उत्तरांचल

अल्मोड़ा


हल्द्वानी, काठगोदाम और नैनीताल से नियमित बसें अल्मोड़ा जाने के लिए चलती हैं।  ये सभी बसे भुवाली होकर जाती हैं।  भुवाली से अल्मोड़ा जाने के लिए रामगढ़, मुक्तेश्वर वाला मार्ग भी है।  परन्तु अधिकांश लोग गरमपानी के मार्ग से जाना ही अदिक उत्तम समझते हैं।  क्योंकि यह मार्ग काफी सुन्दर तथा नजदीकी मार्ग है।

भुवाली, हल्द्वानी से ४० कि.मी. काठगोदाम से ३५ कि.मी. और नैनीताल से ११ कि.मी. की दूरी पर स्थित है।  तथा भुवाली से अल्मोड़ा ५५ कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ है।

कैंची

कैंची, भुवाली से ७ कि.मी. की दूरी पर भुवालीगाड के बायीं ओर स्थित है।  नीम करौली बाबा को यह स्थान बहुत प्रिय था।  प्राय: हर गर्मियों में वे यहीं आकर निवास करते थे।  बाबा के भक्तों ने इस स्थान पर हनुमान का भव्य मन्दिर बनवाया।  उस मन्दिर में हनुमान की मूर्ति के साथ-साथ अन्य देवताओं की मूर्तियाँ भी हैं।  अब तो यहाँ पर बाबा नीम करौली की भी एक भव्य मूर्ति स्थापित कर दी गयी है।

यहाँ पर यात्रियों के ठहरने के लिए एक सुन्दर धर्मशाला भी है। यहाँ पर देश-विदेश के आये लोग प्रकृति का आनन्द लेते हैं।

कैंची मन्दिर में प्रतिवर्ष १५ जून को वार्षिक समारोह मानाया जाता है।  उस दिन यहाँ बाबा के भक्तों की विशाल भीड़ लगी रहती है।  नवरात्रों में यहाँ विशेष पूजन होता है।  नीम करौली बाबा सिद्ध पुरुष थे।  उनकी सिद्धियों के विषय में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं।  कहते हैं कि बाबा पर हनुमान की विशेष कृपा थी।  हनुमान के कारण ही उनकी ख्याति प्राप्त हुई थी।  वे जहाँ जाते थे वहीं हनुमान मन्दिर बनवाते थे।  लखनऊ का हनुमान मन्दिर भी उन्होंने ही बनवाया था।  ऐसा कहा जाता है कि बाबा को 'हनुमान सिद्ध' था।

उनका नाम नीम करौली पड़ने के सम्बन्ध में एक कथा कही जाती है।  बहुत पहले बाबा एक साधारण व्यक्ति थे।  नीम करौली गाँव में रहकर हनुमान की साधना करते थे, एक बार उन्हें रेलगाड़ी में बैठने की इच्छा हुई।  नीम करौली के स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी रुकी, बाबाजी रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जाकर बैठ गए।  कंडक्टर गार्ड को जैसे ही ज्ञात हुआ कि बाबाजी बिना टिकट के बैठे हैं तो उन्होंने कहा कि बाबाजी, आप गाड़ी से उतर जाएँ।  बाबाजी मुस्कुराते हुए गाड़ी के डिब्बे से उतरकर स्टेशन के सामने ही आसन जमाकर बैठ गए।  उधर गार्ड ने सीटी बजाई, झंडी दिखाई और ड्राइवर ने गाड़ी चलाने का सारा उपक्रम किया, किन्तु गा#ी एक इंच भी आगे न बढ़ सकी।  लोगों ने गार्ड से कहा कि कंडक्टर गार्ड ने बाबाजी से अभद्रता की है।  इसीलिए उनके प्रभाव के कारण गाड़ी आगे नहीं सरक पा रही है।  परन्तु रेल कर्मचारियों ने बाबा को ढोंगी समझा।   गाड़ी को चलाने के लिए कई कोशिशें की गयीं।  कई इंजन और लगाए गए परन्तु गाड़ी टस से मस तक न हुई।  अन्त में बाबा की शरण में जाकर कंडक्टर, गार्ड और ड्राइवर ने क्षमा माँगी।  उन्हें आदर से प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बिठाया।  जैसे ही बाबा डिब्बे में बैठे, वैसे ही गाड़ी चल पड़ी।  तब से बाबा 'नीम करौली बाबा' पड़ा।  तब से अपने चमत्कारों के कारण वे सब जगह विख्यात हो गये थे।   अपनी मृत्यु की अन्तिम तिथि तक भी वे हनुमान के मन्दिरों को बनवाने का कार्य करते रहे और दु:खी व्यक्तियों की सेवा करते रहे।

कैंची में भी कई दुखियों की उन्होंने सेवा की थी।  उनके पास कोई व्यक्ति क्यों आया है?  यह बात वे पहले ही कहकर आगंतुक को आश्चर्य में डाल देते थे।  आज भी बाबा के नाम पर कैंची में भोज का आयोजन होता है।

गरम पानी :

कैंची से आगे 'गरमपानी' नामक एक छोटा सा नगर आता है।  यह स्थान हल्द्वानी, काठगोदाम और अल्मोड़ा के बीच का ऐसा स्थान है जहाँ पर यात्री चाय पीने और भोजन करने के लिए आवश्यक रुप से रुकते हैं।  गरमपानी का पहाड़ी भोजन प्रसिद्ध है।  यहाँ का रायता और आलू के हल्दी से रंग गुटके दूर-दूर तक प्रसिद्ध है।  हरी सब्जियों की यह मण्डी है।  यहाँ से दूर-दूर तक पहाड़ी सब्जियाँ भेजी जाती हैं।  पहाड़ी खीरे, मूली और अदरक आदि के लिए भी गरमपानी विख्यात  है।

यहाँ से आगे बढ़ने पर खैरना आता है।  खैरना में भुवालीगाड, कोसी में मिल जाती है।  यहीं कोसी पर एक झूला पुल है।  खैरना मछिलयों के शिकार के लिए विख्यात है।  थोड़ा और आगे बढ़ने पर दो रास्ते हो जाते हैं।  एक मार्ग रानीखेत को और दूसरा मार्ग अल्मोड़ा को चला जाता है।

अल्मोड़ा के मार्ग में खैरना से आगे काकड़ी घाट नामक स्थान पड़ता है।  काकड़ी घाट का प्राचनी महत्व है।  यहाँ पर एक पुराना शिव मन्दिर है।  जब पर्वतीय अंचल में मोटर मार्ग नहीं थे तो बद्रीनाथ जाने के लिए यहीं से पैदल मार्ग कर्णप्रयाग के लिए जाता था।  आज भी कई धार्मिक यात्री इसी मार्ग से पैदल चलकर बद्रीनाथ-केदारनाथ की यात्रा करने जाते हैं।

काकड़ी घाट के नजदीक ही एक पुल कोसी पर बना है।  उस पुल को पार करते ही मोटर-मार्ग पहाड़ी की चोटी की ओर बढ़ने लगता है।  यह पर्वतीय मार्ग-ऐतिहासिक नगरी अल्मोड़ा में आता है।

'अल्मोड़ा' समुद्रतल से १६४६ मीटर की ऊँचाई पर ११.९ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है।  यह नगरी पहाड़ी के दोनों ओर पर्वत-चोटी पर बसा हुआ है।  पहाड़ के एक छोर से दूसरे छोर तक लाला बाजार है। यह बाजार बहुत पुराना है और सुन्दर कटे पत्थरों से बनाया गया है।  इसके अलावा अल्मोड़ा में अन्य सड़कें भी इतनी अच्छी बनी हुई हैं कि पर्यटक उन्हीं पर घूम-घूमकर प्रकृति का वास्तविक आनन्द लेते रहते हैं।  चारों तरफ हरे-भरे जंगलों का सौन्दर्य अपने आप में एक विशेष आकर्षण पैदा करता है। वसन्त ॠतु में अल्मोड़ा की छवि दर्शनीय हो जाती है।  यह अत्यन्त स्वास्थ्यवर्धक जलवायु वाला पर्वतीय नगर है इसीलिए गर्मियों में यहाँ अधिक चहल-पहल रहती है और सैलानियों का जमघट लगा रहता है।

कुमाऊँनी संस्कृति का केन्द्र अल्मोड़ा है।  कुमाऊँ के रसीले गीतों और उल्लासप्रिय लोकनृत्यों की वास्तविक झलक अल्मोड़ा में ही दिखाई देती है।  कुमाऊँनी भाषा का प्रामाणिक स्थल भी यही नगर है।  कुमाऊँनी वेशभूषा का असली रुप अल्मोड़ा में ही दिखाई देता है।  आधुनिकता के दर्शन भी अल्मोड़ा में पूर्णत: हो जाते हैं।  पहाड़ी भोजन के होटल यहाँ कई हैं।  मिठाईयों में भी बाल मिठाई यहाँ की प्रसिद्ध है।

कुमाऊँ के भव्य दर्शन करने हेतु पर्यटक अल्मोड़ा आना अधिक पसन्द करते हैं।  यहाँ से हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं और कुमाऊँनी जन-जीवन की वास्तविक जानकारी भी हो जाती है।

यहाँ कुछ ऐसे स्थल हैं जो पर्यटकों, पदारोहियों और सैलानियों को आकर्षित करते रहते हैं।

अल्मोड़ा के किले :

अल्मोड़ा नगर के पूर्वी छोर पर 'खगमरा' नामक किला है। कत्यूरी राजाओं ने इस नवीं शताब्दी में बनवाया था।  दूसरा किला अल्मोड़ा नगर के मध्य में है।  इस किले का नाम 'मल्लाताल' है।  इसे कल्याणचन्द ने सन् १५६३ ई. में बनवाया था। कहते हैं, उन्होंने इस नगर का नाम आलमनगर रखा था।  वहीं चम्पावत से अपनी राजधानी बदलकर यहाँ लाये थे।  आजकल इस किले में अल्मोड़ा जिले के मुख्यालय के कार्यलय हैं।  तीसरा किला अल्मोड़ा छावनी में है, इस लालमण्डी किला कहा जाता है।  अंग्रेजों ने जब गोरखाओं को पराजित किया था तो इसी किले पर सन् १८१६ ई. में अपना झण्डा फहराया था।  अपनी खुशी प्रकट करने हेतु उन्होंने इस किले का नाम तत्कालीन गवर्नर जनरल के नाम पर - 'फोर्ट मायरा' रखा था।  परन्तु यह किला 'लालमण्डी किला' के नाम से अदिक जाना जाता है।  इस किले में अल्मोड़ा के अनेक स्थलों के भव्य दर्शन होते हैं।

नन्दा देवी मन्दिर :

गढ़वाल कुमाऊँ की एक मात्र ईष्ट देवी भगवती नन्दा पार्वती है।  नन्दा अष्टमी के दिन सम्पूर्मम पर्वतीय अंचल में नन्दा की विशेष पूजा होती है।  नन्दा देवी की मूर्ती केले के पत्तों और केले के तनों से बनाई जाती है।  नन्दा की सवारी भी निकाली जाती है।  नन्दा अष्टमी भाद्रपद अर्थात् सितम्बर के महीने में आती है।

यहाँ पर इस दिन बहुत बड़ा मेला लगता है।  इस दिन दर्शनार्थी आकर पूजा करते हैं।  मेले में झोड़ा, चाँचरी और छपेली आदि नृत्यों का भी सुन्दर आयोजन होता है।  कुमाऊँ के कई अंचलों की लोकनृत्य की पार्टियाँ यहाँ आकर अपना-अपना कौशल दिखाती हैं, पर्यटक, पदारोही, सैलानी और साहित्य एवं कला प्रेमी इन्ही दिनों अधिकतर कुमाऊँ की संस्कृति तता वहाँ के जन-जीवन की वास्तविक जानकारी करने हेतु अल्मोड़ा पहुँचते हैं।  अल्मोड़ा की नन्दा देवी के दर्शन करना अत्यन्त लाभकारी माना जाता है।  अल्मोड़ा में नन्दा देवी के अलावा त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर, रघुनाथ मन्दिर, महावीर मन्दिर, मुरली मनोहर मन्दिर, भैरवनाथ मन्दिर, बद्रीनाथ मन्दिर, रत्नेश्वर मन्दिर और उलका देवी मन्दिर प्रसिद्ध हैं।

जामा मस्जिद, मैथोडिस्ट चर्च और अंगलीकन चचें प्रसिद्ध है।

कसार देवीमंदिर :

