान की हड्डी घिसकर कान
में ड़ालने से कानदर्द ठीक हो जाता है।
सुअर की नाभि को घिसकर दमा के रोगी के कण्ठ
में लेप करने से आराम मिलता है।
सुअर का पित्ताशय शरीर का तापमान
बढ़ाने के काम आता है। शरीर का तापमान कम होने पर पित्ताशय पानी
में घोलकर पिलाने से शरीर का तापमान
बढ़ा जाता है। वैद्य लोग सुअर के पित्ताशय को
भालू के पित्ताशय की ही भाँति सुरक्षित
रखते हैं।
१७. सौल/शौल/साही
साही के बालों की कलमें बनती हैं। साही का काँटा
यज्ञोपवीत में काम आता है। साही का काँटा किसी के घर
में रख दिया जाता है तो उस परिवार के
सदस्यों में आपस में झगड़ा होता रहता है।
बात रोग में इसका माँस खाने लाभप्रद होता है।
इन पशु-पक्षियों व जानवरों के प्रति दयाभाव व इनसे जुड़ी परम्परागत
मान्यताओं के बावजूद इनकी संख्या का निरंतर कम होना विचारणीय (विषय) प्रश्न है। इन पशु-पक्षियों के
संरक्षण के प्रति सजग रहकर हिमालय की इस अमूल्य धरोहर को हमें
बचाना होगा।
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