अक्षर-अक्षर अमृत

वैद्यनाथ मिश्र "यात्री'


लहेरियासरायक पंडासराय मुहल्ला। सन् १९८६। तारिख रहै चारि दिसम्बर। बृहस्पति। घड़ी मे बाजल रहैक साढ़े तीन। जाड़क मास..... साँझ खसल चल अबैत रहैक।

पुरान टाइपक एकटा मकानमे छोटछीन कोठलीमे यात्रीजी एकटा अति साधारण खाट पर चुपचाप बैसल रहथि। ट्रान्जिस्टरसँ कोनो शास्रीय संगीतक धुनि अबैत रहइक- ताहीमे लीन!

-'अहाँ लोकनि के थिकहूँ बउआ?'

-'हम अमरनाथ'

-'हम विश्वनाथ'

-'आ हम वैद्यनाथ'- यात्रीजी भभा'कऽ हँसैत बजलाइ-'नथिनाथ'। पहिने हम लिखैत रहिऐक वैद्यनाथ मिश्र 'वैदेह-'मुदा से अति पुरान बात थिक। .....अरे बैसू-बैसी ने, ठाढ़ किएक छी!"

अमरनाथ यात्रीजीक बगलमे खाट पर बैसि रहलाह। .....हम सामनेमे राखल देसर खाट पर बैसि रहलहुँ। पश्चिम दिसक केबाड़ी खुजल रहइक। विस्तीर्ण भूखण्ड..... सुनसान खेतपथार आ धरती पर खसल चल अबैत आकाश.....।

हमर सामनेमे बैसल छथि 'यात्री'..... मैथिलीक यात्री..... स्वतुरिय आ पारो..... चित्रा आ पत्रहीन नग्न गाछ, विद्रोह..... व्यवस्थाक खिलाफ विद्रोह, संघर्ष, अनवरत यात्रा..... की पुछियनि? कोन सवाल?..... क्षीणकाय आ अजम्र शक्ति।

यात्रीजी ट्रान्जिस्टरक स्वीचकें आॅफ करैत बजलाह -"हमरा पहिने एकटा चीजसँ एलर्जी रहय-जिद्द जकाँ रहय-एलोपेथी इलाज नहि कराएब। जऽर-ताप भेल तँ होमियोपेथी-आयुर्वेद। .....मुदा एहि बेर से जिद्द नहि निमहल। एकटा बात हमरा मानऽ पड़ल।

-"जी, से की ?

देखियौ, होमियोपैथीमे अथवा आयुर्वेदमे तुरत कोनो दवाइ एहन नहि छै जे शरीरमे प्रवेश भऽ जाइ - मुदा एलोपेथी तँ अति आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान पर आधारित छैक । डाक्टर सब कहैत रहथि जे आब जँ किछुओ दिन-एक्को डेढ़ मास विलम्ब होइत तँ हमर प्राणान्त भऽ जाइत । ... मुदा #ेकटा बात बुझलहुँ !

-"जी ? '

डाक्टर सब बड्ड खोज खबरि रखलनि, बड्ड श्रम, बड्ड लगन - किछु डाक्टर तं अनथक मदति कएलनि । ताहूमे डी० एन० झा, गणपति बाबू, मिथिलेशजी, आ दिनेशचन्द्रजी तँ अपन सन्तान जकाँ सिनेह देलनि - प्राण बचा देलनि ।

गणपति बाबू आएल छलाह-कहलनि "दिसम्बर" ८६ धरि रहबा ले"। अखिल भारतीय मैथिली साहित्य परिषदक कवि सम्मेलन छै-ताही लेल। हम कहलियनि-अहाँ एतैक सेवा कएल - हम अबस्से रहब । ... तकर बाद चल जा#ति रहब .. .तेरह तारिखकें दिल्लीक हेतु आरक्षण भेटल अछि। पांच महिना भेल ... लहेरियासराय .. हास्पीटल ... हास्पीटल-बेड .. ई डेरा-एहिना चुपचाप पड़ल रहै छी। खी भ" रहल छै-कतऽ भऽ रहल छैक-किछु कहाँ बुझै छिऐ ! '

हम कनेक साकांक्ष होइत पुछलियनि -'हास्पीटलक बेड पर पड़ल कोनो मर्मस्पर्शी अनुभव ? कोनो मार्मिक घटना ?"

यात्रीजीक आकृति पर इजोतक एकटा आभा पसरि गेलनि, बजलाह - "हँ, एकटा अद्भुत अनुभव भेल, अपूर्व ... "

-"जी, से की ?"

-"मेडिकलक दूटा मैथिल नवयुवक छात्र कहलनि अपनेक "ब्लड" हमरे लोकनिक ग्रुपक अछि। हम सब तैयार छी। जतेक खूनक प्रयोजन पड़त - हम सब देबा लेल प्रस्तुत छी ...। बउआ, आँखि सजल भ" गेल। कहलियनि, अहाँ सब जीबू आ मिथिलाक लेल खून अर्पित करु। अप्पन मिथिला बड्ड पछुआएल छथि।"

-"अपने लिखने रहिए "मम मातृभूमि अन्तिम प्रणाम" - तकर प्रसंग अपने आब की अनुभव करै छिऐ ?"

यात्रीजीक आकृति चमकि उठलनि - भाव-विह्मवल होइत कहलनि - "औ, हम ने कहलिऐ-मुदा माय हमर प्रणाम स्वीकार करथि तखन ने .. मायकें कतहु क्यो अन्तिम प्रणाम कऽ सकैत अछि ? जेना लोककें कोनो क्षण क्रोधमे, आक्रोशमे कहना जाइ छै जे हम जँ घुरिक" घऽर आबी तं हमर नाम पर .. आ फेर घऽरे घुरिकऽ अबैत अछि ।

एकटा बात जनै" छी ....

-"जी, कहल जाए ।"

-"आइ तें बउआइत-बउआइत अपने घरमे घुरल छी। कमला आ कोशी ... ई अंचल ... ई खेत-पथार, अपन गोसाउनि आ चिनबार - क्यू क्यों विसरि सकैए ... ।

मुदा, ओ कविता तँ हम परम्पराक विरोधमे लिखने छी .... । तहिया अपन सभक समाजमे घोर अनाचार रहइक, "आमगोटी जामगोटी, तेतरी सोहाग गोटी"क खेलमे उछलैत-कुदैत बचिया सभक विवाह बूढ़ वऽरसँ भ" जाइक । बहु-विवाहक नाम पर अलग अत्याचार होइत रहइक।

जमीन्दार सब वेमत्त-गरीब-गुरबाक शोषण ... परम्परा आ जड़ताक अखण्ड राज्य ... करे सभक विरोधमे लिखनि रहिऐक, विद्रोहमे लिखने रहिऐक । नव सृजन- नवीन चिन्तन ... मिथिलामे नवजागरणक अपेक्षा छलैक ताहि दिन ...। हम लिखने रहिऐक -

दु:खोदधिसं संतरण हेतु

चिर विस्मृत वस्तुक स्मरण हेतु

हम जाए रहल छी आन ठाम

हे मातृभूमि शत-शत प्रणाम ।

 

यैह विद्रोहक चिनगारी काजी नजरुल इस्लामक हृदयमे इत रहनि, कोनो हिनकर शब्द चिनगारी बनलनि से बूझल अछि ?"

-जी .... कहल जाए .....

-''ओ, पहिने रहथि फौजमे-बन्दूक आ बारुतक बीच-इरान-तेहरानमे। ओतहि नजरुलकें मुजफ्फर अहमदसँ भेंट भेल रहनि । मुजफ्फर अहमद रहथि क्रान्तिकारी-साम्यवादी। नजरुपक प्रतिभासँ ओ चकित भऽ गेल रहथि। हुनकहि संरक्षण आ प्रोत्साहनसँ नजरुल अपन प्रतिभा सामर्थ्यकें चीन्हि सकलाह-एतैक बड़काटा दुनियामे -क्यो-ने-क्यो एहन अबस्स भेटैत छैक जे लोकक प्रतिभाकें चीन्हि लैत छैक।''

-''अपनेक साहित्यिक जीवनमे एहन कोनो व्यक्तिक सिनेह भेटल ?''

-'बउआ ! से सुख हमरा नहि भेटल। ओना सीताराम झा ... कविवर, कविवर आदरसँ लोक कहनि, आ प्रो० रमानाथ झाक अविरल सिनेह हमरा मैथिली लेखनमे भेटल अछि ... । मुदा परम्परा आ पोंगापंथीक दल हमर बड्ड विरोध कएलक .... ।

खाँसीक बेग उठलनि, हाथसँ छातीकें सहलावऽ लगलाह - मोटका खादीक खलीता आ कुर्त्ता। बजलाह - बड्ड दु:खित भऽ गेल रही।

-''जी, पारोमे सेहो अपने एक बेरी दु:खित भऽ गेल रहिएक, मोतिहारी मे ।''

यात्रीजी बिहुँसैत कहलनि-हँ, कोनो पात्रक तेहन वर्णन छैक ... । मुदा पारो की लिखब .... ? ओहि समयमे तेहन ने वातावरण रहइक जे की कहू ? एकटा पंडित त्रिलोकनाथ मिश्र। ओ पारोक प्रकाशनक बाद अत्यन्त उग्र भऽ गोल रहथि। एकटा फकड़ा बनौलन्हि-

पारो कपारो फोड़ि देल ......

मैथिलीमे ताहिया लिखब बड कठिन। पंडित आ पुरोहितक साम्राज्य ......राजा आ महाराजक दरवारी संस्कृति ....! बड़का-बड़का जमीनन्दारक महाभोज .... एहन परिस्थितिमे लोक की लिखत .....! अभिनन्दन-वन्दन, कीर्त्तन आ भजन।

हम तत्कालीन समाजक कतेको चित्र अपन कविता सबमे प्रस्तुत कएने रहिऐक। ओहि दिन लालबागक शंकर बाबू मोन पाड़ैत रहथि-


" उत्सर्गल रहनि कि दनही रहनि
कुकुरक चिभाओल पनही रहनि।"

हम साकांक्ष होइत पुछलियनि - 'जी, मैथिलीमे प्रगतिवादक प्रसंग अपनेक की मन्तव्य ?'


-देखू, प्रगतिवाद ..... जे असल प्रगतिवाद छै ...... जन, मजदूर, खेतिहर-किसान आ सर्वहारक वरणन--सेतँ बड़ एम्हर आंबिकऽ अपन भाषामे आरम्भ भेल अछि। नख शिख श्रृंगार .... अतिशयोक्ति, भक्तिरस अथवा मनोरंजन। बड्ड पाछाँ अविकऽ मैथिलीमे नवका विचार, नवका तेवर आरम्भ भेल अछि .....। एहि सम्बन्धमे एकटा रोचक प्रसंग मोन पड़ल .....।

-'जी, से की ?"

अन्हार पसरल चल अबैत रहिक। दूर-बहुत दूर घरक पछबारी कातक पोल पर बिजली बरि गेल रहैक .....सामनेक टेबुल पर एकटा गिलास आ एकटा बाटी .....। पाकिटमेसँ निकालिकऽ एकटा दवाइक टिकिया मुँहमे रखलनि । पानि पीलनि .... तखन आँखिक पपनी पर पानिक छिटका दैत बजलाह - 'अहाँ सब मधुबनी ड्योढ़ीक नाम सुनने होएबैक । '

- 'जी रमाकरजी आ प्रभाकरजीक ड्यौढ़ी !'


-हँ हुनके सभक ड्यौढ़ी .... की ककर ड़योढ़ी-मोन नहि अछि ....एकबेरि मधुबनी ड्यौढ़ीसं आमन्त्रण भेटल भोजन पर। पता तलल, बाबू साहेब हमरासँ भेट करवा ले' अति उत्सुक छथि .....।

--'जी, तकर बाद'


-- तकर बाद हम ठीके मधुबनी ड्यौढ़ी पहुँचलहुँ। बाबू साहेबसं भेट भेल। वड्ड आह्मलादित। कहलनि-यात्रीजी, सुनलहुँ अछि जे अहाँ गरीब मजदूरक पक्षधर छी। जकरा हमरा सब राड्-रोहिया कहै छिऐ तकरा पर कविता लिखै छी। आब तँ जमीन्दारी चल गेल .... आब तँ हमहूँ सब गरोब भऽ गोलहुँ ..... हमहूँ सब राड़-रोहिया ...। तकर बाद बेमत्त भ 'क'बाबू साहेब हँसऽ लगलाह। '


यात्रीजी खाट पर पलथा मारिक बैसि रहलाह। बउआ बुझलहुँ-- 'तकर बादक गप्प। '

-- 'जी? '

- 'जखन बाबू साहेबक ओतऽ भोजन कर' गोलहुँ तँ बड़काटा थारी। नौटा कटौरी। पयर धोबाक हेतु बड़काटा अढिया .... चपड़ लोटा... चौकोर पीढ़ी .. गम-गम करैत तरकारी .... तिलकोरक तरुआ, राहड़िक दालि, तुलसी फूल चा#ुर आ शुद्ध घी। एकटा तरकारी रहिक कटहरक ....। कटहरक कबाब - कटहरकें उसनिक' कबाब जकाँ बनाओल। एकटा तरकारीक नाम कहैत गोलाह 'इरहर'। एकटा तरकारी रहइक 'रामरुचि' .. बड्ड विन्यास !

ओ जे पान खाथि ... बाबू साहेब, तकर कथा कहैत छी। कैकटा नोकर रहनि। अमला, मैने आ मोसाहेब। पानकें कर्पूर मसाला आदि सँ लगाओल जाइक। तखन चूरल जाइक-दाँत नहि रहनि बाबू साहेवकें - एकटा मुँहलगुआ नोकर ठोर अलगाक' पान राखि दैनि आ तखन तुनू गाल पर चटाक-चटाक दू थापर मारनि-किछु लकबा जकाँ भ' गोल रहनि-तखन पानक स्वाद लगनि। तकर बाद पुलकित भेल बाबू साहेब वाजथि-पान द ' दैत छिएक तँ विसरल बात मोन पड़ैत अछि ... सुखक अनुभूति होइत अछि।

हम जखन मधुबनी ड्योढ़ीसं बहरेलहुँ तँ सोचलहुँ बापरे ....जमीन्दारी चल गेला पर एहन शान-जमीन्दारी जखन रहै-तखन की .....की सब होइत हेतै ? तँ कहलहुँ, बउआ जे एहन समाजमे प्रगतिवाद की चलत ?'

गप्प कामूक विद्रोही विचार, काफ्काक चिन्तन आ सार्त्रक अस्तित्ववाद पर चलय लागल। यात्रीजी कहलनि-ठदेखू, अपन समाज' रिस्क' लेबे नहि चाहैत अछि। अतिशय यथास्थितिबादी। यूरोपक बुद्धिवाद, विचार-चिन्तन आ विद्रोहक स्वर एतए कम भेटत।'

-हिन्दी जगतमे अपनेकें केहन वातारवरण भेटल?'

देखू-वातावरण....वातावरण भेटै नहि छैक, वातावरम बनाओल जाइ छै' -क्रियेट कएल जाइत छैक। लोककें अपन पराक्रमक परिचय देबय पड़ै छै'। संस्कृतक एकटा श्लोक मोन पड़ल जे सिंहींकें यदि एकटा सिंह जन्म लैत छैक तँ ओ निश्चिन्त भ ठक' सुतैत अछि। मुदा गदहीकँ आठ टा गदहा होइत छैक तइयो धोवियाक कपड़ाक बोझ उठबे पड़ैत छैक। नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा...। जंगलमे सिंहक वातावरण बनबऽ पड़ैत छैक, बुझल किने !'

-मुदा एतेक संघर्ष, एतेक साहस ....सबमे कहाण रहै छै ?'

