(अन्तरंग-वार्ता)

विश्वनाथ


प्रथम संस्करण  : २००१, सामान्य संस्करण,  रु ३०.००

 

अनुक्रम

  1. कविचूड़ामणि काशीकान्त मिश्र "मधुप'

  2. डा० काञ्चीनाथ झा "किरण'

  3. प्रोफेसर हरिमोहन झा

  4. तन्त्रनाथ झा

  5. श्री सुरेन्द्र झा "सुमन'

  6. वैद्यनाथ मिश्र "यात्री'

  7. आरसी प्रसाद सिंह

प्रात:स्मरणीय

आचार्य रमानाथ झाक

स्मृतिमे

निवेदन

आइ थिकैक २४ मई २००१ .... बृहस्पति - रातिक दस बाजि रहल अछि ! वागमतीक तट पर शुभंकरपुरमे अपन वासा पर महागाथाक किछु द्विेड़िआएल पन्नाकें समेटि रहल छी। रक्तअक्षर .... ज्वलित चेतना निरबधिकाल विस्तीर्ण धरती - भाषा आ संस्कृतिक यज्ञ। आत्म-सम्मान आ स्वाभिमानक संघर्ष ... मिथिला आ मैथिलीक, मैथिल जनगणक ... लोकशक्तिक चिरकालिक अमृततत्त्व ... हम सरस्वतीकें नमन करैत छी ... जयति जित समस्ता भारती वेणुहस्ता - हम सरस्वतीक वरद पुत्रकें नमन करैत छियनी - नास्ति येषां यश: काये जरा मरण जं भयम - अक्षर-अक्षर अमृत - कालजयी महापुरुष हृदयक अमृत ल "क' हम आएल छी!

जुलाइ १९७६। प्रात:स्मरणीय कविचूड़ामणि काशीकान्त मिश्र "मधुप' क आँखिक आॅपरेशन दरभंगा अस्पतालमे भेल रहनि। ओतहि दर्शनक हेतु गेल रही। सहज-स्नेहपूर्ण वातावरणमे अनौपचारिक चर्चा भेल। कतेक प्रश्न, कतेक बात, कतेक बिन्दु, कतेक चित्र - अस्पतालक एहि भेटकें लिपिबद्धकए "मिथिला मिहिर' में पठा' देलिएक... २५ जुलाइ १९७६क अंकमे लगले ओ अन्तरंग वार्ता छपल। १९७६क कालखण्डमे तकर बाद आदरणीय महाकवि श्री सुमनजी महाकवि तन्त्रानाथझासँ साक्षात्कार सम्भव भेल। १९८२ में हास्य-व्यंग्य सम्राट प्रोफेसर हरिमोहन झासँ, १९८६ में मृदु मैथिलीक पागक प्रतीक यात्रीजीसँ, १९८८मे मैथिलीक सम्मान आ स्वाभिमानक प्रतीक डा. काञ्चीनाथ झा "किरण' सँ आ १९९५मे "माटिक दीप' आ "सूर्यमुखी'क कवि... मातृजनवाणीक संघर्षक सेनानी आरसी प्रसाद सिंहसँ साक्षात्कार भेल रहय। एहि सम्पूर्ण यज्ञमे बीस बरखक समय लागल। कालक प्रवाहमे हमर जीवनक नाह पताइत-भोतिआइत रहल... आई थिकैक २४ मइ २००१... बीसम शताब्दीक मैथिली साहित्यक अकृत-मन्थनक किछु बिन्दु ल "क', किछु चित्र ल "क', किछु भाव ल"क' , किछु शब्द ल"क' हम आइ अपने सभक समक्ष सूत्रधारक रुपमे उपस्थित छी।

हमर बाध-बोन.... हमर कोशी-कमला, ... हमर खेत-पथार...हमर मिथिला मैथिली... हमर लोकगील... हमर मिथिलाक तरुण पीढ़ी... हमर नेना-भुटका... बीतल कालक इजोत... वर्त्तमानक संघर्ष आ... भविष्यक विजय-पर्व... एखन हमर मोनकें बलित कएने अछि। कोर्थु आब तीर्थ भ' गेल अछि। एही गाम-धरतीक सुषमा आ सौरभ ल "क' हम आइ उपस्थित भेल छी। नाटक पर्दा उठि रहल अछि। अहाँसब व्यग्र भ' रहल छी।... हम फेर नेपथ्यमे जा रहल छी। ... हमरा नेपथ्यमे रह' दिअ ! हम नेपथ्यमे रह' चाहैत छी !

विश्वनाथ

दरभंगा,

२४ मइ २००१

 

  अक्षर-अक्षर अमृत

अक्षरे अमृत, अमृते अक्षर ! तें ने अक्षरपुरुष अमर ! जनिक आखर काल-पाथपर उगल-उखड़ल, सैह ने अनश्वर, सैह ने अमर ! जनिक आखर काल-पाथरपर उगल-उखड़ल, सैह ने अनश्वर, सैह ने अमर ! एहने अमरपुरुषक कृति-कीर्कित्तए टा नहि, दैन्दिन व्यवहारो आदर्शोत्कर्षक, मुँहसँ स्फुट एक-एक शब्दो मार्गदर्शक । तें साहित्यदेवताक "लिखल' जतबे महत्त्वक, हुनकालोकनिक "कहल' सेहो ततबे सार-तत्त्वक। "लिखल' औपचारिक, "कहल' अनौपचारि। यैह "कहल' कें लिखब "साक्षात्कार' थिक, जे आब एक विधा बनि गेल अछि आ जकर महत्त्व साहित्य आ समाज-लेल, वर्तमान आ भविष्य-लेल, असंदिग्ध अछि।

साहित्यदेवता अपन जीवनक संग पूरा युग लऽकऽ चलैत छथि। हुनक "लिखल' तँ हुनके टा सादित्य रहैत छनि, हुनक "कहल' मुदा ओहि सम्पूर्ण युगक विराट यथार्थ रहैछ । जे जतेक दीर्घजीवी, तनिका लग ततेक विशाल विराट यथार्थथ । ई दुर्लभ संयोग थिक जे मैथिली साहित्यमे १९०६ सँ ११ -- एहि छौ वर्षमे कमसँ कम #ेक दर्जन साहित्यदे#ेवता अवतरित भेलाह। ओ सभ अपनामे पूर्ण छथि। पूरा बीसम शताब्दीक मैथिली साहित्य हुनका लोकनिमे मानू आत्मसात् रहल अछि।

हुनकालोकनिक मुँहसँ बहरायल अक्षर-अक्षर अमृत थिक। अमृतक वर्षा तँ ओ बरोबरि करैत रहलाह, मुदा से ओहिना बहैत गेल। ओकरा संचित करबाक ऊहि बड़ कम लोक देखौलनिष ऊहि आ लूरि दूनू चाहि# एहि विधाकें चमकयबा लेल, ताहि संग चाही संयम, प्रतीक्षा, सूझि, सहृदयता, आत्मीयता एवं पत्रकारिता-साहित्यिकताक संगम। तत:पर समयपर हुनका लोकनिकें नहि, समयेकें हुनकालोकनिपर छोड़ि देबाक धैर्य। धैर्यक कठिन परीक्षा।

संगृहीत सातो मनीषीक साक्षात्कार-सार संचयमे बीस सालक समय लागल अछि। मधुपजी, तंत्रनाथबाबू सुमनजीसँ १९७६ मे, हरिमोहनबाबू सं ८२ मे, यात्री सँ ८६मे, किरणजी सँ ८८ मे तथा आरसीबाबू सँ ९५ मे साक्षात्कार लेल गेल अछि। "भेट' व्यापक अछि, अनेक तथ्यक उद्घाटन भेल अछि। फेर कहब जे पूरा बीसम शताब्दिए हुनका लोकनिक मुँहसँ बाजि रहल अछि, जकर अनुगूँज एहू शताब्दीमे ध्वनित होइत रहत।

बाजल तँ छथि साहित्यदेवते लोकनि, अक्षर-अमृत तँ टपकल छनि हुनकेलोकनिक मुँहसँ, किन्तु तकरा स्वर्ण सुराहीमे संयोगने छथि विश्वनाथजी , जकर काट, नाक-नक्श, देखितहिं बनय ! कारयित्री आ भावयित्री दुनू प्रतिभा जखन अपन उत्कर्षपर रहैत अछि, तखने एहन "गढ़नि' उतरैत छैक। एहि विधामे विश्वनाथ क विशिष्ट कला पूर्वकालहिसँ सराहल जाइत रहल अछि, से आइ एहि संग्रहक संगहि चिरस्थायी भऽ गेल अछि। वास्तवमे, अक्षर-अक्षर अमृत थीक एहि पोथीक ? ओ अमृत अक्षर पुरुषक हृदयलोकसँ टपकल हो आ कि विश्वनाथ क ललित लेखनीक नोकसँ।

 

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© Copyright आशुतोष कुमार, राहुल रंजन   2001

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