यह मुख्य नगर से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  इस मंदिर से हिमालय की ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियों के दर्शन होते हैं।  कसार देवी का मंदिर भी दुर्गा का ही मंदिर है।  कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना ईसा के दो वर्ष पहले हो चुकी थी।  इस मंदिर का धार्मिक महत्व बहुत अधिक आंका जाता है।

चित्तई मंदिर :

कुमाऊँ के प्रसिद्ध लोक - देवता 'गोल्ल' का यह मंदिर नन्दा देवी की तरह प्रसिद्ध है।  इस मंदिर का महत्व सबसे अधिक बताया जाता है।  अल्मोड़ा से यह मंदिर ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  हिमालय की कई दर्शनीय चोटियों के दर्शन यहाँ से होते हैं।

कालीमठ :

यह अल्मोड़ा से ५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है।  एक ओर हिमालय का रमणीय दृश्य दिखाई देता है और दूसरी ओर से अल्मोड़ा शहर की आकर्षक छवि मन को मोह लेती है।  प्रकृतिप्रेमी, कला प्रेमी और पर्यटक इस स्थल पर घण्टों बैठकर प्रकृति का आनन्द लेते रहते हैं।  गोरखों के समय राजपंडित ने मंत्र बल से लोहे की शलाकाओं को भ कर दिया था।  लोहभ के पहाड़ी के रुप में इसे देखा जा सकता है।

सिमतोला :

यह अल्मोड़ा नगर से ३ कि.मी. की दूरी पर 'सिमतोला' का 'पिकनिक स्थल' सैलानियों का स्वर्ग है।  प्रकृति के अनोखे दृश्यों को देखने के लिए हजारों पर्यटक इस स्थल पर आते-जाते रहते हैं।

मोहनजोशी पार्क :

इस जगह पर एक ताल का निर्माण किया गया है।  मानव निर्मित 'v' आकार के इस ताल की सुन्दरता इतनी आकर्षक है कि सैलानी घंटों इसी के पास बैठकर प्रकृति की अद्भुत छवि का आनन्द लेते रहते हैं।  यहाँ का मोहक और शान्त वातावरण पर्यटकों के लिए काफी सुखद अनुभव रहता है।

मटेला:

मटेला का सुखद वातावरण सैलानियों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है।  यहाँ के बाग अत्यन्त सुन्दर हैं।  'पिकनिक' के लिए कई पर्यटक यहाँ अपने-अपने दलों के साथ आते हैं।

नगर से १० कि.मी. की दूरी पर एक प्रयोगात्मक फार्म भी है।

राजकीय संग्रहालय :

अल्मोड़ा में राजकीय संग्रहालय और कला-भवन भी है।  कला प्रेमियों तथा इतिहास एवं पुरातत्व के जिज्ञासुओं के लिए यहाँ पर्याप्त सामाग्री है।

ब्राइट एण्ड कार्नर :

यह अल्मोड़ा के बस स्टेशन से केवल २ कि.मी. कब हूरी पर एक अद्भुत स्थल है।  इस स्थान से उगते हुए और डूबते हुए सूर्य का दृश्य देखने हजारों मील से प्रकृति प्रेमी आते रहते हैं।

इंगलैण्ड में 'ब्राइट बीच' है।  उस 'बीच' से भी डूबते और उगते सूरज का दृश्य चमत्कारी प्रभाव डालने वाला होता है।  उसी 'बीच' के नाम पर अल्मोड़ा के इस 'कोने' का नाम रखा गया है।

अल्मोड़ा सुन्दर आकर्षक और अद्भुत है।  इसीलिए नृत्य-सम्राट उदयशंकर को यह स्थान इतना भाया था कि उन्होंने अपनी 'नृत्यशाला' यहीं बनायी थी।  उनके कई विश्वविख्यात नृत्यकार शिशुओं ने अल्मोड़ा की रमणीय धरती में ही नृत्य कला की प्रथम शिक्षा ग्रहण की थी।

उदयशंकर की तरह विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर को भी अल्मोड़ा पसन्द था।  वे यहाँ कई दिन तक रहे।

विश्व में वेदान्त का शंखनाद करने वाले स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा में आकर अत्याधिक प्रसन्न हुए थे।  उन्हें इस स्थान में आत्मिक शान्ति मिली थी।

 

 

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