- ""पाहिने
बटेरकें बटेरसँ लड़ओल जाइक ।
.... आ होइक की, खूब लोक जुटए आ
बस शुरु होइक बटेरक लड़ाइ ।
से, बेस जमैक। लड़ैत-लड़ैत दुनू
शोणिते-शोणिताम आ जे हारि
जाइक से "कट्टू' भए जाइक, बजैक
नहि ।''
- ""जी, ओ तँ
जमीन्दारी युगक शोभा छलैक ।''
- ""छलैक ने,
मुदा आब की ओ सब भेटत ? पहिने
कतेक चिड़इ-चुनमुनीसब देखाबमे
आबए, तितिर, बटेर, मुनिञा,
बुलबुल, जलचड़ै सबमे नकटा,
लालसर, दिघोंच, अधङ्ी, मैल,
डुवाब । ... आब तँ देखितहुँ ने
छिऐक
!''
- ""फर-फर
करैत एक जोड़ी दिघोंच आ
लालसर चिड़इक मोल-मोलाइ
करैत आदरणीय श्रीतन्त्रनाथबाबू
पक्षीक प्रसंग अपन-अद्भुत-अद्भुत
अनुभव कहि रहल छलाह । ...
एतबहिमे आबि गेलैन्हि
सुभद्रबाबूक चिट्ठी । पुलकिल
होति कहलन्हि -''बुझलहुँ,
सुभद्रकें भए गेलैन्हि
रिसर्च-प्रोफेसरी । ज्वाइन कएलन्हि ।
तकरे पत्र थीक । योग्य व्यक्तिकें
उपयुक्त पद
!''
से ओहि दिन शरदॠतुक
एकटा साँझ रहैक । पीअर-पीअर रौद
राजकुमारगंजक सड़कपर पसरल
रहैक । हम आ आमरनाथ
तंत्रनाथबाबूक ओहिठाम पहुँचल
रही । .... एकटा आगाँ इनार । "अग्रेधेनु:
सवत्सा' - से, आगाँमे एकटा गाए आ
बाछी, घास-पात चरैत सन ! तकरा
बाद टाट । टाट पर किठु लत्ती । किछु
गाछ । गेना आ गुलाबक फूल । पुरान
ढंगक एकटा झरल जाइत कोठाक
ओसारापर एकटा खाट । खाट पर
श्रीतन्त्रनाथबाबू सूतल रहथि । ...
विशालकाय । पाकल-उड़ल केश ।
श्यामवर्ण । खद्दरक धोती आ मोटका
गंजी । पैघ-पैघ आँखिमे भरल भावक
अथाह सागर ! कविताक पाँती जकाँ
निश्छल-सरल मुखमण्डल । .... चुपचाप
बितैत इतिहासक धाराक संग
चुपचाप बितल चल जाइत एकटा
महान् कवि होइए, जेना कोनो
महाकवि लग नहि बैसल छी, कोनो
महाकाव्यक पन्ना उनटा रहल छी ! ....
एतबहिमे
श्रीतन्त्रनाथबाबू जगि जाइत छथि । ...
हमरालोकनि पाएर छूबि कए प्रणाम
कएलिऐन्हि तँ आह्मलादित होइत
पुछलैन्हि - ""कखन अएलहुँ?''
- ""जी, एखनहिं
...!''
- ""तँ उठा किएक
ने देलहुँ ?''
- ""जी, अपनेकें
कष्ट होइत ।''
- ""असलमे,
होइत छैक की तँ पुरान-पुरान
बात मोन पड़नासँ बड़ आनन्द होइत
छैक ।'' अमरनाथ प्रसंगकें उठएबाक
प्रयास करैत छथि ।
- ""हँ, से
तँ होइतहिं छैक, ताहूमे
हमरालोनिकें'' - किंचित
विहुँसैत श्रीतन्त्रनाथबाबू बजैत
छथि ।
""जी,
हमरासब आइ एकटा विशेष
प्रयोजन !''
- ""की ? कोन
प्रयोजन ?''
- ""इएह, कने
अपनेसँ मैथिली-साहित्यक प्रसंग
किछु जिज्ञासा करितिऐक, जँ आज्ञा
होइक ।''
""अओ,
हमरासँ ... हमरासँ की पूछब ?
बेस, की पूछब ... पूछू ।''
हम प्रसंगकें
पकड़ैत पुछैत छिऐन्हि - ""पहिने
कहल जाए जे अपनेकें साहित्य
लिखबाक प्रेरणा कतएसँ प्राप्त भेल
रहैक ?''
श्रीतन्त्रनाथबाबू
पहिने तमाकू थुकरैत छथि । .... फेर
किछु गम्भीर भए जाइत छथि, तखन
साकांक्ष भेल कहैत छथि - ""अओ !
प्रेरणा की ? हमरा तँ प्रेरणा ... हम
तँ कोनो सोचि विचारिकें, कवि
बनबाक उद्देश्यसँ कहिओ रचना नहि
कएल । तखन तँ जे भए गेलैक, से भए
गेलैक ।''
- ""जी, से
नहि, अपने जे मैथिली साहित्यमे
कुदलिऐक, से ककर प्रेरणासँ ?''
- ""हाँ-हाँ-हाँ,
कुदबैक किएक? कुदबाक अभ्यासे नहि
भेल ।''
- ""माने,
प्रवेश कएलिऐक !''
- ""हँ, से
बुझू तँ एक तरहें भाइक (स्व०
रमानाथबाबू) "साहित्य-पत्र' बड़
बेशी प्रेरणाक काज कएलक । ओ तँ
मैथिलीक विकास-विस्ताररमे एकटा
प्रबल शक्तिक काज कएने रहैक ।
हमहूँ, यद्यपि पहिनहिसँ रचना
करैत रही, मैथिली-आन्दोलनसँ,
सभा-गोष्ठीसँ सम्बन्धित रही,
मुदा योजनाबद्ध भए ओही समयमे
साहित्य-क्षेत्रमे अएलहुँ । ... ओना हम
तँ मैथिली साहित्यमे
रमानाथेबाबूक स्नेह-प्रेरणा आ
फरमाइश पर लिखब शुरु कएलहुँ
।''
हम कने विषयकें
आर अधिक स्पष्ट करबाक हेतु पुछैत
छिऐन्हि ""अपनेकें ई कहिआसँ
अनुभव भेलैक जे कवि भए गेलिऐक ?''
श्रीतन्त्रनाथबाबू
विहुँसैत बजलाह - ""कहिओ
नहि, एखनहुँ धरि नहि, ई अनुभव
कहिओ ने भेल जे हम कवि छी !''
- ""ई अपनेक
महत्ता थिक ! मुदा जखन अपने साहित्य
लिखैत होएबैक, तखन तँ अपने
अनुभव करैत होएबैक जे अपने
साहित्यकार छिऐक ?''
- "" निश्चय !
से तँ अनुभव होइतहिं अछि । ... असल
मे, हम एकरहि पुरस्कार बुझैत
छिऐक ।'' ....
- ""जी, से की ?''
- ""से तँ हम
श्रीलक्ष्मणबाबूक "उत्सर्ग'क
भूमिकामे स्पष्टे लीखि देने छिऐक ।
लोक जे साहित्यकर रचना करैत
अछि, से किएक ? कोन लोभ, कोन लाभ ?
कोन राग, कोन आसक्ति ? तखन अहाँ
सब पूछि सकैत छी जे एखनहुँ हम
किएक रचना करैत छी ?''
- ""जी,
अबस्से ... ''
- ""से, रचना
एहि हेतु करैत छी जे जा' धरि रचना
करैत रहलहुँ ता' धरि एकटा भिन्ने
संसारमे विचरैत रहलहुँ, ....
ओतबा काल तँ बुझू जे निश्चिन्ते
रहलहुँ । ने घरक चिन्ता, ने
पारिवारक, ने मोह, ने ममता !
परमानन्दक प्राप्ति होइत रहैत छैक
! कविता लिखबाक, साहित्यमे डूबल
रहबाक सबसं पैघ उद्देश्य इएह,
सबसँ पैघ पुरस्कार इएह । तें
एखनहुँ रचना करैत छी।''
B तबहिमे, डा०
उग्रनाथझजी (आदरणीय कविक पुत्र)
अबैत छथि आ' पुछैत छथि आ" पुछैत
छथि - ""की भए रहल छैक ?
इन्टरव्यू ? हे, ओरिआकए करु ।
एक्कहुटा बात छूटल नहि ताकए ।
मिथिलाक्षरक विकासमे,
विश्वविद्यालयमे बाबूजीक बहुत
केल छन्हि । सबटा पुछबैन्हि ।'' फेर
ओ किछु काल धरि ठाढ़ रहि चल
जाइत रहलाह ।
किछु काल गप्पक
क्रम टुटैत भसिआइत जकां रहलैक ।
फेर हम उत्सुक होइत पुछैत
छिऐन्हि - ""कहल जाए, अपने जखन
साहित्यमे अएलिऐक तं साहित्यिक
वातावरण केहन छलैक ?''
- "" कोनो
तरहक वातावरणे नहि छलैक ! इएह
बूझि लिअ जे मैथिलीक विरोधीक
कहब छलैक जे मैथिली -
आन्दोलकसभकें आंगुर पर गनि
सकैत छिऐन्हि । एकटा हीनताक भावना
छलैक । एक शब्दमे इएह बूझि लीअ' जे
गाँधीटोपी बला '' - सब सेहो
शोषण करैत छलाह आ विदेशी तँ
सहजहिं । ... एहना परिस्थितिमे
मैथिलीक विकास-विस्तारक मार्ग
अवरुध्दे जकाँ छलैक । ... मुदा जखन
दरभंगामे मिथिला कालेजक
स्थापना भेलैक तँ एहिठाम किछु
मैथिली-प्रेमी विद्वानलोकनि एकत्रित
होबए लगलाह । एकटा नवीन चेतना,
एकटा नवीन जागरण देखबामे आबए
लागल ।'' - ""अपने
जखन साहित्यमे प्रवेश कएने
रहिऐक, तखन कोन-कोन
साहित्यकार अधिक मुखर रहथि ?''
- ""सभक ना तँ
मोन नहि अछि, मुदा किछु गोटाक
नाम अबस्से कहब ।''
- ""जी कहल
जाए '' ...
- ""सबसँ
पहिने हम नाम लेब मुन्शी
रघुनन्दनदासक, मैथिलीक प्रति अखण्ड
आस्था हुनकर हृदयमे छलन्हि । तखन
भोलालालदास, पूर्वहिसँ
भुवनजी, रमानाथ बाबू, सुभद्र,
परमाकान्तचौधरी, डॉ० उमेशमिश्र,
जनसीदनजी, अच्युतानन्ददत्त,
परमानन्ददत्त, हरिमोहनबाबू,
सम्पादकजी (मुमनजी), नरेन्द्रनाथ
दास, कुमारगंगानन्दसिंह । हँ,
धमौराक भुवनेश्वरझ सेहो
यत्नशील रहथि । एहिना हाटीक
श्रीवल्लभझा, महावीरझ,
श्यामानन्दझा (लालगंज), कुशेश्वर
कुमर, जयनारायणमल्लिक ओ
उपेन्द्रनाथझा इत्यादि । जनिक नाम
सहसा स्मरण भेल, से कहल, जे
छूटि गेल होथि से तिरस्कार जनु
बुझथु ; हमर स्मरणशक्तिक
दौर्बल्य बुझथि ।''
- ""अपने
मैथिली-आन्दोलसँ कोन रुपमे
सम्बन्धित रहलिऐक ?''
- ""पड़ल
छलाह, से उठिके बैसि रहलाह आ"
तखन गम्भीर होइत कहलन्हि - ""देखू,
ओना तँ हम अखिल भारतीय
मैथिली-साहित्य-परिषदक मंत्रीक
रुपमे सक्रिय भेलहुँ । मुदा,
ताहूसँ पूर्वे मुजफ्फरपुरमे जे
परिषदक छठम अधिवेशन भेल
रहैक, ताही समयसँ
मैथिली-आन्टोलनमे भाग लेबए
लगलहुँ, प्रस्ताव आदि
मुजफ्फरपुरमे उपस्थित कएने
रहिऐक शैलीक सम्बन्धमे, पासो
भेल छल । मुदा, कार्य आगाँ नहि
बढ़लैक । मुजफ्फरपुरसँ घुरैत
काल गड़िअहि पर रमानाथबाबूक
संग सैथिलीक विभिन्न समस्यासब
पर गप्प करैत रहलहुँ । असलमे,
ओही दिनसँ हमर हृदयमे
मैथिलीक प्रति असीम अनुराग
क्रियात्मक होअए लागल ।''
- "" परिषदक
मन्त्रीक रुपमे मैथिलीक विकासक
हेतु अपने कोन-कोन कार्यकें
प्रमुखता देने रहिऐक ?'' - ""हमरा
मन्त्रित्व कालमे
मैथिली-साहित्य-परिषदक तीन
गोट अधिवेशन आयोजित भेल छल,
पहिल दरभंगामे १०-११ मार्च १९४२ ई०
कें ; दोसर मनीगाछीमे २४-२५ फरबरी
१९४४ ई० कें एवं तेसर मुधबनीमे १९४६
ई० कें । दरभंगामे आयोजित
अधिवेशनक अध्यक्ष छलाह डा०
अमरनाथझा एवं मनीगाछी ओ
मधुबनीमे आयोजित अधिवेशनक
अध्यक्षता कएलन्हि पं०
श्रीगिरीन्द्रमोहनमिश्र ।
अमरनाथबाबूकें अध्यक्ष बनएबाक
हमरा एकटा उद्देश्य छल ।'' ...... - ""से
की ? .... केन उद्देश्य ?'' - ""
ओहि समयमे
हिन्दी-साहित्य-संसारक लोक
बूझल करथि जे मैथिली-आन्दोलन
हिन्दीक विरुद्ध षड़यन्त्र थिक । हिन्दी।
ओ मैथिलीक बीच कटु संघर्ष चलि
रहल छलैक । हम एहि धारणाकें
निर्मूल करए चाहैत छलहुँ ।
अमरनाथबाबू ओहि समयमे
हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनक
अवोहरमे जे अधिवेशन भेल
रहैक, ताहिमे अध्यक्ष निर्वाचित कएल
गेल रहथि; तें हुनकहि
दरभंगामे आयोजित अधिवेशनक
अध्यक्ष बनाए मैथिली-विरोधी
लोकनिक आक्षेपक उत्तर देबाक चेष्टा
कएने रही ।'' - ""परिषद्क
मन्त्री रुपमे मैथिलीक विकासक
हेतु कोन-कोन उद्देश्यकें स्थिर कएने
रहिऐक ?'
- ""हमरा
समक्ष मूलत: दू गोट उद्देश्य छल -
प्रकाशन आ प्रचार । प्रकाशनक भार
रमानाथबाबू पर छलैन्हि आ
प्रचारक कार्य श्रीसुभद्र करैत छलाह
। ... हमरा समयमे गौरीशंकरझाक "मेघनाद
वध', ईशनाथबाबूक "शकुंतला'
(दोसर संस्करण), माला (दोसर
संस्करण), दीनबन्धुबाबूक "मिथिला-भाषा-विद्योतन',
रमानाथबाबू द्वारा सम्पादित "पद्य-संग्रह'
आदि कतिपय पोथीक प्रकाशन भेल
छलैक । सभ स्मरणो नहि अछि ।''
- ""विश्वविद्यालयमे
जे मैथिलीक प्रवेश भेलैक,
ताहिमे अपनेक की भूमिका रहल ?'' किंचित्
गम्भीर होइत तन्त्रनाथबाबू
कहलैन्हि - ""यद्यपि ऐहि हेतु
पहिनहुँ प्रयास भेल रहैक जे
विश्वविद्यालयक विभिन्न कक्षामे
मैथिलीकें स्थान भेटैक, मुदा सफल
श्रीगणेश कएल स्वर्गीय
महाराजाधिराज । हमरा अवसर
भेटल तखन, जखन हम पटना
विश्वविद्यालयक सिनेटक सदस्
भेलहुँ । अवसर-अनवसर सिनेटक
मिटिंगमे प्रस्ताव उपस्थित करी,
भाषण करी । एतबे नहि, कतेको बेर
तँ हमरा कथा-कथान्तर सेहो करए
पड़ल, यद्यपि से हमर संस्कार नहि
अछि, मुदा ओतए की करितहुँ ? हिन्दीक
महारथीलोकनिक सिनेटमे
प्रबलता रहैक, तें संघर्ष करए पड़ए,
सब किछु सहए पड़ए !' - ""एहि
प्रश्न पर सिनेटमे अपनेक संग
रहनिहार के सब छलाह ?'' हँसैत
बजलाह-विहुँसैत सन - ""ई
कहब कठिन जे हनकालोकनिक संग
हम रहिऐन्हि अथवा ओलोकनि
हमरा संग रहथि । असलमे, ओहि
समयमे हमरालोकनिक #ेक दल
रहए जे मैथिलीक पक्षमे सदा
संघर्ष करैत रहल । ओहि दलमे
रहथि सुभद्रबाबू, अवध
बिहारीबाबू,
कुमारगंगानन्दसिंह,
कुमारतारानन्दसिंह,
श्रीपरमाकान्तजी आदि ।'' - ""मैथिलीक
समर्थनमे आन वर्गक लोकमे के
सब रहथि ?'' - ""आन
वर्गमे बुझू तँ केओ नहि । हँ, तखन
हम मुसलमान ओ
बंगालीलोकनिक नाम अवश्य लेब ।
ताहूमे मुसलमान
सिनेटरलोकनि मैथिलीक हृदयसँ
समर्थन करथि, निर्भीक रुपें
मैथिलीक पक्षमे बाजथि । यद्यपि
बंगालीलोकनि हृदयसँ मैथिलीक
समर्थक रहथि, मुदा सरकारी
रुखिकें देखि चुप्प भए जाथि ।'' आस्ते-आस्ते
बहैत बसातमे तन्त्रनाथबाबूक
निश्छल, सरल मुखमण्डल आर अधिक
काव्यमय भए उठलन्हि अछि । हम अवसर
पाबिकए पुछैत छिऐन्हि - ""की "मुकुन्द'
अपनेक उपनाम थिकैक ?''
- ""उपनाम
नहि, मातृकक नाम थिक "मुकुन्द' ।
हम जे प्राचीन पदक अथवा भक्तिमूलक
रचना करैत छी तँ अन्तमे अपन
मातृकक नाम "मुकुन्द' दए दैत
छिऐक । तें अहाँलोकनिकें प्राय: भ्रम
भए गेल छल । .... कवितामे "मुकुन्द'
शब्द सहज रुपमे बैसि जाइत छैक आ
मातृकक नाम थिक, तें कवितामे जतए
नाम देबाक रहैत अछि, ओतए इएह
नाम दैत छिऐक ।''
- ""ओ आब
बूझल
! बेस, कहल जाए, अपने काव्य-रचना दिसि
कहिआसँ प्रवृत्त भेलिऐक?'' - ""ओना
सँ "साहित्य-पत्र' क प्रकाशनक संग
हमर "कीचक-वध' प्रकाशित होबए
लागल आ ओही क्रममे हम कविता
लिखब प्रारम्भ केलहुँ । मुदा,
ऐहिसँ पहिनहुँ जखन हम
इसकूलेमे पढ़ैत रही तँ कतोक
रचना, जे मूलत: हास्यरस-प्रधान
रहैत छल, व्यंग्य-वक्रोक्तिमूलक
होइत छल, जकरा कुकाव्य कि जे
काव्य कहऔक, से लिखैत रही । ...
नवगांवक एकटा छात्र रहथि ।
फैशनमे चूर । एक दिन ओ की अएलन्हि
तँ "फैशनेबुल' बनबाक चेष्टामे
टीक कटाए लेल । हम ओहि समयमे
आइ० ए० मे पढ़ैत रही । हुनकहि पर
एकटा कविता बनाए देलिएन्हि - "टीक-संहार'
। विद्यार्थी समुदायमे ओ रचना खूब
प्रचलित भेल रहए । एहिना बी० ए० मे
पढ़ैत रही तँ एकटा हास्य-रचना कएने
रहिऐक "बूड़िराजपूर्वजन्मोपाख्यान'
।'' ओहि दिन अस्पतालमे नत्थूबाबू
(किरणजी) एहि रचनाक स्मरण दिअओने
रहथि ।'' ....फेर तन्त्रनाथबाबूक अधर
पर एकटा हास्यक लहरि पसरि
गेलैन्हि । विहुँसैत बजलाह - "हँ
भने मोन पड़ल, से, मुदा
संस्कृतमे छैक । केहन संस्कृतमे
छैक-से देखिऔक !'' हमरालोकनिक
उत्सुकता बढि जाइत अछि - ""कहल
जाए, अवश्ये कहल जाए '' - ""हम
जखन एम० ए० मे पढ़ैत रही तँ बिजली
बराबरि झलफल करैत आबए आ
झलझल करैत चल जाए । आँखि से
खराब भए गेल रहए, तंग-तंग रहल
करी । ओही बीचमे अंग्रेजीक एकगोट
शिक्षक रहथि आक्टरलोनी, पटना
कालेजमे। ओ बत्ती आॅफ करबाक
हेतु जे स्वीच दबओलथिन्ह से
ओहीमे सटले रहि गेलाह ।
करेन्टसँ हुनक दु:खद निधन भए
गेल रहैन्हि । एहि सब घटनाक
प्रसंगमे "बिजली' पर
संस्कृतमे एकगोट काव्य-रचना कएने
रही, जकर किछु पाँती मोन अछि, से
सुनाए दैत छी - ""एलेक्ट्रीसीटीं
बन्देहं, अन्धकारविनाशिनीं
मा
फकफकातु भवती मा यातु
परमांगतिं आक्टरलोनी
प्राणहरे, त्वां नमामि पुन: पुन: ।'' तकर
बाद ओहीमे देवदत्त त्रिपाठी, जे
हमरालोकनिक संस्कृतक शिक्षक
रहथि ओ जे मासिक परीक्षाक
परीक्षक सेहो रहथि, तनिका पर
आगाँ लिखने रहिऐक - ""मया
न पठितं किञ्चित् ग्रामरं एकमच्छरम्
तथापि
देवदत्तेन दत्तं मार्क-चतुर्दशम्'' एहिना
कतेको समय-समय पर सखा-बन्धुक
मनोरंजनार्थ रचना करिऐक । ... ओ
सब की आब मोन अछि ! .... "मुसरीझा'
तँ अहाँसबकें पढ़ल होएत ?'' - ""ककरा
नहि पढ़ल होएतैक ?'' - ""ओकर
जे हम रचना कएने रही, से किएक, से
कहैत छी ।''
- ""जी''
- ""असले,
हमर माम म० म० डॉ गंगानाथझाक
अध्यक्षतामे राजइसकूलमे एक गोट
सभा भेल रहैक, जाहिमे
रमानाथबाबू एक गोट निबन्ध पढ़ने
रहथि - 'की विद्यापति वैष्णव छलाह ?'
'किछु हमरो पढ़बाक हेतु कहल
गेल छल । से, हमहूँ रातिमे जागि
के एकटा रचना लिखलहुँ आ सएह
भेल "मुसरीझा', जकरा हम
गंगाबाबूक समक्ष पहिले-पहिल
पढ़ने रही । ....'' - ""की
ओ एहि रचनाकें एप्रीसीएट" कएने
रहथिन्ह ?'' - ""देखू,
हुनकालोकनिक विचार-व्यवहार आ"
भंगिमा ततेक गम्भीर होइत
छलन्हि जे एहि सब प्रसंग किछु
बूझब कठिन । मुदा प्रसन्न तँ अवश्ये
भेल होएताह, कारण
दोबारा-तेबारा सुनने रहथि । ....
ई रचना तँ आब बेस लोकप्रिय भए
गेल अछि । "मुसरीझा "क आर
कतेक खण्ड बाकी छैक।'' - ""जी,
तँ ओकरा पूरा कए देल जाए ।''
- ""नहि,
पुनरावृत्ति भए जएतैक । आ" हमरा
ई बड़ अधलाह लगैत अछि एकहि
बातकें दोहराएब, पिष्टपेषण करब
। एहि सब प्रसंग कतेको रोचक
संस्मरण अछि, कतेक सुनाउ ।'' - ""तथापि
किछु कहल जाए ।'' - ""बेस, एकटा
सुनबैत छी । जा" धरि डा०
अमरनाथझा जिबैत रहलाह,
हमरालोकनिकें प्रोत्साहित करैत
रहलाह । जखन-जखन ओ दरभंगा
आबथि तँ हुनक डेरा पर एक गोट
कविगोष्ठी अवश्ये आयोजित होइक
। एहने-एहने कविगोष्ठीक हेतु हम
कतेको रचना कएने रही । .... हम
जखन "वर्षाघोष" सुनओलिएन्हि
तँ अमरनाथबाबू अत्यन्त आनन्दित भए
उठलाह आ ..... सामनेमे राखल बेंगक
आकारक एस्ट्रे" (Ash
Tray) हमरा
पुरस्कारक रुपमे देलैन्हि । तकरा
हम कतेको दिन धरि सुरक्षित
रखने रहिऐक । ... ई सब हुनकर
विनोदी प्रवृत्तिक परिचायक थिक ।'' - ""एहि
कवि-गोष्ठीमे कोन-कोन कवि
प्रमुख रुपें भाग लैत रहलाह ?''
- ""एहि
कविगोष्ठीमे कलक्टरसिंह "केसरी",
ईशनाथबाबू आ हम नियमित रुपँ
रहबे करी । तखन कहिओ काल अए
सम्पादकजी (सुमनजी) अथवा आन-आन
कवि सेहो उपस्थित भए जाथि ।'' - ""आ"
रमानाथबाबू, .... ओ कविता बनबैत
छलाह कि नहि ?'' - ""नहि,
ओ कहिओ कविताक रचना नहि कएल ।
उपस्थित धरि रहितहिं छलाह ।''
- ""
अच्छा, एकर संयोजक के रहैत छलाह ?''
तन्त्रनाथबाबू
हँसैत कहलन्हि - ""पुरहिताइ
तं हमही करैत छलिऐक, ..... अर्थात्
संयोजकत्व हमही करैत छलिऐक।'' वातावरम
हास्य-रससँ ओतप्रोत भए उठलैक अछि
।.... - ""दक्षिणाक
की व्यवस्था ?''
- ""हँ,
दक्षिणो रहैत छलक - एक प्लेट मधुर ।''
- ""खाली
गप्पे अओ ! चाह बनाउ" - गप्प सुनैत
पौत्रसब बैसल हरथिन्ह । एक गोटए
उठिकए चाह बनएबाक हेतु चल जाइत
रहलाह ।'' एतबहिमे,
डा० रमाकान्तपाछक अएलाह आ श्रद्धावनत
भेल कविवरक चरण पर मस्तक
राखि प्रणाम कए ताकमे बिछाओल
पटिआ पर बैसि रहलाह, गप्पक क्रम
भंग भए गेलैक । किछुकाल
हुनकहिसँ गप्प होइत रहलन्हि ।
बीचमे चाह-पान अएलैक आ फेर जखन
जाए लगलाह तँ पेर छूबिकए प्रणाम
करैत चल जाइत रहलाह । ....
तन्त्रनाथबाबूक विद्यार्थी थिकथिन्ह ! वातावरणमे
कारी-कारी रेख चारुकात तपसरि
गेलैक अछि । माने, साँझ किछु आर
अधिक घनगर भए उठलैक । नवम्बर
बीति रहल छैक ने, से किछु सिहकी
सेहो चलि रहल छैक । फेर
हमरालोकनि किछु गम्भीर आ
साकांक्ष भेल गप्पमे जुटि जाइत छी । - ""कहल
जाए "कीचक वध'क रचनाक की
पृष्ठभूमि? कोन कारण ?'' - ""
कीचक-वधक जे हम रचना कएल से
भाइक फरमाइश पर, "साहित्य-पत्र'क
हेतु । मुदा एकर एकटा पृष्ठभूमि अछि
। हम जखन एम० ए० मे परीक्षा देबाक
तैयारी करैत रही तँ हमर आँखि
खराप भए गेल रहए । जेना-तेना
परीक्षा दए हम कटिहार चल जाइत
रहलहुँ । ओते प्रसिद्ध रईश स्व०
उमानाथबाबू हमरा संग कए कलकत्ता
चल जाइत रहलाह । आँखिक चिकित्सा
चले लागल । एही बीच संयोगसँ
किरणजी सेहो भेटि गेलाह । ....
हमरा सिनेमासँ अरुचि, आँखिऔक
दुरवस्था-सबदिनसँ अरिचि अछि ।
मुदा ओहि समयसे कलकत्ता
रंगमंच सुप्रसिद्ध रहैक । नीक-नीक
नाटकक मंचन भेल करैक। हम आ
किरणजी ओहि नाटकसबकें खूब
देखल करी । एही प्रसंग एकटा बात
भेल ....'' - ""जी
से की '' ...
- ""ओहि
सममे कलकत्ताक रंगमंचक एकगोट
ख्यातनाम अभिनेता रहथि-शिशिर
भादुरी । ओ भीमक अभिनय कएल
करथि । हम हुनकर अभिनयसँ बड़
बेसी प्रभावित भेलहुँ आ तहिए
निश्चय कएल जे कीचक पर किछु लिखल
जएबाक चाही, कोनो वस्तु-आख्यान,
कथा, नाटक-कविता किछु अवश्य लिखब
आ" सेह भेल "कीचक-वध"क
पृष्ठभूमि ।'' - ""कीचक-वध"
मे अपने जे अमित्राक्षर-छन्दक प्रयोग
कएलिऐक, तकर की कारण ?'' - ""हँ,
एकरो कारण अछि । जखन "साहित्य-पत्र"क
प्रकाशन भेलैक तँ ताकि-ताकि
लेखकसबसँ रचना लिखाओल जाए
लगलैक । कविशेखरजी "एकावली-परिणय"
महाकाव्य लिखब प्रारम्भ कएलैन्हि ।
ईशनाथबाबू "शकुन्तला नाटक "क
अनुवाद करे लगलाह ।
अमरनाथबाबू गोविन्ददासक "शृंगार-भजनावली"
मे यत्नशील रहथि । गौरीशंकरझा
(उजान), दुर्गाधरझा आ दीनाबाबू
सेहो अपन-अपन लेखनमे लागि
गेलाह । .... मुदा ई लोकनि जे
कार्य करैत छलाह, से मूलत:
परम्पराक अनुसरणमे, सेहो
होएबाक चाही ओ तकर फरमाइश
हमरासँ कएल ।'' हम
देखि रहल छी, कविवरक
संवेदनशील मुखमण्डल क्रमहि
सतेज भए उठलैन्हि अछि । अठसठि वर्षक
अनुभूति, अठसठि वर्षक इतिहास !
हम चकित भेल बैसल छी । - ""जी
तकर बाद ।''
- ""हम
बहुत पहिनहिं माइकेल
मधुसूधनदत्तक "मेघनाद वध"
पढ़ने रही । प्रभावित भेल रही ।
ओही समयमे अमित्राक्षर-छन्द हमरा
आकर्षित कएने रहए । हम ओही छन्द मे "कीचक-वध"क
किछु प्रारम्भिक पाँती लिखने रही ।
भाईकें देखए देलिऐन्हि । ओ रहथि
साहित्य-मर्मज्ञ । जे वस्तु एकबेर
पसिन्न पड़ि जाइन्हि, जाहिं वस्तुसँ
ओ एकबेर प्रभावित भए जाथि ओ से
सर्वथा प्रिय लगैन्हि, आ" लागि
पड़लाह एकरा पाछाँ । जेना-तेना
किछु सर्ग "साहित्य-पत्र" मे
प्रकाशित भेलैक आ ओकर बन्द भए
गेलाक बाद निरुत्साहित भए गेलहुँ
.... अन्तत: पच्चीस वर्षक बाद ओ पूर्ण
भए सकल ।'' - ""जी,
पच्चीस नहि, तैंतालीस वर्षक बाद ।''
....
तन्त्रनाथबाबू
भभा-भभाकए हँसए लगलाह - ""ठीके
कहलहुँ । एहि वर्षक (१९७६क)
संस्करणमे फेर एक सर्ग जोड़ि
देलिऐक । आब सब किछु पूर्ण भए
गेलैक । असलमे भेलैक कि तँ हम
एकठाम निर्देश कए देने रहिऐक जे
अर्जुनक संग समस्या पर
विचार-विमर्श होइत छैन्हि, मुदा
से पूर्वक संस्करणमे वर्णन नहि
कएने रहिऐक । यद्यपि योजना छल,
मुदा की भेलैक की नहि, से नहि कए
सकलिऐक । पछाति विभूतिबाबू
जखन - "कीचक-वध" पढ़लैन्हि तँ
कहलैन्हि तँ कहलैन्हि जे ओकरहु
समावेश कए दिऔक । .... तँ आठम
सर्गक बाद एक नव सर्ग दशम सर्ग भए
गेलैक ।'' - ""जी,
कहल जाए, तैंतालीस वर्षक
अन्तरालमे "कीचक वध"क रचना
सम्पन्न भेलैक । अपने भिन्न-भिन्न वएस
ओ परिस्थितिमे एकर रचना कएलिऐक ।
की ऐहना स्थितमे एकतानताक निर्वाह
अपने कए सकलिऐक ?'' - ""देखू,
एहि प्रश्नक उत्तर आलोचके दए सकैत
छथि । हम की कहब ? हम तँ एतबे
कहब जे अपना जनैत हम पूर्ण प्रयास
कएने छिऐक । ताहिमे सफल छी अथवा
की छी, से हम कोना कहब ?'' - ""जी,
कहल जाए 'कृष्ण-चरित' (प्रबन्ध-काव्य)क
की पृष्ठभूमि, की इतिहास?'' - ""अओ,
जखन हम कालेजसँ अवकाश ग्रहण कएल
तँ हम किछु-किछु रचना करैत
रहबाक संकल्प लेल !''
- ""जी,
समय कटबाक हेतु !'' - ""नहि,
समयकें हम की कटबैक ओ तं स्वयं
कटि जएतैक ।'' तन्त्रनाथबाबू हँसैत
बजलाह । फैर गम्भीर होइत
कहलन्हि ""समयक सदुपयोग
करबाक हेतु।'' - ""जी,
से ठीके '' ....
- ""देखू,
हम "कृष्ण-चरित' क रचना एकटा
विस्तृत योजनाक संग कएने रही ।
मुदा, जखन आँखि खराप होबए
लागल, अस्वस्थ रहए लगलहुँ तँ तखन
जे-जेना जतबे छल, से प्रकाशित
करबाए देलिऐक । .... हम तँ कृष्णक
सम्पूर्ण चरित लिकबाक योजनामे
रही, मुदा से भए नहि सकल।''
- ""अपने कृष्णकें
कोन रुपमे मानैत छिऐन्हि - मनुष्य,
देवता, भगवान, रसिक अथवा
योगिराज ?''
- ""हम
तँ भगवानहिक रुपमे मानैत
अएलिऐन्हि अछि, भगवान अवतारक
रुपमे ।''
- ""अपने
बृद्धावस्थामे कृष्णक
किशोरावस्थाक चित्रण कएल अछि । की
एहिमे कोनो कठिनात अनुभव
भेलैक ?'' - ""नहि,
कोनो कठिनातक अनुभव नहि ।
वृद्धावस्था रहनकि की, हृदय तँ अछि !''
- ""की
अपने छात्र-जगतमे व्याप्त
अनुशासनहीनताकें देखैत एहि
तरहक रचना करबा दिसि प्रवृत्त
भेलिऐक ?'' - ""
भए सकैत अछि, बेल होइऐक । ...
मुदा, कोनो तेहन योजना नहि
छल, कोनो तेहन उद्देश्य नहि, उद्देश्य
तँ कृष्णक एकटा दुर्लभ किन्तु उपेक्षित
चरित्र मात्रकें प्रस्तुत करबाक छल ।
ओना सुभद्र तँ सएह कहि गेलाह अछि।
आनो-जानो वयक्ति इएह कहैत छथि ।
आब अहाँलोकनि जे बुझी, जे
कहिऔक । हमरा जे कहबाक अछि, से
कहि देने छिऐक ।''
- ""रामक
चरित्रकें नहि प्रस्तुत कए कृष्णक
चरित्रकें प्रस्तुत करबाक की कारण ?''
- ""अओ,
असलमे रामक चरित्र एकरुपक छैन्हि,
विविधता नहि भेटत । ... मुदा
कवितामे तँ विविधता, मौलिकता
चाही । से, कृष्णक चरित्रमे छैन्हि ।
हुनक चरित्र "वैरिड' छन्हि । ते
आकर्षित भेल होइ, से सम्भव।'' - ""मंगल-पंचाशिका
क' प्रसंग ... माने, एकर रचनाक कारण ?'' - ""हँ,
एकरो कारण अछि । हम जखन "कृष्णचरित'
लिखिए लगलहुँ तँ ओहिमे मंगलक
पद बड़ थोड़ देलिऐक, बड़ साधारण,
मुदा आन वर्णन प्रचुर होअए लगलैक ।
मध्यमे अस्वस्थ सेहो भए गेलहुँ ।
तें पृथक रुपमे किछु मंगलक पद
लिखलहुँ जकर मंगल रुप
कृष्णचरितमे समावेश कए देबैक ।
से होइत-होइत पचासटा भए गेल ।
पहिने विचार रहए जे कृष्ण मात्रसँ
सम्बन्धित मंगलक पद रहतैक । मुदा
बादमे सोचल जे एही आधार पर
पछाति लोक हमरा कण्ठमलिआ ने
सिद्ध कए दिअए ।'' वातावरणमे
हल्लुक-हल्लुक हास चारुकात छिड़िआ
गेलैक । - ""जी,
तें आनो देवताक प्रसंग मंगलक पद
जोड़ि देल गेलैक । नीके भेलैक
अपने आ माछ !''
- ""हँ-हँ,
अवश्ये किने ? अनेरे लोक कण्ठमलिआ
मानि लैत !'' - ""एकांकी-चयनिका "क
प्रणयन कोन पृष्ठभूमि आ
परिस्थितिमे भेल रहैक ?'' - ""देखू,
एक तँ हम कोनो रचना योजना
बनाकए अथवा तेना भए कए कहिओ नहि
कएल । जे-जेना भेल, से भेल । मुदा
एकांकीक रचना तँ आओर स्वाभाविक
रुपसँ भेल रहैक ।''
- ""जी,
से कोना ?''
- ""हम
१९४० ई० मे डिप०-इन-एड०क प्रशिक्षण लैत
रही पटनामे आ हमर अनुज
श्रीशचीनाथ ओतहि साइन्स
कालेजमे पढ़ैत रहथि । ओ
कैभेन्डिस हाउस (होस्टल)क प्रिफेक्ट
सेहो छलाह । होस्टलक
वार्षिकोत्सवक अवसर पर एकगोट
मैथिलीमे एकांकीक मंचन करबाक
हिनकालोकनिक आयोजन छल ।
शचीनात हमरासँ एकटा एकांकी लिखि
देबाक आग्रह कएने रहथि । हमहुँ
कालेज-छात्रक उपयुक्त एकगोट एकांकी
लिखल ओ कएह भेल "कओलेजक
प्रवेश' । तहिना सम्पादकजी "मिथिला-मिहिर'क "होलिकांक'
प्रकाशित करैत रहथि । एहि अंकमे
प्रकाशनार्थ एक गोट एकांकी लिखि
देबाक ओ बराबरी आग्रह करथि ।
हुनकहि आग्रहें लिखल "उपनायक
भोज', जे १९४६क मिहिरक
होलिकांकमे प्रकाशित भेल ।
...तकर बाद की भेलैक से सुनू, ओ
तँ आओर रोचक घटना अछि ।'' - ""अवश्ये,
सुनाओल जाए ।''
- ""जखन
मैट्रिकमे मातृभाषा द्वितीय-पत्रक
रुपमे मैथिलीकँ मान्यता भेटि
गेलैक तँ "सत्य-हरिश्चन्द्र' नाटकक
अनुरुप एक गोट पुस्तकक प्रयोजन
पड़लैक । मैथिलीमे कोर्सनिर्धारण
समय समस्या भए गेल । अन्तमे
विचारल जे किछु लेकखलोकनिसँ
एकांकी लिखाए एकगोट एकांकी-संग्रह
प्रकाशित करबाए देबैक । तें हम "एकांकी-चयनिका'क
नाम प्रस्तावित के देलिऐक । डा०
माहेश्वरीसिंह "महेश' सेहो
पाठ्य-पुस्तक-निर्धारण-समितिक
सदस्य रहथि । ओ लेखक-रुपमे
हमरे नामक प्रस्ताव कए देल ।
नामकरणो हुके थिकैन्हि । अन्तमे
हमरा विवश भए शीघ्रतासँ तीन
गोट आओर एकांकी लिखि "एकांकी-चयनिका'क
नामसँ अपन सभ एकांकीक संग्रह
प्रकाशित करे पड़ल ।'' - ""नमस्या"मे
संकलित "कौआ', "कुकूर', "ताक्र्ष्य'
आदि रचना की कोनो
व्यक्तिविशेषकें लक्ष्य कए लिखल
गेलैक अछि ?'' - ""कविता
की थिक? जीवन-यात्राक विराट
अनुभूतिक अभिव्यक्ति, तें तकर "धाही'
कतहु प्रकट भए गेल होएतैक । हम
तकरा स्वाभाविके बुझैत छी ।'' जखन "प्रायाणालाप'
क चर्चा चलत तँ तन्त्रनाथ बाबू किछु
विसरल बातकें मोन पाड़ैत
कहलन्हि - ""बुझलहुँ, ई
रचना चलैत-चलैत, "बस' पर
मुख्यत: कएल ।'' - ""हमरालोकनिक
उत्सुकता बढि जाइत अछि ।...... - ""जी,
से कोना ? .....
- ""हमरा
बिहार विश्वविद्यालयक एकटा
परीक्षा-सम्बन्धी कार्यक हेतु
मुजफ्फरपुर दिनानुदिन जाए पड़ए आ
आबए पड़ए । बसमे एकसरे
बैसल-बैसल की करैत रहू ।
कखनो काल खेतकें देखई, गाछीकें
देखी, गाछीकें देखी, कतहु-सँ-कतहु
चल जाइत धारकें देखी । मुदा, कतेक
दिन ई सब देखू ?। तें
बैसल-बैसल कतेको तरहक भाव
चक्कर काटए लागल आ इएह भाव-भूमि "प्रायाणालाप'क
कारण बनल ।' - ""की "प्रायाणालाप'
अपनेक जीवनक तीव्र अनुभूतिक
अभिव्यक्ति थिक ? एहि सम्बन्धमे अपनेक
की प्रतिक्रिया ?'' - ""भए
सकैत अछि । ...मुदा जीवनमे की
कोनो एकहि तरहक अनुभूति होइत
छैक ? ई तँ एकटा रेखाकें जगमगा
देने अछि । जेना हाथमे औं ठी चमकैत
रहैत छैक, तहिना जीवनक कोनो
प्रकाश, कोनो रेखा एहिमे उभड़ि आएल
हो, से भए सकैत अछि, होइत छैक
एना ।'' एतबहिमे
तन्त्रनाथबाबूकें जेना कोनो
बिसरल बात मन पड़ि गेलैन्हि,
आह्मलादित होइत कहलैन्हि - ""एका
विलक्षण घटना कहैत छी, सुभद्रक
प्रसंग । मधुबनीमे कोनो
मैथिलीक सभा होइत रहैक ।
सुभद्रक सासुर थिकैन्हि भुसकौल
। हमरा की फुरल-ने-फुरल, हम
ओहीठाम बैसल-बैसल सुभद्रक
सासुर पर कविता बनाए लेल ।
शीर्षक देलिऐक - "भुसकोलक
गोआरि' । हम "देबू' (डा० उग्रनाथझा)
कें पढ़ए दए देलिऐन्हि । देबू मंच पर
जोर-जोरसं पढ़ए लगलाह । किदन
तँ कविता रहैक - ""बेचए
नितदिन ..... ""थम्हू-थम्हू,
हम कहैत छिऐन्हि'' -उग्रनाथबाबू गप्प
सूनि धड़फड़ाएल-सन घरसँ बहार
अएलाह । ""देखू, ओही टोनमे
हम कहैत छी जाहि टोनमे ओतए
पढ़ने रहिएक - तिरहुति
विच भुसकौल गाममे, वास करै
छलि एक गोआरि । दूध
बनीचि गु करइत छलि, अपन
काजमे छलि होसिआरि ।। ""
तन्त्रनाथबाबू
कविताक पाँती सूनि-सूनि
विहुँसैत रहथि । पुन: मुखर
होइत कहलन्हि - ""आब सुभद्रक
दशा सुनू, कातमे बैसल रहथि,
बैसले-बैसले रहथि,
बैसले-बैसले पहिने किछु
बजलाह, केओ नहि सुनलकैन्हि तं
ठाढ़ भए गेलाह, तखन हाथ चमकबैत
बजलाह - ""अओ बटुक! की अनर्थ
करैत छी । अनके पर खाली, -अनके
सासुर पर ! कनेक 'सरिसबक साग'
पर कहिऔक, 'सरिसबक सागो' पर
किछु कहिऔक
!'' सुभद्रबाबू
व्यञ्जनामे बाजल रहथि ।
तन्त्रनाथबाबूक विवाह सरिसब, से
जखन बूझल भेल तँ हमरालोकनिक
गप्प-मंडलीमे हँसीक फब्बारा
फूटि पड़लैक । जखन
हँसीक वेग थम्हल तँ तन्त्रनाथबाबू
गम्भीर होइत कहलन्हि - ""आब
तँ ओहन लोक भेटितहुँ ने अछि ।
सुभद्रे छथि । बड़ सोझ हृदय रखैत
छथि ।'' हम
देखि रहल छी जे गप्पक क्रम खूब जमि
गेल अछि । कखनहुँ कविक
अनुभूतिजन्य उच्छ्वाससं गप्पक तरंग
बढ़ैत अछि तँ कखनहुँ
हास्य-विनोदसँ वातावरण
रसमय भए उठैत अछि । हम किछु
उत्साहित होइत पुछैत छिऐन्हि - ""कहल
जाए, अपनेक समकालीन
कविलोकनिकमे कोन कवि अपनेक
दृष्टिमे सर्वश्रेष्ठ छथि ?'' - ""हमर
समसामयिक कविलोकनिमे बहुत
एहन छथि, जनिका पर सत्ये गर्व अछि,
जनिक कवितासँ हम आह्मलादित छी,
सब प्रतिभावन, सब तेजस्वी, सब
श्रेष्ठ । के बड़ छोट कहत ? सबकें हम
एके मालाक फूल मानैत छिऐन्हि ।'' - ""फूल
तँ छथि मुदा सुमेरु के छथि ?'' ....
- ""केओ
नहि, अनेरे किछु कहि देब से नहि ।
केओ कोनो दृष्टिसँ श्रेष्ठ, केओ
कोनो क्षेत्रमे श्रेष्ठ !''
- ""बेस,
कहल जाए जे अपनेक समसामयिक
कविलोकनिक पुस्तक पसरल
रहैन्हि तँ ओहिमे सबसँ पहिने
किनक पुस्तक अपने उठएबैन्हि ?''
- ""जनिकर
पुस्तकक दाम सबसँ कम रहतैन्हि !''
- ""वातावरणमे
खूब जोरसँ हँसी उठलैक । अपनहुँ
हँसलाह, हमरोलोकनि हँसैत
रहलहुँ । ... पुन: किछु साकांक्ष
होइत पुछलिऐन्हि - ""जी, कहल
जा#े, कोन कविमे की विशेषता
छैन्हि ?'' - ""हँ,
से कहि सकैत छी । ... "सुमन'जीक
कवितामे सूक्ष्म कल्पना छैन्हि,
चमत्कारपूर्ण भावक अभिव्यञ्जना
छैन्हि, पाण्डित्य छैन्हि ।
संस्कृत-श्लोकक स्वाद हुनक
कवितामे भेटैत अछि । ....
जीवनाथबाबूक कविता पण्डिताम
होइत छैन्हि । यात्रीजीक कवितामे
प्रवाह छैन्हि, प्रकृति-कवि छथि । ... "भुवन'जीक
कविता आह्मलादक । तहिना कविवर
सीतारामझ, अच्युतानन्ददत्त,
परमानन्ददत्त, जनसीदनजीक
कवितामे सहल-सहज-भावक
अभिव्यञ्जना भेटत ।
हरिमोहनबाबूक रचनामे
हास्य-व्यंग्य छैन्हि, विशेष
मनोरंजन करैत अछि । हमर
अनुसामयिक गोविन्दजीक रचना
सेहो हमरा प्रिय अछि । मुदा
हुनकामे नाटककारक अद्भुत
प्रतिभा छैन्हि । रमाकरजी ओ "मोहन'जीक
कविता हमरा प्रिय अछि । "अमर'जीक
कविताकें मंच पर सुनबाक अवसर
भेटल अछि । पुस्तक की छैन्हि, से ज्ञात
नहि । मुदा प्रतिभाशाली कवि छथि ।
व्यासजीक कविता सेहो हमरा बड़
प्रिय अछि ।'' - ""आ
मधुपजी ?''
- ""ओ
मूलत: कवि छथि, मूलत: कि
सम्पूर्ण रुपमे कवि छथि । यद्यपि
फिल्मी धूनि पर सेहो हुनक रचना
छैन्हि । "टटका जिलेबी' आ "अपूर्व
रसगुल्ला' सेहो छैन्हि आ" "राधा-विरह'
महाकाव्य सेहो लिखने छथि ।
मुदा, एक शब्दमे इएह बूझि लिअ जे
अपन जीनव-यात्राक प्रत्येक बिन्दु पर
ओ कवि रहलाह अछि ।'' - ""की
ईशनाथ बाबूमे अनुवादकक प्रतिभा
अधि रहैन्हि ?''
- ""नहि,
से त्थय नहि थिक। ... यद्यपि आरम्भ तँ
कएलैन्हि अनुवादकक रुपमे, मुदा
बादमे जखन ओ मौलिक रचना करए
लगलाह तँ हुनक कवि-हृदयक
मार्मिक अभिव्यक्ति होअए लागल।
जेहने स्वर तेहने भावक लालित्य !
की कहल जाए! एकटा ओ धारा छलाह,
अपनहि संग #ो दारकें लए के चल
जाईत रहलाह।'' - ""आ'
किरणजी, ओ कवि छथि ?'' - ""हँ,
किएक नहि ! निश्चय !! बड़ बढिआँ कवि
छथि। असलमे कविए छथि।
ठाँहि-पठाँहि सब वस्तु
कहनिहार, किरणजीक विलक्षण
व्यक्तित्व रहलैन्हि अछि !'' - ""की
किरणजीक महादेव अपनेकें पसिन्न
पड़ैत छथि ?''
- ""नहि,
एहिसबमे हम हुनकासँ सहमत
नहि छी। हम नास्तिक नहि, आस्तिक छी।
साफ शब्दमे विदेश्वरकें सम्बोधित
करैत लिखि देने छिऐक-"मालिक
हमर विदेसरनाथ" । ... मुदा,
किरणजीक जे महादेव छैन्हि, तकर
अर्थ दोसर छैक ।'' - ""जी,
से की ?....''
- ""ओ
तँ प्रतीकमे कहने छथि। हुनका तँ
सामाजिक रुढिवादिता पर आक्षेप
करबाक छैन्हि। से ओ कएलैन्हि अछि
महादेवकें प्रतीक बनाए। एहिमे अनर्थे
की ? इएह तँ थिकैक कविता, कविक
विशेषता, कविताक चमत्कार !'' - ""किछु
गोटेक कहब छैन्हि जे मैथिली
कवितामे "भुवने"जी नवीनता
अनलैनिह। एहि मतसँ अपने सहमत
छिऐक?'' - ""पूर्ण
सहमत छिऐक, किऐक नहि सहमत
रहबैक? आन गोटए रिचर्स करताह
तखन कहताह जे भुनजी नवीनता
अनलैन्हि अथवा नहि। मुदा हम तँ
ओही युगक थिकहुं। हम तँ "फील'
कएनै छी। खण्डबलाकुलक रहितहुँ
जाहि तरहक ओ रचना कएल, से तकर
प्रमाण थिक। '' - ""प्राय:
कोनो नहि। किछु
हरिमोहनबाबूक रचना सुनल
अछि। हुनक किछु कथा-उपन्यास केओ
सुनाए देने रहए, मनोरंजक हेतु,
समाज-सुधारक हेतु आ मैथिलीकें
लोकप्रिय बनएबाक हेतु प्रशंस्नीय
छैन्हि ।''
- ""की
हरिमोहन बाबूक रचनासँ
मैथिल संस्कृतिक उपकार होएतैक
अथवा अपकार ?'' - ""अओ,
अपकार किएक होएतैक, उपकारे ने
ओएतैक! ओहन रचनासँ संस्कृतिकें,
समाजकें, व्यक्तिकें चेतना भेटैक
छैक, दिशाक ज्ञान होइत छैक, दृष्टि
भेटैत छैक।'' - ""अपने
किनकर-किनकर कथाकें पढ़ने छऐन्हि ?''
- ""पढ़ने
होएबैन्हि । मुदा, बहुत थोड़, थोड़
कथा पढ़ने छी, केओ सुनाए देने
होथि तँ सूनि लेने होएबैन्हि,
सएह। मोन नहि अछि।''
- ""अपने
नवीन पीढ़ीक कोन-कोन
साहित्यकारसँ अधिक आशान्वित छी ?''
- ""हम
तँ तेना भए कए चिन्हितौ ने
छिऐन्हि-के लिखैत छथि, की लिखैत
छथि ? तखन की कहू? केओ आबि के
कहलक जे सुधांशु शेखर चौधरी
नीक लिखैत छथि, तँ हमरा भेल जे
होएताह लिखैत, नीके लिखैत
होएताह। .... तहिना केओ कहलक जे
हमर सहधर्मी-आत्मीय स्व०
चन्द्रशेखरबाबूक पुत्र ललित आ
जमाय मायानन्द साहित्यकार भए
गेल छथिन्ह, तँ मानि लेल जे
साहित्यकार भए होएथिन्ह। तहिना ''... - ""जी,
कहल जाए .....''
- ""तहिना
केओ कहलक जे चनौरक
बटेशबाबूक सुपुत्र छत्रानन्दसिंहझ
हास्य-व्यंग्य लिखैत छथि तँ मानि
लेल जे होएताह लिखैत,
हास्ये-व्यंग्य लिखैत होएताह। ...
एही ठाम हमर एक गोट भागिन
छथि-मन्त्रनाथ, मिथिला-कालेजमे
प्राध्यापक लोक हंसराज कहैत
छैन्हि। सुनैत छिऐन्हि ओहो
साहित्यकार पए गेलाह अछि। हम तँ
एक्कोटा पुस्तक कि रचना ने
देखलिऐन्हि अछि, आ ने सुनलिऐन्हि
अछि।'' फेर किछु विहुँसैत
तन्त्रनाथबाबू बजलाह .. अओ ! पहिने
एकटा विषय फरिछा लिअ ।'' - ""जी,
से की ?''....
- ""हमरा
अहाँलोकनि की बूझि कए प्रश्न कएने
जाइत छी ?''
- ""की
बूझिकए, माने ....?''
- ""हमरा
तँ लगैत अछइ जे अहाँलोकनि हमरा
मैथिलीक मास्टर बूझि कए प्रश्न पूछि
रहल होइ ।''
- ""वातावरणमे
एकटा सरल-सहज मुस्कान छिड़िआ
उठलैक। मुस्कान रेख अधर पर बनले
रहलैन्हि। बजलाह - ""अओ,
हमरा कहिओ ई सब
पढ़बा-लिखबाक अवसर भेटल? सब
दिन तँ मैथिली आन्दोलन आ
सिनेट-सिण्डीकेटमे लागल
रहलहुँ। कोनहुना अपन किछु
रचना लिखि सकलहुँ। ... आ जाब जँ
समय भेटितहुँ अछि तँ मैथिलीक
उपन्यास आ कथा-पिहानी पढ़लासँ
हमरा की भेटत? हम जे ई रचना
पढ़ब से कालिदासक रचना नहि पढि
होएत? एखन देखितहि छी,
देवीभागवतमे लागल छी।'' ... फेर
अमरनाथ दिसि अभिमुख होइत
बजलाह - ''अओ, अहीं कहू, अहींक चाही
एकटा द्रौपदी हम पढि सकलहुँ ?
तखन तँ अहाँ जे सुना देलहुँ, से
सुनि लेलहुँ ।'' - ""से
तँ ययार्थ ! ... मुदा जँ अपनेक रचनाक
प्रसंग .. लोक एहिना सोचए ?'' - ""सोचि
सकैत अछि। जकरा रुचतैक कएह ने पढ़त
? नहि रुचतैक तँ किएक पढ़त ? पहिनहिं
कहलुहँ कविकें तँ रचना लिखबा
काल जे आनन्द भेटैत छैक, सएह
थिकैक ओकर पुरस्कार ! ... .तखन
केओ पढ़लकैक, नहि पढ़लकैक, तँ
ताहिसँ प्रयोजने की ?'' - ""बेस,
कहल जाए, मैथिलीक सर्वश्रेष्ठ
महाकाव्य कोन थिक ?'' - ""एकावली-परिणय
!''
- ""से
किएक ?''
- ""एहिमे
ओ सबगुण अछि जे एकटा श्रेष्ठ
महाकाव्यमे रहबाक चाही ।.... ओना
आनो महाकाव्य मैथिलीक
गौरव-ग्रन्थ कहाए सकैत अछि, जेना, - "सुभद्राहरण'
महाकाव्य, "राधाविरह'
महाकाव्य आदि ।'' - ""रमानाथबाबूक
निधनसँ अपने रिक्तताक अनुभव करैत
छिऐक ?''
