जौलजीवी नामक कस्बा पिथौरगढ़ में मानसरोवर के ऐतिहासिक मार्ग पर अवस्थित है । यह पिथौरगढ़ जिला मुख्यालय से ६८ कि.मी. की दूरी पर बसा है । यहाँ प्रतिवर्ष १४ नवम्बर, बाल दिवस के अवसर पर प्रसिद्ध मेला आयोजित होता है ।
जौलजीवी मेले को प्रारम्भ करने का श्रेय पाल ताल्लुकदार स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल को जाता है । उन्होंने ही यह मेला सन् १९१४ में प्रारम्भ किया था, यद्यपि उस समय यह मेला धार्मिक दृष्टिकोण से ही प्रारम्भ हुआ तो भी धीरे-धीरे इसका जो स्वरुप उभरकर सामने आया वह मुख्य रुप से व्यवसायिक था । जौलजीवी भी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है । स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे । जौलजीवी में काली-गौरी नदियों का संगम है और शिव का प्राचीन मंदिर । स्कनदपुराण में भी वर्णित है कि मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी के संगम पर स्नानकर आगे बढ़ना चाहिये । इसलिए मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है । इसके पश्चात् महादेव की पूजा अर्चना की जाती है । प्राय: कुमाऊँ में लगने वाले सभी मेलों की तरह इस प्रसिद्ध मेले का स्वरुप भी प्रारम्भ में धार्मिक ही था जो बाद में व्यापार प्रधान होता गया । चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था । इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारियों की सक्रिय भागीदारी होती थी । इसमें नेपाल के जुमली डोटी के व्यापारी सबसे अधिक आते थे
। तब उत्तर प्रदेश के ही नहीं कलकत्ता तक से माल की खरीद के लिए व्यापारी मेले से भी पहले पहुँच जाते थे । जौहार, दारमा, व्यास, चौंदास घाटी के ऊनी माल के लिए तो इस मेले का विशेष रुप से इंतजार किया जाता था । तब गौरी और काली नदियों पर पुल नहीं थे । इसलिए अस्कोट के राजाओं द्वारा गोरी नदी पर कच्चा पुल बनाया जाता तो नेपाल की ओर से भी काली नदी पर पुल डाला जाता था ।
असकोट के पाल राजाओं ने ही यहाँ जैलेश्वर महादेव तथा अन्नपूर्णा देवी के मन्दिरों की स्थापना की । जमीनें मन्दिरों को दान में दी गयीं तथा पुजारी की विधिवत् नियुक्ति हुई ।
जौलजीवी मेले के व्यापारिक महत्व को देखते हुए तिब्बती व शौका व्यापारी सांभर, खाल, चँवर, पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों को लेकर आने लगे । कपड़ा, नमक , तेल, गुड़, हल, निंगाल के बने डोके, काष्ठ उपकरण-बर्तन आदि यहाँ प्रचुर मात्रा में बिकते थे । उस समय यह क्षेत्र सड़कों और आवागमन की दृष्टि से दुरुह था । जौलजीवी तक सड़क भी नहीं पहुँची थी । इसलिए नेपाल-तिब्बत का भी यही सबसे प्रमुख व्यापारिक स्थल बना । अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए आसपास के सभी इलाके इसी मेले पर निर्भर हो गये थे ।
जौलजीवी का यह मेला चीनी आक्रमण के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ । तिब्बत का माल आना बन्द हो गया जिससे ऊनी व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा । काली नदी के तट पर जो बाजार लगते था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा हालांकि अब भी दन, कालीन, चुटके, पश्मीने, पँखियाँ, थुल्में आदि यहाँ बिकने आते हैं, लेकिन तब के व्यापार और अब में अन्तर बहुत हो गया है ।
मेला अब स्वत: स्फूर्त कम और प्रशासनिक ज्यादा हो गया है । इसलिए इस मेले का उपयोग अब विभिन्न सरकारी विभाग अपने कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में अधिक करते हैं । मेले में आये विभिन्न सांस्कृतिक दल भी अपने हुनर को दक्षता के साथ प्रस्तुत करते हैं ।
|