बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास |
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भारतीय
इतिहास की प्रामाणिक तलाश लोक के
आधार पर ही की जा सकती है। इतिहास
को प्रस्तुत करने वाली लोकपरंपरा
भारतीय इतिहास के चिरंतन को
विकासशील संदर्भ में प्रस्तुत करने
वाली रही है। अत: इतिहास की
यह लोक परंपरा हमारे जातीय जीवन
की समग्रता को पहचाननें में एक नयी
दृष्टि देती है। इतिहास
की समग्रता से खोज, बिना लोकसंस्कृति
के अध्ययन के संभव नहीं है। डॉ० नर्मदाप्रसाद
गुप्त की पुस्तक बुन्देलखंड की लोक
संस्कृति का इतिहास इसी दिशा में
एक महत्वपूर्ण उपक्रम है। यह पुस्तक
इतिहास की दूसरी परंपरा की शिनाख्त
ही नहीं करती, अपितु अपने कलेवर में
इस परंपरा की पुख्ता और अविच्छिन्न
विकास-यात्रा को भी सांगोपांग रुप
से प्रस्तुत करती है। लोकसंस्कृति
की ग्रहणशीला गत्यात्मकता की चर्चा करते
हुए डॉ० गुप्त ने स्वीकार किया है कि
लोकसंस्कृति ने अपने ऊपर बड़े प्रभावों
को आत्मसात किया है और परिवर्तन
परिस्थितियों से प्रभावित होकर
वह अपने समय समाज में कालचक्र को
भी धारण करती चली है। इसलिये
इतिहास के संपूर्ण व्यक्तित्व की खोज
इसके माध्यम से संभव है। इसी सत्य
का उद्धाटन पुस्तक-रचना की संकल्पना
है। संपूर्ण पुस्तक को आठ परिवृत्तों
में विभाजित किया गया है। लोकसंस्कृति
की ये आठ दिशायें हैं। अंचल विषेश
की भौगोलिक सीमा तय करना जटिल
कार्य है। विद्वान् लेखक ने बुंदेलखंड
के सीमांकन के लिये किये गये
विभिन्न प्रयासों का सतर्क विश्लेषण
प्रस्तुत किया है। भौगोलिक
दृष्टि से नदियों ओर पर्वतों के आधार
पर जो सीमांकन किया गया -- वह एक
मोटा-मोटा सीमांकन है डॉ० एस० एम०
अली, पार्टिनर, जयचंद्र विद्यालंकार और
डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल
ने अपनी मानक सीमाओं का निर्धारण
इन्हीं आधारों पर किया है। बुंदेलखण्ड
की सीमा का निर्धारण लोक ने भी अपने
अनुसार किया है, जो उपर्युक्त विद्वानों
के निष्कर्षों के करीब है- इत जमुनाउत
नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस। राजनैतिक
इकाई को आधार मानकर भी इस दिशा
में प्रयत्न किये गये और कुछ प्रयत्न
बुंदेली बोली के स्वरुप पर भी
निर्भर रहे हैं। इन सभी प्रयत्नों के
परिणामस्वरुप बुंदेलखंड की इकाई
फैलती -सिकुड़ती रही है। डॉ० गुप्त
ने बुंदेलखंड की समीक्षा इकाई का
अन्वेषण करते हुए लोक-संस्कृति को
महत्वपूर्ण माना है। भाषायी और
संस्कृतिक पहचान के आधार पर डॉ०
गुप्त द्वारा निर्मित बुंदेलखंड की सीमाओं
से अधिकांशत: हुआ जा सकता है।
डॉ०
गुप्त ने बुंदेली लोकसंस्कृति के उद्भव
और विकास को वैज्ञानिक आधार पर
विवेचित किया है। बुंदेलखंड का अधिकांश
हिस्सा नर्मदा घाटी में विस्तारित
है। नर्मदा घाटी की सभ्यता सिंधु सभ्यता
से पहले की है। बुंदेलखंड प्रागैतिहासिक
शैलचित्रों और पुराजीवाश्मों को
अपने
क्रोड में समेटे है। इन आधारों
पर इसकी प्रागेतिहासिक लोकसंस्कृति
के प्रामाणिक चिह्म प्राप्त होते हैं। इन
शैलियों में भारतीय सभ्यता के
विभिन्न स्तर मिल जाते हैं। आर्यों के
प्रवेश के बावजूद यहाँ की वन्य जातियों
की लोक संस्कृति बहुत लम्बे काल
तक उनसे अप्रभावित रही। वन्य जातियों
की लोकसंस्कृति के सामूहिक नृत्य,
वाद्य, दृश्यकला और लोकविश्वास एक तरह
से अक्षुण्ण रहे और इन्होंने आर्य संस्कृति
में भी प्रवेश प्राप्त कर लिया। महाजनपदकाल
में आर्य और अनार्य संस्कारों का संघट्टन
हुआ। लोकादर्शों को वरीयता के अनुसार
अपनाया गया। लोक कलाओं में बदलाव
आया। इस बदलाव के परिणामस्वरुप
बाद की संस्कृतिक यात्रा में लोक ने
अनेक लोकोत्तर तथ्यों को अनुसार ढाला।
यक्ष-पूजा लोक में मनियां देव के रुप
में गांव-गांव में प्रतिष्ठित हुई। डॉ०
गुप्त ने लोकायत्तीकरण के अनेक पुष्टक,
प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। नाग-वाकाटक
काल में सिक्कों पर प्राकृत एवं लोक
चित्रों का अकंन मृण्मूर्तियों में लोककलाओं
की हिस्सेदारी इस तरह के प्रबल प्रमाण
हैं, जिनसे बुंदेलखण्ड की लोकसंस्कृति
की गत्वरता और ऊर्णनभिता का अनुभव
होता है। श्रीहर्ष
के बाद गौंड, कोल-भील, यादव-दोंगी,
राऊत आदि जातियों के क्षत्रपों का अधिकार
प्रबल हुआ। इनका सामना चंदेलों को
करना पड़ा। बुंदेली लोकसंस्कृति
में इस युग में एक गहरी उछाल आई,
जो अपनी संपूर्ण ताकत के साथ दृश्यपटल
पर छा गई। लोकमूल्य, लोकविश्वास,
लोकवार्ता आदि की हिलोर ने बुंदेली
लोकसंस्कृति को विशिष्ट स्थान दिलाया।
चंदेलकाल में बुंदेली लोकसंस्कृति
के प्रभाव को विस्तार और गहराई
प्राप्त हुई। ओरछा के राजनीतिक केन्द्र
के रुप में उभरने के साथ ही क्षात्रधर्म
लोकसंस्कृति के मूल्यों से ओतप्रोत
हो उठा। पुनरुत्थान काल एवं आधुनिक
काल में बुंदेलखण्ड की लोकसंस्कृति
में संक्रमण का दौर चला, जो आज भी
जारी है। इस विवेचन डॉ० गुप्त ने
बुंदेली लोकसंस्कृति की पड़ताल उसकी
द्वन्द्वात्मकता में की है। यह द्वन्द्वात्मकता
उसके विकास की आधार भी बनती है।
ग्रहण और त्याग की वृत्ति बुंदेली संस्कृति
में रही है, किंतु उसने जो ग्रहण किया
है, उसे अपने अनुरुप ढालकर ही ग्रहण
किया है। इसलिये अपने भीतर विजातीय
तत्वों का समाहार भी उसने अपनी शर्तों?
