हिमालय पर्वतमाला की गोद
में बसा नवगठित राज्य उत्तरांचल ९ नवंबर २००० को भारतवर्ष का
सत्ताईसवाँ राज्य बन गया। दूर-दूर तक हज़ारों
वर्ग मील में फैला यह प्रदेश भारतमाता की
शोभा बढ़ाने वाला परिधान है। हिममण्डित
शिखर उस राजरानी राजेश्वर का शुभ्र
मुकुट है। ऐसे में कालिदास याद आते हैं। अपनी कृति कुमारसम्भव
में कालीदास कहते हैं: अस्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराज:।
पूर्वापरौं तोयनिधी वगाह्य स्थित: पृथि इवमानदणड:।। उत्तरांचल
सौंदर्य का जीवन्त प्रतीक है, सरलता एवं गरिमा का अभिषेक है और
सभ्यता एवं संस्कृति इसकी विशिष्ट पहचान है। यहाँ प्रकृति और जीवन के
बीच ऐसा सामंजस्य हैं जो सभी पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को
मंत्रमुग्ध कर देता है। यहाँ की शीतल हवा
शान्ति की प्रतीक हैं तो फलदार वृक्ष दान की महिमा का गुणगान करते हैं। यहाँ के
लोक जीवन में परंपराएँ, खेल-तमाशे,
मेले, उत्सव, पर्व-त्यौहार, चौफुला-झुमैलो, दैरी-चांचरी, छपेली, झौड़ो के झमाके, खुदेड़ गीत, ॠतुरैण, पाण्डव-नृत्य,
संस्कार सभी कुछ अपने निराले अन्दाज
में जीवन को सजाते हैं।
ब्रह्मावर्त, ब्रह्मदेश, ब्रह्मर्षिदेश और आर्यावर्त आदि नामों
से विख्यात उत्तरांचल प्रदेश वेद भूमि है। पुराणों
में केदारखण्ड नाम से और संस्कृत साहित्य
में हिमवान् हिमवन्त और इसी प्रकार पालि साहित्य
में भी उसी आदर और प्रेम से उन्हीं नामों
से अभिहित हुआ है। हिमालय इस वसुन्धरा का प्रिय
वत्स है। वत्सरुप हिमालय को प्राप्त कर ही धरती-धेनु ने
रस, औषधियाँ और रत्न रुपी दूध प्रदान किया। यह
यज्ञ साधन है। विष्णु पुराण में स्वयं
भगवा विष्णु कहते हैं कि "मैंने पर्वत
राज हिमालय की सृष्टि यज्ञ साधन के
लिए की है।"
उत्तराचल के चार विरासत या धरोहर के प्रतीक हैं:
(क) राज्य पुष्प ब्रह्म कमल;
(ख) राज्य वन्य पशु कस्तूरी मृग;
(ग) राज्य वृक्ष बुरांस; और
(घ) राज्य पक्षी मोनाल।
ब्रह्म कमल यहाँ का राज्य पुष्प है। वेदों
में भी इसका उल्लेख मिलता है। यह कश्मीर,
मध्य नेपाल, उत्तरांचल में फूलों की घाटी, केदारनाथ,
शिवलिंग, बेस, पिंडापी, ग्लेशियर, आदि
में ३६०० मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। पौधों की ऊँचाई ७०-८०
से.मी. होती है। जुलाई से सितम्बर के
मध्य यह जहाँ खिलता है वहीं का वातावरण
सुगंध से भर जाता है। पुष्प के चारों ओर कुछ पारदर्शी
ब्लैडर के समान पत्तियों की रचना होती है जिसको स्पर्श कर
लेने मात्र से उसकी सुगंध कई घंटों तक
अनुभव की जा सकती है। इसकी जडों में औषधीय गुण होते है। यह दुर्लभ प्रजाति का
विशेष पुष्प है। इतिहास एवं धार्मिक ग्रंथों
में इस पुष्प का कई स्थलों पर उल्लेख
मिलता है
भारत में कस्तूरी मृग, जो कि एक लुप्तप्राय जीव है, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश,
उत्तरांचल के केदार नाथ, फूलों की घाटी, हरसिल घाटी तथा गोविन्द
वन्य जीव विहार एवं सिक्किम के कुछ क्षेत्रों तक ही
सीमित रह गया है। हिमालय क्षेत्र में यह देवदार,
फर, भोजपत्र एवं बुरांस के वनों में
लगभग ३६०० मी. से ४४०० मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। कंधे पर इसकी ऊँचाई ४०
से ५० से.मी. होती है। इस मृग के सींग नहीं होते है तथा उसके स्थान पर नर के दो पैने दाँत जबड़ों
से बाहर निकले रहते हैं। शरीर घने
बालों से ढ़का रहता है। इसकी नाभि
में कस्तूरी नामक एक ग्रन्थि होती है जिसमें
भरा हुआ गाढ़ा तरल पदार्थ अत्यन्त सुगन्धित होता है।
मादा वर्ष में एक या दे बार १-२ शावकों को जन्म देती है। आम
मृग से अलग इस प्रजाति के मृग संख्या
में भी काफी कम हैं।
बुरांस मध्यम ऊँचाई का सदापर्णी वृक्ष है। यह
हिमालय क्षेत्र से लगभग १५०० मीटर से ३६००
मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। इसकी पत्तियाँ
मोटी एवं पुष्प घंटी के आकार के लाल
रंग के होते हैं। मार्च-अप्रैल में जब इस
वृक्ष में पुष्प खिलते हैं तब यह अत्यन्त
शोभावान दिखता है। इसके पुष्प औषधीय गुणों
से परिपूर्ण होते हैं जिनका प्रयोग कृषि
यन्त्रों के हैन्डल बनाने तथा ईंधन के
रुप में करते हैं। बुरांस पर्वतीय क्षेत्रों
में विशेष वृक्ष हैं जिसकी प्रजाति अन्यत्र नहीं पाई जाती है। मोनाल अति
सुन्दर और आकर्षक पक्षी है। यह ऊँचाई पर घने जंगलों
में पाया जाता है। यह अकेले अथवा समूहों
में रहता है। नर का रंग नीला भूरा होता है एवं सिर पर तार जैसी कलगी होती है।
मादा भूरे रंग की होती है। यह भोजन की खोज
में पंजों से भूमि अथवा बर्फ खोदता हुआ दिखाई देता है। कंद, तने, फल-फूल के
बीज तथा कीड़े-मकोड़े इसका भोजन है।
मोनाल उन पक्षियों में है जिसके दर्शन
विशिष्ट स्थानों पर भी कम संख्या में होते हैं।
उत्तरांचल प्रदेश का क्षेत्रफल ५१,१२५ वर्ग कि.मी. क्षेत्र पर विस्तृत है। इस प्रदेश के
अन्तर्गत गढ़वाल व कुमाऊँ मण्डल तथा हरिद्वार जनपद
शामिल है। गढ़वाल मण्डल के अन्तर्गत ६ जिले
शामिल हैं जिनमें देहरादून, टिहरी गढ़वाल,
उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, पौड़ी गढ़वाल हैं। कुमाऊँ
मण्डल के अतर्गत नैनीताल, अल्मोड़, पिथौरागढ़,
बागेश्वर, चम्पावत और उधमसिंह नगर हैं। इसके अलावा हरिद्वार जनपद
भी उत्तरांचल प्रदेश में शामिल है। भौगोलिक दृष्टि
से उत्तरांचल प्रदेश के पश्चिम में
हिमालय प्रदेश, पूर्व में नेपाल, उत्तर
में चीन के तिब्बती क्षेत्र एवं दक्षिण में उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना
(नदियों) के मैदान सम्मिलित है।
उत्तरांचल के प्राकृतिक भू-भाग धरातलीय ऊँचाई, वर्षा की
मात्रा में भिन्नता होने के कारण उत्तरांचल के क्षेत्रीय भाषा
मानवीय क्रिया-कलापों में विभिन्नता होना
स्वाभावित है। इसीलिए इस प्रदेश को विभिन्न
भू-भागों में बाँटा गया है। ये भू-भाग है:
(क) महान हिमालय
(ख) मध्य हिमालय
(ग) दून या शिवालिक
(घ) तराई व भावर क्षेत्र
(च) हरिद्वार का मैदानी भू-भाग।
अब इन प्रत्येक भू-भाग का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।
(क) महान हिमालय
महान हिमालय भू-भाग हिमाच्छादित रहता है। यहाँ नन्दा देवी
सर्वोच्च शिखर है जिसकी ऊँचाई ७८१७
मीटर है। इसके अलावा कामेत, गंगोत्री, चौखम्बा,
बन्दरपूँछ, केदारनाथ, बद्रीनाथ, त्रिशूल
बद्रीनाथ शिखर है जो ६००० मीटर से ऊँचे है।
फूलों की घाटी तथा कुछ छोटे-छोटे घास के
मैदान जिन्हें बुग्याल के नाम से जानते हैं,
भी इसमें शामिल हैं। इस भू-भाग
में केदारनाथ, गंगोत्री आदि प्रमुख हिमनंद है जो कि गंगोत्री हिमनंद,
यमनोत्री हिमनंद, गंगा-यमुना आदि नदियों के
उद्गम स्थल है। यह भू-भाग अधिकतर ग्रेनाइट, नीस व शिष्ट
शैलों से आवृत है।
(ख) मध्य हिमालय
महान हिमालय के दक्षिण में मध्य-हिमालय-भू-भाग
फैला हुआ है जो कि ७५ कि.मी. चौड़ी है। इस
भू-भाग में कुमाऊँ के अन्तर्गत अल्मोड़ा, गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल तथा नैनीताल का
उत्तरी भाग भी सम्मिलित है जो कि ३०००
से ५००० मी. तक के भू-भाग में फैले हुए है।
(ग) दून या शिवालिक का भू-भाग
यह क्षेत्र मध्य हिमालय के दक्षिण में विद्यमान है। इसे
बाह्य हिमालय के नाम से भी पुकारते हैं। इस क्षेत्र के
अन्तर्गत ६००० मीटर से १५०० मीटर ऊँचे वाले क्षेत्र अल्मोड़ा के दक्षिणी क्षेत्र
मध्यवर्ती नैनीताल, देहरादून मिला है।
शिवालिक एवं मध्य श्रेणियों के बीच क्षैतिज दूरी पाई जाती है जिन्हें
'दून' कहा जाता है। दून का अर्थ घाटियों
से है। इस घाटी के अन्तर्गत २४ से ३२ कि.मी. चौड़ी ३५०
से ७५० मी. ऊँची देहरादून की घाटी अत्यन्त महत्वपूर्ण है जो कि
वर्तमान समय में उत्तरांचल की राजधानी है।
अन्य दून घाटियों के रुप में देहरादून, पवलीदून, केहरीदून आदि प्रमुख हैं।
(घ) तराई व भावर क्षेत्र
तराई व भावर क्षेत्र के अन्तर्गत हरिद्वार, उधमसिंह नगर के
मैदानी क्षेत्र सम्मिलित हैं। इस भाग
में पर्वतीय क्षेत्र सम्मिलित है। हालांकि इस
भाग में पर्वतीय नदियाँ, नालों, रेतीली
भूमि के अदृश्य हो जाती है।
(च) हरिद्वार का मैदानी क्षेत्र
इस क्षेत्र की उत्तरी सीमा ३०० मी. की समोच्च
रेखा द्वारा निर्धारित होती है जो गढ़वाल और कुमाऊँ को पृथक करती है। हरिद्वार एक विश्वविख्यात और महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है जहाँ बारह वर्ष के
बाद कुम्भ का मेला लगता है।
उत्तरांचल की जलवायु
जलवायु भिन्नता के कारण
वनस्पति, कृषि एवं मानवीय रीति रिवाज़ों पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
ये जलवायु विभिन्न मौसमों में चक्र के
रुप में चलती है। जैसे ग्रीष्म ॠतु जिसे स्थानीय भाषा में ऊरी कहा जाता है जो अंग्रेजी माह के
मार्च से प्रारम्भ होकर मध्य जून तक रहती है।
मार्च से तापमान में वृद्धि होती है।
नवम्बर से जनवरी तक शीत ॠतु का काल है। नवम्बर
से जनवरी तक तापमान निरन्तर घटती रहती है। जनवरी
अत्यधिक ठण्डा रहता है।
वर्षा ॠतु मध्य जून से अगस्त तक रहती है। कुल वार्षिक वर्षा का प्रतिशत ७३.३ है।
सबसे अधिक वर्षा १२० से.मी. से होती है।
शरद ॠतु सितम्बर के अन्त तक रहती है। इस ॠतु
से तापमान गिरने लगता है जो दिसम्बर तक रहता है।
श्रीनगर में १९३ से.मी. वार्षिक वर्षा, देहरादून
में २१२ से.मी., नरेंद्र नगर में १८० से.मी., कोटिद्वार
में १८० से.मी., टिहरी में १८० से.मी., मंसूरी
में २४२ से.मी., नैनीताल में १६८ से.मी., अल्मोड़ा
में १३६ से.मी. वर्षा दर्ज की गई है।
धरातलीय विषमताओं के कारण तापमान
में विविधताएँ पाई जाती है। हिम क्षेत्रों
में इसका प्रभाव अधिक देखने को मिलता है।
उत्तरांचल के पर्वतीय भागों में अप्रैल-मई
में दैनिक तापान्तर सबसे अधिक होता है। विभिन्न ऊँचाइयों पर तापमान की दर अलग-अलग होती है।
उत्तरांचल प्रदेश की नदियाँ
इस प्रदेश की नदियाँ
भारतीय संस्कृति में सर्वाधिक स्थान
रखती हैं। उत्तरांचल अनेक नदियों का
उद्गम स्थल है। यहाँ की नदियाँ सिंचाई व जल विद्युत
उत्पादन का प्रमुख संसाधन है। इन नदियों के किनारे
अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित हैं।
हिन्दुओं की अत्यन्त पवित्र नदी गंगा का उद्गम स्थल
मुख्य हिमालय की दक्षिण श्रेणियाँ हैं। गंगा का आरम्भ अलकनन्दा व
भागीरथी नदियों से होता है। अलकनन्दा की सहायक नदी धौली, विष्णु गंगा तथा
मंदाकिनी है। गंगा नदी भागीरथी के
रुप में गोमुख स्थान से २५ कि.मी.
लम्बे गंगोत्री हिमनद से निकलती है।
भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग संगम करती है जिसके पश्चात वह गंगा के
रुप में पहचानी जाती है।
यमुना नदी का उद्गम क्षेत्र बन्दरपूँछ के पश्चिमी
यमनोत्री हिमनद से है। इस नदी में होन्स, गिरी व आसन
मुख्य सहायक हैं।
राम गंगा का उद्गम स्थल तकलाकोट के
उत्तर पश्चिम में माकचा चुंग हिमनद
में मिल जाती है।
सोंग नदी देहरादून के दक्षिण पूर्वी
भाग में बहती हुई वीरभद्र के पास गंगा नदी
में मिल जाती है।
झीलें और तालाब
झीलें और तालाब का निर्माण
भू-गर्भीय शक्तियों द्वारा परिवर्तन के पश्चात हिमानियों के
रुप में हुआ है जो स्थाई है और जल
से भरी है। इनकी संख्या कुमाऊँ मण्डल
में सबसे अधिक है।
नैनीताल की झील भीमताल जिसकी
लम्बाई ४४५ मी. है, एक महत्वपूर्ण झील है। इसके अलावा नैकुनि, चालाल,
सातसाल, खुर्पाताल, गिरीताल मुख्य है जो अधिकतर नैनीताल जिले
में है।
गढ़वाल के तालाब व झीलें: डोडिताल, उत्तरकाशी, देवरियाताल, रुद्रप्रयाग जनपद, वासुकीताल, अप्सरा ताल, लिंगताल, नर्किंसग ताल, यमताल, सहस्मताल, गाँधी सरोवर, रुपकुण्ड धमो जनपद, हेमकुण्ड, संतोपद ताल, वेणीताल, नचकेला ताल, केदार ताल, सातताल, काजताल मुख्य हैं। उत्तरांचल के प्रमुख हिमनदों में गंगोत्री, यमनोत्री, चौरावरी, बद्रीनाथ हिमनद महत्वपूर्ण है।
