हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 60


IV/ A-2060

15.06.43

शान्ति निकेतन

श्रध्देय पंडितजी,

              सादर प्रणाम!

       आपका तार और लेख मिल गया। पाते ही पढ़ गया हूँ। हजार रुपये वाला मनीआर्डर जो नहीं मिला, सो विशेष चिन्ता नहीं हुई। जिस दिन मेरा जन्म हुआ, उसी दिन किसी मुकदमे की विजय में घरवालों को १२०० रुपये मिल गए। उसकी खुशी में मेरा मूल नाम भुलवा दिया गया और मदरसे के रजिस्टर से लेकर विशाल भारत के पन्नों तक में दो सौ कम करके हजार रुपये की समृति को ढोने वाला हत भाग्य नाम ऐसा प्रसिद्ध हुआ कि लक्ष्मी देवी ने क्रोधवश शाप दे दिया कि हजारी त्व से आगे तुम इस जन्म में नहीं बढ़ सकते। अगर कहीं आपने मनीआर्डर भेज दिया होता तो लक्ष्मी देवी से दुबारा झगड़ा मोल लेना पड़ता और मधुकर में मेरा दोहजारी नाम विख्यात हो जाता। लेकिन आपके लेख को अगर दुनिया ने ठीक-ठीक समझा और क़दर किया तो शीघ्र ही मैं सौहजारी या हजार हजारी तक हो सकता हूँ। अभी तो हजारी ही बहुत है।

       आपने कवियों और नवीन साहित्यिकों के विषय में जो भाव प्रकट किए हैं, वह सर्वथा आपके स्वाभाव के अनुकूल है। निस्संदेह दर्जनों प्रतिभाशाली नवीन लेखक सुविधा और अवसर पाने पर देश के गौरव हो सकते हैं। पर प्रोत्साहन कैसा हो यह प्रश्न है। मैं वास्तविक परिस्थितियों का सामना करने को कहता हूँ। कवि सम्मेलनों में तालियाँ पिट जाना एक प्रोत्साहन है, गरीबी की मार से बचने में सहायता करना दूसरा प्रोत्साहन है, लिखी हुई पुस्तक पर पुरस्कार पारितोषिक देना भी एक प्रोत्साहन है, पर इनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जो प्रतिभा को निखार सके। ये सब ज़रुरी हैं, इनसे लेखकों को सम्मानित करना वांछनीय है या इनकी अपेक्षा आवश्यक वस्तु है वातावरण में रखना, वातावरण पैदा करना। मेरे पास प्रतिवर्ष ऐसे दर्जनों पत्र आते हैं, जिनमें युवक साहित्यिक शान्तिनिकेतन में रह कर साहित्य और कला का अभ्यास करना चाहते हैं। इनमें बहुतेरे विशुद्ध कल्पलोक को निवासी हैं। उनके मस्तिष्क के कोमल उद्भिद्यमान अंकुरों का स्पर्श मैं उनके पत्रों से पाता हूँ। उनकी भाषा रंगीन होती है। कल्पना सर्जनशील होती है और श्रद्धा का भंडार सबके लिये अबाध भाव से उन्मुक्त होता है। वे जो विशेषता गुरुदेव को देते हैं, उसे ही मुझे भी दे देने में लेशमात्र भी संकुचित नहीं होते। उनके औदार्य के स्रोत स्वच्छ और चंडगतिशाली होता है। वे बराबर इस प्रकार शुरु करते हैं कि आधुनिक शिक्षा उन्हें पसन्द नहीं है, शान्तिनिकेतन में कुछ सीखना चाहते हैं। गुरुदेव के आदर्शों के प्रति श्रद्धा है और प्राय: अन्त में अत्यन्त कातर प्रार्थना के साथ लिखते हैं वे गरीब हैं, पढ़ने का खर्च नहीं दे सकते और शान्तिनिकेतन में कोई व्यवस्था हो जाय तो वे बरतन भी माँज सकते हैं। लड़कियों के जो पत्र आते हैं, वे और भी करुण होतें हैं। मेरा विश्वास है कि इनमें प्राण है और अन्तत: ५० फीसदी ऐसे ज़रुर हैं, जिनको उचित वातावरण में रखा जाय तो देश के काम आ सकते हैं। इन्हें कभी कोई पुरस्कार नहीं मिलेगा, कोई पारितोषिक नहीं देगा और इनकी भाषा में इतनी रंगीनी होती है कि शायद ही कोई पत्र-पत्रिका इनके लेख कभी छापे। पर मेरा विश्वास है-नहीं, अनुभव है कि-ऐसे विद्यार्थी आगे चलकर अच्छे निकलते हैं। क्योंकि ये गतानुगतिकता से बाहर निकलने के छटपटाते रहते हैं और उनकी औदार्ययुक्त विशेषण पद्धति और कल्पनामयी चिन्ता सरणि केवल इस बात का सबूत है कि वे कुछ करना चाहते हैं। क्या? यह वे नहीं जानते। हम लोगों में से कितने हैं, जिन्होंने प्लैन बना कर साहित्य-रचना शुरु की थी? आप बताइये कि ऐसे विद्यार्थियों के लिए प्रोत्साहन दिया जा सकता है? मेरी राय इस विषय में भी वही है। सारे देश में लाइब्रेरियों और नि:शुलक वाचनालयों का जाल बिछ जाना चाहिए। देश के विभिन्न भागों में ऐसे आश्रम स्थापित होने चाहिए, जहाँ सेवा, ज्ञान और सौन्दर्य का वातावरण हो। लड़कियों के लिए विशेष रुप से व्यवस्था होनी चाहिए। आपको याद होगा एक बार शान्तिनिकेतन में हम लोग विशाल भारत की बिक्री बढ़ाने की बात करते-करते इस नतीजे पर पहुँचे थे कि जब तक हमारे अन्त:पुर सुशिक्षित नहीं हो जाते, तब तक साहित्य का प्रचार समस्या ही बनी रहेगी। लाइब्रेरियाँ एक दिन में नहीं बनेंगी, आश्रम स्थापित भी हुए तो उपयुक्त वातावरण बनाने में बरसों समय और दर्जनों व्यक्तियों की तपस्या लगेगी। यह मौलिक प्रश्न है। इसी पर केन्द्रित किया जाय तो २५वर्ष बाद सुफल फलेगा। पुरस्कार और पारितोषिक सम्मान देते हैं : परन्तु वे प्रोत्साहन नहीं हैं। वे भी ज़रुरी हैं, पर प्रोत्साहन और भी अधिक ज़रुरी है इतना ही मुझे विशेष कहना है। मैं इस दिशा में कुछ सुनता-सुनाता रहा हूँ, इसलिए इस ओर शायद कुछ पक्षपात भी है। बाकी मैं आपकी सभी बातें ज्यों-का-त्यों स्वीकार करता हूँ।

       आशा है, आप प्रसन्न हैं।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली