महाकवि विद्यापति ठाकुर |
मित्र-मजुमदार का संकलन पूनम मिश्र |
मैथिलि-कोकिल
विद्यापति
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खगेन्द्रनाथ मित्र एवं विमानविहारी मजुमदार ने मिलकर नगेन्द्रनाथ गुप्त द्वारा स्थापित विद्यापति-पदावली की पाठ परम्परा को आगे पढ़ाया और बंगला में ९३३ पदों का एक संग्रह विद्यापति पदावली नाम से प्रकाशित किया, जिनमें ७९६ पदों को उन्होने प्रामाणिक माना है। इनके अतिरिक्त इसमें नाति प्रामाणिक पदों में ८ नेपाल-पदावली से, २० भणिताहीन पद रामभद्रपूर-पदावली से, २३ पद नगेन्द्रनाथ गुप्त द्वारा संकलित तरौनी की तालपत्र की पोथी से तथा मिथिला-मण्डल से संगृहीत ६७ ऐसे पद, जिनकी प्रामाणिकता के बारे में असन्दिग्ध भाव से कुछ कहना संभव नहीं जान पड़ा है, बंगाल से संकलित १२ सन्दिग्ध पद एवं ६ अन्य पदों के साथ प्राप्त अन्य कवियों के पदों में नेपाल-पदावली के, २ रामभद्रपुर-पदावली के, ६ तरौनी-पदावली के और ९ रातरंगिणी के पद प्रकाशित है। ग्रन्थ के प्रारंभ में विमानविहारी मजुमदार ने १०३ पृष्ठों की लम्बी भूमिका में विद्यापति के व्यक्तित्व की समीक्षा करते हुए महाकवि के जीवनवृत्त, आश्रयदैताओं एवं उनकी रचनाओं तथा विभिन्न पाण्डुलिपियों एवं संग्रह-ग्रन्थों का परिचय दिया है। विद्यापति के मूल पदों को परखने की समस्या पर गहनता से विचार करते हुए गुप्त महोदय के सम्पादित पाठ में आई त्रुटियों का उल्लेख उन्होने किया है। ग्रन्थ के परिश्ष्ट में उन कवियों के पदों को भी रखा गया है, जिनमें अन्य नामों की छाप है, किन्तु लोगों ने जिन्हें विद्यापति-विरचित मानकर सम्मिलित किया है। मूल पद के साथ इन्होने अर्थ-निर्णय करने का प्रयास भी किया है। इतना होते हुए भी कई स्थानों पर इन्होने भी त्रुटि की है। कीर्तिलता की पुष्पिका में आयी पंक्ति को इन्होने भी 'खेलन कवेर्भारती' पाठ मानकर विद्यापति का प्रारंभिक नाम 'खेलन-कवि' स्वीकार किया और इस आधार पर कीर्तिलता को उनकी पहली कृति घोषित किया । यहाँ ज्ञातव्य है कि यह पूरणतया स्पष्ट हो चुका है कि उक्त स्थल का मूलपाठ खेलन नहीं 'खेलड' है। अपने संकलन में पदों का विभाजन इन्होने इस प्रकार किया है- पद सं.१ से पद सं. २३० राजनामांकित (आश्रयदाताओं का उल्लेख) होने के कारण मूल पद मान लिये गए हैं। द्वितीय तरण में मिथिला में प्राप्त पाण्डुलिपियों में आए पदों का संग्रह है- पद सं. २३१ से ६१५ तक। तृतीय खण्ड में केवल बंगाल में प्रचलित राजनाम-विहीन विद्यापति के पद संकलित हैं- पृ.सं. ६१६ से ७७१ तक। चतुर्थ खण्ड में मिथिला में लोक सुख से संगृहीत हरगौरी और गंगा विषयक पद ७७२ से ८०२ तक है। पंचम खण्ड में उन्होंने विभिन्न पाण्डुलिपियों के नातिप्रमाणिक पदों को रखा है, जिनमें (क) नगेन्द्र
बाबू के तालपत्र की पोथी से
भणिताहीन पद ८३१ से ८५३ तक। इसके अतिरिक्त परिशिष्ट में वैसे पदों को भी रखा गया है, जिन्हें गुप्तजी ने विद्यापतिकृत मान लिया था। कुल मिलाकर मित्र एवं मजुमदार का संस्करण काफी उपयोगी है और पर्याप्त परिश्रम तथा विद्वतापूर्ण ढंग से सम्पादित है। इसका हिन्दी अनुवाद 'विद्यापति' उपलब्ध है। मैथिलि -कोकिल विद्यापति - सन् १९०९ ई. में आरा नगरी प्रचारिणी सभा से बाबू ब्रजनन्दन सहाय 'ब्रजवल्लभ' ने अपना "मैथिल-कोकिल विद्यापति" संग्रह प्रकाशित किया। इस संस्करण में उन्होंने ग्रियर्सन के संग्रह के साथ ही बँगला के कल्पतरु, पदामृत-समुद्र, पद-कल्पलतिका, गीत-चिन्तामणि एवं प्राचीन काव्यसंग्रह का भी उपयोग किया था। साथ ही मिथिला में लोककण्ठ में