उत्तरांचल


नन्दा राजजात एक परम्परागत विरासत

डॉ. कैलाश कुमार मिश्र

 

मानवशास्र के विद्यार्थी होने के नाते मैं बहुत भाग्यशाली रहा हूँ। भारतवर्ष के लगभग सभी भौगोलिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों का दौरा करने का अवसर मुझे मिला है। मैंने गाँव एवं शहरों के सामान्य लोगों से विभिन्न कथा-गाथा, गीत, रीति-रिवाज, लोक इतिहास, आदि एकत्रित करने का निरन्तर प्रयास पिछले १५ वर्षों में किया है। लोक इतिहास को अपने अनुभव के आधार पर मैं अधिक प्रमाणित, सटिक और सामान्य लोगों के जुड़े हित सम्बन्धित सही घटना मानता हूँ। लिखित इतिहास व्यक्ति या परिवार विशेष पर केन्द्रित होता है। बाबरनामा, अकबरनामा, शाहजहाँनामा इत्यादि जितने भी इतिहास हैं सभी कहीं न कहीं तथ्य को राजा के हित को ध्यान में रखकर राज्य से पोषित विद्वान या दरबारी के द्वारा लिख गये हैं। अमीर खुसरों दिल्ली के सात राजाओं के मंत्री एवं सलाहकार रह चुके थे। एक बार उन्होंने अपने पुत्र के सामने इस तथ्य को स्वीकार किया कि नहीं चाहते हुए भी उन्हें अकर्मन्य एवं गलत राजा के बारे में बहुत अच्छी बातें लिखनी पड़ी। अभी-अभी मैं पश्चिम बंगाल के बिस्नूम जनपद के केन्डुली मेले से जनवरी २००५ को वापस आया हूँ। यह मेला गंगासागर मेला के पश्चात् पश्चिम बंगाल का सबसे विशाल मेला है। प्रति वर्ष मकर संक्रान्ति (जनवरी १४) से प्रारम्भ होने वाले इस सात दिवसीय मेला में लगभग साढ़े पाँच लाख लोग भाग लेते है। पश्चिम बंगाल एवं बंगलादेश के बाऊल साधुओं का तो यह एक प्रकार से मक्का है। प्रति वर्ष मेला के दौरान बाऊल साधुओं के एक हजार एक अखाड़े यहाँ लगते है। यह मेला गीतगोविन्द के रचनाकार जयदेव से भी जुड़ा है। लोगों का विश्वास है कि जयदेव का जन्म केन्डुली गाँव में हुआ था। अगर मेले के लोक इतिहास को देखें तो शैव, शाक, वैष्णव, तंत्र एवं बाऊल साधुओं के बीच सामंजस्य का यह एक अनूठा स्थान है। 

यहाँ मैं अपने आपको उत्तरांचल राज्य में प्रचलित नन्दादेवी यात्रा या जात तक सीमित रखना चाहता हूँ। लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। ईष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रुप में देखा जाता है। पूरे उत्तराँचल में समान रुप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रुप में देखा गया 
है।

सामान्य लोगों की मान्यता के अनुसार नन्दादेवी दक्ष प्रजापति की सात कन्याओं में से एक थीं। नन्दादेवी का विवाह शिव के साथ होना माना जाता है। शिव के साथ ऊँचे बर्फीले पर्वतों पर नन्दादेवी रहती हैं। पति के साथ होने के सुख के बदले भीषण से भीषण कष्ट वह हंसकर सह लेती है। कहीं-कहीं नन्दादेवी को पार्वती का रुप ही माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख है, शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी।

उत्तरांचल में देवताओं की स्तुति में रात-दिन जगकर गाए जाने वाले गीत को जागर कहते हैं। नन्दादेवी के सम्बन्ध में कई जागरों के अनुसार विभिन्न कथाएँ पायी जाती है। एक जागर में नन्दा को नन्द महाराज की बेटी बताया जाता है। नन्द महाराज की यह बेटी कृष्ण जन्म के पूर्व ही कंस के हाथों से निकलकर आकाश में उड़कर नगाधिराज हिमालय की पत्नी मैना की गोद में पहुँच गई।

एक अन्य जागर में नन्दादेवी को चान्दपुर गढ़ के राजा भानुप्रताप की पुत्री बताया जाता है। एक और जागर में ऐसा वर्णन आता है कि नन्दादेवी का जन्म ॠषि हिमवंत और उनकी पत्नी मैना के घर पर हुआ था। यह सब अलग-अलग धारणायें होते हुए भी नन्दादेवी पर्वतीय राज्य उत्तराँचल के लोक मानस की एक दृढ़ आस्था का प्रतीक है तथा इसे परम्परा के अनुसार निभाकर हर बारहवें वर्ष में राजजात का भव्य आयोजन किया जाता है।

राजजात या नन्दाजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नन्दादेवी की यात्रा। गढ़वाल क्षेत्र में देवी देवताओं की जात बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। जात का अर्थ होता है देवयात्रा। लोक विश्वास यह है कि नन्दा देवी हिन्दी माह के भादव के कृष्णपक्ष में अपने मैत (मायके) पधारतीं हैं। कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी को मैत से विदा किया जाता है। राजजात या नन्दाजात देवी नन्दा की अपने मैत से एक सजीं संवरी दुल्हन के रुप में ससुराल जाने की यात्रा है। ससुराल को स्थानीय भाषा में सौरास कहते हैं। इस अवसर पर नन्दादेवी को सजाकर डोली में बिठाकर एवं वस्र, आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज आदि उपहार देकर पारम्परिक गढ़वाल की विदाई की तरह विदा किया जाता है।

वैसे तो हर साल नन्दाजात का आयोजन की प्रथा है परन्तु बारहवें वर्ष पर भव्य और मनोरंजक राजजात किया जाता है। नन्दाजात प्रतिवर्ष शुक्ल अष्टमी के दिन मनाई जाती है। नन्दा अष्टमी के दिन नन्दा को डोली में बिठाकर विदा किया जाता है। नैनीताल, वैजनाथ और अल्मोड़ा में विशेष धूमधाम से यह उत्सव मनाया जाता है। नैनीताल का प्रसिद्ध नन्दा-सुनन्दा मेला प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है जिसमें नन्दा-सुनन्दा बहनों की विशिष्ट और अनूठी केले के पेड़ से बनी मूर्तियों को- जो कि समस्त भारत में केवल कुमाऊँ में ही बनाई जाती है- डोले में बिठाकर घुमाया जाता है। अनतत: मूर्ति को नैनी झील में विसर्जित कर दिया जाता है।

कुमाऊँ में नन्दा की एक विशेषता यह भी है कि गरुड़ के कोट भ्रामरी मन्दिर में नन्दादेवी का अवतार एक पुरुष के शरीर में होता है जबकि उतराँचल के अन्य क्षेत्रों में देवी अवतार स्री शरीर में व देवता का अवतार पुरुष शरीर में होता है।

प्रसिद्ध इतिहासकार एटकिंसन महोदय भी हिमालयन गजेटियर में हर बारहवें वर्ष राजजात मनाये जाने का वर्णन करते हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, नौटी से होमकुण्ड तक, पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है। यात्रा की कठिनता और दुरुहता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाणगांव से आगे रिणकीधार से यात्रियों को नंगे पांव चलकर ज्यूगरालीदार दैसी लगभग १८००० फीट की ऊँचाई पार करनी पड़ती है। रिणकीधार से आगे यात्रा में काफी प्रतिबन्ध भी है जैसे स्रियाँ, बच्चे, अभक्ष्य ग्रहण करने वाली जातियाँ, चमड़े की बनी वस्तुएं, गाजे-बाजे, इत्यादि निसिद्ध है। सम्भवत: यह विश्व की सबसे लम्बी, दुर्गम ओर कठिन धर्मयात्रा है। इसे केवल समर्पित एवं निष्ठावान व्यक्ति ही कर सकते हैं। हजारों श्रद्धालु आज भी इस यात्रा को पूरा करते हैं।

आजकल स्थानीय लोगों ने इस यात्रा के सफल संचालन प्रजातान्त्रिक ढ़ंग से श्री नन्दादेवी राजजात समिति का गहन किया है। इसी समिति के तत्त्वाधान में प्रति वर्ष नन्दादेवी राजजात का आयोजन किया जाता है। परम्परा के अनुसार वसन्त पंचमी के दिन यात्रा के आयोजन की घोषणा की जाती है। इसके पश्चात इसकी तैयारियों का सिलसिला आरम्भ होता है। इसमें नौटी के नौटियाल एवं कासुवा के कुवरो के अलावा अन्य सम्बन्धित पक्षों जैसे बधाण के १४ सयाने, चान्दपुर के १२ थोकी ब्राह्मण तथा अन्य पुजारियों के साथ-साथ जिला प्रशासन तथा केन्द्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार कर यात्रा का निर्धारण किया जाता है।

प्रशासनिक तैयारियाँ जैसे यात्रा मार्ग का मरम्मत अथवा सुधार, चिकित्सा, भोजन, दूरसंचार आदि की व्यवस्था सामान्य तौर पर होने वाले आयोजकों के समान ही होती है। इसकी व्यापकता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें सम्बन्धित प्रशासनिक एवं सरकारी विभाग, गैर सरकारी संगठन, स्वयंसेवक एवं जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ आम जनता भी जुड़ी होती है। इससे जुड़ी धार्मिक व प्रशासनिक तैयारियों एवं हर बारहवें वर्ष पर इसके आयोजन को देखते हुए इसे उतरांचल का कुम्भ की संज्ञा दिया जाना गलत नहीं होगा।

भाद्र के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन से ही नन्दा के जागर लगने आरम्भ हो जाते हैं। ये जागर नन्दा के मन्दिरों या घर के किसी कमरे (कक्ष) में लगते हैं। जागर गाने वाले को जागरी कहा जाता है। जागरी नन्दादेवी के विषय में विभिन्न गीत गाते रहता है। गीतों में लगभग सभी नौ रसों का अद्भुत प्रयोग देखा जा सकता है। ये जागरे सप्तमी तक लगातार बिना रुकावट के चलती रहती है। इन जागरों को 'मित्तलीपाती' भी कहते हैं। इन जागरों में विशेष रुप से करुणा, आदर और वात्सल्य रसों का अनुपम सामंजस्य रहता है। अष्टमी के दिन 'नन्दाष्टमी' का मेला लगता है। नवमी के दिन नन्दापाती का पूजन किया जाता है जिसे छोटी नन्दाजात भी कहा जाता है। इस दिन नन्दा के प्रतीक के रुप में चीड़ का वृक्ष आंगन में गाढ़ा जाता है और उसे सुन्दर वस्रों से सजाया जाता है। उस पर प्रसाद स्वरुप ककड़ी, मक्का, चबेना इत्यादि बांधा जाता है। फिर जागर के साथ-साथ ढ़ोल दमाऊ पर नृत्य भी होता है जिसे नन्दा का पति माना गया है। संध्या के समय प्रसाद बाँटा जाता है। प्रसाद को एक तरह से छीन झपट कर लूटा जाता है। दरअसल दो दल बन जाते हैं जो नन्दादेवी के मायके वालों और शिव के गणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिव गण परम्परा एवं चरित्रानुसार प्रसाद लूटकर खाते हैं। नन्दापाती के बाद नन्दा विदाई का समय आता है।

चौसिंगा खाडू का जन्म लेना राजजात की एक खास बात है। चौसिंगा खाडू की पीठ पर नौटियाल और कुँवर लोग नन्दा के उपहार में होमकुण्ड तक ले जाते हैं। वहाँ सो यह अकेला ही आगे बढ़ जाता है। खाडू के जन्म साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनाये शुरु हो जाती है। जिस गौशाला में यह जन्म लेता है उसी दिन से वहाँ शेर आना प्रारम्भ कर देता है और जब तक खाड़ का मालिक उसे राजजात को अर्पित करने की मनौती नहीं रखता तब तक शेर लगातार आता ही रहता है। यात्रा को दौरान भीड़-भाड़ होने पर भी यह बेधड़क यात्रा का मार्गदर्शन करता है। आस पास के अन्य जानवरों (भेड़ बकरियों) का इस पर कोई असर नहीं पड़ता है। रात को भी यह नन्दा की मूर्ति वाले रिगाल की छताली के पास ही सोता है। लोक मान्यता है कि यह कैलाश तक जाता है। इतना ही, नहीं लोक मान्यता से यह भी है कि खाडू हरिद्वार तक गंगा स्नान के लिये पहुँच जाता हैं। कुछ यात्रियों ने मुझसे यह भी बताया कि होमकुण्ड से ऊपर चढ़ने के पश्चात खाडू का सिर धड़ से अलग होकर नीचे आ जाता है जिसे भक्त लोग प्रसाद समझकर ले जाते हैं।

रिगाल की छतोली भी राजजात की एक विशेषता है। देवी के आदेशानुसार हर बारहवें वर्ष राजजात के संचालक कोसवा के कुँवर रिगाल की छतोली देवी के लिये लाते हैं। यह प्रथा राज घरानों में प्राचीन काल से प्रचलित है कि इस यात्रा के दौरान सिर के ऊपर छत्र (एक प्रकार की छतरी) का उपयोग किया जाता है। समृद्धता और अवसर के अनुसार इसमें धातुओं का प्रयोग किया जाता है। गढ़वाल में देवी देवताओं को भी सोने या चाँदी के छत्र चढ़ाने का रिवाज है। नन्दा द्वारा अपने लिये रिगाल या बांस की छतरी कुंवरी से मांगी गई। इसी प्रकार की छतोलियाँ कई अन्य स्थानों से भी यात्रा मार्ग में राजजात में शामिल हो जाती हैं जो कि होमकुण्ड तक साथ जाती हैं। नौटी में राजजात का शुभारम्भ ही रियाल की छतोली और चौसिंगा खाडू की पूजा से होता है।

राजजात की विधिवत घोषणा होती ही कांसुवा के राजवंशी कुंवर चौसिंगा खाडू और रियाल की छतोली लेकर नौटी आते हैं। छतोली पर नन्दादेवी का प्रतीक सोने की मूर्ति रखी जाती है। नौटी में एक विशेष बात यह है कि यहाँ पर नन्दा देवी का कोई मन्दिर या मूर्ति नही है। देवी का श्रीयंत्र को नवीं शताब्दी में राजा शालिपाल ने नौटी में भूमिगत करा दिया था। छतोली और खाडू का स्थानीय परम्परा के अनुसार विधि-विधान से पूजन होता है और राजजात शुरु हो जाता है। हजारों लोग नौटी से राजजात के साथ चल पड़ते हैं। चौसिंगा खाडू राजजात का नेतृत्व करता है और अन्य लोग उसके पीछे-पीछे चलते हैं। नंदा देवी के गीत, जयकार और देवी देवताओं की स्तुति यात्रीगण करते चलते हैं। कासुंवा पहँचने पर राजजात की छतोली कोटी चान्दपुर के ड्यूडी पुजारियों को आगे की यात्रा के लिये 
सौंप की जाती है। इस बीच यात्रा मार्ग पर चान्दपुर के बारह थोकी ब्राह्मणों की छतोलियाँ भी सम्मिलित हो जाती हैं। चांदपुर गढ़ी में ही गढ़वाल के राजपरिवार द्वारा नन्दा देवी की पूजा अर्चना की जाती है। इस बीच भक्तों में से 'पोमारी' अर्थात् भार उठाने वाले देवताओं की सामग्री ढ़ोते हुए साथ चलते हैं। कुलसारी का इस धार्मिक यात्रा के कार्यक्रम निर्धारण में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कुलसारी के काली मन्दिर में भूमिगत काली यंत्र को केवल राजजात की अमावस्या की आधी रात को निकालकर पूजा की जाती है और फिर अगली राजजात तक के लिये भूमिगत कर दिया जाता है। नन्दकेसरी में भी यात्रा का पड़ाव होता है। यहाँ पर कुरुड़ की नन्दा देवी की मूर्ति डोली पर राजजात में शामिल होती है। इसके बाद कुरुड़ के पुजारी राजजात की छतोली सम्भालते हैं। विभिन्न पड़ावों से होती हुई यात्रा वाण गाँव पहुँचती है।

वाण यात्रा का अन्तिम गाँव है। इस गाँव में ही लाटू देवता का आकर्षक मन्दिर है जिसे नन्दा देवी का धर्म भाई माना जाता है। लाटू को बकरे की बलि दी जाती है तथा लाटू की पूजा-अर्चना भी नन्दा देवी से पहले ही की जाती है। लाटी की वर्ष में एक बार पूजा होती है लेकिन हर बारहवें वर्ष राजजात के समय लाटू की विशेष पूजा होती है। लाटू के मन्दिर के द्वार भी केवल राजजात के दिन ही खुलते हैं और नौटीयाल ब्राह्मणों द्वारा पूजा के बाद अगली राजजात तक बन्द कर दिये जाते हैं। उनके अलावा किसी को भी मन्दिर के दरवाजे खोलने का अधिकार नहीं होता। अन्य लोगों द्वारा बाहर से ही पूजा की जाती है और उन्हें बाहर से ही पूजा का फल मिल जाता है।

वाणगाँव तक आते-आते लगभग १९४ देवी देवताओं के निशान या चिन्ह राजजात में शामिल हो जाते हैं। रिगाल के अलावा भोजपत्रों की छतोलियां भी राजजात में शामिल होती है। वाण में ही लावा, दशोली और अल्मोड़ा की नन्दादेवी तथा कोट भ्रामरी की नन्ददेवी की कटार राजजात में शामिल होती है। वाण से आगे की यात्रा दुर्गम होती हैं और साथ ही प्रतिबंधित एवं निषेधात्मक भी हो जाती है। वाण से कुछ आगे रिणकीधार से चमड़े की वस्तुएँ जैसे जूते, बेल्ट आदि तथा गाजे-बाजे, स्रियाँ-बच्चे, अभक्ष्य पदार्थ खाने वाली जातियाँ इत्यादि राजजात में निषिद्ध हो जाते हैं। वाण से चलकर राजजात गैरोली पाताल, वैतरणी, बेदिनीकुण्ड, पातर नचौनियाँ, इत्यादि जगहों से होती हुई रुपकुण्ड पहुँचती है। इस बीच यात्रा मार्ग में बेदिनी बुग्याल के मनोहारी दृश्य यात्रियों की थकान मिटाते हैं। पातर नचौनियाँ के बारे में कथा प्रसिद्ध है कि राजा यशोधवल अपनी यात्रा में अन्य नियमों के उलंघन के साथ-साथ बाजे और नर्तकियां भी लाता था। रात्रि विश्राम में उसने नृत्य का आयोजन किया। यात्रा के नियम भंग होते देख देवी ने चेतावनी स्वरुप सभी नर्तकियों को पत्थर बना दिया। इसी से उस दृश्य का नाम पावर (नर्तकी) नचौनियाँ (नचाने वाला) पड़ गया। आज भी शिलालेखों के गोल घेरे वहाँ देखे जा सकते हैं। इस घटना से भी राजा यशोधवल नहीं चेता तो आगे चलकर देवी के प्रकोप का परिणाम राजा को रुपकुण्ड में भुगतना पड़ा। रुपकुण्ड में जो कि लगभग १६००० फीट की ऊँचाई पर है, राजजात में आये हुये नौटियाल ब्राह्मणों द्वारा कुंवरो के हाथों उनके पितरों का तपंण कराया जाता है। रुपकुण्ड का भी राजजात में विशेष महत्व है।

रुपकुण्ड सचमुच में एक अजीबोगरीब कुण्ड है। यहाँ पर मनुष्यों के शरीर, वस्र, जुते, शंख, घंटियाँ, रुद्राक्ष, डमरु, बर्तन, छतेलियाँ इत्यादि अवशेष मिलते हैं। इनके बारे में तरह-तरह की मान्यताएं प्रचलित है। एक लोककथा के अनुसार ये अवशेष कन्नौज के राजा यशोधवल, उसकी पत्नी, बच्चों तथा राजपरिवार के सदस्यों और उनके साथ के यात्रियों के हैं जिन्हें राजजात में नियमों और मर्यादाओं का पालन न करने के कारण देवी का प्रकोप भाजन बनना पड़ा एवं जान भी गंवानी पड़ी। कुछ विद्वान इन्हें कश्मीर के वीर सेनापति जोरावर सिंह के अवशेष मानते हैं जो कि तिब्बत विजय के बाद लौट रहे थे। लेकिन जोरावर सिंह की समाधि तिब्बत में तकलाकोट में भी बनी हैं। साथ ही यहाँ मिलने वाले अवशेषों का पहनावा गहने तथा अन्य वस्तुएँ राजस्थानी प्रतीत होती है। रेडियो कार्बन विधि इन अवशेषों को लगभग ६०० से ८०० वर्ष पुराना बताती है। राजजात में राजपरिवार द्वारा रुपकुण्ड पर पितरों का तपंण यह दर्शाता है कि ये अवशेष अवश्य ही राजपरिवार से किसी न किसी रुप से सम्बन्धित है। जो भी हो देखने सो यही लगता है कि शायर बर्फीले तूफान या भूस्खलन में फंसने के कारण यात्रियों को जान गँवानी पड़ी होगी।

रुपकुण्ड से आगे ज्यूंगरालीधार के बाद होमकुण्ड में जाकर राजजात की समाप्ति होती है। होमकुण्ड में नन्दादेवी की पूजा होती है। छतोलियाँ और चौसिंगा खाडू भी पूजा के पश्चात् देवी को अर्पित किये जाते हैं। यहाँ पर विचित्र चौसिंगा खाडू विशाल जनसमूह को छोड़कर देवी का उपहार पीठ पर लदे अकेला ही दुर्गम पहाड़ों के रास्ते कैलाश की ओर चल देता है। इसे देवी का ही चमत्कार माना 
जाता है। कहा जाता है कि यह खाडू कैलाश तक निर्विघ्न पहुँच जाता है। इसके बारे में अनेक आश्चर्यजनक लोककथायें भी प्रचलित हैं।

और, अन्तत: होमकुण्ड में देवी की विदाई के बाद प्रसाद बांटा जाता है और नौटियाल और कुंवर लोग वापस नौटी आते हैं। नौटी में यात्रा काल के दौरान रुके लोगों द्वारा भागवत कथा तथा यज्ञ आदि किये जाते हैं। राजजात से लौटे लोगों के आने पर भोज इत्यादि का आयोजन होता है। और इस प्रकार राजजात पूर्ण होती है।

 

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