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थल मेला


सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में जिला मुख्यालय से लगभग ५० कि.मी. की दूरी पर थल नामक कस्बा है । इसी कस्बे में प्रतिवर्ष वैशाखी के अवसर पर क्षेत्र का प्रसिद्ध व्यवसायिक मेला लगता है जो स्थान के अनुसार थल मेला कहलाता है ।

थल में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर ही इस मेले का केन्द्र है । थल के अन्य मंदिरों में बालेश्वर मंदिर की महिमा का वर्णन भी मिलता है । इस मंदिर में स्थित शिवलिंग का मेले के अवसर पर विशेष दर्शन प्राप्त किया जाता है । स्कन्द पुराण के यात्री को रामगंगा में स्नानकर बालीश तथा शिव के गणों का पूजन कर पावन पर्वत की ओर जाना चाहिए । आज भी थल यात्री मानसरोवर की ओर प्रस्थान करते हैं ।

यह भी कहा जाता है कि वर्ष १९४० में रामगंगा नदी के तट पर क्रान्तिवीरों ने जालियाँवाला दिवस मनाया था तभी से इस स्थान पर मेले के आयोजन का प्रथम सूत्रपात हुआ था तथा इस स्थान पर मेले की पृष्ठभूमि बनी । पहाड़ के अन्य मेलों की तरह यहाँ भी सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियाँ बाज़ी गयीं तथा कालान्तर में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक व व्यापारिक मेला बन गया ।

पहले यह मेला दस से पन्द्रह दिनों तक चला था । तीन दशक पहले तक तो मेला बीस दिनों से भी ज्यादा जुटता था ।

इस मेले के व्यापारिक महत्व के कारण दूर-दूर से व्यापारी अपना माल बेचने के लिए आया करते थे ।

मुंश्यारी, कपकोट, धारचूला जैसे हस्तकला के केन्द्र तब से इस मेले से सशक्त रुप से जुड़े हुए थे । किंरगाल की टोकरियाँ, मोस्तो, रस्से, डोके, कुर्सियाँ, कृषकों के लिए हल, कुदाल-कुटले से लेकर गृहणियों के काम में आने वाले सामान और चूड़ी-बिन्दी से लेकर टीकुली तक यहाँ बिकती थी । खरदी के ताँबे के बर्तन, भांग से बने हुए कुथले भी यहँ भारी मात्रा में बिकते थे । ऊनी वस्रों के लिए तो लोग साल-साल भर इस मेले की इंतजार करते । नेपाल के व्यापारी यहाँ खालें लेकर आते थे । उन्नत नस्ल के पशुओं की भी खरीद फरोख्त होती थी ।

इस मेले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी समृद्ध थी । बैर, झोड़ा, चांचरी व हुड़के की थाप पर सामयिक गीतों से वादियाँ गूँजती रहतीं । काली कुमाऊँ, सोर घाटी, गंगोली, नेपाली तथा गोरखा साँस्कृतियों के कारण मेला अनूठा संगम स्थल बन गया था ।

आवागमन के साधनों में वृद्धि के कारण इस मेले का व्यापारिक पक्ष आब उतना सशक्त नहीं रहा जितना चार दशक पहले था । तिब्बत से व्यापार बन्द होने के कारण अब मेले में रौनक कम हो गयी है । बीस दिनों तक चलने वाला यह मेला मात्र चार दिनों तक के लिए ही सिमट कर रहा गया है । फिर भी कुमाऊँ की हस्तकला के यहाँ आज भी सजीव दर्शन होते हैं तथा लोकगीतों, भगलौल, झोड़े, चांचरी आदि के कारण मेले का कुछ-कुछ परम्परागत स्वरुप जीवित है ही ।

 

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