प्रचलित कई पद भी, जो उन्हें प्राप्त हुए थे, संगृहीत हुए। यद्यपि उनका दावा था कि ये पद कहीं अन्यत्र प्रकाशित नहीं हुए थे, किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं था। यह अवश्य था कि कुछ पद सचमुच कहीं पहले प्रकाशित नहीं हुए थे। पदों का विभाजन उन्होंने शीर्षक देकर किया, जैसे देवी का वन्दना, वसन्त का वर्णन, नायक वर्णन, णध्यानायिका-वर्णन श्री कृष्णजी का पूर्वानुराग, श्री राधिकाजी का पूर्वानुराग, सखी-शिक्षा प्रथम मिलन और दर्शन, मान-सम्भाषण, अभिसार विरह और प्रवोध, मिलन प्रेम वैचित्य पुनर्मिलन तथआ रसोईगा, महेश संबंध। कविता शान्तरस श्री गंगास्तुति। इस प्रकार कुल ४० गीतों को उन्होंने सत्रह शीर्षकों में बांटकर प्रकाशित किया। पाठ की दृष्टि से यह संकलन बहुत महत्त्पूर्ण नहीं हैं, कई स्थलों पर त्रुटिपूर्ण पाठ स्वीकार कर लिये गये हैं। विद्यापति -पदावली - श्री राग वृक्ष 'बेनीपरी' ने 'विद्यापति-पदावली' (टिप्पणी सहित) पुस्तक-भण्डार, लहेरियासराय से प्रकाशित करवायी, जिसमें उन्होंने कुल २६४ (दो सौ चौसठ) पद संकलित किये थे। यह हिन्दी का सबसे लोकप्रिय संकलन हुआ था एवं अनेक काव्य-संग्रहों में इसके पाठ लिये गये। इसकी भूमिका स्व. हरिऔधजी ने लिखी थी। पाठ की दृष्टि से यह संस्करण भी महत्त्वपूर्ण नहीं हैं; क्योंकि सम्पादक ने स्व. न.ना. गुप्त की बंगला कृति से ही पाठ ले लिये हैं। द्वितीय संस्करण की भूमिका में बेनीपुरीजी ने स्वयं स्वीकार किया है कि "...मुख्यत: यह नगेन्द्रनाथ गुप्त के संकलन पर अवलम्बित है। जब तक उस संकलन की परीक्षा प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों के सहारे न की जायेगी तब तक सूल पदों पर कलम चलाना अनुचित होगा। पर इसके लिए जितना अवकाश चाहिए, मुझे नहीं मिल सका। ...मूल पदों का पाठ ज्यों का त्यों रहने दिया है; क्योंकि इससे शुद्ध पाठ अब तक पाठकों को देखने का सौभाग्य नहीं हुआ है और व इसके अभ्यस्त से हो गये हैं। बिना प्रमाण के इसमें यदि हेर-फेर किया जाय तो कैसे? ...मैं तो एक ऐसे संस्करण की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जिसमें पदों के पाठ निर्विवाद हों और टीका विस्तृत समालोचनात्मक और प्रामाणिक। ग्रन्थ के प्रारम्भ में सम्पादक ने कवि-परिचय दिया है। पदों को निम्नांकित शीर्षकों में सूचीबद्ध किया: वंदना, वय सन्धि, नखाशिख, सद्द: स्नाता, प्रेम-प्रसंग, दूती, नोक झोंक, सखी शिक्षा, मिलन, सखी-सम्भाषण, कौतुक, अभिसार, छलना, मान, मानभंग, विदग्धविलास वसन्त, विरह, भावोल्लास, प्रार्थना और नचारी तथा विविध। विद्यापति विशुद्ध पदावली - कोहलख (मधुबनी) निवासी पं. शिवनन्दन ठाकुर ने समभदपुर की पाण्डुलिपि के पदों को जून, १९३८ ई. में (विद्यापति विशुद्ध पदावली) शीर्षक से प्रकाशित करवाया। उनके स्वर्गवास के पश्चात् पुस्तक-भंडार, लहेरियासराय से प्रकाशित उनके ग्रन्थ 'महाकवि विद्यापति' में भी ये पद प्रकाशित हुए। ठाकुरजी ने राभद्रपुर-पाण्डुलिपि के सभी पदों के विद्यापतिकृत माना। भाषा के आधार पर इन पदों की समीक्षा कर उन्होंने इसे 'विशुद्ध पदावली' माना। उन्होंने इस संग्रह से कुल छियासी (८६) पद ही प्रकाशित किये। वे कई पदों के अर्थ स्पष्टकरने में सक्षम नहीं हो पाये। जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपि होने से कई पदों का ठीक पाठ विवेचन न कर सकने के कारण वैसे पदों को उन्होंने छोड़ ही दिया। इस प्रकार यह एक ही पाण्डुलिपि पर आधारित संग्रह हैं। सौग्स आॅफ विद्यापति - नेपाल-पाण्डुलिपि के चर्चा-क्रम