उत्तरांचल

कुछ विलक्षम प्रतिमाऐं


बमनसुआल से प्राप्त जिन प्रतिमा, गढ़सेर जनद अल्मोड़ा से प्राप्त गरुड़ तथा गुना एवं दसाऊँ से प्राप्त यक्ष की प्रतिमा को शिल्प की दृष्टि से सिरमौर कहा जा सकता है।  ये प्रतिमाऐं न केवल शिल्प की दृष्टि से आकर्षक हैं अपितु प्रतिमा विज्ञान से जिज्ञासुऔं के बी अध्ययन की विस्तृत अपेक्षा रखती हैं।

गरुड़ विष्णु के वाहन हैं।  इनको मस्तिष्क का प्रतीक माना जाता है।  कश्यप ॠषि के पुत्र गरुड़ या तो विष्णु के वाहन के रुप में निरीपित किये जाते हैं अथवा वे वैषणव मंदिरों में स्वतन्त्र रुप से प्राप्त होते हैं।  शिल्प रुप में उनकी द्वीभुज मूर्ति का भी उल्लेख है जिसे ताक्ष्रय कहा गया है।  शिल्प की दृष्टि से गढ़सेर अल्मोड़ा से प्रकाश में आयी उनकी प्रतिमाऐं महत्वपूर्ण हैं।  यहाँ से दो प्रतिमाऐं मिली हैं।  गढ़सेर देवालय विष्णु को समर्पित है जैसा कि इसके नाम बद्रीनाथ मंदिर से ही स्पष्ट है। इन प्रतिमाओं में अमृतघट धारण किये विष्णु वाहन का बायाँ घुटना टेक कर बैठे हुए दर्शाया गया है।  वे पद्म प्रभामंडल से आलोकित है।  गुरुड़ प्रतिमाऐं मकर एवं चक्र कुंडल, ग्रैवेयक, मुक्तायज्ञोपवीत, सर्पाकृति, केयूर, कंकण तथा नुपुर आदि से अलंकृत है।  उनके डैने के आकार के पंख पीछ की ओर हैं।

बमनसुआल से प्राप्त जिन प्रतिमा वर्तमान में राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा में प्रदर्शित है।  प्रतिमा बुरी तरह क्षत-विक्षत है।  शीर्ष भाग विहीन प्रतिमा के दोनों हाथ भी खंडित हैं।  प्रतिमा का निर्माण श्यामवर्णी पाषाम से हुआ है।

यक्षों के नाम पर कुमाऊँ में अनेक स्थान हैं।  जाख, जाखिणी शब्द यक्षों से ही सम्बन्धित हैं।  कुमाऊँ मंडल से यक्षों की तीन प्रतिमायें प्रकाश में आ चुकी हैं।  यहाँ से प्राप्त सात प्रतिमाऐ स्वतन्त्र हैं।  गुना जिला अल्मोड़ा से प्राप्त तीसरी शती की यक्ष प्रतिमा भी राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा में प्रदर्शित है।

 

बौद्ध प्रतिमाऐं :

अशोक के बाद भारत पर यूनानियों के आक्रमण हुए।  संस्कृति संक्रमण के तरह बहुत से यूनानियों ने बौद्ध धर्म तथा दर्शन स्वीकार किया।  लेकिन प्रारम्भ का शुद्ध बहुमत जो निराकार उपासना को मानता था।  जब साकार उपासना का क्रम प्रारम्भ हुआ तो पूर्वर्ती बुद्ध प्रतिमाओं के अभाव में यूनानी कारीगरों के सामने केवल यूनानी मूर्तीकला ही थी।  सूर्य प्रतीक यूनानी देवता अपोले के समरुप प्रतिमायें गढ़नी प्रारम्भ हुई।  पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में विकसित हुई यह यूनानी प्रभाव ग्रीको - बुद्धिस्ट प्रभाव कहलाया।  इस शैली के अन्तरगत बुद्ध की युवा अवस्था दिखलाई जाती है।  सिर पर उष्णीय-पगड़ी के आकार की जटा, दाहिनी ओर घूमे हुए घुंघराले बाल, दोनों भौहों के बीच गोल बिन्दी - ऊर्णा, कन्धों से पैर तक सलीकेदार सलवटों की चादर-चीवर प्रधान लक्षण हैं।  बुद्ध की बैठी हुई प्रतिमायें प्राय: तीन मुद्राओं में मिलती हैं यथा - ध्यान मुद्रा, भूमि-स्पर्श मुद्रा तथा धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा।  ध्यान मुद्रा में बुद्ध पद्मासन लगाये, गोद में एक हाथ में दूसरे हाथ रखे, समाधि अवस्था में दिखायें जाते हैं।  भूमि स्पर्श मुद्रा में दाहिने हाथ से भूमि स्पर्श करते हुए तथा धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में दोनों हाथों को वक्ष के पास लाकर इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है मानो वे उपदेश दे रहे हों।

