महाकवि विद्यापति ठाकुर |
नेपाल एवं मिथिला में प्राप्त विद्यापति पदावली की पाण्डुलिपियाँ एवं अन्य स्रोत पूनम मिश्र |
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नेपाल का तराई क्षेत्र सांस्कृतिक सम्पदा के आधार पर मिथिला का अभिन्न क्षेत्र रहा है। जनकपुर जो कभी मिथिला की राजधानी था, आज नेपाल में है। राजा शिवसिंह के निधन के बाद महाकवि विद्यापति जनकपुर के समीप स्थित राजबनौली में अनेक वर्ष रहे। स्वभावतया महाकवि के लोकगीत नेपाल के मैथिली भाषी क्षेत्र के जनमानस में भी लोकप्रिय होने लगे। नेपाल राजदरबार पुस्तकालय में विद्यापति को गीत नाम से विद्यापति पदावली की एक पाण्डुलिपि विद्यमान है, जो प्राचीन मिथिलाक्षर या तिरुदुताक्षर (मैथिली लिपि) में तैयार की गई है। म.म. हरप्रसाद शास्री को जब इसकी सूचना मिली तो इस विषय पर व्यक्तिगत प्रयास करते हुए उन्होने नेपाल सरकार से निवेदन करके इसे संगवाया और नगेन्द्रनाथ गुप्त महोदय को इस पर शोध एवं इसका उपयोग करने के लियो दिया। सन् १९३६ ई. में काशी प्रसाद जयसवाल ने भी इस पाण्डुलिपि को देखा और विद्वानों का ध्यान इस विपुल सम्पदा की ओर आकृष्ट किया। तत्कालीन दरभंगा नरेश महाराज कामेश्वर सिंह के आर्थिक सहयोग से इस पाण्डुलिपि की दो प्रतियाँ तैयार की गयी थीं, जिसमें एक पटना कॉलेज में और दूसरी पटना विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखी गयी, जिसकी पुन: प्रतिच्छवि कराकर 'बिहार राष्ट्रभाषा परिषद' में उपलब्ध की गई। इस पाण्डुलिपि के सभी पद विद्यापति के नहीं है। अन्य तेरह कवियों के सभी पन्द्रह पद इसमें वर्तमान हैं। बारह पद ऐसे भी हैं, जिनमें कई खण्डित हैं और शेष में किसी कवि का नाम नहीं है। अत: उनके रचैता कौन थे, इस सम्बन्ध में किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचना दुश्कर कार्य है। कुल मिलाकर इस पाण्डुलिपि में २८४ गीत हैं, जिनमें २६१ पद विद्यापति की भणिता से युक्त है। कुछ पदों की पुनरावृति हो गयी है। इस पदावली के कितने ही पद अन्य प्राचीन पदावलियों में भी पाये जाते हैं; जैसे- ४५ पद
तरौनी पदावली में; इस प्रतिलिपि के प्रतिलिपिकार, प्रतिलिपि-स्थान अथवा मूलस्रोत का भी कोई उल्लेख नही है। स्व. डॉ. सुभद्र झा का अनुमान है कि इसका लिपिकरण जनकपुर के आसपास हुआ होगा। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, सर्वप्रथम इसका उपयोग नगेन्द्रनाथ गुप्त ने अपने संकलन को प्रकाशित करने के लिए किया। उन्होने २८६ में से २१९ पद को ही अपने संकलन में सम्मिलित किया। साथ ही कई पदों में अपनी ओर से स्वनिर्मित भणिता जोड़ दी। नगेन्दनाथ गुप्त के बाद खगेन्द्रनाथ मित्र एवं विमानविहारी मजुमदार ने इस पाण्डुलिपि के पदों पर विस्तार से विचार किया और गुप्त महोदय की भ्रान्तियों को भी दूर करने का प्रयास किया। सर्वप्रथम नेपाल पाण्डुलिपि के पदों के समग्र रुप में प्रकाशित करने का श्रेय डॉ. सुभदेर झा को है, जिन्होने च्दृदःढ़s दृढ् ज्त्ड्डीन्रठ्ठेद्रठ्ठेद्यत् शीर्षक से इसका सम्पादन किया। मूल पदों के साथ उन्होने अंग्रेजी में उन पदों के अनुवाद भी प्रस्तुत किये। इसके बाद सन् १९६१ ई. में इस पाण्डुलिपि का प्रकाशन बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना द्वारा विद्यापति पदावली (प्रथम भाग) के रुप में हुआ। भूमिका में संपादक ने स्पष्ट किया है कि "...नेपाल पाण्डुलिपि में कितने ही ऐसे पद हैं, जो अब तक ठाक से नहीं पढ़े जा सके और उनका सही अर्थ भी नहीं हो सका था। प्रस्तुत संस्करण में परिश्रमपूर्वक शुद्ध पाठ एवं समीचीन अर्थ देने का प्रयास किया गया है। १९७५ ई. में डॉ. महेन्द्रनाथ दूबे ने गीत विद्यापति शीर्षक से महाकवि विद्यापति ठाकुर के सभी गीतों का संकलन-सम्पादन के क्रम में इस पाण्डुलिपि का भी उपयोग कर निष्कर्ष निकाला कि, "इसमें संकलित विद्यापति के २६१ पदों में यथार्थत: २५६ पद ही विद्यापति के विशुद्ध पद हैं। ...इस पदावली के पदों में से थोड़े-बहुत पाठान्तर से मिथिला में प्राप्त रागतरंगिणी में ९ पद, तरौनी की तालपत्र पोथी में ४५ पद, रामभद्रपुर-पदावली में १२ पद, बंगाल में संकलित पदकल्पतरु में ४ पद तथा मिथिला के लोककण्ठ से संगृहीत ग्रियर्सन के संग्रह में ७ पद पाये जाते हैं।"
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