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हस्त शिल्प |
कुमाऊँ मंडल की कला और शिल्प की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। इनकी हस्तकला तो विरासत में प्राप्त हुई है। कुमाऊँ वासियों की अर्थव्यवस्था इससे काफी सुदृढ़ बनी है। सुदुर अंचलों में, हिनालय की बर्फीली वादियों में भी शिल्प की परम्परा हर क्षण पल्लवित होती रही। कालीन, गलीचे, दन, कम्बल, चुटके, थुलमें जैसी हस्तशिल्प की परम्परा एक ओर तिब्बत का सीमा क्षेत्र करीब होने तथा स्थानीय जरुरतों से घर-घर में पनपी तो दूसरी ओर किंरगाल (arudinaria) तथा बांस के बने डोके, डलिया सूपे आम जन की रोजमर्रा की जिन्दगी की अनिवार्य वस्तु हो जाने के कारण इनकी निर्माण विद्या स्थानीय उद्योग के रुप में विकसित हुई। ताँबे के बर्तन बनाने का कारोबार तो आज भी हजारों लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करता है। कभी कुमैंया भदेले (लोहे की कढ़ाई) लोहाघाट का प्रमुख उद्योग स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पेड़ - पौधों से रेशे निकालकर वस्र बनाने की परम्परा भी समृद्ध थी। घरों में प्रयुक्त होनेवाले दूध-दही के बर्तन भी काष्ट निर्मित होते थे। इनमें से कुछ उद्योग या तो धीरे - धीरे समाप्त हो गए या फिर कुछ उद्योग ऐसे हैं जो केवल कहीं-कहीं गाँव-देहात में जैसे तैसे अपने आप को बचाये हुए हैं। समूचे पर्वतीय प्रदेश में ताम्र कारीगर प्राचीन समय से ही धातु कला में सिद्धहस्त थे। ये कारीगर ना केवल उत्कृष्ट ताम्रवस्तुऐं बना सकते थे बल्कि धातु निष्कर्षण की तकनीकी में भी प्रवीण थे। ताम्र कारीगर यद्यपि मुख्य रुप से चंद राजाओं के समय में पल्लवित होकर इस क्षेत्र में स्थापित हुए तो भी ताम्रकला के विकास की कहानी युगों पीछे तक जाती है। पर्वतीय क्षेत्र में भी एक सम्पन्न सभ्यता ताम्रयुग में थी। हल्द्वानी नगर के एक बर्तन व्यापारी के यहाँ से ताम्रयुगीन एक मानवाकृति प्राप्त हुआ। जिसे व्यापारी के पूर्वजों ने चालीस के दशक में अल्मोड़ा नगर में रद्दी तांबे के रुप में खरीदा था। पिथौरागढ़ जनपद के बड़कोट गाँव से ८ ऐसी और मानवाकृतियां भी प्राप्त हुई हैं। यह आयुध क्या है, इसका प्रयोजन क्या ह ; इसकी जानकारी के अाव में इसे मानवाकृति ही नाम दे दिया गया है। इसका ऊपरी भाग सिर की तरह गोल ह, सिर के नीचे लम्बे दोनों ओर मुड़े हुए हाथ हैं। नीचे की ओर दो लम्बे नुकीले पैर हैं। पर इसमें वास्तविक हाथ पैर के कोई लक्षण नहीं हैं। लेकिन इतना निश्चित है कि काल क्रम के अनुसार यह लगभग २०००-१५०० ई. पू. तक पुरानी हो सकती है। ताम्र कारीगर जिन्हें टम्टा कहा जाता है यह मानते हैं कि वे सोलहवीं शती में मुगलों के आक्रमण के बाद पर्वतीय क्षेत्र में आए थे। उस समय राजस्थान के चन्द्रवंशी शासक अपनी प्रजा के साथ राजस्थान से पिथौरागढ़ जनपद के चम्पावत नामक स्थान पर आकर बस गए। इसी समुह में से कुछ लोग राजस्थान के अन्य कारीगरों के साथ अल्मोड़ा जनपद के खरही पट्टी में बसे। तब ये लोग राजा के टकसाल में सिक्के ढ़ालने का कार्य भी करते थे। कुमाऊँ में गोरखा राज्य हो जाने पर भी टम्टा लोग सिक्के ढ़ालने का ही कार्य करते रहे। अंग्रेजों द्वारा कुमाऊँ पर अधिकार कर लेने के पश्चात स्थानीय तांबे की खानों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जिससे तांबे का खनन बन्द हो गया। बाद में इन लोगों से टकसाल का काम भी छीन लिया गया। तब गौलापालड़ी, गिवाड़ के कोट्यूड़ा आदी गाँव में तांबे की खाने थी इसलिये टम्टाओं की बसावत खान क्षेत्र के आसपआस अधिक हुई। टम्टाओं को गंगाघाटी की ताम्र संचय संस्कृति के रचियताओं के वंशज भी बताये जाते हैं। अंग्रेजों द्वारा तांबे की खानों पर प्रतिबन्ध लगा दिये जाने से टम्टा लोगों को अपनी रोटी रोजी को सुरक्षित करने के लिए बाजारों और घरों के पुराने तांबे को गलाकर माल तैयार करना पड़ता था। इस प्रकार तैयार माल न तो खपत की दृष्टि से पर्याप्त पड़ता था न ही इससे गु बसर के लायक कच्चा माल ही उपलब्ध हो पाता था। इसलिए ताम्र शिल्प पर विपरीत प्रभाव पड़ा। टम्टा लोग स्वीकार करते हैं कि उन्हें चंद राजाओं द्वारा आशा से अदिक संकक्षण प्राप्त ङुआ। चंद राजा शिल्प के शौकिन थे। उन्हें नक्काशीदार वस्तुऐं भी बेहद पसन्द थी। राजा लोग एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रस्थान करते समय अपने लश्कर के साथ टम्टाओं को भी लेकर चलने लगे। चंद राजाओं ने इन लोगों को अपने राज्य की राजधानियों के समीप बसाया। टम्टाओं को राजधानी के पास की जगह प्रदीन की गयीं। खूँट, खर्कटम्टा, खरही आदि के अतिरिक्त अल्मोड़ा नगर के टम्टा मोहल्ले में भी ये लोग बस गये। बाद में इन शिल्पियों के परिवारों में विस्तार हुआ और फैलाव के कारण अन्य जनपदों में भी ताम्रशिल्प का कार्य होने लगा। राजस्थान से आकर जिन गाँवों में यह लोग सबसे पहले बसे उनके नाम हैं-- गोसानी और भरियाल। बाद में इन गाँवों से ही टम्टा लोग नैनीताल जनपद के कुर्कटम्टा आदि में फैले। अल्मोड़ा में आने के बाद इनका विस्तार खरही पट्टी की ओर हुआ जहाँ सौभाग्य से इन लोगों को तांबे की खाने भी मिल गयीं। ककड़खान के पास सल्ला गाँव में भी टम्टा लोग इसी प्रकार बसे। टम्टा लोगों के साथ खानों से धातु निकालने आगरी जाति का लोग भी आये ते। खरही में जनोटी पालड़ी गाँव के पास आगर नामक गाँव में आगरी लोग रहते हैं। परन्तु अब वे अपने परम्परागत उद्दम से वंचित हो गये हैं। आगरी लोग खानों से अयस्क निकालते थे। इस अयस्क की बारीक पिसाई की जाती थी। ताँबे के खानों के पास ही जीप्सम (gypsum) की खानें भी थीं। जिप्सम के साथ अयस्कों को भट्टी में गरम किया जाता था। इस भट्टी की गरमी से तांबा जब डलों के रुप में अलग हो जाता तब इन डलों को छाट लिया जाता था। तत्पश्चात घनोरिया को दिया जाता था। घनोरिया तांबे को पीट-पीटकर इसका कार्बन (carbon) बाहर निकाल देता। #सि तरह तांबे का चक्का जैसा बन जाता था। अब कच्चे माल के रुप में तांबे की चादर और चक्का प्रयोग होता है। जर्मन सिल्वर तथा टांके के लिए रसायन भी अतिरिक्त प्रयोग होते हैं। शीट सोलह से बाइस राज तक की प्रयोग की जाती हैं। स्थानीय तांबे की खाने बन्द हो जाने के कारण मिर्जापुर, रेवाड़ी मुरादाबाद तथा जगाधरी से कच्चा माल आयात किया जाता है। औजारों के रुप में पत्थर के सांचे, विभाजक-यंत्र, कत्ती, छेनी, खराद, पंच, आफर, संडासी, घन प्रमुख हैं। बर्तन को आधार देने के लिए निहाई का प्रयोग होता है। चक्के से गागर बनाने की प्रक्रिया विशिष्ट है। चक्के को गर्म कर चार आदमी घन से तबतक पीटते हैं जब तक कि पह एकसार पतली चादर जैसा न हो जाये। तब उसे गागर जैसा रुप दे दिया जाता है। इसकी तली में जोड़ नहीं लगाया जाता। बर्तन बनाने के लिए निहाई पर रखकर अलग-अलग तांबे की चादर के टुकड़ों को छैनी हथौड़े की सहायता से मनोकुल आकार दे दिया जाता है तत्पश्चातू इन्हें टाँके की सहायता से जोड़ लिया जाता है। बर्तन जब आकार ले लेता है तब पानी और गांधक को तैजाब के हल्के विलयन से धोया जाता है तथा आधे घंटे तक इस विलयन में डुबाकर रखा जाता है। पालिश के लिए केवल कपड़े की सहायता से रगड़ई होती है। गागर बनाने के लिए हाथ के पंखे से चलनेपाली छोटी भट्टी आफर जो आम लोहार प्रयोग करते हैं ; का ही ताम्र कारीगर भी प्रयोग करते हैं। इसमें जो ईंधन प्रयोग किया जाता है, वह बगेट कहलाता है। चीड़ की वृक्ष के छाल की सबसे बाहरी पर्त का प्रयोग बगेट बनाने के लिए किया जाता है। बगेट की खूबी यह है कि यह धौंकनी के चलना बन्द होते ही बगेट की आंच भी मन्द पड़ जाती है जबकि सामान्य ईंधन में ऐसी सुविधा उपलब्द नहीं है। इससे ईंधन की बचत अलग से होती है। अल्मोड़ा में गागर बनने के बाद अन्य स्थानों की तरह उसमें तेजाब से सफाई नहीं की जाती। इसके लिए भट्टी के बगल में ही एक गढ़ा बना लिया जाता है। इस गढ़े में गागर को डालकर उसके ऊपर धान की भूसी को डाल दिया जाता है। तत्पशचातू भूसी में आगलगा दी जाती है। प्रायः आफर में गागर को लाल रंग निखर उठता है। यह रंग उतना स्वाभाविक होता है कि घिसने, रगड़ने, और निलन्तर प्रयोग से भी यह छूटता नहीं है। किसी भी वस्तु को तांबई रंग में लाने के लिए सामान्यतः रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता। ठंडा होने पर गागर को गढ़े से निकालकर उस पर हथौड़े से ठप्पे बनाये जाते हैं। इससे गागर का सौन्दर्य खिल उठता है। इस क्रिया को मठारना कहते हैं। मठारने के लिए लोटे का प्रयोग किया जाता है। गागर बनाने कि प्रक्रिया के दौरान जो कटपीस बचते हैं वे बैकार नहीं फेकें जाते। इनको एक कढ़ाई में, जिसे हिनौला कहते हैं, दुबारा गला लेते हैं ; तत्पश्चात सांचे में ढ़ालकर उनके किंरग बना लिये जाते हैं। ये छल्ले गागर को उठाने के काम में आते हैं। छल्लों को मुनड़ा कहा जाता हैं। गगरी पर मुनड़ा जोड़ने वाले भाग को मुन कहते हैं। गागर की जुड़ाई के लिए जो टाँका प्रयोग किया जाता है वह बरसों के अनुभव का परिणाम है ; बना बनाया टाँका आयात नहीं किया जाता। शिल्पियों ने अपने परिश्रम से इसका विकास किया है। जुड़ाई का टाँका इतना पक्का होता है कि भले ही बर्तन टूट जाये, टाँका अपनी जगह पर ही रहता है। इसको राड कहा जाता है। कभी-कभी ताम्रशिल्पी एक विशिष्ट प्रकार का टाँका भी प्रयोग करते हैं। इस टाँके की गोपनियता वे बनाये रखना चाहते हैं। पीतल, तांबा और जर्मन सिल्वर एक समान तापमान पर नहीं पिघलते। इसलिए उनको जोड़ने के लिए टाँका भी ऐसा चाहिए जो अलग-अलग धातुओं को एक तापक्रम पर ही एक साथ जोड़ सके। स्थानीय शिल्पियों के पास यह विधा है। वे तीन अलग-अलग धातुओं को एक साथ जोड़कर पात्र बनाते हैं। गागर में मुँह के पास एक विशिष्ट प्रकार की डिजायन बनाने की परम्परा है। शिल्पियों का कथन है कि वे पर्वतीय क्षेत्र में बने हुए मन्दिरों की चन्द्रिका को उकेरते हैं। यह काम छेनी के सहायता से नहीं वरन् हथौड़े की सहायता से की जाती है। ताम्र कारीगर न केवल गागर जैसी वस्तुएं बनाते हैं अपितु सामाजिक-धार्मिक जीवन में काम आनेवाली हर वस्तु का वे व्यवसायिक उत्पादन करते हैं। धार्मिक कार्यों में प्रयोग करने के लिए दीप, पंचपात्र, अर्घे, आचमन, बाद्दयंत्रों में ढ़ोल, नगाड़े, दमुट, तुरही, नागफेनी, रणसिंहा और झूकर, दैनिक प्रयोग की वस्तुओं में गागर, परात, तौले, फौले आदि बड़े स्तर पर उत्पादन होता है। अब लैम्पशेड, वाटर फिल्टर शोपीस, वालहैंगिग आदि बनने लगी हैं। धीरे-धीरे फैले तांबे के ये कारीगर बगेश्वर तहसील के अन्तर्गत मल्ली व तल्ली खरही के बीस गाँवों में परम्परागत तांबे के बर्तन बनते हैं। सर्वेक्षणों के अनुसार पिथौरगढ़ जनपद के गंगोलीहाट, थल, बेरीनाग आदि में ९४ परीवार पूरी तरह तांबे के बर्तन इत्यादि को बनाकर इस कला को जीवित रखे हुए हैं। अल्मोड़ा जनपद में ही परम्परागत रुप से पांच सौ परिवार इस शिल्प को जीवित रखकर परोक्ष, अपरोक्ष रुप से जीविका यापन कर रहें हैं। नैनीताल, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जनपदों के चार