उत्तरांचल

चाय के बगीचे


  बज्यूला, ग्वालदम, डूमलोट, ओड़ा, लोध, दुनागिरि, जलना, बिसनर, गौलपालड़ी, बेनीनाग, डोल, लोहाघाट, झलतोला, कौसानी, स्याही देवी, चौकोड़ी, छीड़ापानी आदि में चाय की खेती होती थी। इन सब में कौसानी, बेनीनाग तथा लोध ने खूब नाम कमाया। कौसानी की चाय अब नाम-मात्र को रह गई है। चौकड़ी व बेनीनाग में अभी बहुत कुछ चाय ठा. देवीसिंह व दानसिंह बिष्ट बना रहे हैं। ये ही सबसे बड़ी चाय के बगीचे यहाँ पर रह गये हैं।

पर्वतीय खेती में अत्यधिक श्रम तथा दक्षता की आवश्यकता होती है। सीढ़ीदार खेतों को पुरातन यंत्रों से जोतना एक कठिन कार्य है। यद्यपि बाढ़ तथा सूखा जैसे प्राकृतिक प्रकोपों से सामान्यत: यह क्षेत्र मुक्त रहा था। परन्तु भूमि के कटाव तथा भूस्नखल जैसी समस्यायें उठती रही।

प्रारम्भ में किसान असुरक्षा के कारण अस्थिर तथा घुमक्कड़ थे। कुछ समय तक एक स्थान पर खेती करने के बाद दूसरे स्थान की तलाश में निकल जाते थे। फसल परिवर्तन की परिवर्तन की परम्परागत व्यवस्था इस क्षेत्र के लिए अत्यनत उपयुक्त थी, बशर्तें भूमि की उर्वरता बनी रहे। ऊँची ढलानों में पैदावार कम होती थी जबकि घाटियों की भूमि अत्यन्त उपजाऊ थी। जहाँ भूमि का छोटे से छोटा भाग भी श्रम पूर्वक जोता जाता था। एटकिन्सन से सोमेश्वर व भीमताल की घाटियों को सम्पूर्ण एशिया में सुन्दरतम व उर्वरतम बताया है। खास जाति के लोग, जो पश्चिमी एशिया से आये थे, मुख्यत: पशुपालन करते थे और अपने पशुओं को चराने के लिए उन्होंने पर्वतों की तलहटी में बसना श्रेयस्कर समझा। बाद में उन्होंने पशुचारण के साथ खेती भी स्वीकार की।

कुमाऊँ में विभिन्न राजवंशों ने राज्य किया। विभिन्न जन जातियों के बीच निरन्तर युद्धों से खेती पर असर पड़ा और भूमि की उर्वरता क्षीण होती चली गयी। चीनी यात्री ह्मवेनसांग, जो हर्ष काल के समय भारत आया था, ने पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र को देखकर लिखा कि यह अत्यन्त सम्पन्न है, भूमि उर्वर है तथा मुख्य फसलें हैं मोटा गेहूँ, जौ, उवा तथा फाफर। यहाँ खेतों में बीजों के अंकुरण तथा फसलों की रक्षा हेतु खेतों के देवता भूमिया (क्षेत्रपाल), वनों के संरक्षण का देवता सैम, पशुधन में वृद्धि का देवता चामू, बधाण, कलबिष्ट इत्यादि।

 

 

 

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