यात्रीजीक आकृति चमकि उटलनि, बजला-एकटा गप्प कहि दैत छी, मोन राखब-साहित्य साधना सहज नहि छै। ई तँ सोनारक कला छिऐक। तीन फुक्के चानी।

जेना सोनार सब छोट-पैघ हथौरा-ङ्थौरी रखैत अछि, नौटा कटौरी-सामनेमे आगि... फोंफी आ कसौटी चहिना साहित्यकारकें हथौरी राखऽ पड़ैत छैक। निरन्तर संघर्ष... अपूर्व धैर्य-ताहूमे हिन्दीमे-अरे, बापरे .....!' 

जेना सोनार सब छोट-पैघ हथौरा-हथौरी रखैत अछि, नौका कटौरी-सामनेमे आगि... फौंकी आ कसौटी तहिना साहित्यकारकेँ हथौरा-हथौरी राखऽ पड़ैत छैक। निरन्तर संघर्ष.... अपूर्व धैर्य-ताहूमे हिन्दीमे-अरे, बापरे ..... !'

हेयौ, एकटा बात कहू, आइ मोन प्रसन्न लगैत अछि। आन दिन अधिक बजैत छलहूँ तँ माथ दुखाय लगैत छल - मुदा आइ तँ मोल आह्मलादित लगैत अछि-साहित्यमे अति आनन्द .... तहिना साहित्यिक गप्पमे।'

..... फेर हमरा लोकनि दिसि ममता भरल आँखिसँ तकलनि-

"अहाँ लोकनिक गाम कतऽ ......... ?'

-"मूलत: उजान, कनकपुरटोल।'

-"उजान औ .......... धर्मपुर उजान, लोहना रोड !'

-"जी......'

-"अहा, ओ तँ अद्भुत गाम अछि। ...... कतोक बरख भेल हेतैक। मुन्शी रघुनन्दन दासक देहान्त भेल रहनि। हम जिज्ञासामे हुनकर पुत्र नरेन्द्रनाथ दासक ओतय गेल रही। हुनको घर ओही परिसरमे, लोहना रोड स्टेसन आब भ' गलैक अछि। ओतहि किरणजीक घऽर छनि। रमानाथ बाबूक ओतए गेलहुँ तँ हुनक पिता तारानाथ झा पूजाक आसन पर बैसल रहथि। भव्य आकृति। रमानाथ बाबू हमर मित्र। साहित्य-तपस्वी रहथि। ... हम दासजीक मृत्युक शोकमे केश कटबाए लेलहुँ। त्रिलोकनाथ बाबू - पं० त्रिलोकनाथ मिश्रकेँ पता चललन्हि, बड्ड धुसलनि ... गन्जन कएलन्हि। मुदा हम तँ सब दिन लीक छोड़िक' चलबला लोक- हमरा पर कोनो प्रतिक्रिया नहि भेल। पछाति हँसी लागए- बुझलहुँ, एकटा इच्छा एखनो हमर मोनमे छटपटाइत रहै-ए।

-"जी, कोन इच्छा?....'

-"यैह जे अहाँ लोकनिक अंचलमे, परिसरमे दस-पन्द्रह दिन रहितहुँ। संयम आ संस्कार, सहज सिनेह आ आत्मीयता एहि परिसरमे हमरा जे अनुभव भेल, से फेर कतहु नहि भेटल। ई परिसर सब सिद्धभूमि अछि। .. मुदा सुनबामे अबैत अछि जे आब ओ रुप नहि रहलैक। .... जेनो कोनो पोखरि बड़ बढियाँ मुदा ओहिमे जँ सफाइ नहि होइक-साफ-सुथरा नहि रहय, गीदड़क वास भ' जाई तँ ओ केहन भ' जेतैक ..... !'

हमरा लोकनिक सम्मिलित ठहक्कासँ घर अनुगुँजित भए उठल।

गम्प बंगला साहित्य पर उठि गेलैक। बंगला लेखन, पत्रकारिता, बंगलाक पाठक ... बंगाली ललनामे साहित्यक प्रति अभिरुचि आ तकर बाद रवि ठाकुर आ शरत् बाबूक प्रसंग गप्पक क्रम आगाँ बढ़ल। यात्रीजी कहलनि - "औ रवि ठाकुर रहथि बड़ सौभाग्यशाली। हुनकर पितामह रहथिन प्रिन्स। पिता रहथिन महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर। एकटा उच्च अधिकारी गुजरातमे रहथि-हुनकर भाइ। भौजीक अपार स्नेह, बड्ड

