कुमाऊँ का लोक-साहित्य अत्यन्त समृद्ध है । गीतों की दृष्टि से कुमाऊँ का लोक-साहित्य विशेष रुप से जन-जन को आकर्षित करता है । कुमाऊँनी लोक साहित्य सात प्रकार के माने जाते हैं -
१. लोकगीत
२. कथा गीत
३. लोक-कथाएँ
४. कथाएँ
५. लोकोक्तियाँ
६. पहेलियाँ और अन्य रचनाएँ
डॉ. कृष्णानन्द जोशी ने अपने 'कुमाऊँ का लोक साहित्य' में प्रमुख वर्गों में कुमाऊँनी लोक साहित्य को बाँटकर अपने कथन की पुष्टि इस प्रकार की है ।
पद्यात्मक (गेय) गीत
गद्य-पद्यात्मक (चम्पू काव्य) गीत
गद्य-काव्य
शौका क्षेत्र के लोकगीत एवं नृत्य
पद्यात्मक गीत
१. धार्मिक गीत
धार्मिक गीतों की सँख्या कुमाऊँ में अधिक है । धार्मिक गीतों में पौराणिक आख्यानों वाले गीतों का प्रथम स्तर पर लिया जा सकता है । ऐसे गीतों में दक्ष प्रजापति के यज्ञ से लेकर रामायण, महाभारत के अनेक अवसरों के गीत आ जाते हैं । ऐसे गीतों का क्रम बहुत लम्बा चलता है । पौराणिक देवी-देवताओं के सभी गीत इस क्षेत्र में गाये जाते हैं ।
धार्मिक गीतों के अन्तर्गत स्थानीय देवी-देवताओं को भी स्थान मिला है । इन्हों जागर गीत के नाम से जाना जाता है । गढ़वाल-कुमाऊँ में 'जागरों' का विशेष महत्व है । जागरी, ढोल, हुड़का, डौंर-थाली बजाकर देवता विशेष के जीवन व कार्यों का बखान गीत गाकर करता है । जिस व्यक्ति पर 'देवता' विशेष अवतरित होता है - वह डंगरिया कहलाता है । जागरी जैसे-जैसे वाद्य बजाकर देवता विशेष के कार्यों का उल्लेख करता हुआ गाता है - वैसे-वैसे ही 'औतारु' (डंगरिया) नाचता जाता है । उसके शरीर में एक विशेष प्रकार की 'कम्पन शक्ति' प्रवेश करती है । जन-मानस मनौती मनाकर देवता को जागरी से नचवाते हैं और देवता को नाचने पर विपत्ति को टली हुई मानते हैं । आश्विन के महीने में ऐसे 'जागर' लगाये जाते हैं । स्थानीय देवी-देवताओं का पूजन 'बैसी' कहलाता है । जागरों में ग्वेल, गंगनाथ, हरु, कव्यूर, भोलानाथ, सेम और कलविष्ट आदि के जागर विशेष रुप से प्रसिद्ध हैं ।
२. संस्कार गीत
संस्कार गीतों को यदि नारी-हृदय के गीत कहें तो अत्युक्ति न होगी । जन्म, छठी, नामकरण, यज्ञोपवीत तथा विवाह आदि के गीत संस्कार गीतों की श्रेणी में आते हैं । जिन्हें महिलाएँ अपने कोमल कण्ठ से बड़े प्यार से गाती हैं । 'स्वकुनाखर' (शकुन गीत) ऐसा गीत होता है जो प्रत्येक मंगल कार्य के अवसर पर गाया जाता है । गढ़वाल में 'मांगलगीत' इसी प्रकार का गीत है ।
३. ॠतु गीत
ॠतु-त्यौहार के गीतों को डॉ. त्रिलोचन पाण्डेय ने मुक्तक गीतों की श्रेणी में लिया है । उन्होंने ऐसे गीतों को नौ श्रेणियों में बाँटा है -
१. नृत्य प्रधान गीत
२. अनुभूति प्रधान गीत
३. तर्क प्रधान गीत
४. संवाद प्रधान गीत
५. स्फुट गीत
६. ॠतु गीत
७. देवी-देवता गीत
८. व्रत त्यौहार के गीत
९. कृषि गीत
ॠतु विशेष के आगमन पर ऐसे गीत गाये जाते हैं । चैत्र मास से शुरु होने वाले ऐसे गीतों को 'रितु रवैण' कहते हैं । इसके अलावा कुमाऊँ के ॠतु गीतों में 'काफलिया', 'रुड़ी', 'हिनौल' और 'होली' विशेष रुप से प्रसिद्ध हैं । फागुन के महीने में सर्वत्र होलियाँ गाई जाती हैं । गंगोली, चम्पावत, द्वाराहाट
और सतराली आदि स्थानों की होलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं ।
४. कृषि सम्बन्धी गीत
कुमाऊँ में जब खेतों में रोपाई या गोड़ाई होती है तो वहाँ का मानव रंगीला हो जाता है । ऐसे समय जो गीत हुड़की के साथ गाये जाते हैं, उन्हें 'हुड़किया बौल' कहा जाता है । 'गुडैल' गीत गोड़ाई से सम्बन्धित है । ऐसे गीतों को गाने से पूर्व 'भूमयाल', 'कालीनर' देवों की प्रार्थना की जाता है कि वे भूमिपति के सदा अनुकूल रहैं । बाद में कथा प्रधान गीत (जैसे बौराण और मोतिया सौन का गीत) आदि गाये जाते हैं । खेती का काम ऐसे गीतों के साथ अति तीव्रता से होता रहता है ।
५. उत्सव तथा पर्व सम्बन्धी गीत
इन गीतों में आंचलिक विश्वासों और आचार-प्रथाओं का विशेष महत्व देखने में आता है । भादो शुक्ल सप्तमी और अष्टमी को कुमाऊँ की महिलाएँ, 'डोर दुबड़' का व्रत रखती हैं । 'गवरा' (गौरा) पूजन से सम्बन्धित गीत इस ब्रत के अवसर पर गाए जाते हैं । चैत्र के प्रथम दिन कन्याएँ 'फुलदेवी' का आयोजन वर्ष भर की खुशहाली के लिए करती हैं । सावन मास के पहले दिन हरियाला का त्यौहार हरियाली गीत के साथ मनाया जाता है । 'खतड़वा' का स्थानीय त्यौहार कुमाऊँ अंचल में आश्विन संक्रान्ति के दिन मनाया जाता है । मकर संक्रान्ति के दिन कुमाऊँ में 'घुघतिया' त्यौहार मनाया जाता है । इस दिन बालक एवं बालिकाएँ आटे के घुघते बनाकर कौवों को खिलाते हुए 'घुघतिया' गीत गाते हैं ।
"काले कव्वा काले, का ले का ले"
६. मेलों के गीत
कुमाऊँ के ऐसे गीत नृत्य-गीत हैं । कुछ नृत्य गीतों की शैलियाँ इस प्रकार हैं -
झोड़ा - झोड़ा सामूहिक नृत्य-गीत है । वृताकार घेरे में एक दूसरेकी कमर अथवा कन्धों में हाथ डाले सभी पुरुषों के मन्द, सन्तुलित पद-संचालन से यह नृत्य गीत प्रारम्भ होता है । वृत के बीच में खड़ा हुड़का-वादक गीत की पहली पंक्ति को गाता हुआ नाचता है, जिसे सभी नर्तक दुहराते हैं, गीत गाते और नाचते हैं । झोडों में उत्सव या मेले से सम्बन्धित देवता विशेष की स्तुति भी नृत्यगीत भावनाएँ व्यंजित होती हैं । सामयिक झोड़ों में चारों ओर के जीवन-जगत पर प्रकाश डाला जाता है । 'झोडे' कई प्रकार के होते हैं । परन्तु मेलों में मुख्यत: प्रेम प्रधान झोडों की प्रमुखता रहती है ।
चाँचरी - चाँचरी अथवा चाँचुरी कुमाऊँ का समवेत नृत्यगीत है । इस नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें वेश-भूषा की चमक-दमक अधिक रहती है । दर्शकों की आँखे नृतकों पर टिकी रहती है । 'चाँचरी' और झोड़ा नृत्य देखने में एक सा लगता है परन्तु दोनों की शैलियों में अन्तर है । चाँचरी में पद-संचालन धीरे-धीरे होता है । धुनों का खिंचाव दीर्ध होता है । गीतों के स्वरों का आरोह और अवरोह भी लम्बाई लिये होता है । नाचने में भी लचक अधिक होती है । 'चाँचरी' नृत्य गीतों की विषय-वस्तु भी झोड़ों की तरह धार्मिक, श्रंगार एवं प्रेम-परक भावों से ओत-प्रोत रहती है । दानपुर का 'चाँचरी' कुमाऊँ की धरती का आकर्षक नृत्य माना जाता है ।
छपेली - कुमाऊँ का सबसे अधिक चहेता नृत्य गीत छपेली नृत्य है । इस नृत्य में पुरुष हुड़का-वादक गाता हुआ नृत्य करता है और महिला नर्तकी गीतों के भावों के अनुकूल नाचती रहती है । दृश्य एवं श्रव्य गुणों का अद्भुत मेल छपेली नृत्य में दिखाई देता है । छपेली नृत्य में गीत और नृत्य में यौवन का उल्लास छलकता हुआ मिलता है ।
वास्तव में 'छपेली' प्रेमियों के नृत्यगीत हैं । इस नृत्य शैली में जोड़ा बनाकर नृत्य किया जाता है । प्रेमी तथा प्रेमिका के एक हाथ में रुमाल और दूसरे हाथ में दपंण रहता है ।
'छपेली' नृत्य में नृत्य की गति तीव्र होती है । यह प्रेमी-प्रेमिका के सन्दर्भ में रुढ़ हो गया है । 'छपेली' गीतों की एक पंक्ति टेक होती है जिसे गायक (नायक) दो पंक्तियों के अन्तर के बाद दोहराता है । यह स्थायी पंक्ति गीत विशेष की 'थीम' कही जा सकी है -
ओ हो न्योला न्योला न्योला मेरी सोबना,
दिन-दिन यो यौवन जाण लाग्यो
भगनौल - उक्तिपरक सौन्दर्य गीत 'भगनौल' कहे जाते हैं । इन गीचों के साथ प्राय: नृत्य नहीं होता परन्तु 'भगनौले' खड़े होकर किसी आलंबन को इंगित कर गाये जाते हैं या संकेत कर गाये जाते हैं । ऐसी भाव दशा में एक प्रकार का भाव प्रधान नृत्य होने लगता है ।
पुरुष गायक का साथी, जिसे 'होवार' कहते हैं, वह नायक के स्वरों को विस्तार देता है । संकेत या इंगित किये गये व्यक्ति की यदि वहाँ पर उपस्थिति रहती है तो वह भी प्रत्युत्तर में 'भगनौल' गाता है । एक प्रसिद्ध भगनौल इस प्रकार है -
जागेश्वर धुरा बुर्रूंशी फुलिगे
मैं के हूँ टिपुं फूला, मेरी हँसा रिसै रे ।
'भगनौल' में प्रयुक्त होने वाली उक्तियाँ गायकों की अपनी विरासत होती हैं । गायक की कुशलता इसी में देखी जाती है कि वह अपने द्वारा प्रयुक्त उक्तियों को किस प्रकार चुटीली पंक्तियों में जोड़ता है । उन पंक्तियों को जोड़ कहा जाता है । 'भगनौल' का पूर्व आकार या कोई निश्चित स्वरुप नहीं होता । यह गायक की अपनी विशिष्ट सूझ-बूझ, वाक्-चातुर्य और यादद्श्त पर निर्भर करता है कि वह कैसा चुटीला 'भगनौल' कह सकता है ।
७. परिसंवादात्सक गीत
संवाद प्रधान गीतों के अन्तर्गत वे सभी गीत आ जाते हैं जिनका विषय प्रश्नोत्तर होता है । प्राय: ऐसे गीत पुरुष और स्री के संवादों वाले होते हैं । ऐसे गीत स्री-पुरुषों के संयुक्त रुप में अथवा पृथक-पृथक भी गाये जाते हैं । स्री-पुरुषों में प्रेमी-प्रमिका, पति-पत्नी और जीजा-साली प्रमुख पात्र होते हैं । किसी-किसी गीत में भाई-बहन, माँ-बेटी, पिता-पुत्र अथवा दो मित्र भी परिसंवादात्मक गीतों के नायक एवं नायिकाएँ हो जाते हैं । ऐसे गीतों में अत्यन्त नाटकीयता होती है । कुमाऊँनी नृत्य-गीतों में इस प्रकार के नृत्य-गीतों को बड़े चाव से मंचन किया जाता है । दर्शक ऐसे नृत्य-गीतों को देखकर झूम उठते हैं ।
८. न्योली
ऐसे गीतों को वनों के गीत कहना उपयुक्त होगा । क्योंकि ऐसे जंगलों में प्राय: स्री-पुरुषों द्वारा गाये जाते हैं । ये 'न्योली' गीत प्रेम-परम गीत होते हैं । पुरुष गायक इन गीतों में 'न्योली' और स्री गायिका अपने गीत में 'न्योला' या 'न्योल्या' शब्द का सम्बोधन रुप में पुनरावृति करती है । प्रत्येक न्योली गीत में दो पंक्तियाँ होती हैं । पहली पंक्ति बहुधा किसी मानवीय अथवा प्रकृतिक वस्तु को दृष्टि में रखकर
या उद्देश्य के रुप में रखकर कही जाती है ।
दूसरी पंक्ति कहने के बाद ही अर्थ स्पष्ट होता है और पहली पंक्ति का अर्थ भी स्पष्ट होता है । वास्तव में पहली पंक्ति का कोई अर्थ नहीं होता - वह तो 'पट' मिलाने के लिए प्रयुक्त की जाती है ।
बार बाजा नैनीताला, एक बाज्या थाणाँ में,
म्वाया जसी पाकी रै छै निं ऊँनी खाणा में ।
जब नैनीताल बाजार में बारह बजे, तो थाने में एक बजे का घण्टा बजाया गया ।
ओ प्रियं ! तुम पके अँगूर की तरह रसीली हो परन्तु हमारा ऐसा भाग्य कहाँ है कि हम तुम्हारे इस पके रस का रसास्वादन कर सकें ?
स्वर बदलकर जंगलों में घास काटते हुए ऐसे गीत गाये जाते हैं । पुरुष लकड़ी काटते हुए महिलाओं का उत्तर देते हैं । पिथौरागढ़ अंचल की न्योलियों में स्वर विस्तार और संगीतात्मकता अधिक रहती है । ऐसे गीतों के साथ वाद्य-यंत्रों का प्रयोग नहीं होता । केवल स्वरों के उतार-चढ़ाव से ही मधुर संगीत की सृष्टि होती है ।
९. बालगीत
कुमाऊँ में बालगीतों की संख्या अधिक नहीं है । 'लोरी' की शैली में गाये जाने वाले ऐसे गीत लय प्रधान होते हैं । कुछ तो नन्हें बालकों को सुलाने या बहलाने के लिए ऐसे गीत गाये जाते हैं और कुछ गीतों को स्वयं बच्चे गाकर खुशी मनाते हैं ।
बैर - 'बैर' या 'बैरो' तर्क प्रधान गीत होते हैं । गायक अपनी प्रत्युत्पन्न मति का परिचय इन गीतों में देता है। प्रश्नों का अद्भुत होना और प्रत्युत्तर का चुटीला और भाव प्रधान होना ही बैर गीत का मुख्य गुण है ।
दो गायकों के बीच गीत युद्ध होता है । एक गायक अपने प्रतिद्वन्दी गायक से प्रश्न करता है । उसके प्रत्युत्तर में दूसरा गायक तत्काल उसका उत्तर उसी ढंग से देता है । उदाहरण स्वरुप पहला गायक गीत में ही पूछता है कि तेरी पाँच बकरियों के दो ही बच्चे क्यों हुए ? प्रत्युत्तर में दूसरा गायक कहता है - अरे पता नही ? जनेऊ के दिन पाँच उंगलियों से पकड़ी दो फलक वाली कैंची से ही तो तुम्हारी हजामत बनी थी । व्यंग्य और कटाक्ष भी इन गीतों का विषय होता है ।
कुमाऊँ की भौगोलिक स्थितियों के भीतर 'बैर' गीतों का जन्म होता है । यहाँ का मानव जहाँ प्रकृति के साथ संघर्ष करता है, वहाँ वह, यहाँ की कठोर भूमि से भी संघर्ष करता है ।
युग-युगों से इस धरती का मानव इन्हीं पहाड़ों की नदी-घाटियों में परिश्रम करता रहा है । 'बैर' गीतों में इन सभी जीवन-लीलाओं की स्पष्ट प्रतिच्छाया दिखाई देती है । 'बैर' गीतों का गायन कठिन होता है । इसमें ओजपूर्ण कण्ठ और लम्बी साँस खींचकर गाने की शक्ति का होना आवश्यक है । 'कुमाऊँ' में 'बैर' गीतों के गायक 'बैरियों' का बड़ा सम्मान किया जाता है । विवाहोत्सव में वर एवं कन्या पक्ष के लोग 'बैरियों' को बुलाकर आपस में गीतमय प्रतिद्वेंद्विता करते हैं । विजयी रथ के 'बैरियों' को सम्मानित किया जाता है ।
गद्य -पद्यात्मक काव्य
इस प्रकार के गीतों को कुछ विद्वान लोक-गाथाएँ कहकर
अध्ययन करते है । वास्तव में ऐसे गीतों
में अनेक स्थल ऐसे आते हैं जबकि गायक पद्य के अलावा गद्य का
भी प्रयोग करता है । वह गद्य होता है परन्तु गायक उस गद्य को
भी गेय बनाकर प्रस्तुत करता है ।
ऐसी गाथाओं में 'मालूशाही' का विशेष महत्व है । 'मालूशाही' कव्यूरी
वंश के राजा 'मालू' तथा सुनपति शौका की पुत्री 'राजुली' की प्रेम-गाथा है । कुमाऊँ
में यह प्रेम-गाथा सर्वत्र बड़े चाव से
सुनी व गायी जाती है । इसकी कथा जोहार पिथौरागढ़,
बारामण्डल, पाली-पछाऊँ और नैनीताल-भीमताल क्षेत्र
में अलग-अलग रुपों में मिलती है परन्तु सब क्षेत्रों
में मुख्य कथा एक जैसी है ।
कुमाऊँ में वीरगाथा काव्यों की अधिकता है । इन्हें कुमाऊँनी
में 'भड़ौ' कहा जाता है । 'बफौल', 'सकराम कार्की',
'चन्द विखेपाल', 'दुला साही', 'भागद्यौ',
'नागी-भागीमल' और 'कुजीपाल' आदि
अनेक गाथाएँ हैं जिन्हें भड़ौं के अन्तर्गत
लिया जा सकता है ।
चन्द राजाओं में 'उदय चन्द', 'रतनी चन्द', 'विक्रम चन्द', 'भारती चन्द' और
'गुरु ज्ञानी चन्द' के भड़ौ कुमाऊँ में अधिक विख्यात हैं ।
पौराणिक कथाओं में भी 'भड़ौं' मिलते हैं । इनका प्रचार
समस्त कुमाऊँ में कुछ परिवर्तनों के
साथ मिलता है ।
स्फुट गीत - कुमाऊँ अंचल में 'भड़ों',
'जागरों' और अन्य प्रकार के गीतों के अतिरिक्त कुछ
मुक्तक शैली के स्फुट गीत भी मिलते हैं । कहीं
भी और कभी भी कोई घटना हो सकती है । इन्हीं घटनाओं पर लम्बे प्रबन्ध गीतों के अलावा छोटे गीत
भी जन्म ले लेते हैं । स्फुट गीतों के कुछ नाम
भी पड़ चुके हैं । ऐसे गीतों में 'धन्याली',
'गणतउ', 'टोसुक' और 'सोगुन' गिने जाते हैं । इसी परम्परा
में राष्ट्र-प्रेम के गीत भी सम्मिलित किये जा
सकते हैं । वैसे घटना विशेष के गीतों का कोई
विशिष्ट वर्ग नहीं होता । जैसी घना होती है -
वैसा ही उसका विषय भी बन जाता है ।
रमोला - कुमाऊँ में इन गाथा को
विशेष आदर मिला है । इस गाथा में पौराणिक, ऐतिहासिक,
सामाजिक और कलात्मक रुप एक साथ
मिलता है । यह ऐसा सुन्दर बन पड़ा है कि 'लोक महाकाव्य' कहने
में तनिक भी संकोच नहीं होता । यह ऐसा 'लोक महाकाव्य' है जिसमें प्रेमाख्यान,
वीर-भावना, तांत्रिक चमत्कार, सिद्ध और नाथ-पंथी परम्पराओं का
अत्यन्त कुशलता से समावेश किया गया है । इस गाथा की गायन
शैली गीतात्मक है । इस शैली का इतना आकर्षण है कि
सर्वत्र 'रमोला' लोककाव्य की मांग होती है। अभी कुछ महीने पहले
रमेशचनद्र शाह और मोहन उप्रेती ने दूरदर्शन के
लिए 'रमोला' लोक महाकाव्य की प्रस्तुति
अत्यंत कलापूर्ण ढंग से की थी ।
गद्य -काव्य
१. लोक-कथायें
कुमाऊँ में
लोक-गाथाएँ और लोक-कथाएँ समान
रुप से लोकप्रिय हैं । लोक गाथाओं
में पद्य की अधिकता रहती है जबकि लोक-कथाएँ पूर्णत: गद्य
में कही सुनी जाती है । कुमाऊँ में
लोक-कथाओं का लम्बा सिलसिला है । 'भूत-प्रेतों',
'दैत्य-राक्षसों', 'पशु-पक्षी', 'पेड़-पौधों', 'व्रत-त्यौहारों' और 'हास्य-चुटकलों' आदि
से सम्बन्धित अनेक कहानियाँ इस अंचल
में मिलती हैं ।
२. लोकोक्तिया
कुमाऊँ में
लोकोक्तियाँ और मुहावरों का बहुत
बड़ा भण्डार है । इनमें कुमाऊँ के लोक-जीवन के विविध पहलुओं, आचार-विचार,
रीति-रिवाज, सामाजिक परम्पराओं एवं जीवन दर्शन की स्पष्ट झलक
मिल जाती है । कुमाऊँ में लोकोक्तियों के
माध्यम से कई महत्वपूर्ण सन्देश तक पहुँचाये जाते हैं ।
वास्तव में कुमाऊँ का लोक-साहित्य
अत्यन्त समृद्ध और रसीला साहित्य है ।
शौका क्षेत्र के
लोकगीत एवं नृत्य
कुमाऊँ का सीमान्त क्षेत्र ही शौका क्षेत्र है । इस क्षेत्र
में दारमा, व्यांश और चौदांश अंचल आते हैं । यहाँ
वे निवासी अस्थायी परिव्राजक का जीवन
व्यतीत करते हैं । शौक समाज रंगीला
समाज है । यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति गीतकार और नृत्यकार होता है । यहाँ
वृद्धो, युवकों, युवतियों एवं बच्चों की अपनी-अपनी गीत एवं नृत्यों की टोलियाँ होती हैं ।
इस समाज की मुख्य विशेषता यह है कि
ये लोग हमेशा प्रसन्न रहते हैं । देवताओं की पूजा हो
या भूत-प्रेतों का बलि, बच्चे का जन्म हो या परिवार के किसी
व्यक्ति की मृत्यु का समाचार हो - ये
लोग अपने गीतों के माध्यम से अपने
मन की भावनाओं को व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते ।
शौका क्षेत्र में निम्न प्रकार के गीत
मिलते हैं -
१. क्षीरा गीत -
'छीरा' गीत संस्कारों के मंगलगीत होते हैं ।
मंगलाचरण के रुप में इन गीतों का प्रयोग किसी
मंगल कार्य के संस्कार को प्रारम्भ करने पर होता है ।
२. ऐतिहासिक गीत - व्यांस पट्टी
में जहाँ व्यास की पूजा होती है, वहाँ ऐतिहासिक दृष्टि
से व्यास की कथा को गीत रुप में गाया जाता है ।
३. बाज्यू गीत - इस क्षेत्र का यह चहेता गीत है । इन गीतों
में वीरता, देवस्तुति और प्राकृतिक
सुन्दरता का सुन्दर वर्णन होता है ।
४. प्रेमाख्यान - शौका क्षेत्र में सबसे अधिक प्रेम प्रधान गीत
मिलते हैं । प्रेम गीतों का गायन यत्र-तत्र होता है ।
युवक तथा युवतियाँ ऐसे गीतों का प्रयोग
रंगबंग में भी करते हैं ।
पत्र के माध्यम से यहाँ के प्रेम-गीतों का आरम्भ होता है ।
सामुहिक गीत - शौका क्षेत्र का कुमाऊँ के चाँचरी जैसा गीत नृत्य है । प्रश्नोत्तर के
रुप में यह गीत नृत्य चलता रहता है । दो पक्षों
में गाने वालों के दल बँट जाते हैं । दोनों पक्षों के एक
या दो गायक नेता होते हैं । एक नेता गीत गाकर प्रश्न करता है ।
सभी नर्तक उस प्रश्न रुपी गीत को दो
या चार बार दुहराते हैं। इसी तरह दूसरी टोली का नायक पहले नायक का
उत्तर गीतों में ही देता है । उसके उत्तर को
भी उसके दल के नर्तक दो या चार बार दुहराकर नाचते जाते हैं । जब कोई नेता गायक थक जाता है या प्रत्युत्तर देने की स्थिति
में नहीं रहता तो वह अपने साथियों
में से किसी को नेता चुन लेता है । नेता चुनकर वह अपनी ओर से नये नेता का परिचय देता है और कहता है कि अब
फलाँ गायक नेता तुमसे प्रतिस्पर्धा करेगा। इसी तरह यह गीत नृत्य निरंतर चलता रहता है ।
युवतियों में भी अपने दल होते हैं -
वे भी ऐसे गीतों का गाकर और नाच-नाचकर
समा बाँध लेती हैं ।
इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में 'कृषि-गीत',
'देव-स्तुतिके गीत', 'बाल-गीत', 'समस्या प्रधान गीत',
'घटना प्रधान गीत' और 'जागृति के गीत'
भी अधिक सँख्या में मिलते हैं ।
दूरिड़ अथवा अम्हरम् - यह अन्व्येष्टि का गीत है । कुमाऊँ
में ही क्या अन्य क्षेत्रों के लोक-गीतों
में भी अन्व्येष्टि का गीत नहीं मिलता, परन्तुशौका क्षेत्र
में दूरिड़ (अम्हरम) एक ऐसी गीत शैली है जिसमें वहाँ के
मानव की आत्मा छटपटाती हुई मिलती है ।
शौका क्षेत्र के नृत्य - शौका क्षेत्र का नृत्य
अत्यन्त आकर्षक होते हैं । यहाँ का प्रत्येक प्राणी नृत्य-पटु होता है । यहाँ के नृत्यों
में हुड़का, मुरली और बाँसुरी का प्रयोग होता है ।
महिलाऐं, 'बिणई' बजाकर गीत गाती हैं और नाचती हैं ।
छोलिया नृत्य - इस अंचल का सबसे अधिक चहेता नृत्य
'छौलिया' है । इस नृत्य में वीरता की झलक स्पष्ट दिखाई देती है । विशेष नृत्य की पौशाक
में जब नर्तक वीरता की कलाबाजियाँ ढाल-तलवार के
साथ दिखाते हैं तो यह नृत्य दर्शकों को अपने आप
में पूर्णत: बाँध लेता है । १९७० में गणतन्त्र दिवस के अवसर पर
शौका लोगों का यही 'छोलिया नृत्य' नयी दिल्ली के
सभी क्षेत्रों में चर्चा का विषय बना था ।
डंडयाला नृत्य - यह स्री पुरुषों का चहेता नृत्य गीत है । स्री-पुरुष अपने दोनों हाथों
में दो डण्डे लेकर गोल घेरे में आगे-पीछे मुँहकर, डण्डों का आपस
में टकराते हुए नृत्य करते हैं । गुजरात के
'गरबा' नृत्य की तरह यह नृत्य भी अत्यन्त आकर्षक नृत्य है ।
चम्फूली नृत्य - यह नृत्य भी गोल घेरे
में कभी हाथ पकड़कर किया जाता है तो कभी घूमकर, ताली
बजा-बजाकर एक-दूसरे की तरफ मुड़कर नाचते हुए
सम्पन्न किया जाता है । इसमें धीमी गति होती है और गीत की
अजीब ठसक होती है ।
धुस्का नृत्य - यह इस क्षेत्र का विशिष्ट और विविधता का नृत्य है । इस नृत्य की विविध
शैलियाँ हैं । कभी एक पुरुष और एक स्री ही नृत्य करती है, कभी स्री-पुरुषों का एक गोल घेरा
बन जाता है । एक नर्तक बगल वाले दूसरे नर्तक
या नर्तकी के कमर में हाथ डालकर
या कभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नृत्य करते हैं । पुरुष दल
यदि सीधा खड़ा रहेगा तो महिला दल झुककर एक कदम आगे और एक कदम पीछे चलकर नृत्य करता है ।
साथ में गीत भी गाया जाता है । गीत खड़ी होने
वाली पार्टी गाती है । झुककर चलने
वाली पार्टी गीत को दुहराती जाती है ।
शौका क्षेत्र गस्ती का क्षेत्र है । यहाँ का जन-जीवन भेड़-बकरियों के साथ अधिक व्यतीत होता है । इनके गीतों में अपने व्यक्ति के लिए जितनी चिन्ता रहती है उससे भी अधिक इन्हें अपने भेड़ो और बकरियों की याद रहती है । इसलिए शौका क्षेत्र के गीतों और नृत्यों में इन पशुओं के लिए भी पर्याप्त स्थान रहता
है । यहाँ के कई घटना-प्रधान गीतों में भेड़ों का जिक्र रहता है तो कई नृत्यों में भेड़ तथा बकरियों को नायक या नायिका के रुप में प्रस्तुत किया जाता है ।
कुमाऊँ के मेलों एवं उत्सवों में ऐसे सभी नृत्यों का आयोजन होता है जिन्हें वहाँ के मानव में अपने जीवन दर्शन में पूर्णत: स्थान दे दिया है ।
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