उत्तरांचल

मृतक-कर्म की रीतियाँ


वृद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर पुत्रवान कुटुम्बी, आस्तिक धनी काशीवास कर लेते थे, अथवा अन्यत्र कहीं गंगा-तट पर निवास करके ईश्वर-भजन करते थै । पर अब लोग पुत्रादि के समीप रहना आवश्यक समझते हैं । मृत्यु के समय गीता और श्रीमद्भागवतादि का पाठ सुनना, रामनाम का जप करना स्वर्गदायक समझा जाता है । गोदान और दश-दान कराके, होश रहते-रहते मृतक को चारपाई से उठाकर जमीन में लिटा दिया जाता है । प्राण रहते गंगा जल ड़ाला जाता है । प्राण निकल जाने पर मुख-नेत्र-छिद्रादि में सुवर्ण के कण ड़ाले जाते हैं । फिर स्नान कराकर चंदन व यज्ञोपवीत पहनाये जाते हैं । शहर व गाँव के मित्र, बांधव तथा पड़ोसी उसे श्मशान ले जाने के लिए मृतक के घर पर एकत्र होते हैं । मृतक के ज्येष्ठ पुत्र, उसके अभाव में कनिष्ठ पुत्र, भाई-भतीजे या बांधव को मृतक का दाह तथा अन्य संस्कार करने पड़ते हैं । जौ के आटे से पिंडदान करना होता है । नूतन वस्र के गिलाफ (खोल) में प्रेत को रखते हैं, तब रथी में वस्र बिछाकर उस प्रेस को रख ऊपर से शाल, दुशाले या अन्य वस्र ड़ाले जाते हैं । मार्ग में पुन: पिंड़दान होता है । घाट पर पहुँचकर प्रेत को स्नान कराकर चिता में रखते हैं । श्मशान-घाट ज्यादातर दो नदियों के संगम पर होते हैं । पुत्रादि कर्मकर्ता अग्नि देते हैं । कपाल-क्रिया करके उसी समय भ कर देते हैं । देश की तरह तीसरे दिन चिता नहीं बुझाते । उसी दिन बुझाकर जल से शुद्ध कर देते हैं । कपूतविशेष (कपोत यानि कबूतक के तुल्य सिर पर बाँधना होता है । इस 'छोपा' कहते हैं । मुर्दा फूँकनेवाले सब लोगों को स्नान करना पड़ता है । पहले कपड़े भी धोते थे । अब शहर में कपड़े कोई नहीं धोता । हाँ, देहातों में कोई धोते हैं । गोसूत्र के छींटे देकर सबकी शुद्धि होती है । देहात में बारहवें दिन मुर्दा फूँकनेवालों का 'कठोतार' के नाम से भोजन कराया जाता या सीधा दिया जाता है । नगर में उसी समय मिठाई, चाय या फल खिला देते हैं । कर्मकर्ता को आगे करके घर को लौटते हैं । मार्ग में एक काँटेदार शाखा को पत्थर से दबाकर सब लोग उस पर पैर रखते हैं । श्मशान से लौटकर अग्नि छूते हैं, खटाई खाते हैं ।

कर्मकर्ता को एक बार हविष्यान्न भोजन करके ब्रह्मणचर्य-पूर्वक रहना पड़ता है । पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें या नवें दिन से दस दिन तक प्रेत को अंजलि दी जाती है, तथा श्राद्ध होता है ।

मकान के एक कमरे में लीप-पोतकर गोबर की बाढ़ लगाकर दीपक जला देते हैं । कर्मकर्ता को उसमें रहना होता है । वह किसी को छू नहीं सकता । जलाशाय के समीप नित्य स्नान करके तिलाञ्जलि के बाद पिंडदान करके छिद्रयुक्त मिट्टी की हाँड़ी को पेड़ में बाँध देते हैं, उसमें जल व दूध मिलाकर एक दंतधावन (दतौन) रख दिया जाता है और एक मंत्र पढ़ा जाता है, जिसका आशय इस प्रकार है - "शंख-चक्र गदा-धारी नारायण प्रेतके मेक्ष देवें । आकाश में वायुभूत निराश्रय जो प्रेत है, यह जल मिश्रित दूध उसे प्राप्त होवे । चिता की अग्नि से भ किया हुआ, बांधवों से परिव्यक्त जो प्रेत है, उसे सुख-शान्ति मिले, प्रेतत्व से मुक्त होकर वह उत्तम लोक प्राप्त करे ।" सात पुश्तके भीतर के बांधव-वर्गों को क्षौर और मुंडन करके अञ्जलि देनी होती है । जिनके माता-पिता होते हैं, वे बांधव मुंडन नहीं करते, हजामत बनवाते हैं । दसवें दिन कुटुम्बी बांधव सबको घर की लीपा-पोती व शुद्धि करके सब वस्र धोने तथा बिस्तर सुखाने पड़ते हैं । तब घाट में स्नान व अञ्जलिदान करने जाना पड़ता है । १० वें दिन प्रेत कर्म करने वाला हाँड़ी को फोड़ दंड व चूल्हे को भी तोड़ देता है, तथा दीपक को जलाशय में रख देता है । इस प्रकार दस दिन का क्रिया-कर्म पूर्ण होता है । कुछ लोग दस दिन तक नित्य दिन में गरुड़पुराण सुनते हैं । 

ग्यारहवें दिन का कर्म एकादशाह तथा बारहवें दिन का द्वादशाह कर्म कहलाता है । ग्यारहवें दिन दूसरे घाट में जाकर स्नान करके मृतशय्या पुन: नूतन शय्यादान की विधि पूर्ण करके वृषोत्सर्ग होता है, यानि एक बैल के चूतड़ को दाग देते हैं । बैल न हुआ, तो आटे गा बैल बनाते हैं । ३६५ दिन जलाये जाते हैं । ३६५ घड़े पानी से भरकर रखे जाते हैं । पश्चात् मासिक श्राद्ध तथा आद्य श्राद्ध का विधान है ।

द्वादशाह के दिन स्नान करके सपिंडी श्राद्ध किया जाता है । इससे प्रेत-मंडल से प्रेत का हटकर पितृमंडल में पितृगणों के साथ मिलकर प्रेत का बसु-स्वरुप होना माना जाता है । इसके न होने से प्रेत का निकृष्ट योनि से जीव नहीं छूट सकता, ऐसा विश्वास बहुसंख्यक हिन्दुओं का है । इसके बाद पीपल-वृक्ष की पूजा, वहाँ जल चढ़ाना, फिर हवन, गोदान या तिल पात्र-दान करना होता है । इसके अनन्तर शुक शान्ति तेरहवीं का कर्म ब्रह्मभोजनादि इसी दिन कुमाऊँ में करते हैं । देश में यह तेरहवीं को होता है ।

श्राद्ध - प्रतिमास मृत्यु-तिथि पर मृतक का मासिक श्राद्ध किया जाता है । शुभ कर्म करने के पूर्व मासिक श्राद्ध एकदम कर दिए जाते हैं, जिन्हें "मासिक चुकाना" कहते हैं । साल भर तक ब्रह्मचर्य पूर्वक-स्वयंपाकी रहकर वार्षिक नियम मृतक के पुत्र को करने होते हैं । बहुत सी चीजों को न खाने व न बरतने का आदेश है । साल भर में जो पहला श्राद्ध होता है, उसे 'वर्षा' कहते हैं ।

प्रतिवर्ष मृत्यु-तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है । आश्विन कृष्ण पक्ष में प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध किया जाता है । काशी, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में तीर्थ-श्राद्ध किया जाता है । तथा गयाधाम में गया-श्राद्ध करने की विधि है । गया में मृतक-श्राद्ध करने के बाद श्राद्ध न भी करे, तो कोई हर्ज नहीं माना जाता । प्रत्येक संस्कार तथा शुभ कर्मों में आभ्युदयिक "नान्दी श्राद्ध" करना होता है । देव-पूजन के साथ पितृ-पूजन भी होना चाहिए । कर्मेष्ठी लोग नित्य तपंण, कोई-कोई नित्य श्राद्ध भी करते हैं । हर अमावस्या को भी तपंण करने की रीति है । घर का बड़ा ही प्राय: इन कामों को करता है । 

शिल्पकार हरिजन जो सनातनधर्मी हैं, वे अमंत्रक क्रिया-कर्म तथा मुंडन करते हैं, और श्राद्ध ज्यादातर आश्विन कृष्ण अमावस्या को करते है । जमाई या भांजे ही उनके पुरोहित होते हैं ।

 

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