हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 19


IV/ A-2019

शान्तिनिकेतन

11.1.37

मान्यवर पंडित जी,

              प्रणाम!

       कई पत्र मिले, समय पर जवाब न दे सका। क्षमा-प्रार्थी हूँ। और हाँ, आप यात्रा पर लेख लिख रहे हैं, ठीक ही कर रहे हैं। संस्कृत के कवि ने प्रवास के कई गुण गिनाये हैं, दोष केवल एक है। गुण यथा-तीर्थदर्शन, परिचय, पैसा कमाना, अचरज भरी चीजें देखना, बुद्धि की चतुरता, वाणी की प्रशस्तता। लेकिन दोष यह है-सो भी महान् :-कि मुग्धा के मधुरामधुर सुधा पान के बिना रहना पड़ता है। तो इससे आपका क्या

तीर्थानामवलोकनं परिचय: सर्वत्र वित्तार्जनं,

नानाश्चर्यनिरिक्षणं चतुरता बुध्दे: प्रशस्तागिर:,

एते सन्ति गुणा: प्रवास विषये, दोषोsस्ति चैको महान्

यन्मुग्धा मधुराधराधरा सुधापानं बिना स्थीयते

पर यह ठीक है कि देश-देश का कौतुक देख कर पैसा कमा कर, विराहोत्कंठिता सती से मिलने वाले भी कम धन्य नहीं है -

देशे देशे किमपि कुतुकादद्भुतं लोकमाना:

संपाद्यैवं द्रविणमतुलं सद्म भूयोsप्यवाप्य

संयुज्यन्ते सुचिर विरहोत्कंठिताभि: सतीभि:

सौख्यं धन्या: किमपिदधते सर्व संपत्समृद्ध:।

सचमुच वह दुर्मति दरिद्र होता है जो अन्य व्यापार को छोड़ कर बहू का मूँह देख-देख कर ही घर में सोता रहता है -

व्यापारापरान्तरमुत्सृज्य वीक्षमाणो वधूमुखम्

यो गृहेष्वेव निद्राति दरिद्राति स दुर्मति:।

असल में जो देशाटन करता है और पंडितो की सेवा करता है उसकी बुद्धि जल में तेल बिंदु की तरह से विस्तारित होती है, पर जो ऐसा नहीं करता उसकी बुद्धि जल में धी के बूंद की तरह जम जाती है-

यस्तु संरचते देशान् यस्तु सेवेत् पंडितान्

तस्य विस्तारिता बुद्धि: तैलबिन्दुरिवाम्भसि

यो न संरचते देशान् यो न सेवेत् पंडितान्

तस्य संकुचिता बुद्धि: घृतबिन्दुरिवाम्भसि

लेकिन सही बात तो यह है पंडित जी, कि जो अलस दुर्बुद्धि पुरुष घर में ही बैठा रहता है, वह अकिंचनता और अत्यन्त परिचय के कारण स्री से भी उपेक्षित होता है, और राजाओं का अनुसरण न करने के कारण सबसे डरता रहता है, ऐसा कुएँ के कछुए का सधर्मा पुरुष संसार का हाल क्या जानता है और कौन सुख भोगता है? -

अकिञ्चन्यदतिपरिचयाज्जाययोपेक्षमाण:

भूपालानामननुसरणाद्विभ्य देवाखिलेभ्य:

गेहे तिष्ठन् कुमतिरलस: कूपकूर्मै: सधर्मा

किंजानीते भुवनचरितं किं सुखंचोपभुंक्ते

रामचरितमानस के आरंभ में ही कहा है -(दोहा नं. ६ के बाद)

मृदमंगलमय सन्त समाजू

जो जग जंगम तीरथ राजू।

यहाँ आपकी सुविधा के लिये वैदिक साहित्य से कुछ उपयोगी श्लोक दे रहा हूँ। शायद काम आयें।

       साहित्यांक के लिये मैं संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त परिचय देना चाहता हूँ। महाभारत पर दूसरे अंक में लिखना अच्छा होगा। या जैसा आप समझें। महाभारत पर लिखाना चाहें तो मुझे वि.भा. के २४ कालम दीजिये। मेरी ओर से यह विश्वास रखिये कि उसमें एक अक्षर भी भरती का न होगा और महाभारत के संबंध में सारा त्दःढ्दृद्धथ्रठ्ठेद्यत्दृद यथासाध्य दिया जायेगा। आप हिन्दी अक्षरों में छपे महाभारत में व्यर्थ ही ३०-४० रुपये न जलाइये। महाभारत का सबसे सस्ता संस्करण बंगवासी प्रेस ने बंगला अक्षरों में (मूल संस्कृत को) छापा है। दाम ५/- रुपये था। इधर कुछ बढ़ा दिया है। इसमें नीलकंठ की समूची टीका भी आ गई है।

       शेष कुशल है।

हजारी प्रसाद  

पिछला पत्र   ::  अनुक्रम   ::  अगला पत्र


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।

प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली