हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 59


IV/ A-2058

1.05.43

शान्ति निकेतन

श्रध्देय पंडितजी,

              प्रणाम!

       आपका कृपा-पत्र और श्री बुद्धिप्रकाशजी को लिखे हुए पत्र की कापी मुझे मिल गई है। श्री क्षितिमोहन बाबू और मल्लिक जी यहाँ नहीं हैं। मल्लिक जी ने साल-भर की छुट्टी ली है और शायद अब नहीं ही आयेंगे। इसलिए अकेले ही मैंने पत्र पढ़ा है और इस पत्र के साथ बुद्धिप्रकाशजी के पत्र की कापी लौटा रहा हूँ। क्षिति बाबू के आने पर उन्हें उसकी बातें बता दूँगा। आपने जो संकल्प किया है, उसका महत्त्व मैं समझता हूँ और उसे मैं एक अत्यन्त आवश्यक कार्य समझता हूँ। परन्तु आपने जो आशंका प्रकट की है कि इससे लोग आपको क्या-क्या कह सकते हैं, वैसी आशंका मुझे नहीं है। मेरा निश्चित अनुमान है कि इस देश के अधिकांश विचारशील लोगों की दृष्टि में आपका कार्य निश्चय ही उत्तम होगा। आपके कार्य को कोई संकीर्ण राष्ट्रीयता की दृष्टि से भी गलत नहीं कह सकता। वैसे कोई गाली देने की प्रतिज्ञा ही करके बैठा हो तो क्या उपाय है। भगवान् ने जब मुँह दिया है, तो आदमी जो चाहे कह सकता है, दस हाथ की हर चर्चा भी कर सकता है- मुखमस्तीति वक्तव्यं दश हस्ता हरीतकी! एण्ड्रूज़ जैसे महानुभाव किसी एक जाति के नहीं हैं। वे समूची मानव जाति के अपने हैं। सो आप नि:शंक होकर उनके संबंध में लिख सकते हैं। वे मानवता के भूषण हैं और उनकी चर्चा पुण्य है।

       मैं इस विषय में थोड़ी अपनी रुचि की बात भी जोड़ दूँ। जिन महात्माओं ने साहित्य, पुरातत्व, ज्ञान-विज्ञान आदि की खोज करके भारतीय नैतिक बल को सौ गुना बढ़ा दिया है, उनकी बात आप न भूलें। सर विलियम जोन्स, मैक्समूलर, फार्गुसन वूलर, राइस डेविड, ग्रियर्सन, वेवर, आदि विद्वानों की बात मैं कह रहा हूँ। गुरुदेव की शिक्षा संबंधी चिट्ठियाँ एक दिन मैं देख रहा था। उन्होनें शान्तिनिकेतन के एक अध्यापक को लिखा था- हमारे देश में भी अंग्रेजी शिक्षा के प्रारंभिक दिनों की बात याद करो। इरोजियो, कैप्टेन रिटाडसन, डेविड हेयर, ये लोग शिक्षक थे, शिक्षा के साँचे नहीं, और न नोटों के बोझ ढोने वाले थे। उन दिनों विश्वविद्यालयों के व्यूह इतने भयंकर नहीं हो गये थे, तब भी उनमें प्रकाश और हवा के घुसने का उपाय था- उन दिनों विषयों के दरार में जगह खोज कर शिक्षक अपना शासन जमा सकते थे। गुरुदेव ने इन शिक्षकों के बारे में इतनी प्रशंसा लिखी है तो निश्चय ही ये स्मरणीय होंगे। मैंने एक वृद्ध सज्जन से इनके विषय में पूछा था। उन्होंने हेयर साहब के विषय में कहा कि ऐसा साधुचरित अंग्रेज भारतवर्ष में दूसरा नहीं आया। पर खेद है कि हम इनके विषय में कुछ भी नहीं जानते। महामति हैवेल की ही बात सोचिए। कितने उदार और खुले हृदय के महात्मा थे वे। वे न होते तो पता नहीं श्री अवनींद्र ठाकुर की शैली और शिष्यमंडली और आधुनिक भारतीय कला की क्या दशा होती। उनके विषय में अवनींद्र ठाकुर से सुनिये तो मालूम होगा कि वे कैसे महान् थे। मेरे कहने का मतलब यह है कि ऐसे साधुचरित अंग्रेज इस देश में बहुत हो गये हैं, जिनका नाम प्रात: स्मरणीय होगा। उनके विषय में हमें और जानने की उत्सुकता होनी चाहिए। आपने यह संकल्प करके जो महत्कार्य का आरंभ किया है, इसमें किसी को भी शंका नहीं होगी। मुझसे जो कुछ सेवा संभव होगी, मैं अवश्य कर्रूँगा।

       और आपने जो लिखा है कि आपके पिछले कई वर्ष व्यर्थ चले गए, यह पढ़कर मैं सोचता हूँ कि मैं अपने जीवन को क्या कहूँ। केवल किसी प्रकार पेट पालने में ही तो सारी शक्ति खर्च हो गई और अब दूर तक बढ़ आने के बाद देखता हूँ कि पेट पालने योग्य भी नहीं रह गया हूँ। दिन-रात इसी उधेड़-बुन में लगा रहता हूँ कि इस भयंकर महँगी के दिनों में अपना और अपने कहे गये वालों का पेट कैसे भर्रूँ? इस व्यर्थता का कोई हिसाब है आप नहीं जानते कि आपका कोई वाक्य कितनी स्फूर्ति देता है। जो आपका सान्निध्य पा चुका हो और फिर बरसों तक उससे अलग हो चुका हो, वह जानता है। गौरा आई थी और वह भी यही बात कह रही थी। इसलिये आपकी अपनी दृष्टि में आपके पिछले साल जैसे भी बीते हों, कितनों ही के लिये वे सार्थक हैं। और आपके असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं है।

       आशा करता हूँ, आप प्रसन्न हैं। जयन्ती देवी के शुभ विवाह का समाचार मुझे मिल गया था। मैंने अपना आशीर्वाद लिख दिया है।

       हम लोग यहाँ कुशलपूर्वक हैं।

आपका

हजारी प्रसाद  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली