महाकवि विद्यापति ठाकुर |
बंगाल के भजन-संग्रहों में विद्यापति के पद पूनम मिश्र |
|
|
बंगाल में महाकवि के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि कई व्यक्तियों ने अन्य वैष्णव कवियों के पदों के साथ विद्यापति के गीतों को भी अपने संग्रह में आदरपूर्वक स्थान दिया। जब से बंगाल में वैष्णव महाजन पदावलियों का संकलन आरम्भ हुआ तभी से वैष्णव काव्य के आदिस्रष्टा के रुप में विद्यापति के पद उनमें आदरपूर्वक संगृहित किये जाने लगे। इन संग्रह-ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय समीचीन होगा। (क) क्षणदा गीत चिन्तामणि : वैष्णव भजनावलियों में यह प्राचीनतम है। यह अनुमान किया जाता है कि १८वीं शती के प्रारंभ में इसका संकलन हुआ था। इस संग्रह ग्रन्थ में कुल ३१५ पद है, जिनमें ३७ पद विद्यापति की भणिता वाले हैं। गुप्त महोदय ने अपनी विद्यापति ठाकुरेर पदावली में सर्वप्रथम इन्हें प्रकाशित किया, जिनमें आठ पद ऐसे भी हैं, जिनमें 'वल्लभ' भणिता दी गयी है। इन ८ पदों के अतिरिक्त अन्य ८ पदों को भी उन्होंने विद्यापतिकृत माना है। मित्र-मजुमदार ने 'विद्यापति' में गुप्तजी के संस्करण के ८ वल्लभ भणितावाले एवं ८ भणिताहीन पदों तथा एक और पद अर्थात् कुल १७ पदों को छोड़कर केवल २० गीतों को अपनाया। (ख) पदामृत-समुद्र : कुल ७४६ गीतों वाला यह संकलन स्व. राधामोहन ठाकुर ने १८वी. शती के मध्य में तैयार किया था। इस संग्रह में विद्यापति की भणितावाले ६४ गीत हैं, किन्तु कई गीतों की भाषा बंगला-प्रधान हो गई है। मित्र-मजुमदार के संकलन में पं. सं. संकेत देकर कुल साठ पद दिये गये हैं, जिनमें प्रमाणिक ५२ माने गये हैं। तीन पदों को नाति प्रामाणिक कहा गया है और ५ पदों को बंगाली विद्यापति-कृत माना गया है। क्षणदा-गीतचिन्तामणि के भी कई पद इसमें थोड़े बहुत पाठान्तर के साथ है। (ग) पद-कल्पतरु : १८वीं शताब्दी के शेषार्द्ध में पदामृत के संकलन के कुछ काल बाद गोकुलानन्द सेन उर्फ 'वैष्णवदास' ने कल्पतरु का संकलन किया। अन्य वैष्णव पद संग्रहों की तुलना में इसमें विद्यापति के पदों की संख्या अधिक है। इसमें विद्यापति भणितायुक्त १६१ पद हैं, जिनमें १४ पद नेपाल तथा मिथिला के संग्रहों में भी हैं। शेष १४७ पद केवल बंगाल में ही पाये जाते हैं। 'विद्यापति' भणितायुक्त होने पर भी भाषा पूर्णत: बंगला होने के कारण मित्र-मजुमदार ने इनमें से २४ पदों को बंगाली विद्यापति-कृत माना है। पदकल्पतरु संग्रह के पदों का महत्त्व इस दृष्टि से है कि बंगला बाङ्मय में संगृहीत प्राचीन संग्रह-ग्रन्थों में सर्वाधिक पद इसी संग्रह में है। इसके अतिरिक्त इसका महत्त्व इस दृष्टि से भी है कि बंगाल में संकलित अन्यान्य संग्रहों के भी अधिकांश पद इनमें एकत्र मिल जातो हैं तथा विद्यापति की काव्य-गरिमा को सम्बन्धित करने वाले अनेक उत्तम कोटि के पद केवल इसी संग्रह-ग्रन्थ में संरक्षित रहे हैं, जो परवत्तीं संग्रह ग्रन्थों में बड़े आदर के साथ गृहीत होते आये हैं। इन गीतों में कई ऐसे गीत सर्वप्रथम इसी संग्रह मं प्राप्त हुए हैं, जिनका स्थायी महत्त्व है, यथा-
संकर्तनामृत : इसके संकलनकर्त्ता दीनबन्धु दास थे। इसका लिपिकाल १७७१ ई. है। इसमें २४ कवियों के कुल ४९१ पद संकलित हैं, जिनमें विद्यापति कवि के १० गीत है। मित्र मजुमदार ने इनमें से दो गीतों को 'बंगाली विद्यापति' विरचित माना है। कीर्त्तनान्द : यह अपेक्षाकृत नवीन संग्रह है, जिसके संग्रहकर्त्ता का कोई नाम-पता ज्ञात नहीं है। इसकी कोई प्राचीन पाण्डुलिपि नहीं है। सन् १८२६ ई. की एक पाण्डुलिपि के आधार पर इसका सर्वप्रथम प्रकाशन हुआ था। इस संग्रह में ६५९ पद संकलित हैं, जिनमें विद्यापति भणिता युक्त पदों की संख्या लगभग ५८०, किन्तु मित्र मजुमदार ने अपने संस्करण के कुल ३८ पदों को ही प्रामाणिक मानकर संकलित किया है। पण्डित बाबाजी का संग्रह : यह संग्रह स्व. विमानविहारी मजुमदार महोदय के पास सुरक्षित था। इसमें महाकवि विद्यापति के ८ ऐसे पद हैं, जो किसी अन्य संग्रह में नहीं हैं। मित्र मजुमदार महोदय द्वारा इसका संकलन किया गया है। लोककणठ में जीवित महाकवि विद्यापति ठाकुर के पद : सम्पूर्ण मिथिला क्षेत्र में महाकवि विद्यापति के गीत सर्वत्र गूँजते हैं। मथिलांचल में ऐसा कोई उतसव (पर्व-त्यौहार) नहीं होता, जिसमें कवि-कोकिल महाकवि विद्यापति ठाकुर के गीत नहीं गाये जाते हों। आज भी इस क्षेत्र की अमराइयों में झूले पर झूलते तरुणों के कोमल कण्ठ से निश्तृत विद्यापति ठाकुर के मधुर-मसृण गीत राह चलते पथिकों को अपनी ओर आकृष्ट किये बिना नहीं रहते। वर-वधु को घोरकर कोहवर को ले जाती हुई ललनाओं के मुख से संगीत-लहरी सुनकर कौन अत्मविभोर नहीं हो जाता। मिथिला के ग्रामीण अंतलों में लोककण्ठ में परम्परा से प्रचलित विद्यापति के मभी गीत अभी भी एक जगह सम्पादित होकर नहीं आये हैं। इस दिशा में प्रथम प्रयास ग्रियर्सन महोदय ने किया। श्री ग्रियर्सन जब मधुबनी के अपने सेवाकाल में लोककण्ठ में प्रचलित ८२ गीतों का एक एकत्र किया, तो उन्हें लगा, "सचमुच कैसा अपूर्व और कालजयी कवि है विद्यापति।" गीतों के माधुर्य और अर्थ गम्भीरता से प्रभावित होकर उन्होंने अपने द्वारा संकलित सभी ८२ गीतों का एक संकलन प्रकाशित कराया। 'बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्' के 'विद्यापति-स्मारक अनुसंधान-विभाग' द्वारा सामान्य जनमानस में प्रचलित गीतों का संकलन हुआ है और इसमें ३०० पद परिषद के विद्यापतिविभाग में संगृहीत हुए हैं जिसमें अधिकांश अप्रकाशित हैं। इन पदों में प्रमुख है:
इसके अलावा भी नाना प्रकार के पद इसमें सन्निहित हैं। इन गीतों का प्रकाशन प्रतीक्षित है। विद्यापति पदावली के प्रकाशित संस्करण : ऐसा नहीं है कि विद्यापति के पदावलियों को प्रकाशित नहीं किया गया है। इस दिशा में अनेक अनुकरणीय और साहसिक कदम उठाए जा चुके हैं। बँगला में १९वीं सदी में मुद्रणयन्त्रों के विकास के साथ वैष्णव-भजनों का प्रकाशन होने लगा और इनके साथ ही महाकवि विद्यापति का गीत भी क्रकाश में आने लगे। १८७४ ई. से स्वतन्त्र रुप में विद्यापति के पदों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। स्व. जगबन्धु भद्र ने महाजन पदावली प्रथम खण्ड में केवल विद्यापति के पद संकलित कर प्रकाशित किये। स्व. शारदाचरण मित्र एवं अक्षय कुमार सरकार ने मिलकर १८७१ से ही मासिक रुप में प्राचीन काव्य-संग्रह प्रकाशित करना प्रारंभ किया, जिनमें महाकवि के पद प्रकाश में आने लगे। बाद में स्वय शारदाचरण मित्र ने १८७८ में