उत्तरांचल प्रदेश की
वनस्पतियाँ
वनस्पति की दृष्टि से
उत्तरांचल समृद्ध है। ६५ प्रतिशत भू-भाग
वनों से अच्छादित है। ३२ प्रतिशत वन कुमाऊँ
मण्डल में है। वनों का सर्वाधिक भाग ३० प्रतिशत
उत्तरकाशी जनपद में है। पिथौरागढ़ व चमोली का
वन भूमि का कम होना हिमाच्छादित प्रमुख कारण है। कुमाऊँ
में ३६ प्रतिशत भाग वन नैनीताल जिले
में हैं।
बुग्याल वनस्पति हिमालयी क्षेत्रों में प्रारम्भ होती है।
ये हरे-भरे मैदान के रुप में दिखाई देती हैं।
चमोली जनपद के बद्रीनाथ मार्ग पर जोशीमठ के
बीच गोविन्दधाम से १५ कि.मी. धांधरिया व धरिये
से ४ कि.मी. दूर फूलों की घाटी है। यह बहुत
स्मरणीय क्षेत्र है।
प्राचीनकाल से ही यह प्रदेश तपोभूमि के
रुप में विख्यात है। केदारनाथ, बद्रीनाष
योमनोत्री, गंगोत्री विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल यहीं स्थित है। इन्ही तीर्थों
में से ताड़केश्वर धाम एक है। कोटद्धार
से ताड़केश्वर (महादेव) की दूरी लगभग ६० किलोमीटर है। तीन किलोमीटर
में फैले देवदार वृक्षों के बीच में स्थित ताड़केश्वर धाम की खूबसूरती
विलक्षण है। श्री ताड़केश्वर महादेव की पूजा एक वर्ष में दो
बार होती है। इसके अधीन ८६ गाँव है। गाँव
में फसल होने पर सर्वप्रथम मन्दिर
में भेंट चढ़ाई जाती है। इसके पश्चात ही गाँव
वाले इस्तेमाल करते हैं। लोक मान्यता के
अनुसार पौराणिक समय में यहाँ अदृश्य आवाज़ आती थी कि जो
भी गलत कार्य करेगा उसे देव शक्ति द्वारा प्रताड़ित किया जाएगा। इसलिए इसका नाम ताड़केश्वर
पड़ा। मन्दिर में अदृश्य शिवलिंग है। मन्दिर के
उत्तर दिशा में देवदार के वृक्ष का आकार त्रिशूल एवं चिमटा जैसा है तथा पश्चिम दिशा
में भी एक त्रिशूल के आकार का देवदार
वृक्ष है। इन आश्चर्यजनक वृक्षों को दर्शनार्थी नमन करते हैं।
उत्तरांचल में राष्ट्रीय पार्क और अभयारण्य देखने
लायक हैं। इनमें १० प्रमुख हैं:
(क) नन्दादेवी नेशनल पार्क (८३० वर्म कि.मी.), चमोली।
(ख) राजाजी नेशनल पार्क (८२० वर्ग कि.मी.), चमोली।
(ग) फूलों की घाटी (८७५० कि.मी.), चमोली।
(घ) अस्कोट मस्क डीयर अभचारण्य (५९३ वर्ग कि.मी.), पिथौरागढ़।
(च) बिन्सर अभयारण्य (४५५९ वर्ग कि.मी.), अल्मोड़ा।
(छ) गोविन्द पशुविहार अभयारण्य (४८१
वर्ग कि.मी.), उत्तरकाशी।
(ज) केदारनाथ अभयारण्य (९६७ वर्ग कि.मी.), चमोली
रुद्र प्रयाग।
(झ) मसूरी अभयारण्य (९६७ वर्ग कि.मी.), देहरादून।
(ट) सोनानन्दी अभयारण्य (१०८२ वर्ग कि.मी.), पौड़ी गढ़वाल।
(ठ) जिम कोर्बेट नेशनल पार्क (५२९९ वर्ग कि.मी.),
उधम सिंह नगर, पौड़ी गढ़वाल।
गंगोत्री तीर्थस्थान
समुद्र से ३२०० मी. की ऊँचाई पर स्थित है। गंगा का
वास्तविक उद्गम स्थल गंगोत्री से १८ कि.मी.