में इस ग्रन्थ का संक्षिप्त उल्लेख किया जा चुका है। प्रसिद्ध भाषाविद् एवं हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और जर्मन भाषा के विद्वान डॉ. सुभद्र झा ने नेपाल-पाण्डुलिपि का यह सम्पादित संस्करण प्रस्तुत किया हैं। केवल नेपाल-प्रति पर विशद रुप से प्रकाश डालने वाला यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकलन-ग्रन्थ है।" इस पाण्डुलिपि में आये विद्यापति के गीतों को मूल रुप में उद्धत करते हुए उनका अंग्रेजी-अनुवाद भी उन्होंने प्रस्तुत किया है। प्रारम्भ में विद्यापति के काल-वंश परम्परा विवेचन करने के उपरान्त नेपाल-पदावली के आधार पर गीतों का भाषा वैज्ञानिक विशद अध्ययन अंग्रेजी भाषा में किया है। डॉ. झा के मत से इस प्रति में कुछ २८८ पद हैं। जिनमें २६१ में विद्यापति का नाम या उपनाम या अन्य कोई विशद है। अत: ये २६१ पद उनके मत से निभ्रार्ंत रुप से विद्यापति-कृत माने जा सकते हैं। एक पद में विद्यापति का कोई नाम अथवा वशद नहीं है, किन्तु 'उगना' का उल्लेख है, अत: इस पद का भी विद्यापति-कृत माना गया है। इस प्रकार कुष्ट २६२ (दो सौ बासठ) पद विद्यापति कृत स्वीकार किये गये हैं। शेष २६ पदों में से १३ पद भिन्न कवियों के हैं तथा शेष १३ पदों के रचयिता का पता नहीं है या ये पद अपूर्ण हैं। किन्तु एपेण्डिक्स 'ए' में अन्य कवियों के १५ गीत और एपेण्डिक्स 'बी' में अज्ञात कवियों के या अपूर्ण कुल ११ पद प्रकाशित किये गये हैं। संश्लिष्ट रुप में केवल नेपाल पदावली के पदों का उत्कृष्ट ढंग से सम्पादन का यह प्रथम सुन्दर प्रयास हैं। विद्यापति-पदावली (खण्ड १,२,३): बिहार सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा संस्थापित एवं संचालित बिहार-राष्ट्र भाषा-परिषद् के प्रकाशन में इस संस्था ने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। महाकवि विद्यापति के स्मृति-रक्षार्थ, उनकी समस्त कृतियों के संकलन, सम्पादन और प्रकाशन का भार बिहार-सरकार ने परिषद् को सौंपा और पदनुसार परिषद् के अन्तर्गत विद्यापति-स्मारक 'अनुसन्धान-विभाग' स्थापित किया गया। प्रारंभ में इस विभाग के कार्य निष्पादन के लिए डॉ. बजरंग वर्मा की नियुक्ति की गई। तदनन्तर पं. शशिनाथ झा क्षेत्रीय पदाधिकारी नियुक्त हुए। डॉ. वर्मा एवं श्री झा ने पदों के संग्रहक्रम में बिहार तथा बंगाल के विभिन्न स्थानों की यात्राएँ कर सामग्री एकत्र की। विभाग के कार्य-संचालन के लिए एक उप-समिति गठित की गई। उपसमिति की सहायता, पाठ-संशोधन प्रमाणीकरण एवं सम्पादन के लिए एक उप-समिति गठित की गई। उप-समिति की सहायता, पाठ-संशोधन प्रमाणीकरण एवं सम्पादन के लिए विद्यापति-साहित्य के विशेषज्ञों एवं मर्मज्ञ विद्वानों का एक सम्पादक मणडल बनाया गया। पदावली की लोकप्रियता एवं महत्त्व को देखते हुए विद्यापति की रचनाओं में सर्वप्रथम 'विद्यापति पदावली' का प्रकाशन किया गया है। परिषद् द्वारा अब तक इसके तीन खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं। प्रथम खण्ड के 'वक्तव्य' में तत्कालीन परिषद्-संचालक डॉ. भुवनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव' ने लिखा था: "...ऐसी लोकप्रिय पदावली के अनेक संस्करण विभिन्न स्थानों से प्रकाशित हुए हैं; किन्तु एक प्रामाणिक संस्करण की आवश्यकता बहुत दिनों से अनुभव की जा रही थी। उसी आवश्यकता की पूर्ति की दिशा में परिषद् का यह प्रथम चरण है। इसके प्रथम खण्ड में नेपाल पाण्डुलिपि के पदों का समावेख किया गया है; द्वितीय खण्ड में रामभद्रपुर-पाण्डुलिपि तरौनी-पाण्डुलिपि तथआ रागतरंगिणी के पद संकलित हैं और तृतीय खण्ड में बंगाल की वैष्णव-पदावलियों में प्राप्त विद्यापति के पदों का संकलन हैं। प्रथम खण्ड- इसका प्रथम संस्करण सन् १९६१ ई. में प्रकाशित हुआ। इसके आमुख में सम्पादन-मण्डल के अध्यक्ष कुमार गंगानन्द सिंह ने बताया है कि नेपाल-पाण्डुलिपि प्राचीन मिथिलाक्षर में लिखित हैं, जिसमें लिखावट स्पष्ट होने पर भी अनेक अक्षरों, यथा र, ष, न ल, तु ओ आदि के पढ़ने में कठिनाई होती है। शब्द पृथक-पृथक नहीं हैं, अत: पदच्छेद करने में कठिनाई होती है। गुप्तजी ने ऐसे बहुत से पद छोड़ दिये हैं, जिनका पढ़ना कठिन था, उन्होंने बहुतेरे शब्दों के रुप में भी मनमाना परिवर्तन कर दिया है। श्री सजुमदार एवं श्री झा उनकी आलोचना कर चुके हैं, (भू.पृ.२) परिषद् द्वारा प्रकाशित इस पदावली में नेपाल-पाण्डुलिपि का शुद्ध पाठ एवं समुचित अर्थ देने का प्रयास किया गया है। भूमिका में कुमार गंगानन्द सिंह ने कुछ गीतों को उद्धत कर इस संस्करण के पाठ की उत्कृष्टता प्रमाणित करने की चेष्टा की है। नेपाल पाण्डुलिपि में संकलित कुल २८७ पदों में से २६२ पढ़ विद्यापति कृत माने गये हैं। इनमें भी ६ पद प्राय: पुनरक्त हैं, अत: यथार्थ में २५६ पद ही विशुद्ध कहे जा सकते हैं। परिशिष्ट क में नेपाल पदावली में उपलब्ध अन्य कवियों के १५ पद दिये गये हैं और परिशिष्च ख में भणिताहीन ग्यारह पद प्रस्तुत हैं। मूल पदों के साथ पाठान्तर दिये गये हैं। साथ ही पदों के अर्थ भी किये गये हैं। प्रत्येक खण्ड के प्रारंभ में वृहत भूमिका दी गयी है। इस खण्ड में भी विद्यापति के वंश परिचय, जीवनकाल, आश्रयदाता और उनकी रचनाओं पर एक सौ आठ पृष्ठों की वृहत भूमिका दी गयी है। अवश्यमेव अब तक का सर्वोत्कृष्ट पाठ इसमें दिया गया है। द्वितीय खण्ड- राभद्रपुर-पाण्डुलिपि, तरौनी-पाण्डुलिपि तथा रागतरंगिशी से संकलित विद्यापति के पदों का एकत्र संग्रह द्वितीय खण्ड के रुप में सन् १९६७ ई. में प्रकाशित हुआ। इसके आमुख में कुमार गंगानन्द सिंह ने विभिन्न विद्वानों द्वारा इन पाण्डुलिपियों के उपयोग की सूचना तथा उनके द्वारा प्रस्तुत पाठ में की गई त्रुटियों का उल्लेख करते हुए इस संस्करण के पाठ की उत्कृष्टता को सोदाहरण प्रमाणित करने का यत्न किया है। "...स्व. शिवनन्दन ठाकुर ने रामभद्रपुर की पाण्डुलिपि में प्राप्त पदों का और स्व. बलदेव मिश्र ने रागतरंगिणी में प्राप्त पदों का जैसा सम्पादन किया, बाद के सम्पादक भी वसा ही करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक भी विद्यापति-पदावली सुसम्पादित नहीं निकली, जो विद्वानों का वास्तव में सन्तुष्ट कर सकती।" रामभद्रपुर-पाण्डुलिपि के ९५ (पंचानवे) पदों को प्रामाणिक माना गया है तथा परिशिष्ट में अन्य कवियों के तीन पद दिये गये हैं। 'रागतरंगिणी' के ५१ (इक्यावन) पद एवं तरौनी-पदावली के २३० (दो सौ तीस) गीतों का प्रामाणिक मानकर प्रकाशित कियो गया है। 'तरौनी-पदावली' में अन्य कवियों के आठ गतों को भी परिशिष्ट में प्रस्तुत किया गया है। इस खण्ड में भी मूल पद, पाठान्तर एवं उनके अर्थ दिये गये। प्रारम्भ में क्षेत्रीय पदाधिकारी पं. शशिनाथ झा ने विद्यापति का भाषा का विशुद्ध विश्लेषण किया है। इसके संबंध में भू.पृ. ८ में कहा गया है: "...प्रस्तुत द्वितीय भाग की भूमिका में उनकी भाषा पर विचार किया गयै है। विद्यापति की भाषा आज से छह सौ वर्ष पुरानी मैथिली है। अत: उनके पदों के पर्यावलोचन के लिए उनकी भाषा का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन भी आवश्यक है। विद्यापति की भाषा का विवेचन-विश्लेषण किये बिना उनके पदों का मरम समझना कठिन है। इसीलिए द्वितीय भाग की भूमिका में उनकी भाषा का सर्वांगीण विवेचन किया गया है।" तृतीय खण्ड- सन् १९७९ ई. में प्रकाशित इस खण्ड में बंगाल के भजन संग्रहों में प्राप्त विद्यापति के पदों का संकलन सम्पादन हुआ है। उन भजन-संग्रहों के संक्षिप्त परियय-क्रम में पीछे हमने देखा है कि विद्यापति के सैकड़ों पद बंगाल के उन ग्रन्थों में विद्यमान हैं जिनका सर्वप्रथम उपयोग न.ना. गुप्तजी ने किया था और बाद में मित्र-मजुमदार ने किया। फिर भी ये पद सर्वांगसुन्दर रुप में सम्पादित होकर नहीं आ पाये थे। चूँकि बंगला के भजन-संग्रहों में आये पद भी लोक-कण्ठाश्रित थे, इसलिए मैथिली भाषा की प्रकृति से अनभिज्ञ बंगलियों के कण्ठ में गीतों की भाषा का बहुत बदल जाना पूर्णत: स्वाभाविक है। फिर विद्यापति की अनुकृति में बँगला में अनेक कवियों ने गीत-रचना की और कई ने तो स्वरचित गीतों में विद्यापति की भणिता जोड़ दी। अत: बंगाल में प्रचलित इना गीतों में गीतों में विद्यापति के मूल पदों का निकालना प्रर्याप्त कठिन कार्य है। मित्र एवं मजूमदार ने यह कार्य बहुत-कुछ पूरा किया था। वर्तमान खण्ड में संपादको भाव एवं भाषा के आधार पर विद्यापति के गुप्त पदों को ढूँढा है। इस प्रकार इस खण्ड में कुल १८४ (एक सौ चौरासी) पदों का प्रामाणिक माना गया है। परिशिष्ट 'क' में बंगाल में उपलब्ध 'विद्यापति' नामांकित बँगला पद एवं परिशिष्ट 'ख' में बंगाल में उपलब्ध 'विद्यापति' नामांकित अन्य कवियों के पद हैं। प्रारंभ में ८८ पृष्ठों की भूमिका में मिथिला एवं बंगाल के सास्कृतिक तथा ऐतिहासिक संबंधों का परिचय देने के बाद बंगाल के भजन संग्रहों में विद्यापति के पदों की पाठ-विकृति के कारण एवं पाठ-निर्धारण की समस्या पर विचार किया गयै है। उदाहरणों के द्वारा बताया गया है कि किस प्रकार तरौनी-पाण्डुलिपि के कुछ पदों का रुप बंगाल के संग्रहों में पूर्णतया बदल गया है। इस दृष्टि से यह खण्ड भी परम उपयोगी है। गीत विद्यापति - सन् १९७५ ई. में 'गीत-विद्यापति' शीर्षक से डॉ. महेन्द्रनाथ दूबे ने विद्यापति के समस्त गीतों का एक संकलन प्रकाशित किया है। ग्रन्थ के प्राक्कथन में स्व. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इनके प्रयत्न की प्रशंसा करते हुए लिखा है। "आजकल इस प्रकार का परिश्रम और लगन कम ही देखने को मिलता है। मुझे पूरा विश्वास है कि देश-भर में फैले हुए 'विद्यापति' के प्रेमियों को उनके श्रमसाध्य कार्य से हार्दिक प्रसन्नता होगी। डॉ. दूबे ने भूमिका में लिखा है: "अपने कार्य में मैंने स्व. शारदाचरण मित्र, अमूल्यचरण विद्याभूषण, सर जार्ज ग्रियर्सन, बीम्स, शहीदुल्ला, कवीश्वर चन्दा झा नगेन्द्रनाथ गुप्त, म.स. हरप्रसाद मजुमदार सुकुमार सेन, डॉ. सुभद्र झा कुमार गंगानन्द सिंह तथा बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना के सुधी साधकों के अत्यन्त श्रमपूर्ण और उत्कृष्ट कार्यों से पूरी तरह लाभ उठाया हैं।" डॉ. दूबे ने विद्यापति के गीतों का नये ढंग से क्रम निर्धारण किया है। सबसे पहले इन्होंने विरह के पदों को रखा है। गीत सं. १ से ३९३ तक विरह गीत है जिन्हें नायिका-विरह एवं नामक विरह-गीतों में बाँटा गया है और दोनों विरह-गीतों के लिए पुन: पूर्वराग, मान, प्रवास उपशीर्षक दिये गये हैं। तत्पश्चात संयोग-गीत, गीत सं. ३९४ से ७६६ तक हैं, जिनके उपशीर्षक इस प्रकार हैं- आगमन-आशा, आगमन रुप-अपरुप, नायिका रुप, नायक रुप, अभिसार, नायिका को प्रेरणा, प्रयाग-विधान बाधा, अभिसार-स्थल पर, असफल, (विप्रलब्धा) नायक को प्रतारण, नायिका की करुणा, अनजान मिलन, मिलनमत नायक से छोड़ने की प्रार्थना, नायक को प्रथम मिलन की शिक्षा, मिलन-बिछुडन, मिलोल्लास, विपरीत, अल्पवयस्का, अबोधप्रभु, उपेक्षिता, उपेक्षित मिलन, गोपन, खण्डिता। प्रार्थनापरक गीतों को हरगौरी-गीत एवं वन्दना गीत शीर्षक देकर पुन: शिव वन्दना। शिव-हरि-वन्दना, माधव वन्दना, राम वन्दना, दुर्गावन्दना, भैरववन्दना, गंगा वन्दना, विदिता वन्दना, भवानी वन्दना, जानकी वन्दना उपशीर्षकों में रखा गया है। डॉ. दूबे ने सबसे अधिक विरह गीत प्रस्तुत कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि विद्यापति संयोग से अधिक वियोग श्रृंगार के कवि हैं। भूमिका में डॉ. द्विवेदी ने लिखा है "बहुत बड़ी भ्रांत धारणा अपने आप निरस्त हो गयी। बहुत बडे-बडे लोगों ने कह रखा था और इन पंक्तियों के लेखक का भी यही विश्वास था कि विद्यापति संयोग श्रृंगार के कवि हैं। दूबेजी के विश्लेषण से पता चलता है कि वस्तुत: विद्यापति के विरह गीत ही अधिक हैं।" डॉ. दूबे ने ग्रन्थारम्भ में ९७ पृष्टों की भूमिका में विद्यापति के जन्म स्थान, जन्म जन्म तिथि, वंश परिचय, पदावली के आधार पर ग्रन्थ आदि का परिचय दिया है। विद्यापति के कुछ महत्वपूर्ण गीतों के सम्बन्ध में बंगाली विद्धानों ने जो आपत्तियाँ प्रकट की थी। उनका उल्लेख किया गया है और अन्त में गीतों के क्रम तथा शीर्षक चयन के अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। भूमिका के बाद गीतों का संकलन और उनके नीचे स्रोत का उल्लेख किया गया है। साथ ही अन्य संस्करणों के पाठान्तर भी दिये गये हैं। अनेक गीतों में कठिन शब्दों के अरथ भी दिये गये हैं किन्तु पूरे गीत का अर्थ कहीं नही है। विद्यापति के समस्त गीतों के एकत्र समन्वित संकलन की दृष्टि से हिन्दी में यह अकेला संस्करण है। फिर भी इसमें अनेक स्थलों पर त्रुटियाँ रह गयी हैं। बंगाल के भजन-संग्रहों से प्राप्त कई बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् को सम्पादकों ने अप्रामाणिक सिद्ध किये है। वस्तुत: तब तक परिषद्-पदावली का तृतीय खण्ड प्रकाशित नहीं हुआ था। अपने ८४२ संख्यक गीत को इन्होंने 'विदितादेवी की वन्दना' उपशीर्षक दिया है। वास्तव में अर्थ की अनभिज्ञता के कारण ही उन्होंने ऐसा शीर्षक दिया है। 'विदिता' का अर्थ यहाँ विख्यात है और इस गीत में देवी के विभिन्न रुपों में समन्वय स्थापित किया गया है। 'विदिता' नाम की कोई विशिष्ट देवी नहीं है। विद्यापति -गीतावली - बिहार सरकार द्वारा स्थापित मैथिली अकादमी की ओर से सन् १९८१ ई. में गोविन्द झा जी द्वारा इस ग्रन्थ का सम्पादन हुआ है। इसमें कुल मिलाकर ७१० (सात सौ दस) गीत संकलित है। भूमिका में सम्पादक ने उन सत्रह ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है, जिन्हें इस संकलन के लिए मुख्य स्रोत माना गया है। सम्पादक की घोषणा के अनुसार मैथिली का यह प्रथम संकलन है और मुख्यत: सामान्य लोगों के लिए तैयार किया गया है। अत: विद्यापति के असली-नकली गीतों के पार्थक्य को भूलकर शास्रीय एवं लौकिक प्रसिद्धि के अनुसार गीतों का चयन किया गया है। स्वभावत: यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक पाठालोचन के अनुकील नहीं। वैसे सम्पादक ने मित्र-मजूमदार के संस्करण की त्रुटियों को सोदाहरण बताया है। और साथ ही कई स्थलों पर अपने पाठकों परिषद्-पदावली के पाठ से उत्कृष्टतर बताया है। इनका कथन है कि पूर्व के सम्पादकों ने बिना भाषा, छंद आदि का विचार किये स्रोत ग्रन्थ के पाठ को यथावत् स्वीकार कर लिया है, जो उचित नहीं। अत: सम्पादक ने विद्यापति कालीन मैथिली भाषा की प्रकृति के अनुकूल कई स्थानों पर पाठोद्वार किया है। यथा-कोन या कओन के बदले कयोन, मएँ के बदले मञे, ङ्क, ङ्ग आदि का प्रयोग किया गया है। गीतों का विभाजन संपादक ने बंगाल-परंपरा के अनुसार ही किया हैं, किन्तु प्रत्येक वर्ग एवं उपवर्ग के शीर्षक काव्यशास्रीय पारिभाषिक पद-मान, विरह, अभिसार, वय: सन्धि आदि में नहीं देकर विद्यापति के गीतों से ही किसी प्रचलित पंक्ति के आधार पर रखे गये है जैसे सहज सुमति वर दिअ हे गोआञुनि पुरु दरसन होअ पुनमति गड्गे हेरइते हनइ, पञ्चवाने, सैसव जौवन उपजल बाद, नव अनुरागिनी नव अनुरागी, सुन्दरि चललिह पहु घर ना आदि। पदों के पाठानतर कहीं नहीं दिये गये हैं, किन्तु कठिन शब्दों के अर्थ पाद-टिप्पणियों में दे दिये गये हैं। उपर्युक्त संग्रहों के अतिरिक्त विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के लिए छात्रोपयोगी संग्रह कई व्यक्तियों ने प्रकाशित कराये हैं। ऐसे संग्रहों में 'विद्यापति-पदावली' (सम्पादक एवं भाष्यकार कुमुद विद्यालंकार एवं जयवंशी झा, प्राकाशक रीगल बुक डिपो, दिल्ली-६) विद्यापति-अनुशीलन एवं सूल्यांकन, खण्ड २ (सम्पादक वीरेन्द्र श्रीवास्तव, प्रकाशक बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना) तथा अन्य कई ऐसे संग्रह है। इनके अतिरिक्त हिन्दी और मैथिली में विद्यापति पर लिखे गये आलोचनात्मक ग्रन्थों में लेखकों ने विद्यापति के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की समीक्षा के बाद कुछ-न-कुछ संख्या में गीतों का संकलन भी दिया है। उदाहरणार्थ डॉ. शिवप्रसाद सिंह की पुस्तक 'विद्यापति' लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद) के अन्त में १०२ (एक सौ दो) गीत संकलित किये गये हैं। इन संग्रहों का पाठ-सम्पादन की दृष्टि से कोई विशेष महत्व नहीं है और न संपादकों का ऐसा दृष्टिकोण ही रहा है। प्रस्तुत संस्करण - भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विद्यापति का अध्ययन-अध्यापन किया जाता रहा है तथा पाठ्यक्रमों में विद्यापति के गीतों को रखा जाता रहा है। किन्तु अब तक के संकलनों में स्व. नगेन्द्र नाथ गुप्त या बेनीपुरीजी के पाठ को ढोया जाता रहा हा। परिणामत: कई प्रक्षिप्त पद या प्रक्षिप्त पंक्तियाँ-युक्त पद भी स्थान पाते रहे है। कोई ऐसा संकलन उपलब्ध नहीं था, जो पाठ की दृष्टि से उत्कृष्ट हो और साथ ही विद्यापति की सम्पूर्ण भावधारा को प्रस्तुत करने में समर्थ हो। इसी अभाव की पूर्ति की दिशा में हमारा यह एक विनम्र प्रयास है। केवल ११७ गीतों का यह लघु संस्करण विद्यापति की विचारधारा को स्पष्ट करने में सक्षम है। इसी प्रकार इसे 'प्रतिनिधि' संकलन कहा जा सकता है। जैसा कि पहले भी कहा गया है, अब तक के सम्पादित संग्रहों में परिषद् की 'विद्यापति-पदावली' का पाठ निश्चय ही उत्कृष्टतम है, अत: इस संस्करण में भी परिषद् पदावली के पाठ को वरीयता की गयी है। किन्तु कई स्थलों पर विद्यापति की भाण-प्रकृति के अनुरुप पाठ-संशोधन भी किये गये हैं। इस संस्करण में प्राय: सभी स्रोतों के मूल पद रखने की चेष्टा की गयी है। परिषदवालों ने अब तक लोककंठ में विद्यमान पदों का प्रकाशन नहीं किया है जबकि कई उत्कृष्ट गीत इस श्रेणी के हैं। स्तुतिपरक गीत, नचारी महेशबानी आदि परिषद-पदावली में नहीं आ पाये हैं, अत: अन्य स्रोतों को ऐसे गीतों का संकलन हुआ है। साथ ही अन्य स्रोतों के पाठ को जानने के लिए प्रत्येक पद के बाद पाठान्तर भी दिये गये हैं। कौन सा पद किस संग्रह में किस संख्या में है, इसका उल्लेख पाठकों की सुविधा के लिए कर दिया गया है। साथ ही पदों का अर्थ निर्णय भी किया गया है। यत्र तत्र अन्य कवियों की उक्तियाँ उद्घृतकर तुलनात्मक विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है। मुक्तक गीत होने पर भी विद्यापति के गीतों में एक क्रम है। परिषद-पदावली में कोई क्रम नहीं हैं क्योंकि नेपाल-पदावली आदि में रागों के आधार पर गीतों को बाँटा गया है। इस संस्करण में बंगाल-परंपरा के अनुसार ही गीतों को विभिन्न शीर्षकों में बांटा गया है। विद्यापति के कुछ महत्वपूर्ण गीतों पर विशेष विचार किया गया है। यथा-'सखि हे हमर दुखक नहीं ओर' (गीत-सं.८) 'सखि कि पूछसि अनुभव मोम' (गीत सं. ९६)। लेक-कण्ठाश्रित गीत सं. ९१ (मोरहि रे अँगना चन्दन करे गछिया) को मित्र-मजूमदार ने प्रशिप्त घोषित किया था किन्तु यह गीत तरौनी-पदावली में है। तथा अधावधि मिथिला में लोकप्रिय है। साथ ही परिषद-पदावली के सम्पादकों को यह गीत मौलिकता में कोई सन्देह नहीं है)। महाकवि विद्यापति ठाकुर का दिर्ध जीवन अनेक उतार चढ़ावों का जीवन था। वे मिथालि के ओइनवार राजवंश के कई पीढियों तक राज्य के अत्यन्त उच्च पदों पर रहे। केवल राजकवि एवं धर्मशास्री ही नहीं, सात राजाओं के मंत्री, मित्र और रानियों के धर्मोपदेष्टा भी रहने का गौरव इस महान विद्वान एवं कवि को प्राप्त है। विद्यापति ठाकुर ने ओइनवार वंश के अनेक राजाओं का ऐसा गहरा विश्वास प्राप्त किया था कि राजा शिवनारायण सिंह के युद्ध में पराजित होने के अन्तर लुप्त हो जाने पर उनके अंत:पुर की रानियों और स्रियों को लेकर नेपाल के एक सम्बन्धी राजपरिवार में चले गये और तब तक उनका देख-रख करते रहे, जब तक राज्य की स्थिति अनुकूल नहीं हुई। स्थिति अनुकूल होते ही महाकवि उन्हें उनका मिथिला राजधानी में ले आए। महाकवि सांवरी राधा और चंचल, चपल, मोर-मुकुट धारण करनेवाले नटखट, नागर, मुरलीधर, यशोदानन्दन, गोपीबन्दन, उधोसखा, नन्द के ल्ला कृष्ण को मथुरा से मिथिला अपनी पदावलियों के बदौलत ले गए। और फिर मिथिला के लोककण्ठ में खांटी या देसी कृष्ण मिथिला, यहाँ तक कि बंगाल भी उनका काव्य प्रतिमा से महिमामण्डित हो गया। विद्यापति की महानता का आभास भला किसे नहीं है। मिथिला में आज भी विद्यापति प्रेम, भक्ति और ज्ञान के आश्चर्यजनक आदर्श हैं। उनका स्थान सर्वोपरि है। अभी-अभी एक अवकाश प्राप्त स्कूली मास्टर डॉ. देवेन्द्रनाथ ठाकुर 'अरण्यक' ने महाकवि के सम्बन्ध में एक लघु कविता का सृजन किया है। कविता कुछ इस प्रकार है:
विद्यापति के प्रपौत्र कुछ उपद्रवी लोगों से तंग आकर बिसपी से सौराठ ग्राम में आकर बस गये। आज उनके वंशज इस गाँ में रह रहे हैं। उन्हें इस बात का गौरव है कि वे महाकवि के संतान है। और तो और विद्यापति के आठ वंश (पीढ़ी) पूर्व से लेकर आज तक २३ पीढियों का वंशावलि उनके पास है। सौराठ एक हेरिटेज या सांस्कृतिक धरोहर का गांव है। इस गांव में कार्यरत एक मिडिल स्कूर के शिक्षक ने गाँव के गौरव पर एक बहुत ही प्रभावित करनेवाली कविता का निर्माण किया है। इस कविता में इस बात का भी जिक्र है कि विद्यापति के वंशजों के आने से गाँव का गौरव और अधिक गौरवान्वित हो चुका है। स्कूली मास्टर की कविता नीचे है:
लोककण्ठ में प्रचलित विद्यापति गीतों में कुछ प्रमुख गीतों विद्यापति लोकगीत शीर्षक में दिया गया है।
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