मानथिन। प्रेरण ओ प्रोत्साहन दीपशिखा बुझू! मूलत: रहथि जमीन्दार परिवारक तँ नोवेल प्राइजक एक लाख टाका भेटलनि तँ शांति निकेतनक स्थापना कएलन्हि। एहन सूझ-बूझ अनका सँ होएतैक? ठाम-ठामसँ विद्वान सबकेँ बजाक' रखलनि .....। हुनकर गीतांजलिमे कवीरक छौंक छन्हि .....।

अपन मैथिल समाजमे जँ लोककँ एक लाख टाका भेटैक तँ उनटे भ"जेतैक...।'

-""जी, से की, उनटे की हेतैक?''

-""ओ हरथि कवि .... महाकवि ..... हमरा सभक अग्रज पीढ़ीक- किछु हजार- बजार टाका भेटलनि .. अवकाश ग्रहण कएलाख उपरान्त ... गामक लोक सब सनका देलकनि-वश, गामक दू गोटे पर मोकदमा ठोकि देलथिन। .... तखन तँ चलल फेर कचहरी ... इजलास, गवाह आ हाकिम। ओही झमेलामे हुनक बुढ़ारी गेलनि। ...... सुभद्र बाबू द' सेहो सैह सुनैत छी। काँख तऽरमे टीनक पेटी रखने, एकसरे दउगल-भागल जाइत। हाथमे मुकदमाक कागत। एना किएक?.... कथीले'? रवि ठाकुर जकाँ सूझ-बूझ नहि ..... कोना विकास होएत अपन समाजक?'

फेर किछु गम्भीर होइत कहलनि - "एकटा बात हम अपन अनुभवक आधार पर कहैत छी?'

-"जी अबस्स, अबस्से कहल जाए!'

यात्रीजी किछु काल धरि चुप्प भ' गेल। मौन, तन्द्रा जेना टुटलनि, फेर साकांक्ष होइत बजलाह-"बुद्धिजीवी जँ दीर्घजीवी होअए तँ ओकर रक्षा लेल दू गोटेक प्रयोजन पड़ैत छैक। खाक क' कवि आ साहित्यकारकेँ तकर आर प्रयोजन! मोनक झोंक रहैत छैक। सृजनक उन्माद, विच्छोह, विचारक प्रवाह। एहन स्थितिमे परिवारक सदस्य अथवा आत्मीयजनक ई कर्त्तव्य भ' जाइत छैक जे ओ ओकर संग रहए- मुदा एकटा बात होइ छइक!'

-"जी से की?'

-"होइत की छै तँ कवि आ साहित्यकार जिद्दी भ' जाइ छै ... मुदा तेँ की... डाँटय-फटकारय, तइयो परिवारक लोककेँ संग नहि छोड़बाक चाही। उच्छ्ृंखल मोन .... आ गतिशील चरण ....... आखिर एहि प्रवाहक संग के देतै?'

एतबेमे हमरा सभक आगाँमे चाह चल आएल। यात्रीजीक लेल सराइनुमा स्टीलक प्लेटमे चाह रहनि। कहलानि-हम चाह कम पिबैत छी। .....

हमरा लोकनिक मोन गद्गद् रहय आ हृदय भावविह्मवल, कहलियन-'अबैत-जाइत रहब।'

यात्रीजीकें प्रणाम कएलियनि आ विदा भ' गेल रही। सोचलहुँ, एकटा साँझ हमर स्मृतिमे हरद्म जीबैत रहत-यात्रीक संग बीतल साँझ हमर स्मृतिमे हरदम जबैत रहत-यात्रीक संग बीतल साँझ।

 

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© Copyright आशुतोष कुमार, राहुल रंजन   2001

प्रकाशक : मैथिली रचना मंच, सोमनाथ निकेतन, शुभंकरपुर, दरभंगा (बिहार) - ८४६ ००६), दूरभाष २३००३

मुद्रक : प्रिंटवेल, टावर चौक, दरभंगा - ८४६ ००४, दूरभाष ३५२०५

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