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मातृका प |
उत्तराखण्ड में मातृका पूजन की परम्परा का आधार बहुत प्राचीन लगता है। ब्रह्माणी, माहेश्वरी, वैष्णवी, कौमारी, इन्द्राणी, चामुण्डा और वाराही का ही अधिकांश अंकन प्रस्तर पट्टों पर मिलता है। गणेश कार्तिकेय आदि को भी मातृका पट्टों पर निरुपित किये जाने की परम्परा उत्तराखण्ड में थी। मातृकाओं का क्रम यद्यपि अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग मिलता है तो भी उनके रुप विन्यास में स्पष्ट मान्यता है। वाराह पुराण में कहा गया है कि सप्त मातृकाऐं सात मानवीय गुणों की सूचक हैं। अन्धकासुर कि शिव ने संहार किया तो दानव का रक्त जमीन पर गिरने से रोकने और उस रक्त से दानवों के प्रकट होने की क्रिया को समाप्त करने के लिए शिव आदि देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियों को उत्पन्न किया। इन शक्तियों के वही आयुध दिखाये जाने की परम्परा है जो इन देवियों की पुरुष शक्ति के पास होते हैं। कई बार इनका स्वत्न्त्र निरुपण भी मिलता है। ये मातृकाऐं भी पुरुष शक्तियों का ही वाहन धारण करती हैं। मातृका प में यह दो, तीन अथवा चार की संख्या में भी अधिक मिलती है। नारायणकाली के मातृका प में वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी तथा चामुंडा एवं नारिसिंही का रुपायन किया गया है क्योंकि नारसिंही की प्रतिमाऐं उत्तराखंड में अत्यल्प हैं। पाताल भुवनेश्वर से प्राप्त चामुंडा की जो प्रतिमा चंडिका मंदिर में है, वह भी शिल्प की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मनोहारी है। नकुलेश्वर मंदिर से मिला मातृका प इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसमें वाराही, इन्द्राणी, चामुंडा के साथ वामावर्त गणेश का अंकन किया गया है। गणेश लम्बोदर हैं। परशु, त्रिशूल, और दन्त से सुशोभित इस गणेश की प्रतिमा को मुकुट, सपं यज्ञोपवीत आदि से सज्जित किया गया है।
नदी देवियाँ : नदियों को भारतीय संस्कृति और वाङ्मय में अति महत्व दिया गया है। नदी देवियों के रुप में गंगा और यमुना की पूजन परम्परा भारत में सदियों से चली आ रही है। गंगा को पवित्रता का प्रतीय समझा जाता है जबकि यमना समपंण की प्रतीक मानी जाती है। गुप्त काल में सबसे पहले गंगा-यमुना का निदर्शन हुआ। गंगा-यमुना को तब ही स्री शक्तियों के रुप में मंदिरों में प्रवेश द्वार पर निरुपित करने की परम्परा प्रारम्भ हुई। इसका आशय यह था कि मंदिरों में केवल वही प्रवेश के योग्य है जो पवित्र हों तथा जिनमें समपंण की भावना हो। गंगा को मकर पर तथा यमुना को कूर्म पर पूर्णघट सहित निरुपित किया जाने लगा। उत्तराखंड में भी भारत के अन्य भागों की तरह मंदिर भूषा के रुप में गंगा-यमुना का प्रचुरता से अंकन मिलता है। प्राय: इनको द्वारदशा के निचले हिस्से में स्थापित किया जाता है। बमनसुआल, नवलदेवल, जागेश्वर कटारमल से गंगा के मंदिर द्वारों पर लगी प्रतिमाऐं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि गंगा की स्वतन्त्र प्रतिमाऐं अपेक्षाकृत कम हैं लेकिन कुमाऊँ क्षेत्र में दुर्लभ नही हैं। इस क्षेत्र में ८वीं. शती तक की प्राचीन प्रतिमाऐं उपलब्ध हैं। कटारमल के प्रसिद्ध सूर्य में दायीं ओर स्थानीय शैली के पंचायतन मंदिर हैं, उनमें एक मंदिर के द्वार पर ललितासन में गंगा दिखाई गयी है। विशेषता यह है कि इस मंदिर के द्वारस्तम्भों पर गंगा-यमुना के स्थान पर केवल गंगा का ही अंकन है। बमनसुआल का धर्मशाला के प्रवेश द्वार के निचले स्तम्भों में गंगा का अंकन मिलता है। इस अलंकृत द्वार स्तम्भ में ऊपर फुल्लशाखा, इसके पश्चात नागशाखा और तब मणिवन्ध शाखा के अति सुन्दर अलंकरण किया गया है। इस द्वार शाखा से नीचे की ओर दोनों पाश्वस्तम्भों में गंगा एवं यमुना का शैव द्वारपालों के साथ अंकन किया गया है। दोनों नदी देवियाँ मंगल घट लिए हुए हैं। द्वारपाल जटाजूट से सज्जित है। नवदेवल मंदिर में गंगा-यमुना का अंकन है। ये दोनों ही प्रतिमाऐं शीर्ष मुकुट, कानों में कमंडल, हाथों में बाजूबन्ध से सज्जित तथा अदोवस्र धारण किये हैं। गंगा की स्वतन्त्र प्रतिमाऐं बानठौक जिला पिथौरागढ़, जागेश्वर, सोमेश्वर तथा अल्मोड़ा जनपद के सिरौली ग्राम से भी प्राप्त हुई हैं। ये शिल्प की दृष्टि से दर्शनीय हैं। बानठौक की गंगा की प्रतिमा भग्न है। सिरौली की प्रतिमा भी यद्यपि, भग्न है तो, भी अप्रितम है। यहाँ परम्परागत लक्षणों के अनुरुप गंगा मरकस्थ हैं व त्रिभंग मुद्रा में खड़ी है। उनका दायाँ हाथ उठा हुआ है। गंगा एवं उपासिका के हाथ में किस वस्तु का अंकन किया गया है, कहा नहीं जा सकता। गंगा जिस छत्र के नीचे खड़ी है उका दंड एक अन्य उपासिका ने अपने हाथों में ले रखा है। एक अन्य परिचारिका भी त्रिभंग मुद्रा में दर्शायी गयी है। पूर्ण घट के अपने शीर्ष पर धारण किये भी एक अन्य स्री का अंकन मिलता है। नटराज शिव के साथ भी गंगा यमुना का अंकन मिलता है। र्तृज ग्राम के कपिलेश्वर मंदिर में शुकनास पर नटराज शिव गजहस्त मुद्रा में विराजमान हैं। नटराज शिव के बायें पाश्व में निरुपित मकर वाहिनी गंगा का अंकन अत्यंत मनोहारी है। उनके दायें पाश्व में यमुना का अंकन किया गया है। दोनों नदी देवियाँ त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं। कंधों तक उठे हाथों में मंगलघट अंकित किये गये हैं। उनके पा में स्थूल-शरीरधारी एक मुरली वादक है।
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