हजार से कुछ ज्यादा कारीगर आज भी इस पेशे को अपनाये हुए हैं। अनुमान है कि अकेले अल्मोड़ा जनपद में लगभग एक करोड़ रुपयों के तांबे की बिक्रि प्रतिवर्ष है। इस उद्योग से केवल पुरुष कारीगर ही जुड़े हैं। सामान्यतः भाड़े के मजदूरों से काम नहीं लिया जाता, परिवार के सदस्य ही काम निबटाते हैं। ताम्रकला उद्योग में पारम्परिक रुप से उत्पादित वस्तुओं के विपणन की समस्या नहीं है। गाँ-गाँव में फेरी लगाकर बने माल का विक्रय किया जाता है। नकद बिक्रि के अलावा पुराने बर्तनों से भी क्रय-विक्रय होता है। गागर, तौले, कलश, परात, लोटा, नरसिंहा, तुरही आदि का विपणन उ. प्र. के पर्वतीय जनपद एवं नेपाल में होता रहा है। चूँकि ये पात्र लोगों के सामाजिक, धार्मिक जीवन से जुड़े हैं इसलिए इनके विक्रय की कोई समस्या नहीं है। यह भी विश्वास है कि तांबे के बर्तन में रखा पानी पेट की बीमारीयों के लिए लाभप्रद होता है, इसलिए भी तांबे के बर्तनों का प्रचलन कुछ ज्यादा ही है। कई लोग तांबे के प्रयोग को समृद्धि का प्रतीक भी मानते हैं। शादी बारातों में तांबे के बर्तन का प्रचलन है। पुराने समय से ही पहाड़ के मेले व्यापारिक गतिविधियों का भी केन्द्र रहे हैं। इसलिए नंदादेवी, उप्तरायणी, थल, जौलजीवी, गोचर, पूर्णागिरी आदि में तांबे के बर्तनों का बाजार लगता था जिसमें लोग जरुरत की चीजों की खरीद-फरोख्त करते थे। तांबे से बना फिल्टर अब घर-घर की जरुरत हो गयी है। शासन स्तर पर भी इसके शोरुम खोले गये हैं। लेकिन इस सबके बावजूद ताम्रकारीगर बहुत खुशहाली का जीवन जी रहे हों, ऐसा नहीं है। आर्थिक रुप से समृद्ध न होने के कारण उनको कच्चे माल के लिए व्.यापारियों पर आश्रित रहना पड़ता है। छोटे-छोटे घरों में कारीगरों के निवास के कारण उनके सामने सुविधा सम्पन्न कार्यशाला और भी एक स्वप्न है। जनपद का शायद ही ऐसा कोई कारीगर हो जिसके पास विपणन के लिए निजी छोटा सा काऊन्टर हो। भंगोली शिल्प प्राचीन समय से ही समस्त उत्तरांचल क्षेत्र में भांग (cannabis sativa) से विभिन्न की वस्तुएँ बनाये जाने की परम्परा रही है, तब यह शिल्प घर-घर में व्याप्त था। कपड़े बनाने के लिए भी भाँग (hemp) के पौधों से निकाला जाता था। भांग की खेती प्राचीन समय में पणि कहे जानेवाले लोगों द्वारा की जाती थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कुमाऊँ में शासन स्थापित होने से पहले ही भांग के व्यवसाय को #्पने हाथ में ले लिया था तथा काशीपुर के नजदीक डिपो की स्थापना कर ली थी। दानपुर, दसोली तथा गंगोली की कुछ जातियाँ भांग के रेशे से कुथले और कम्बल बनाती थीं। भांग के पौधे का घर गढ़वाल में चांदपुर कहा जा सकता है। पथीला जाति के लोगों द्वारा इसके रेशे से कपड़ा तैयार किया जाता था। वर्तमान में भी इसके पौधे की छाल से रस्सियाँ बनती हैं। डंठल कहीं-कहीं मशाल का काम देता है। पर्वतीय क्षेत्र में भांग प्रचुरता से होती है, खाली पड़ी जमीन पर भांग के पौधे स्वभाविक रुप से पैदा हो जाते हैं। लेकिन उनके बीज खाने के उपयोग में नहीं आते हैं। टनकपुर, रामनगर, पिथौरागढ़, हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़, रानीखेत, बागेश्वर, गंगोलीहाट में बरसात के बाद भांग के पौधे सर्वत्र देखे जा सकते हैं। नम जगह भांग के लिए बहुत अनुकूल रहती है। उत्रायनी, नंदादेवी, जौलजीवी जैसे मेलों में भांग से बनाये गये भंगोली, गादा, पट्टी, कुथले (थैले), दरी, रस्सियों का बाकायदा बाजार लगता था। नेपाली श्रमिक भी भाग के रेशे निकाल कर रस्सियाँ बुन खाली समय का सदुपयोग करते थे। यदाकदा अब भी भांग से बनी चादर जैसी पट्टी ओढ़ कर तथा कमर में लपेटकर सर्दियों में नेपाली श्रमिक अपने शरीर को गर्म रखते हैं। भांग से बने वस्रों की विशेषता यह है कि यह सर्दियों में गर्म तथा गर्मियों में ठण्डा होता है। टिकाऊ तथा मजबूत कपड़ों को गर्दन के पीछे गांठ देकर या लपेटकर आगे थैली जैसा बनाकर सामान भी ढ़ोया जाता है। गुड़ की ढुलाई, अनाज भरने, खाद ढ़ोने, बताशे बनाने व दैनिक उपयोग में भांग के रेशे से बने इन वस्रों का खूब चलन था। लेकिन यह शिल्प अब दम तोड़ रहा है। भंगेली उद्योग के पुश्तैनी दस्तकार तेजी से इस शिल्प को छोड़ रहे हैं। भांग के पौधे से वस्र निर्माण जटिल व श्रमसाध्य है। इस कार्य के लिए केवल मोटे तने वाली भांग का पौधा ही प्रयोग में लाया जाता है। पौधों को काटकर, उसकी छाल को चाकू की मदद से उतार लिया जाता है। छाल जुला#ी माह में निकाली जाती है। इस महीने निकाली गई छाल बहुत मुलायम होती है, जबकि अक्टूबर माह तक पहुँचते-पहुँचते यह काफी सख्त हो जाती है तथा भंगेला बनाने के लिए उपयुक्त नहीं रहती है। इस छाल को पानी के पोखरों में १०-१५ दिन के लिए डाल देते हैं। अनुभव के आधार पर पर्याप्त मुलायम हो चुकी छाल को निकालकर धोबी के कपड़ों की तरह किसी बड़े पत्थर पर पीटा जाता है या फिर लकड़ी के बने हथौड़े से कूट लेते हैं। प्रायः पानी से निकली छाल को नाखून की महायता से उतार लिया जाता है तथा पतले रेशे बना लिए जाते हैं। इस प्रक्रिया से महीन रेशे अलग हो जाते हैं जिन्हें हल्की धूप में सुखाया जाता है जब तक कि उनका रंग भूरा होना नहीं शुरु हो जाता। समूचे क्रम में एक से डेढ़ हफ्ता लग जाता है। रेशे को खमेटी पर सूत की तरह बट लिया जाता है। खमेटी लकड़ी का एक यंत्र होता हैं जिसमें दोनों तरफ लपेटने के लिए सांचे की व्यवस्था होती है। इस रेशे को खमेटी पर ही लपेट दिया जाता है तथा इसके बाद धागों को लकड़ी की राख सहित पानी से भरे