विद्यापति के गीतों को पुस्तकाकार प्रकाशित किया। शारदाचरण मित्र की प्रेरणा एवं आर्थिक सहायता से सन् १९०९ ई. में नगेन्द्रनाथ गुप्त महोदय ने विद्यापति ठाकुरेर पदावली का प्रकाशन वंगीय साहित्य परिषद् की ओर से किया। इस महत्त्वपूर्ण संस्करण में ८४० पद संकलित किये गये थे। गुप्त महोदय विद्यापति की पदावली रुपी भागीरथी के भगीरथ स्वरुप थे। जिसे जंगल काटकर राह बनानी पड़ती है, उससे भूल, भ्रांति, त्रुटि तथा विच्युति अवश्यम्भावी है। ...किन्तु जिन्होने पहली राह निकाली है उनके प्रति श्रद्धा और मस्तक अवनत होता है। नगेन्द्रनाथ गुप्त ने ही सर्वप्रथम चन्दा झा के सहयोग से तरौनी-पाण्डुलिपि, नेपाल-पाण्डुलिपि और अन्यत्र प्राप्त पदों को संकलित किया। उनके प्रकाशित संस्करण के आधार पर पीछे अनेक विद्वानों ने विद्यापति ठाकुर के पदों के संग्रह प्रकाशित किये, जिनमें प्रमुख हैं:
प्रथम प्रयास होने के कारण ही उनमें कई प्रकार की त्रुटियाँ हो गई हैं। उनकी विद्यापति ठाकुरेर पदावली के अनेक पद बहुत से श्रेष्ठ एवं सुविज्ञ पण्डितों के मन में संशय की सृष्टि करते हैं। यद्यपि गुप्त महोदय ने स्वयं निश्संकोच भाव से स्वीकार किया या कि महाकवि विद्यापति के अनुकरण पर बहुत से पद रचे गये थे और विशाल पदावली साहित्य में बहुत से पदों के रचैता कौन है, यह पता नहीं लगता, फिर भी लगभग १०० प्रक्षिप्त गीतों को उन्होने विद्यापतिकृत मान लिया। लगभग ४० वर्ष व्यापी संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और मैथिली साहित्य और भाषा तत्व के अनुशीलन के फलस्वरुप जो हमें सामान्य ज्ञान हुआ है उसी से समझ सकता हूँ कि विद्यापति के पद विन्यास, पाठ-निर्णय और अर्थ-निर्णय में नगेन्द्रबाबू के संस्करण से भी सौ से अधिक मारात्मक भूले रहा गयी हैं (सतीशचन्द्र राय)। गुप्त महोदय ने शेखर, कवि शेखर, रामशेखर, वल्लभ, भूपति, सिंहभूपति, भूपतिनाथ, कविरंजन, दशअवधान, पंचानन, कविवर शेखर चम्पति, लखिमिनाथ, सरसवाम आदि भणिता वाले पदों को भी विद्यापतिकृत मान लिया। इन त्रुटियों के बावजूद नगेन्देरनाथ गुप्त महोदय ने अपने संस्करण के लिए समस्त उपलब्ध साधनों का उपयोग किया। नेपाल पदावली का सर्वप्रथम उपयोग उन्होने ही किया था, यद्यपि उसके सभी पदों को अपने संस्करण में स्थान नहीं दिया, न ऐसा करने का कोई कारण बताया। लोचनकृत रागतरंगिणी का सहारा भी उनहोने लिया, किन्तु आश्चर्य है कि मुद्रित रागतरंगिणी में स्पष्टत: जिन पदों में दूसरे कवियों के नाम हैं, उन्हें भी गुप्त महोदय ने विद्यापति की भणिता देकर स्वीकार कर लिया। तरौनी पदावली का उपयोग भी उन्होने किया था। अब तरौनी पाण्ड़ु़लिपि के खो जाने पर उन गीतों को जानने का एकमात्र आधार गुप्तजी का संस्करण ही है। इतना ही नहीं गुप्त महोदय ने सिथिला एवं बंगाल के लोककण्ठ में संजोये हुए विद्यापति के गीतों का भी संकलन कर चुने हुए गीतों को अपने संस्करण में रखा। इस प्रकार गुप्त महोदय के संस्करण का अत्यधिक महत्त्व है। बाद में इसके दो और संस्करण परिष्कृत रुप में बसुमती कार्यालय से प्रकाशित हुए। पुन: पण्डित अमूल्यचन्द्र विद्याभूषण ने इसका संशोधन एवं नये पदों का संयोजन कर इसे और भी प्रामाणिक रुप देकर प्रकाशित करवाया।
|
|
Copyright IGNCA© 2003