- ""भाइक
प्रसंग हम कहबे की करु ? हुनकहि
प्रेरणा पर सब किछु लिखैत
रहलहुँ हुनकहि स्मृतिक बलें
लिखैत छी।'' ... तन्त्रनाथबाबूक आँखइक
कोर छलछला उठलैन्हि - ""जा
धरि #ो जिबैत रहलाह,
समय-समय पर हमरा फरमाइसि
करथि - एहन लिखू, एहि तरहक लिखू।
प्रकाशनसँ पूर्व हमर प्रत्येक
रचनाकें देखल करथि। आब नहि छथि।
रचना करैत छी। के देखत, के बूझत ?
एहिसँ बढि कए रिक्तातक की अनुभव
होएत ?"" तकरा
बाद प्रसंग उठि गेलैक किर्तनियाँ
नाच पर। हम किछु सजग होइत
पुछैत छिऐनि - ""अपनेकें तँ
किर्तनियाँ नाच देखल होएत ? कहल
जाए, किर्तनियाँ-नाच थिकैक अथवा
नाटक ?'' - ""हमरा किर्तनियाँ
नाच खूब नीक जकाँ देखल अछि, सब
काज-करतेवतामे देखल अछि। होइत
की छलैक तकर वर्णन अहाँलोकनिकें
कहैत छी ।''
- ""जी,
कहल जाए .....''
- ""एकटा
नायक रहैत छलैक-दूटा स्री पात्र
रहैत छलैक ।''
- ""स्री
वस्तुत: स्री रहैत छलैक ?''
- ""नहि,
पुरुषे स्री बनैत छलैक । मृदंगिआ
रहैत छलैक। मंजारीबाला रहैत
छलैक। कठताल लए कए विपटा रहैत
छलैक। शुद्ध कए नाच होइत छलैक।
...हम अपन देखल, अपन आँखिसँ
देखलाक आधार पर कहैत छी जे
किर्तनियाँ-नाच थिकैक, नाच !''
- ""मैथिलीमे
शैलीक प्रसंग अपनेक की दृष्टिकोण,
की मन्तव्य ?''
- ""एहि
प्रसंग हमर मन्तव्य स्पष्ट अछि । "साहित्य-पत्र'क
जे शैली छलैक, सहए हमर शैली
थिक, हम जे लिखब से ओहिना, आन
जेना जे लिखिए, अशुद्ध नहि कहबैक ।'' - ""एतादृश
कट्टरता कोन कारण ?''....
- ""एहिमे
कट्टरता की ? ई तँ हमर विचार
थिक। कोनो समृद्धिशाली भाषाक
शैलीमे एकरुपता आ एकटा स्तर होएब
आवश्यक। एही दृष्टिएं
रमानाथबाबू "साहित्य-पत्र'क
प्रकाशनसँ पूर्व ताहि दिनक
विद्वानलोकनिक सम्मति लए, एक गोट
शैलीक निरधारण कएने रहथि ओ
तकरे हमरालोकनि पालन करैत
छी। .... एहि शैलीसँ सम्बन्धित
व्याकरण आ भाषाशास्रीय समस्याक
समाधान श्रीसुभद्र कए सकैत छथि।
हुनकहिसँ पुछबैन्हि।'' एकर
बाद हमरोलोकनि प्रश्नक झड़ी लगा
दैत छिऐन्हि ।....
- ""अपनेकें
फूल नीक लगैत अछि कि काँट ?''
- ""काँट
किएक नीक लागत ? फूल लीक लगैत अछि,
फूल !''
- ""अपनेकें
चन्द्रमा नीक लगैत छथि कि सूर्य ?'' - ""चन्द्रमा
आ सूर्य दुनू नीक लगैत छथि। ...
मुदा जेठ मासक सूर्य ककरा नीक
लगतैक आ माघ मासक सूर्य ककरा
नही रुचतैक ?'' - ""अपनेकें
झमाझम बरिसैत बर्षाक झड़ी नीक
लगैत अछि कि वसन्तक माधवीलता आ
अशोकक फूल ?'' - ""दुनू
नीक लगैत अछि। मुदा ने वर्षाक
भयानक गर्जन-तर्जनमे बितैत अन्हार
राति नीक लगैत अछि आ ने वसन्तमे
माटिभरल नचैत विरड़ो ! असलमे
हमरा हेतु ॠतु नहि छैक, ॠतुक
हेतु हम छी। जखन जेहन ॠतु तखन
तेहन परिधान। "एडजस्ट' तँ करहि
पड़त ! .... हे एतैक कालमे हमरा इएह
सब प्रश्न नीक लागल अछि। एकरे सभक
उत्तर हम नीक जकाँ दए सकैत छी।
कोनो तारतम्य नहि। ... ओ केहन
लिखैत छथि ? ई केहन लिखैत छथि ?
से हम की जानए गेलिऐन्हि !'' - ""जी,
ठीके ... उचिते। कहल जाए, अपनेक
जीवनक कोनो एहन अविस्मरणीय
घटना रहलैक अछि ?''
- ""नहि,
से सब किछु नहि, से कोनो
घटना नहि। ओनो तँ जीवनयात्राक
क्रममे छोट-पैघ टीला-पहाड़ आ
मरुस्थल भेटितहिं छैक, छाया, झरना
आ सुरभित उद्यान अबितहिं छैक। मुदा,
से की कहू ? की मोन राखू, कतेक
मोन राखू ?'' - ""बेस,
अपनेक कोनो एहन इच्छा अछि, जकर
पूर्कित्त नहि भेल रहए? कोनो एहन
कचोट ?'' - ""नहि,
सब इच्छाक पूर्कित्त भेल वा नहि भेल,
कोनो आक्रोश नहि अछि ... आब तँ हम
अनन्त इच्छाक अन्तिम बिन्दु पर ठाड़ छी ।'' - ""अपने
अपन जीवनक विराट अनुभवक आधार
पर कहल जाए जे अपने की प्राप्त कएल ?''
- ""से,
तकर लेखा-जोखा करबाक समय एखन
नहि आएल अछि। एखन तीन-चारि वर्ष आर
जीबाक अछि, बुझल किने ?''
- ""जी,
से अवश्ये; "जीवेम शरद:
शतम्' ! अपनेलोकनिक छायातर एखन
कतेको फूल-पात विकसित होएतैक।
.... अपनेलोकनि वर्ष-वर्ष जिबैक
रहिऐक - हमरालोकनिकें
आशीर्वाद दैत रहिऐक !'' -
""हँ-हँ, अवश्ये-अवश्ये किने !
आब तँ हमरालोकनि आशीर्वाद ने
देब ! कखन गलैत-गलैत साँझ
भेटा गेलैक, से बुझबो ने
कएलिऐक।'' ....
चारु काल अन्हार पसरि गेल रहैक।
काल्हि दिआबाती थिकैक ने, से आइओ
खूब घनगर अन्हार लागि रहल अछि ।
.... - ""आइ
अपनेकें बड़ कष्ट देल ।''
- ""अओ,
एहिमे कष्ट की ? कहू तँ ! कतेक
आनन्दसँ समय बीतल ! केओ आबिकें
अनेरे समय बिता दैत अछि आ आई तँ
साहित्यिक तरंगमे डूबल
रहलहुँ। जीवनमे छैके की ? इएह
तँ असल रस थिकैक ! कविताक सबसँ
पैघ इएह ने सार्थकता ! साहित्यक
सबसँ पैघ इएह ने विशेषता !
कोनो लीन कएने छल ?'' - ""जी,
से सत्ये, .... आब जँ आज्ञा होइत !'' - ""बेस,
फेर भेट दी। हँ, एकटा बात तँ
बिसरिए गेलहुँ। बिना "सेन्सरे'
नहि छपाएब'' ! फेर हँसैत कहलन्हि
- "जे जेना हो, लीखि देबैक। हम
की देखब, की देखाएब?'' से,
ओहि दिन तकर बाद पाएर छूबिकें
प्रणाम करैत विदा भए गेल रही।
विशाल काय, विशाल आँखि आ
विशाल हृदय-विशालताक एहन सहज
समन्वय ककरहु आकर्षित कए सकैत
छैक ! ... दुनू गोटए मौन भेल सड़क
पर विदा भए गेल छी बीतल आनन्दक
क्षणमे डूबल-जकाँ ; आस्ते-आस्ते
चलैत ... आ, कि हठात् हमरा मोन
पड़ैत अछि, तन्त्रनाथबाबूक प्रसंग एकटा
ज्योतिषी बाजल रहथि-""तन्त्रनाथबाबू
जे बजताह, से साहित्य भए जएतैक; जे
लिखताह से कविता बनि जएतैक।'' आ
हमरो लागि रहल अछि जे हमहूँ
जेना सद्य:कविताक सागरमे
हेलिकें ऊपर भेल होई । .....
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