बर्तन में उबालते हैं। इसमें चार घंटे का समय लगता है, इसके पश्चात् सफेदी के लिए धो लिया जाता है। बटे रेशे के गोले बनाकर इनकी दरी, पट्टी आदि मनचाही बुनाई कर ही जाती है। भांग की बनी वस्तुऐं, मजबूत, टिकाऊ व सुन्दर होती हैं। जागेश्वर के नजदीक कार्की लोगों के गाँव में आज भी विभिन्न वस्तुएं बनायी जाती है। बहुत से स्थानों पर बताशे बनाने के लिए भंगेले की दरी ही प्रयोग में लायी जाती है। इस दरी में बताश चिपकते नहीं हैं, गुड़ के दुकान में भांग के वस्रों का अभी भी उपयोग होता है, खाद ढोने में भी भांग के वस्र ही प्रयोग में लाए जाते हैं। लेकिन पिछले अनेक वर्षों से इस शिल्प को ग्रहण लग रहा है। मशीनों द्वारा बुने गये बोरे, चटाई उत्यादि की पहुँच घर-घर में हो गयी है, भांग की खेती पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। महंगी भंगेली वस्तुओं की जगह कारखाने में बनी वस्तुएँ न केवल सस्ती होती है, अपितु उपलब्ध भी सरलता से हो जाती है। इसमें शक नहीं है कि आनेवाले वर्षों में भांग के पौधे से बनी वस्तुएँ मिलनी दुर्लभ हो जायेंगी। भांग की ही तरह का भेकुआ भी है जिससे भांग की ही तरह रेशा निकालकर विभिन्न वस्तुएँ बनायी जाती है। एक अन्य पौधा अल् (giardiana heterophylla) से भी जिसके पत्ते और तना हल्के काँटों से आच्छादित होता है ; भांग की ही तरह विभिन्न सामान बनाने में उपयोग में लाया जाता है ; भाकुआ का प्रयोग ग्रामीण चारा परती के भी करते हैं। लेकिन इनका मुख्यतः प्रयोग रस्सियाँ बनाने में किया जाता है। ज्योड़ (रस्सी) सिकज्योड़ा (चारा लाने का लिए बनाया गया जाल) गाय का मुँह बांधने की कज्व आदि इन्हीं पौदों के रेशों से बनते हैं। बाबीला घास की बनी रस्सियां भी विभिन्न प्रयोगों में लायी जाती हैं। भीमल ८०० से लेकर १२०० मीटर तक ऊँचाई में पाया जाता है। इसको वनस्पति जगत् में (grewia optiva) नाम से जाना जाता है। इसका रेशा रस्सी बनाने के लिए अति उत्तम माना जाता है। बसन्त ॠतु के अलावा जुलाई से लेकर मार्च तक इसकी शाखायें काटी जाती हैं। पत्तियां जानवरों को खिलाने के काम में आती हैं ; ढठलोंको पानी में भिगो दिया जाता है। पानी में भिगोने से रेशे मुलायम हो जाते हैं तथा आसानी से खींचे जा सकते हैं। इन रेशों को बुन लिया जाता है। मालू (bauhivia variegata) तथा रामवांस (agave americana) के रेशे से भी रस्सी इत्यादि बनायी जाती है। किंरगाल शिल्प किंरगाल (chimnobambusa falcata) अल्मोड़ा, पिथोड़ागढ़ जनपद का प्रमुखतम हस्त-शिल्प उद्योग है। अल्मोड़ा जनपद का दानपुर का क्षेत्र पुराने समय से ही किंरगाल उद्योग के द्वारा सैकड़ों लोगों को सुदूरवर्ती इलाके में रोजी - रोटी मुहैया कराता रहा है। इसके अन्तर्गत सीमान्त क्षेत्र की ऊँचाईयाँ में पैदा होनेवाली किंरगाल की प्रजाती की मायनों में आसामी केन से भी बेहतर मानी जाती हैं। अभी तक इस उद्योग में लगा दस्तकार परम्परागत विधि से विभिन्न वस्तुयें जैसे मोस्टा, चटाई, सूपे, टोकरी डाल, टुपर (टोकरी), छापर (रोटी रखने की छोटी टोकरी) ग्वत (मछली पकड़ने हेतु प्रयोग में लाया जाने वाला जाल) कच्चल (कपड़े रखने का बड़ा डोका) आदि का निर्माण करता है, जिसका उपयोग घरेलू व कृषि कार्यों में प्रायः होता है। इसकी बिक्री दस्तकारों द्वारा गाँव-गाँव घूमकर एवं मेलों में की जाती है। किंरगाल एवं बाँस बेंत उद्योग के विकास का कार्य मुख्य रुप से खादी एवं ग्रामोद्योग द्वारा ही सम्पादित किया जाता है। बोर्ड द्वारा इस वित्तीय वर्ष मं किंरगाल उद्योग के विकास हेतु २० इकाईयां प्रति विकास खण्ड की दर से स्थापित करने का लक्ष्य जनपद स्तर पर विर्धारित किया गया है। बोर्ड द्वारा मंडलीय ग्रामोद्योग प्रशिक्षण केन्द्र, कालाढूँगी से प्रशिक्षित कराकर बजट उपलब्धता के आधार पर सहायता प्रदान करने का प्रावधान है। किंरगाल से वस्तुओं का निर्माण करने के लिए इसको जाडे के मौसम में हंसिया या चाकू की मदद से काट लिया जाता है। जोड़े के मौसम में इसमें परती नहीं आती। किंरगाल को वनस्पति जगत् में (anudinaria) नाम से जाना जाता है। किंरगाल को ही निंगाल कहा जाता है। यह तीन मीटर तक लम्बा और इसके तने की चौड़ाई ८ सेमी. तक हो सकती है। यह बाँस से ज्यादा परन्तु बेंत से कम लचीला होता है। यह १८२९ मीटर तक की ऊँचाई में बहुधा पाया जाता है। १९८१ में अल्मोड़ा गजेटियर के अनुसार अकेले अल्मोड़ा जनपद में ही ४६ गाँव इस उद्योग और कलाकारी में पूरी तरह लगे हुए थे, अपनारोजगार और रोजी - रोटी का रिश्ता जोड़े हुए थे। १९६२ में १,६२,००० रुपयों का व्यवसाय इस उद्योग के माध्यम से अल्मोड़ा जनपद में हुआ था। किंरगाल की बनायी कंडी इतनी ज्यादा प्रचलित थींकी बागेश्वर उत्तरायणी मेले में ही ५०,००० कंडी प्रतिवर्ष बिकती थीं। कपकोट विकास खंड में खाती, बाछम झूनी, खलझूनी, मिखला, खलरपट्टा, सौराग, रोथिड्ग, गोगिना, लीती आदि स्थानों में किंरगाल भारी मात्रा में होता है। विकास खंड गरुड़ मेंलूमचूला, विकास खंड ताकुला में पिनाथ, विकास खंड ताड़ीखेत में चिलियानौला आदि में यह आंशिक रुप से पाया जाता है। कत्यूर घाटी के ग्वाल्दे नामक गाँव के लोग मुख्य रुप से निंगाल शिल्प को अपना रोजगार बनाये हुए हैं। पिंडर क्षेत्र में किंरगाल की दिओ निगला नामक प्रजाति अधिक मात्रा में पायी जाती है। बेंत से बेहतर कि होने के कारण परम्परागत ग्रामीण जरुरत की वस्तुएँ किंरगाल से बनती रहीं। खरही पट्टी का तांबा उद्योग और दानपुर क्षेत्र के किंरगाल ने गुजरे जमाने में इतनी बड़ी संख्या में रोजगार दिया है कि आज भी इस उद्योग के मुकाबले का कोई कुटीर धंधा क्षेत्र में विकसित नहीं हो सका है। किंरगाल उद्योग एक ऐसा उद्योग है जिसके सामने अतीत में भी कभी विपणन का संकट नहीं रहा। स्थानीय माल के आधार पर बना सामान कुमाऊँ-दढ़वाल के इलाके में ही खप जाया करता था। इस कारण शिल्पकारों के सामने यह सवाल तो कभी आया ही नहीं की वे एक दिन माल की उपलब्धता होने के बाद भी बेरोजगार हो जायेंगे। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि किंरगाल की वस्तुओं का प्रयोग एक ओर तो शहरी जीवन में भा दिनोंदिन बढ़ रहा है वहीं इस उद्योग में लगे कलाकार बेरोजगार होते जा रहे हैं। किंरगाल की बनी चटाइयाँ जिन्हें स्थानीय भाषा में मोस्टा कहा जाता है, की मांग में कोई समी नहीं हुई है। इसके अलावा टोकरियां, सूपे डाले तथा घर में सामान रखने की अनेक वस्तुएँ इस क्षेत्र में किंरगाल से ही बनती रही हैं। बागेशेवर का उतरैणी मेला किंरगाल की वस्तुओं की क्रय - विक्रय के लिए शासा प्रसिद्ध था। मोस्टे और किंरगाल की विभिन्न वस्तुओं के व्यापारी माल की बिक्री के लिए ग्वालदम, थराली, नानायणनगर, चमोली के अतिरिक्त हल्द्वानी मंडी में भी माल बेचने जाया करते थे। किंरगाल के वस्तुओं के निर्माण की पद्धति भी बहुत कठिन नहीं है। जंगलों से निंगाल की वस्तुओं को काटकर लाने के पश्चात उनहें कई-कई दिनों तक किसी शैलाश्रय में रख दिया जाता है। वही निंगाल काटा जाता है जो दो-तीन वर्ष पुराना हो, हरा हो तथा जिसमें नीचे की ओर कलियाँ न निकली हुई हों। जिस निंगाल में कलियां निकल जाती है वह सख्त हो जाता है, उसकी बनी हुई वस्तुओं में मजबूती उतनी नहीं रहती जितनी बिना कली निकले निंगाल में। अधिक समय तक रखे किंरगाल की लोच भी कम जाती है, इससे मनोनुकूल आकृति में ढ़ालने में भी असुविधा होती है। किंरगाल को पतली-पतली पट्टियों में चीर लिया जाता है। केवल बाहर की ओर वाली पतली, चिकनी पर्त का ही उपयोग किया जाता है। अन्दर के गूदे वाला भाग विष्प्रयोज्य होता है। किंरगाल को पानी भरे टब में डालकर एक घंटे तक पका लिया जाता है। जिससे उसमें कोमलता आ जाती है तथा पट्टियाँ मुलायम हो जाती हैं। ताने-बानों का ही तरह निंगाल की खड़ी पट्टियाँ पाते तथा आड़ी पट्टियाँ सैया कलहाती है। तली को मजबूती देने के लिए इसकी दोहरी बुनाई का जाती है। टोकरी बनाने के लिए केन्द्र से चारों ओर बुनते हुए परिधि की ओर जाया जाता है। सामान्यतः सोलह जोड़े पाते लगाने पाले टोकरी में चाप सूप अनाज आ जाता है। फिर भी बीस से लेकर बत्तीस तक पाते लगाये जा रकते हैं। परिधि में मजबूती देने के लिए झटयाली अथवा कुँज की वृताकार लकड़ी लगाकर उस पर गाँठें लगायी जाती है। चार खानेदार बुनाई का डिजायन यहाँ बहुत प्रचलित हे। इस डिजायन को यहाँ 'दीपते छोड़' बुनाई की नाम दिया गया है। सूप में चारों ओर कसने वाली लकड़ी को सूप का कुन्यव कहते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में केवल दो औजार ही प्रयोग किये जाते हैं। एक भाकी चाकू तथा दूसरा बुनाई को सघन करने के लिए प्रयुक्त होनेवाली लकड़ी जिसे सूप का ठोका कहते हैं। मोस्टा निंगाल की बनी हुई चटाऊ है। इसमें भी दो पाते छोड़कर बुनाई की जाती है। किनारों की ओर गाँठ लगाकर इसे बनेद कर दिया जाता है। वर्तमान में अनेक स्थानों पर किंरगाल की पट्टियों को रंगकर बनने का चलन भी जोर पकड़ता जा रहा है। परम्परागत किंरगाल के कारीगर केवल ठंडे पानी में ही भिगोकर किंरगाल को मुलायम बनाते हैं। वे गरम पानी में किंरगाल को नहीं डालते। पहले जिस व्यक्ति के साथ किंरगाल उसकी आजीविका के रुप में जुड़ा था निश्चय ही उसे किंरगाल की उपलब्धता की भी चिंता भी थी। इसलिए किंरगाल के चकों की आवृति इस प्रकार से की जाती थी कि बारह मास किंरगाल उपलब्ध भी रहे और ६-७ वर्ष के समय में जब किंरगाल के पलने बढ़ने का समय होता हैं, काश्ताकार को दुबारा अपने ही चक से किंरगाल उपलब्ध भी हो जाये। वन अधिनियम के कारण किंरगाल को वनों से काटना जुर्म हो गया है। छोटा कारीगर वनों के चक न तो ग्राम पंचायत से ही खरीद पाता है न ही उसे कच्चे माल की आपर्ति ही हो पाती है। यह व्यवस्था आज भी आदिम युग की तरह चल रही है। कारीगर शुद ही माल बनाता है और खुद ही उसे बेचने के लिए मेलों, गाँवों में फेरी लगाता है। फलस्वरुप दस्तकारों को निर्मित सामान का न तो उचित मूल्य मिल पाता है न ही उसके समय की ही कोई बचत होती है। सीमान्त पिथौरागढ़ जनपद के दुर्गम गिरि श्रृंगों में निवास करनेवाली भोटिया जनजाति का ऊनी शिल्प ही उनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य साधन रहा है। यद्यपि इस क्षेत्र का ऊनी कारोबार चीन के आक्रमण के बाद काफी अस्तव्यस्त हो गया तो भी वर्तमान में भी यह शिल्प जीवन यापन का मुख्य आधार है। अल्मोड़ा जनपद की उत्तरी पट्टियों में यह कारोबार काफी फलता-फूलता रहा है। महाभारत में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि हिमालय क्षेत्र के राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कलात्मक ऊनी वस्र, चँवर इत्यादी लेकर आये थे। प्राचीन काल से ही भोटान्तिक लोग दो प्रकार की भेड़ोंको पालते चले आ रहे हैं। एक वे भेड़े, जिनसे अच्छी कि का ऊन निकाला जा सकता था, दूसरी भेड़े वे जिनसे सामान ढ़ोया जा सकता था तथा इनसे मोटा ऊन भी मिल जाता था। लेकिन अच्छी कि की ऊन तिब्बत से काफी सस्ती सुलभ हो जाती थी, इसलिए इस कला का मुख्य आधार तिब्बती भेड़ों का ऊन था। चीनी आक्रमण के पश्चात् भी भारी संख्या में बुनकर इस उद्योग में लगे हुए थे। आजकल वस्र निर्माण के लिए भेड़ों से ऊन प्राप्त करने के बाद उसे गरम पानी में डुबोकर साफ किया जाता है। इस बाँस के डंडे की सहायता से पीट-पीट कर रेशे अलग किये जाते हैं। तब इसे एक प्लाई, दो प्लाई की ऊन के रुप में कात लिया जाता है। तकली को धारचूला के इलाके में 'छिज्जू फर्शी' कहा जाता है। छिज्जू फर्शी लकड़ी अथवा बाँस की बनाई जाती है। इसे बनाने के लिए १३ से २० सेमी. तक लम्बा तथास ०.