महाकवि विद्यापति ठाकुर |
विद्यापति का शिव प्रेम और उगना की लोककथा पूनम मिश्र |
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महाकवि विद्यापति भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। उन्होंने महेशवानी और नचारी के नाम से शिवभक्ति से सम्बन्धित अनेक गीतों की रचना की। महेशबानी में जहाँ शिव के परिवार के सदस्यों का वर्णन, देवाधिदेव महादेव भगवान शंकर का फक्कर स्वरुप, दुनिया के लिए दानी, अपने लिए भिखारी का वेष, भूत-प्रेत, नाग, बसहा बैल, मूसे और सयुर सभी का एक जगह समन्वय, चिता का भष्म शरीर में लपेटना, भागं-धथुर पीना आदि शामिल है तो दूसरी ओर नचारी में एक भक्त भगवान शिव के समक्ष अपनी विवसता या दु:ख नाचकर या लाचार होकर सुनाता है। नीचे एक महेशवानी को दिया जा रहा है:
इस गीत में कवि एक महिला के माध्यम से कुछ इस प्रकार की बातें भगवान शंकर के सम्बन्ध में कहबाना चाहते हैं: "मेरी सहेली, चाची एवं माँ, मैं क्या बताऊँ। मेरा अनमोल जोगी अर्थात् भगवान शंकर समस्त संसार के प्राणियों को सुख देने वाला है। यह किसी को दुख देना जानता ही नहीं है। भगवान शिव ने किसी को भी दुख नहीं दिया है। इस मस्त जोगी को भांग एवं धतूरा पिलाकर लोगों ने बदले में अपार धन का वरदान लिया है। जग में कौन भला नहीं जानता कि कार्तिक एवं गणेश इनके दे गुणी पुत्र हैं। इन्हें कोई आभूषण नहीं है और कानों में रत्ती-भर भी सोना नहीं है। दूसरों को सोना-चाँदी का आभरण ये देते हैं और अपने लिए केवल रुद्राश की माला भर है। अपने पुत्र के लिए नाना तरह के झंझट अपने सिर ले लेते हैं। फिर भी क्या कहूँ-ए सखी, यदि एक क्षण के लिए कृपालु हो जायँ तो करोड़ों का धन दे दे, किसी को देने में ये कभी नहीं करते। महाकवि विद्यापति कहते हैं कि ऐ मान्ये! सुनो, ये दिगम्बर शिव एकदम भोले हैं।" नचारी में एक भक्त भगवान शंकर से अपनी लाचारी का बयान करता है। मिथिला विश्वविद्यालय के संगीत एवं नाटक विभाग के भूतपूर्व विभागध्यक्ष प्रो. चण्डेश्वर झा बतात हैं, "नचारी गीत संभवत: लाचारी का अपभ्रंश है। परन्तु लोग अपनी दुख का बयान नाचकर एवं भाव-विभोर होकर करतै हैं, अत: नचारी शब्द को अपभ्रंश भी आंख मूंदकर मान लेना उचित नहीं है।" जो भी नचारी में भक्त सचमुच में लाचार लगता है। एक नचारी के कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है:
इसका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है। भक्त अपन औड़ररानी भोलानाथ अर्थात् शिव से कहता है, "हे भोलानाथ, आप मेरे दुख का निवारण कब करेंगे? मेरा जन्म दुख में हुआ और तभी से आजतक केवल दुख ही झेल रहा हूँ। सुख मेरे लिए असंभव बन गया है। और ते और मैं ते स्वप्न में भी सुख नही देखता। है भोलानाथ, आप मेरे दुख का निवारण कब करेंगे?" मिथिला के लोकमानस में यह बात समस्त विख्यात है कि विद्यापति जैसा शिवभक्त न इतिहास में हुआ न ही भविष्य में हो सकता है। लोकमान्यता के अनुसार महाकवि की रचनाधर्मिता एवं अपने प्रति भक्ति का असीम स्नेह को देखकर भगवान शंकर द्रवित हो गए। उन्हें ऐसा लगा कि अपने इस आश्चर्यजनक भक्त एवं कवि विद्यापति के बिना वे रह ही नहीं सकते। फिर क्या था। एक दिन भगवान आसुतोष शिव ने अपना रुप बदल लिया और गाँव के एक गंवार एवं अनपढ़ रुप धारण कर महाकवि के समक्ष उपस्थित हो गए। उस अनपढ़ ग्रामीण को देखकर महाकवि ने पूछा: "तुम्हारा नाम क्या है? तुम मेरे पास क्यों आए हो।" इस पर उसने जवाब दिया, "मेरा नाम उगना है। मैं सूदूर गाँव का रहने वाला एक गरीब और बेरोजगार तथा अशिक्षित युवक हूँ। काम की तलाश में मैं आपके पास आया हूँ।" इस पर महाकवि ने जवाब दिया,"मैं तो एक साधारण कवि हूँ। मेरे पास किसी भी तरह का रोजगार तुम्हारे लायक नहीं है।" अब उगना बोला, "हे कवि, आप मुझे अपने पास चाकर बना कर क्यों नहीं रख लेते?" महाकवि कहने लगे,"भई, मैं ठहरा सामान्य आदमी। न तो मुझे सेवक की जरुरत है, और न ही मैं आर्थिक रुप से इतना सबल हूँ कि सेवक का लालन-पालन कर सकूँ। इसीलिए तुम यहाँ से चले जाओ।" लेकिन, उगना जाने के लिए तैयार नहीं था। महाकवि के कथ्य को समाप्त होते ही चंचल भाव से भयमुक्त होकर एकाएक बोल उठा: "ठाकुर जी, मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। सिर्फ दो वक्त का रुखा-सूखा भोजन खाने के लिए दे दीजिएगा।" महाकवि चुप थे परन्तु घर के भीतर बैठी उनकी पत्नी सुशीला वार्तालाप को ध्यानपूर्वक सुन रही थी। जब उन्होने उगना को यह कहते सुना कि वह केवल भोजन लेकर महाकवि की चाकरी करने को इच्छुक है तो एकाएक बाहर आयी। महाकवि के मौन को भंग करते हुए बोली: "आप भी किसी बात पर अकारण ही अड़ जाते हैं। बेचारा अपने आपको अनाथ बतला रहा है। आप इसको रख लीजिए। खाना ही तो खाएगा बेचारा। फिर इतने बड़े घर में बाहर-भीतर के लिए एक विश्वसनीय आदमी की जरुरत तो है ही। आप कभी-कभार बाहर अकेले जाते हैं, उस समय मैं केवल आपकी चिन्ता में मग्न रहती हूँ। यह देखने से सहज और ईमानदार लगता है। मैं तो आपसे यही कहुँगी कि आप इसे रख लीजिए। हम लोगों के साथ उगना परिवार के सदस्यों की भांति रह लेगा।" महाकवि अपनी पत्नी सुशीला की बात पर गंभीरता से मौन होकर सोचने लगे। उधर उगना मन ही मन प्रसन्न हो रहा थी। होता भी क्यों नहीं, सुशीला ने तो उसके मन की बात महाकवि से समक्ष रख दिया था। कुछ देर सोचने के बाद विद्यापति उगना को सम्बोधित करते हूए बोले: "देखो उगना, मैं तुम्हें अपने यहाँ रख रहा हूँ। तुम थोड़ी-बहुत मेरी सेवा कर दिया करना। तुम यहाँ भयमुक्त होकर मेरे परिवार के सदस्य की भांति रहो। कभी भी अपने-आपको चाकर नहीं समझना। हाँ मेरी धर्मपत्नी सुशीला तुम्हें जो भी कार्य दे उसे सही समय पर करना। मैं यो तो तुम्हें भोजन-वस्र दूँगा, परन्तु यह भी प्रयास कर्रूँगा कि तुम्हारे अंदर सही संस्कार पनपे। जाओ अब हमारे घर में ईमानदारीपूर्वक कार्य करो। अगर संभव हो पाया तो मैं तुम्हें कुछ राशि प्रतिमाह मैहनताना के तौर पर भी दे दिया कर्रूँगा। अब इस बीच मेरी पत्नी तुम्हारे लिए भोजन परोस देंगी।" इतना कहकर महाकवि ने अपने कथ्य को विराम दिया। उगना की प्रसन्नता का वर्णन तो शब्द में किया ही नहीं जा सकता। प्रसन्न मन से वह महाकवि एवं सुशीला की ओर कृतज्ञ नैनों से देखते हुए महाकवि की आज्ञा का पालन करने के लिए बगल के तालाब में स्नान-ध्यान के लिए चल दिया। उसकी आँखे मानो बार-बार यह कहना चाहती थी कि श्रम हो महाकवि कोकिल, रससिद्ध, अभिनव जयदेव विद्यापति। आपने तो मुझे अपने घर में स्थान देकर कृत-कृत कर दिया।" अब उगना महाकवि के यहाँ एक विनम्र और स्वामीभक्त चाकर के रुप में रहने लगा। प्रयास यह करता कि किसी को उसके कार्य में नुक्स ढूँढ़ने का अवसर ही न मिले। महाकवि विद्यापति ठाकुर और उनकी पत्नी सुशीला दोनों ही उगना के कार्य, ईमानदारी और स्वामीभक्ति से बेहद प्रसन्न थे। विद्यापति को तो उगना पर इतना विश्वास हो गया था कि वे जहाँ भी जाते अपने साथ उगना को भी ले जाते। जीवन अब बहुत ही आनन्द से चल रहा था। एक बार की बात है। एक दिन महाकवि अपने गाँव विसपी से राजदरबार जा रहे थे । सेवक उगना भी साथ था। जेठ महीना था। गरमी अपने चरमोत्कर्ष पर थी। लोग परेशान हो रहे थे। दोनों भरी दुपहरिया में पैदल चले जा रहे थे, आगे-आगे महाकवि विद्यापति और पीछे-पीछे उगना। चलते-चलते वे एक ऐसे स्थना में पहुँचे जो बिल्कुल विरान लग रहा था। चारों तरफ न वृक्ष, न पानी का स्रोत, केवल खेत-ही-खेत। वह भी फसलविहिन केवल श्रोता हुआ और बड़ेबड़े मिट्टी के टुकड़ों से उबर-खाबर खेत। एकाएक महाकवि को प्यास लगी। परन्तु पानी नहीं था। देखते हैं तो चायें और पानी का कोई स्रोत-कुँआ, तालाब, नदी आदि तो है ही नहीं। एक आम के पेड़ के नीचे रुककर महाकवि ने उगना को सम्बोधित करते हुए कहा:
उगना लाचार भाव से इधर-उधर देखते हुए बोला- "ठाकुरजी, परन्तु जल का स्रोत कहीं भी न नहीं आता। आप ही बताइये मैं क्या कर्रूँ। चलिये कुथ और आगे बढ़कर किसी गाँव के आस-पास चलते हैं। वहाँ पानी मिल सकता है।" परन्तु विद्यापति का गला प्यास से सुखने लगा। बोल पड़े, "उगना, कहीं से भी पानी की व्यवस्था करो, वरना मैं प्यास से मर जाऊँगा।" इतना कहकर कवि बेहोश होकर वहीं सो गये। उगना तो मामूली चाकर था नहीं। वह तो साक्षात् देवाधिदेव महादेव था। कोई उपाय न पाकर कुछ दूर गया और अपने जटा से एक लोटा गंगा जल लेकर महाकवि के पास आ गया। फिर विद्यापति को उठाते हुए बोला- "ठाकुरजी, ठाकुरजी, उठिये आपके लिए किसी तरह मैंने एक लोटा जल का प्रबन्ध किया है। उठिये जल पीकर अपनी प्यास बुझाईये।" उगना के इस कथ्य से जैसे महाकवि को जीवनदान मिल गया। वे फुर्ती के साथ उठे और लोटा के जल को एक ही साँस में पी गए। गटागट-गटागट। जल पीते ही उन्हें अनुभव हुआ कि यह जल सामान्य न होकर विशिष्ट था। जल-जल न होकर गंगाजल था। फिर क्या था, महाकवि ने उगना से पूछा- "उगना, सच-सच बताओ तुम यह जल कहाँ से लाए। उगना, तुम मामूली चाकर नहीं हो। यह जल साधारण जल नहीं बल्कि गंगाजल है।" उगना बात को टालते हुए बोला- "नहीं ठाकुरजी, मैं तो थोड़ी दूर जाकर एक कुँए से आपके लिये यह जल बड़ी सुश्किल से लाया हूँ। आप बेवजह इसे गंगाजल कह रहे हैं। मैं भला इस विरान जगह में गंगाजल कहाँ से ला सकता हूँ। आप शंका न करें। जल्दी उठिये अब हम लोग आगे का सफर प्रारंभ करते हैं।" हालांकि उगना थोड़ा घबराया लग रहा था। लेकिन महाकवि विद्यापति थे गजब के पारखी। उन्होंने फिर अपना प्रश्न दुहराया: "उगना, मुझे पूरा विश्वास है, कि तुम मामूली चाकर नहीं हो। तुम मुझसे कुछ रहस्य छिपाना चाहते हो। सच-सच बताओ नहीं तो मैं यहाँ से नहीं उठने वाला। तुम कौन हो, और यह जल जो तुम मेरे पीने के लिए लाए हो उसका रहस्य क्या है। उगना, तुम अपना रहस्य मुझे बता दो।" उगना फिर बोला- "ठाकुर जी, आप बोवजह मेरे जैसे जाहिल चाकर में रहस्य देखने का प्रयास कर रहे हैं। आपकी प्यास बुझाने के लिए मैं एक कुँए से जल लाकर आपको दिया हूँ। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता। अगर जल लाना रहस्य है तो मेरा रहस्य यही है।" विद्यापति भला उगना के झांसा में कब आने वाले थे फिर बोले: "उगना, अब देर मत करो। चुपचाप सच का बखान कर दो। मैंने जिस जल का पान अपने लोटा से किया है वह गंगाजल के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता। अब या तो तुम सच-सच बता दो अन्यथा मैं यहाँ से आगे नहीं बढूँगा।" अब उगना असंसजस में आ गया। विद्यापति फिर बोल उठे- "उगना कहीं तुम शिव तो नहीं हो।" इस पर उगना मुस्करा दिया। विद्यापति को अब पूर्ण विश्वास हो गया कि उगना कोई और नहीं बल्कि भगवान महादेव है, और उसने अपने जटा से गंगाजल निकालकर उन्हें पीने के लिए दिया है। फिर क्या था वे उगना के पैर पर गिर कर त्राहिमाम् प्रभो-त्राहिमाम् कहने लगे। अब उगना शिव के असली रुप में उपस्थित होकर कवि को धन्य कर दिया। महाकवि ने विस्फोटित नेत्रों से महादेव का दर्शन किया। फिर भगवान महादेव महाकवि को ईंगित करते हुए कहना प्रारंभ किया: "देखो विद्यापति, मैं तुम्हारी भक्ति और कवित्त शैली से इतना प्रभावित हूँ कि हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ। इसीलिए मैं उगना नामक जटिल चाकर का वेश बदलकर तुम्हारे पास गया। मैं अब भी तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ, परन्तु एक शर्त है। जिस दिन तुमने किसी से यह कह दिया कि मैं उगना न होकर महादेव हूँ, मैं उसी पल अन्तध्र्यान हो जाऊँगा। इसे तुम अच्छी तरह गांठ बांध लो।" महादेव के दर्शन पाकर महाकवि विद्यापति गदगद हो गए। उन्हें लगा कि मानो उनका जीवन धन्य हो गया। जो चीज लोग दस जन्मों में नहीं कर पाता, उसे कवि से सहज ही प्राप्त कर लिया। महाकवि ने भगवान शंकर से कहा- हे नाथ, मुझे संसार की किसी भी वस्तु का लोभ नहीं है। आप ही हमारे इष्ट देव, आराध्य देव, आदर्श-देव और पूज्यदेव हैं। आपका सानिध्य मिल गया। अब क्या चाहिए। परन्तु, प्रभो! आपका मेरे जैसे तुच्छ भक्त के यहाँ चाकर के रुप में रहना क्या ठीक है? क्या आप मेरे मित्र के रुप में या किसी अन्य वेश में नहीं रह सकते?" भगवान शंकर ने इस पर जवाब दिया: "नहीं पुत्र! मैं केवल उगना बनकर तुम्हारे साथ रहूँगा। तुमसे केवल एक निवेदन है कि तुम इस रहस्य को अपने तक रखोगे। और तो और किसी भी परिस्थिति में अपनी पत्नी सुशीला से भी इस रहस्य को उजागर नहीं करोगे।" इस पर महाकवि ने गर्दन हिलाकर अपनी स्वीकृति दे दी। भगवान महादेव पुन: उगना के वेश में आ गए। हालांकि इस घटना के बाद महाकवि प्रयास करते कि उगना से जितना कम कार्य करवायाजा सके उतना अच्छा है। लेकिन उनकी पत्नी तो इस सच से बिल्कुल अन्जान थी। एक दिन सुशीला ने उगना को कोई कार्य करने के लिए कहा। उगना कार्य को अच्छी तरह समझ नहीं पाया। करना कुछ और कर कुछ और दिया। इस पर सुशीला सुस्से से लाल हो गई। अपना क्रोध नहीं बर्दाश्त कर पाई। आवेग में आकर जमीन में पड़े झाड़ू उठाकर तरातर उगना पर बेतहाशा प्रहार करने लगी। उगना झाड़ू खाता रहा। इसी बीच महाकवि वहाँ पहुँच गए। उन्होंने सुशीला को मना किया। परन्तु सुशीला ने मारना बन्द नहीं किया। अब कवि के शव का बांध टूट गया। एकाएक भावातिरेक में चिल्लाते हुए बोले- "अरी, ना समझ नारी! तुम्हे पता है तुम क्या कर रही हो? उगना सामान्य चाकर नहीं बल्कि भगवान शंकर है। तुम भगवान शंकर को झाड़ू मार रही हो।" कवि का इतना कहना था कि उगना अन्तध्र्यान हो गया। अब विद्यापति को अपनी गलती का अहसास हुआ। लेकिन तब तक उगना विलीन हो चुका था। कवि घोर पश्चाताप में खो गये। खाना-पीना सभी छोड़कर उगना, उगना, उगना रट लगाने लगे। बावरे की तरह जगह-जगह उगना को खोजने लगे। उस समय भी महाकवि ने एक अविस्मरनीय गीत का उगना के लिए निर्माण किया। गीत नीचे दिया जा रहा है:
महाकवि विद्यापति अधीर हो उठे। उनकी अधिरता ही पद का रुप ग्रहण करने लगी- अरे, मेरा उगना। तुम कहाँ चले गए? मेरे शिव, तुम कहाँ खो गए! तुम्हें क्या हो गया? आह! अगर तुम्हारी झोली में भागं नहीं रहता था तुम कैसे रुठ जाते थे! और जैसे ही मैं खोज-खाज कर ला देता था, तो तुम प्रसनान हो जाते थे। आज तुम एकाएक कहाँ चले गए? जो के ई भी मुझे मेरा उगना के सम्बन्ध में जानकारी देगा, मैं वास्तव में उसे उपहार स्वरुप कंगना दूँगा। अरे! भगवान महेश तो मिल गए! भाई, उसी नन्दन कानन में। अरे देखो, गौरी भी प्रसन्न हो उठी। अब मेरा भी क्लेश खत्म हो गया। मुझे तो केवल उगना से कार्य है। तीनों-लोक का यह राज-पाट मेरे लिए हितकारी नहीं है।
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