योगमुद्रा में बैठे बुद्ध की काँस्य निर्मित एक प्रतिमा कुमाऊँ विश्वविद्यालय के संग्रहालय में है।  इस प्रतिमा में साद उष्णीव एवं उर्णा से अलंकृत सौम्य मुखाकृति, लम्बकर्ण, धारीधार चीवर से सज्जित, दायें हाथ भूमि स्पर्श मुद्रा में एवं बायें हाथ अभय मुद्रा में निदर्शित भगवान बुद्ध दर्शाये गये हैं।  गगास घाटी के गाँव रीठा से प्रकाश में आयी एक अन्य प्रस्तर निर्मित प्रतिमा भी महत्वपूर्ण है।  इसमें कमलासन पर बैठे बुद्ध भूमि स्पर्श में है, उनका दाहिना हाथ भूमि के स्पर्श करते हुए तथा बायाँ हाथ गोद में रखा है।  इस प्रतिमा का शीर्ष खंडित है।  प्रतिमा के दायें एवं बायें दो परिचारक दिखाये गये हैं।

प्रारम्भ में महायान मत में भी स्री देवियों के स्थान पर पुरुष देवताओं की प्रधानता थी।  परन्तु चौथी शती के बाद महायान मत की पूजन पद्धति में परिवर्तन आया।  तांत्रिक पूजन पद्धति के साथ ही तारा का बुद्ध मात मे प्रवेश हुआ।  सातवीं शती तक पहुँचते-पहुँचते तारा को भी दो रुपों - श्वेत तारा एवं नील तारा के रुप में पूजा जाने लगा।  श्वेत तारा को अवलोकितेश्वर की शक्ति माना गया।  तारा का उत्तर भारत में पूजन छटी शती से प्रारम्भ हुआ बाद में तारा का पूजन पाल युग में जावा तक जा पहुँचा।  विश्वास किया जाता है कि तारा भवसागर से पार करने में अपने भक्तों की सहायता करती हैं। प्रतिमा का लक्षण है कि वे हाथों में प्रफुल्लित पद्म अथवा बन्द पंखुड़ियों वाला उत्पल धारम किये रहती हैं।  श्वेत तारा दिन तथा नील तारा रात्रि का प्रतीक है।

श्वेत तारा के अवलोकितेश्वर की स्री होने के कारण उनके बायें हाथ में पूर्ण विकसित कमल तथा दायें हाथ को वरद की मुद्रा में निदर्शित किया जाता है।  पद्मपीठ उनका आसन है।  लेकिन जब उन्हें अमोधभूति की शक्ति के रुप में चिन्हित किया जाता है तो उनके बायें हाथ में वज्र निरुपित होता है।

जखेटा से प्राप्त तारा पूर्ण विकसित कमलपीठ पर विरजमान है।  योगासन में बैठी देवी मुकुट, कुण्डल हार, बाजूबन्द, कंकण, उदरबन्ध और साड़ी से आभूषित हैं, कन्धों पर उत्तरीय शोभित है, उनके मस्तक के पीछे से प्रभामंडल का विकास दर्शाया गया है जो तिब्बत नेपाल के शिल्प से साम्य रखता है।  प्रतिमा का बाह्य परिकर पद्म-पत्र से सज्जित है, दोनों हाथ में लम्बी नाल वाली पद्म कलिकाऐं हैं तथा दायें घुटने पर आधारित दायाँ हाथ वर मुद्रा में है, अंगुलियाँ चरणचौकी को स्पर्श कर रही हैं।  देवी के मुख पर पर्वतीय नारियों जैसे भाव प्रदर्शित किये गये हैं।

विष्णु के नवें अवतार के रुप में भी बुद्ध को स्थान दिया गया है।  कुमाऊँ क्षेत्र के मंदिरों में ऐसी अनेक दशावतार प्रतिमाऐं हैं जिनमें बुद्ध को भी प्रदर्शित किया गया है।  अपने सर्वेक्षण अभियान के दौरान इस स्तम्भकार को क्वाली, बागेश्वर, पुभाऊँ, बायाला आदि के मंदिरों में तो दशावतार पट्टों में बुद्ध दिखाई दिये ही हैं।  अल्मोड़ा नगर के पास एक मंदिर में रखे टूटे परिकर खंड में बुद्ध दर्शाये गये हैं जिनके साथ घोड़े पर सवार कल्कि भी प्रदर्शित है।

 

 

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