५ सेमी. व्यास का बाँस प्रयुक्त किया जाता है। इसके बीच में ३ सेमी. से लेकर ५ सेमी. तक का एक गोल लकड़ी का टुकड़ा फँसा दिया जाता है जो आधार बिन्दु से ५ सेमी. ऊपर लगाया जाता है। 'छिज्जू फर्शी' में ऊन को चलते-पिरते, उठते-बैठते अंगुलियों की सहायता से घुमाकर कात लिया जाता है। अब तो चरखा भी कातने के लिए प्रयुक्त होता है। लुधियाना इत्यादि से भी ऊन मंगायी जाने लगी है। इस क्षेत्र में ऊन से बनी हुई अनेक कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन होता है। पट्टू सर्ज का बना हुआ एक सुन्दर वस्र है और सघन बुनाई के कारण इसके बुनने में सबसे अधिक समय लगता है। थुलमा मोटी ऊनी कम्बल की तरह का वस्र है, जो ऊन के रंग के रंग के अनुसार प्रायः एक रंग का होता है। तीन चार थुलमों को जोडकर कम्बल बना लिया जाता है। जोड़ने के पश्चात् कम्बल को बाँस के बने कंधे जैसे ब्रुश से साफ कर लिया जाता है। जितनी अच्छी इसकी सफाई की जाती है, उतनी ही ज्यादा इसकी कीमत हो जाती है। काले रंग के थुलमें सबसे अच्छे माने जाते हैं। जबकि चुटका ऐसा वस्र जिसकी एक सतह बकरी की खाल सदृश बालों की होती है तथा दूसरी सतह सादी होती है। दन छोटी कालीन की तरह होता है। पंखी जाड़ों में ओढ़ने, घर से बाहर ओढ़कर जाने इत्यादि के लिए सर्वश्रेष्ठ है जो महीन कताई पर ऊन से बुनी जाती है। कालीन की बुनीई के लिए आधार जमीन पर तैयार किया जाता है। इसको तैयार करने के लिए लकड़ी अथवा लोहे के २५ सेमी. लम्बे १ सेमी. व्यास की गोल छड़े ली जाती हैं। छड़ों की संख्या ६ तक होती है परन्तु कालीन की लम्बाई के हिसाब से इनकी संख्या ज्यादा भी हो सकती है। इन छड़ों को पुसिग कहा जाता है। जमीन में इन छड़ों को गाड़ने के पश्चात् नमूने के अनुसार मोटे सूत के क्रासिग डाले जाते हैं। पुसिंग लगाने का तरीका विशिष्ट है। एक ओर तीन पुसिंग गाड़े जाते हैं। दूसरा और तीसरा पुसिंग अन्त में मध्य की ओर लगाया जाता है। ४५ मेमी. वर्गाकार आसन के लिए १३० से १४० तक क्रासिग डाले जाते हैं। जंबकि १८० सेमी. लम्बे ९० सेमी. चौड़े कालीन के लिए २५० से २६० तक क्रासिंग प्रयोग में लाते हैं। क्रासिंग से तात्पर्य है मोटे सूत की आधार भूमी तैयार करने के लिए फंदेनुमा धरातल बनाना। क्रासिंग के फन्दे डालना अनुभव का परिणाम है। ज्यादा या कम फंदे होने से बुनकर की परेशानी बढ़ जाती है। प्रथम चरण में पहली क्रासिंग निकालने के पश्चात् उसमें मोटा सूत डाल दिया जाता है। दूसरी क्रासिंग में निंगाल की छड़ी डाल दी जाती है। इसे जुम्मर कहते हैं। इसके बाद इन सबको अड्डे में लगा देते है। अड्डे को रांच कहा जाता है। रांच एक प्रकार का लकड़ी का यंत्र है जिसमें ऊपर नीचे की दस सेमी. मोटी बल्लियाँ धूरी पर घूमती है। ये दोनों बल्लियां चीरा कहलाती हैं। बुनाई को सघन करने के लिए जिसे ठांसना कहा जाता है, मेस की लकड़ी प्रयोग की जाती है। यह लकड़ी पतले बाँस की तरह होती है। वैसे कोई भी वजनदार लकड़ी जैसे बाँस या तुन भी प्रयोग की जा सकती है। प्रायः तीन तरह की शैली से कालीन की बुनाई की जाती है। इसमें पहली है-धारचूला पेटेंट दूसरा मुंश्यारी पेटेंट तथा तीसरा भदोही पेटेंट कहलाती है। धारचूला पेटेंट में रांच को अपने स्थान से विस्थापित कर आंगन में, कमरे में लाया जाता है। जबकि मुंश्यारी पेटेंट में रांच एक कहलाता स्थान पर ही स्थापित रहता है। भदोही और धारचूला पेटेंट में माल में वह मजबूती नहीं होती जो मुंश्यारी पेटेंट में होती है। लेकिन इसमें बुनाई जल्दी हो जाती है। ज्यादातर लोग मुंश्यारी पेटेंट से ही माल तैयार करते हैं। तिब्बती लोग भी मुंश्यारी पेटेंट का प्रयोग माल तैयार करने में करते हैं। मुंश्यारी पेटेंट के जो कालीन तैयार होते हैं उसमें यद्यपि रंगों का संयोजन बुनाई करनेवाले पर निर्भर रहता है, लेकिन जो सबसे सामान्य नमूना प्रयोग किया जाता है उसमें किनारे से अन्दर की ओर क्रमानुसार चार इंच की लाल रंग की पट्टी छोड़ते हैं। इसके बाद सफेद रंग की रेखायें बनायी जाती है, तत्पश्चार ल्हासा डिजायन के नाम से विख्यात् ल्हासागढ़ी बनाते हैं। यह तीन-तार इंच में बुनी जाती हैंं। इसके बाद जंजीर बुनते हैं। इसे दलपूकांगर कहा जाता है। चारों कोनों पर चार मेहराब डाले जाते हैं। यह मेहराब मात्र सुन्दरता के लिए प्रयोग किये जाते हैं। प्रायः ड्रेगन भी बनाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में डुग कहा जाता है। बुनते समय छड़ जैसी लकड़ी की सहायता से तानों और बानों को अलग-अलग किया जाता है। तानों को कसने और उन्हें सघन करने के लिए ब्रुश जैसा यंत्र प्रयोग किया जाता है। लकड़ी पर बने इस यंत्र में जानवरों के नाखुन की तरह मोड़कर ब्लेड लगाये जाते हैं। नाखूनों की लम्बाई लगभग पाँच इंच तक होती है। नाखूनों के बिच की जगह में ताने फंस जाते हैं। अंग्रेजी के अक्षर "j" की तरह का बाहर की ओर धार वाला चाकू फंदी को काटने के लिए प्रयोग किया जाता है। विशिष्ट प्रकार से फंदा लगाने के बाद वहीं पर चाकू से उसे काटते चलते हैं। पूरी लाईन में फंदे डालकर उसे बुन लेने के बाद बाना सूत से डाल दिया जाता है। ३० सेमी. लम्बाई की बुनाई में लगभग नब्बे ऊनी लाइन आनी चाहिये। इसके साथ ही विशेषता यह होती है कि पीछे की ओर से सूत दिखाई नहीं देना चाहिए। कालीन को सघन करने के लिए जरुरी है कि न केवन सूत पतला डाला जाये वरन् उसे सधन भी अच्छी प्रकार से किया जाये। किनारे पर गाँठ लगाकर लाइन को बंद कर दिया जाता है। यहाँ कालीन तैयार करने पर उसकी धुलाई नहीं का जाती। पहले कालीन रंगने के लिए ऊन को प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता था। श्यामा, डोलू, अखरोट आदि का प्रयोग रंग बनाने के लिए किया जाता था। श्यामा एक प्रकार की घास है उसकी जड़ भी प्रयोग की जाती थी। इसको कूटकर तांबे के बर्तन में पका लिया जाता था। लाल रंग तैयार करने के लिए उसमें नमक डाल देते थे। इसी प्रकार अखरोट की छाल, पत्ती आदि का प्रयोग भी रंग बनाने के लिए किया जाता था। नमक और सुहागे के प्रयोग से रंग पक्का रहता है और सालों साल तक खराब नहीं होता। बाँसः- कुमाऊँ के जंगलों में बाँस बहुतायत से पाया जाता है। शिल्प की दृष्टि से वैसे भी कुमाऊँ मात्र तांबा या किंरगाल पर ही आधारित नहीं है। यहाँ के भूमिहीन हरिजनों को बाँस सैकड़ों सालों से पाल रहा है। बाँस के दस्तकार प्रायः हरिजन वर्ग के हैं। इनका परम्परागत और पुशेतैनी कार्, बाँस के घरेलू उपयोग के #ुपकरण बनाना ओर बेचना है। कुमाऊण के शिल्प जगत् में बाँस का प्रवेश न केवन कलात्मक वस्तुओं के कारण रहा अपितु यह बड़ी संख्या में रोजगार का साधन भी बना रहा बाँस का प्रयोग कर स्थानीय दस्तकार सूपे, डाले, कंडिया, पिटारे, सन्दूक आदि बनाते हैं। किंरगाल की ही भाँति बाँस की बनी हुई वस्तुएँ भी टिकाऊ, मजबूत और सस्ती होने के कारण काफी लोकप्रिय हैं। ग्रामीण जगत् का काम बाँस के बनाये गये सूपों के बगैर नहीं चलता। टोकरे, डाले सूपे बनाने की प्रक्रिया बेहद उबाऊ तथा समय खर्च करनेवाली है। बाँस का काम करनेवाले कारीगर वैसे पूरी तरह बाँस के काम पर ही निर्भर नहीं हैं। जहाँ एक ओर ये बाँस की रोजाना उपयोग की वस्तुएँ बनाते हैं वहीं शादी विवाह के अवसरों पर वाद्ययंत्र बजाना भी इनका प्रमुख कार्य है। इसके अतिरिक्त मवेशी पालकर दूध इत्यादि का भी यह व्यवसाय करते हैं। लेकिन साल के अधिकांश समय ये बाँस का ही कार्य करते हैं। बाँस के कारीगर बाँस को चीरकर जरुरत के अनुसार बीस मिमी. चौड़ी खपच्चियाँ निकाल देते हैं। पूरे बाँस में डेढ़ से दो मीटर लम्बी खपच्चियाँ निकालकर उन्हें दो तीन मिमि. तक मोटाई का काट लिया जाता है। तत्पश्चात् इन खपचिच्यों को धूप में सूखने के लिए एक डेढ़ हफ्ते तक छोड़ देते हैं। टोकरा अथवा डाला बनान के लिए तली का दोहरा अस्तर तैयार किया जाता है। तली बनाने के लिए एक के ऊपर दूसरी खपच्चि ऱखकर एक केन्द्रिक आधर तैयार किया जाता है। जिसमें सोलह तक खपच्चियां होती हैं। इन आधारों को एक दूसरे के ऊपर रखकर बुनाई शुरु की जाती है। जो खपच्चियां वर्तुलाकार बुनी जाती हैं उनमें यह धयान रखा जाता है कि क्षैतिज खपच्चियां एक ऊपर आये तो दूसरी नीचे। इससे डाले की मजबूती बनी रहती है। तली के पास से शुरु हो चुकी बुनाऊ इस मजबूती से की जाती है कि बुनाई में छेद दिखाई नहीं देते। सबसे अन्त में झट्यालू अथवा घिङारु की लकड़ी लगाई जाती है। लकड़ी लगाकर उस पर बुनाई की जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में जंगल से बाँस लाने और डाला तैयार करने में पंद्रह से बीस दिन का समय लगता है। इस बीच चार से पाँच कारीगर मिलकर साठ डाले तैयार कर लेते हैं। डालों का प्रयोग ग्रामीण जगत् में सब्जियां लाने, खेतों में सामान लाने ले जाने, अ्नाज, खाद व हरी घास ढोने के प्रयोग में लाया जाता है। मृतिका शिल्पं मिट्टी से बर्तन इत्यादि बनाने का कार्य अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ तथा नैनीताल जनपद में काफी प्राचीन सामय से होता चला आया है। चम्पावत, लोहाघाट, स्यालदे, गरुड़, बागेश्वर, चौना, सोमेश्वर, द्वाराहाट, करकोट कांड़ इत्यादि में भी यद्यपि यह कार्य किया जाता है लेकिन अल्मोड़ा के नजदीक बसे पाटिया कार्य जैसी कलात्मक और सुघड़ता उनमें दिखाई नहीं देती। प्रायः कारीगर वे सामग्री बनाते हैं जिनका घरेली वस्तुओं के रुप में प्रयोग होता है। इनमें कलश, सुराही, गमला, गुल्लक, चिलम इत्यादि प्रमुख हैं। यह कार्य अलमोड़ा कफड़खान मार्ग पर तालुका विसासखंड के पाटिया रनामक ग्राम में अधिक होता है क्योंकी यहां की मिट्टी इस कार्य के लिएज्यादा उपयुक्त है। मृतिका कार्य करनेवालों के कुमा में चार मुक् समुह हैं जो पिथौरादढ़ में पौरी, बलतीर, पाटिया तथा सतरेह नाम से जाने जाते हैं। सतरेह गाँव वालों ने अलबत्ता यह कार्य पूरी तरह से छोड़ दिया है। पटिया ग्राम उल्मोड़ा से बाईस किमी. की दूरी पर लगभग पाँच हजार पांच सौ फुट की ऊँचाई पर बसा है। इस गाँव में सिरकोट तथा पाटिया खाली से पैदल मार्ग पर २ किमी. चलकर पहुँचा जा सकता है। मिट्टी के इस कार्य के लिए जरुरत की मिट्टी स्थानीय स्तर पर हि उपलब्ध है। बर्तन इत्यादि को पकाने के लिए चीड़ का छिल्ला प्रयोग किया जाता है। सांचे की सदद से भी जरुरत की चीजें बनायी जाती है। निर्माण कार्य के लिए पाटिया ग्राम से एक किमी. की दूरी पर बइया नामक जगह से मिट्टी लायी जाती है। मिट्टी को लाने के बाद बाँस के बने हछौड़ों से पीटा जाता है। जब यह महीन होजाती है, तब इस छलनी के मदद से छानकर पत्थर इत्यादि अलग कर लिये जाते हैं। इसके पश्चात् पानी मिलाकर लेही के समान गाढ़ा कर लिया जाता है। चाक जितनी बड़ी नहीं होती है ; यह यंत्रहनकिया चाख कहलाता है जो पैर अथवा हाथ की दमम से धीरे - धीरे घूमता है। इसको आधार बनाकर धीरे - धीरे मनोनुकूल आकृतियां ढाल ली जाती हैं। हनकिया चाख पूर्ण चन्द्राकार होता है। ढ़ली हुई इस सामग्री को दो दिन तक धूप में सुखा लिया जाता है। बनी हुई वस्तुओं को ढेर बनाकर चीड़ के छिलके के बीच रखकर चारों ओर से थिलके से ढांक दिया जाता है तथा आग लगा दी जाती है। इस प्रकार से तैयार बर्तन इत्यादि क रंग कार्बन मोनोस्साइड गैस के कारण काला रंग पड़ जाता है तथा यह सामग्री काली पॉटरी कहलाती है। चर्मशोधन का कार्य कुमाऊँ मंडल के पिथ#ौरागढ़ जनपद के लोहाघाट तथा मदगाँव ग्राम में बहुतायत से सम्पन्न किया जाता है। यह कार्य पिथौरागढ़ जनपद के ही नाचनी, मिलम तथा बिल्ज गाँवों में भी होता है। कुछ समय पहले तक अल्मोड़ा जनपद के बागेश्वर, सोमेश्वर, चनौदा, कनालीछीना आदि में भी चर्म शोधन का कार्य किया जाता था। भोट क्षेत्र में भी चर्म शोधन का कार्य कुछ परिवार करते रहे हैं। चर्म शोधन के कार्य का प्राथमिक चरण है-- मृत पशु की खाल प्राप्त करना जिसके लिए प्रायः स्वयं ही ऐसे परिवारों को पशु मरने की सूचना देते हैं जिसको चर्मशोधन करनेवाले परिवार खाल निकालने के लिए नियत स्थान पर ले जाते हैं। खुखरी सदृश चाकू कीमदद से पशु की खाल एकांत स्थान में निकाल ली जाती है। मृत पशु के शेष अवशेषों को प्रायः गढ़े में डाल दिया जाता है। इसके पश्चात् ही चर्मशोधन की परम्परागत प्रक्रिया प्रारंभ होती है। सद्द प्राप्त खाल को तीन से चार दिन तक धूप में सूखने के लिए लटका दिया जाता है। उसके बाद पानी से खाल की धुलाई की जाती है। पानी से अच्छी तरह धोने के बादखाल को चूना मिले हुए पानी में डाल दिया जाता है। चून को पानी में ड़ालने के लिए सीमेंट की टंकी बनाकर उसमें १:५ अनुपात में चूना और पानी का विलयन बनाया जाता है। तीन चार घंटे तक प्रतिदिन इस विलयन में डालकर चमड़े को अच्छी प्रकार से पानी से भिगोया जाता है। इसके पश्चात् काफल (myrica esculata) नामक झाड़ी की छाल वाले पानी भरे गढ़े में सात आठ दिन तक डाल दिया जाता है। एक हफ्ते के बाद चमड़े को निकालकर उसे ताजे पानी से धोकर पूरी प्रक्रिया को पुनः दो-तीन बार दुहराया जाता है। इसके पश्चात् धूप में सुखाकर पत्थर के बेलन से दबाया जाता है। पुनः चमड़े को ताजे पानी में दस दिन भिगोकर अन्त में खाल पत्थर के नीचे दबायी जाती है। इसके पश्चात् ही तीन माह पुरानी प्रक्रिया का अन्त होता है और खाल चमड़े#े के रुप में प्रयोग करने योग्य बन पाती है। मिलम इत्यादि में अब भी साँभर चमड़े का कार्य होता है। नाचनी तथा बिल्ज गाँवों में भी यह कार्य किया जाता है। इसकी प्रक्रिया बहुत सरल है। खाल को सुखाकर उसके अन्दर की ओर तेल अथवा दही लगाकर रख देते हैंं। इसके पश्चात् पत्थर से घिसाई की जाती है। इससे उसकी सतह पर रेशे आना प्रारम्भ हो जाते हैं। कुमाऊँ में चमड़े का कार्य करने वाले शारकी कहलाते हैं। जोहार घाटी में अभी भी कुछ लोग परम्परागत रुप से इस पेशे को अपनाये हुए हैं। इस कार्य में पुरुष वर्ग क ही आधिपत्य है। देश के अन्य भागों में प्रयोग होने वाले औजारों से भिन्न कोई औजार प्रयोग नहीं किया जाता। कुमाऊँ में काष्ठ निर्मित बर्तनों का चलन बहुतायत से है। प्रायः राजी जनजाति के लोग ही बर्तन बनाने की परम्परागत कला में लगे हुए हैं। ये लोग पिथौरागढ़ जनपद में कालीन दी के किनारे के गाँवों में ही फैले हैं। चम्पावत, कनालीछीना तथा डिडीहाट उपखंड में काष्ठ उपकरण बनाये जाते हैं। काष्ठ के बर्तन बनाने के लिए लकड़ी प्रायः साणण, गेठी (bohmeria regubsa) तुन इत्यादि की प्रयोग की जाती है। इसके लिए खराद मघीन की प्रयोग की जाती है जो जलशक्ति# क सहारे चलती है। बर्ततन निर्माण का कार्य पुरुष ही सम्पन्न करते हैं क्योंकि इस पेशे में अथाह श्रम और शक्ति लगती है। पाली, ठेकी तथा नाली ही प्रायः बनायी जाती है। खराद को किसी भारी भड़कम पेड़ के तने से बनाया जाता है। नाशपाती के आकार के इस तने के वृहदाकार भाग की ओर बीस तक की संख्या में लकड़ी के पंखे लगे रहते हैं। पानी को आठ से दस फुट की ऊँचाई से जब इस पंखे पर गिराया जाता है तो यह तेजी से घूमने लगता है। इस पर सुख्य धुरी को कसकर उसमें ब्लेड लगाये जाते हैं। पानी की गति से लोहे के ब्लेड तेजी से घूकर खराद का कार्य करते हैं। खराद का स्वामित्व प्रायः सामूहिक होता है। इसी खराद की सहायता से लकड़ी के बर्तन बना लिये जाते हैं। सर्वप्रथम मनचाहे आकार में काटकर तने को खोखला कर दिया जाता है। बर्तन की आकृति देने के लिए उसे अन्दर व बाहर चिकनाकर इसमें रेखाएँ उभार दी जाती हैं। इन बर्तनों की पहले बिक्री नहीं होती थी राजि जनजाति लम्बे समय तक जनसम्पर्क से बचती रही है। इसलिए बर्तन बनाकर वे रात के अंधेरे में घर के बाहर रख जाते थे। दूसरे दिन बर्तन के आकार के बराबर अनाज घर के बाहर रख दिया जाता था। जिसे राजि लोग बदले में प्राप्त कर लेते थे। लेन देन की यही परम्परागत प्रक्रिया थी। कुमैयाँ भदेलों की लोहाघाट क्षेत्र में व्यापक इकाईयां थी; जो अब धीरे-धीरे लुप्त होते जा रही है। कागज भी हाथ से बरुआ (daphnepapyraccae) से बनाया जाता था। अब यह व्यवसाय भी धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है।
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