सुदूर गोमुख में है। गंगोत्री ग्लेशियर ४२५५
मीटर की ऊँचाई पर गोमुख से बद्रीनाथ के पीछे चौखम्बा व
सतोपंथ तक फैला है। इसकी लम्बाई २४ कि.मी. तक चौडाई ६
से ८ कि.मी. आंकी गई है। गंगा उत्तरांचल
में भागीरथी के नाम से विख्यात है। गंगा देवप्रयाग
में दो नदियों भागीरथी और अलकनन्दा के
संगम के पश्चात बनती है। गंगा गंगोत्री
में तो कुछ दूरी तक उत्तर में बहती है।
योमुख से झाला तक दक्षिणमुखी है। हरसिल
से अचानक दक्षिण में मुड़कर हरिद्वार की ओर बहने
लग जाती है।
उत्तरांचल का वर्णन चीपको आन्दोलन के चर्चा के
बिन सम्पूर्ण नहीं हो सकता। विख्यात पर्यावरणविद्
सुन्दरलाल बहुगुणा के शब्दों में,
"जो हिमालय पिता की तरह हमारा पालन-पोषण करता था, वह अब वहाँ के निवासियों पर पत्थर
बरसाने लगा है। बरसात का मौसम आते ही हमारे हृदय की धड़कने तेज हो जाती
हैं, इस आशंका से कि कब और कहाँ
से किसी नए भूस्लखन की सूचना न आ जाए।" पर्यावरण की
लगातार उपेक्षा, ठेकेदारों द्वारा वनों के बेतहाशा काटे जाने और जहाँ-तहाँ
बाँध और खदानों पर काम चालू हो जाने
से आज वह हिमालय, जिसे कभी कालिदास ने
मानदंड की तरह स्थिर बताया था, पिछले पन्द्रह वर्षों में धारचूला तवा घाट
से लेकर हिमालय प्रदेश और सिक्किम तक
भूस्लखन और बाढ़ ने इस पूरे क्षेत्र के
लोगों का जीवन असुरक्षित कर दिया है।
उत्तरकाशी चमोली में आए भूकम्प से अभी तक वहाँ के निवासी उभर नहीं पाए हैं। इस प्राकृतिक विनाश की चोट पहाड़ की औरतों पर अधिक पड़ी है। अधिकतर
स्वरुप पुरुष काम की खोज में मैदानों
में चले गए हैं। महिलाएँ ईंधन-चारे की खोज
में दूधमुहें बच्चों को अकेला छोड़कर जाने को और
वन विभाग और खदान के कर्मचारियों द्वारा
लगातर प्रताड़ित होने को अभिशिप्त है।
इस हालात से सही तौर से जूझने के
लिए चिपको जैसे स्थानीय वन-संरक्षण आन्दोलन एवं
मैती जैसे समाजसेवी संगठन वहाँ अपने आप उपजे हैं। घोर पहाड़ की एक
सामान्य परन्तु दृढ़ प्रतिज्ञ महिला के
शबाद आज में कानों में गर्जना कर लोगों को जागृत करते हैं:
"जंगल हमारा मायका है और पेड़ ॠषि है।यदि जंगल कटेगा तो हमारे खेत,
मकान के साथ मैदान भी नहीं रहेंगे। जंगल
बचेगा तो हम बचेंगे। जंगल हमारा
रोजगार है।"
यह उद्गार गढ़वाल हिमालय के सीमान्त जनपद चमौली के
रैणी नामक ग्राम की उस अनपढ़ नारी के हैं जिनकी
वनों के प्रति अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम था।
वृक्षों को कटने से बचाने के लिए उनसे चिपक कर पेड़ काटने
वालों की कुल्हाड़ी के सामने डटने को तत्पर थी और
वृक्ष रक्षा के लिए अपने प्राणों को उत्सर्ग करने को तैयार थी। उस
वृक्षप्रेमी महान महिला का नाम था चिपको जननी
श्रीमति गौरा देवी। चिपको आन्दोलन की विचारधारा को
मूर्त रुप देने का कार्य सबसे पहले इसी
वीरांगना ने किया था जो भोटिया जनजाती की थी।
अन्तत:, ९ नवम्बर, २००० को निर्मित नवोदय
राज्य उत्तरांचल अपनी विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों एवं परम्पराओं के
साथ समग्र विकास की संभावनाओं को
समेटे हुए है। कृषि, पशुपालन, बागवानी,
वन सम्पदा, ऊर्जा उत्पादन, तीर्थाटन तथा पर्यटन यहाँ की
अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार बन सकते हैं।
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