के अधीन किया है। इतिहास
की अंतवर्ती छाया सिद्धांत और चिंतन के
उद्वेलनों से वेगवती होती है। इतिहास
की अंत: क्रियाओं में चिंतागत सिद्धांतो
की द्वन्द्वात्मक चेतना समूह की मानसिक
धारणाओं को भी व्यक्त करती है और
समाज के आंतरिक ढांचेको क्रियाशील
करने की उत्प्रेरणा भी देती है। लोकदर्शन,
लोकमूल्य, लोकधर्म और लोकविश्वास
निश्चित ही इतिहास चेतना को प्रभावित
करने वाले तत्व हैं। बुंदेलखंड में
भूदेवी की पूजा इस अंचल के
समूह जीवन में व्याप्त पृथ्वी की उर्वरता
और उसकी सृजन-क्षमता से उत्पन्न ऐहिक
आपूर्तियों से संबंधित होते हुए भी
कालांतर में लोकदेवी की तरह प्रतिष्ठित
होती गई -- जिसमें अनेक लोकविश्वासों
का स्तरीकरण हुआ। लोकमूल्यों की चर्चा
करते हुए डॉ० गुप्त ने बुदेंलखंड में
गौड़ी संस्कृति को बुंदेलखंड की लोकसंस्कृति
को आधार माना है। वीरत्व और त्याग
को भी बुंदेलखंड की लोकमूल्य की
तरह स्वीकृत किया गया। इस मूल्यों
से मंडित व्यक्तित्वों को देवत्व की श्रेणी
में भी समाहित कर लिया गया। हरदौल
के चरित्र का विकास इन्हीं लोकमूल्यों
पर आधारित रहा है। डॉ० गुप्त निष्कर्षों
में जो लोकमूल्य महत्वपूर्ण रहे
हैं-- उनमें पत का रक्षा, सतीत्व की रक्षा,
मोक्ष की प्राप्ति आदि भी समाहित हो
जाते हैं। किंतु बुंदेलखंड की लोकमूल्यों
का एक ऐसा भी संसार सक्रिय रहा
है, जो इस क्षेत्र को जडत्व में कसता
गया है लोक में इन मूल्यों का समावेश
सामंती परिवेश की चाकचिक्य के आकर्षण
का परिणाम रहा है। इन मूल्यों को
ह्रासमूलक सामंती मूल्यों की तरह
ही माना जा सकता है बुंदेलखंड की
लोकसमाज पर इनका असर है और
इन्हें आदर्श मूल्यों की भांति ग्रहण
किया गया है। श्रम को हेय मानकर
आरामतलब जीवन के प्रति उच्चता का भाव
बुंदेली लोकगीतों में है -- बैठी
हो रईयो रानी सतखंडा पर सईयो
डबन के पान हो। सतखंडा महलों में
पान के बीड़ा चबाने वाली स्री आदरणीय
बन जाती है। बुंदेली व्यक्ति के भीतर
जो जीवन के प्रति एक यथास्थितिवादी
नजरिया है-- जिसे काहिली भी कहा
जा सकता है, उसके उत्स का निदर्शन भी
जरुरी है। लोकधर्म के अंतर्गत इस तथ्य
पर विचार किया गया है। डॉ० गुप्त ने
स्पष्ट किया है कि उत्तर मध्य युग में लोकधर्म
पतनशील हो गया था। भाग्य पर भरोसा
करने कारण दासता से मुक्ति का द्वार
न खोला जा सका। तत्कालीन व्रतकथाओं
से स्पष्ट है कि लोकधर्म, व्यक्तिधर्मी
बनकर सिकुड़ गया था और लोकचेतना
का ह्रास हो गया था। लोकविश्वास
व्यवहार से निष्पन्न सामूहिक अनुभव
है। बुंदेलखंड की लोकविश्वासों
की व्यापक खोजबीन लेखक ने की है।
प्रकारंतर से ये दार्शनिक निष्पत्तियां
बुंदेलखंड की लोकमान को व्यक्त करती
हैं। उस लोकमान को जो इतिहास की
धारा से मुठभेड़ करता हुआ -- अपना
रास्ता कहीं तलाशता है -- कहीं पूजन-भक्ति
में कहीं मंत्र-तंत्र में और कहीं वैराग्य
-- भावना में और कहीं युद्ध-प्रसंगों के
मरण-वरण में। व्यक्ति
के आचरण मूलक विकास के और उसके
सज्जा और मनोविनोदपरक बाह्य संस्कारों
के परिवृत्तों का अध्ययन ही लोकाचारों
के इतिहास पक्ष से संबंधित है। डॉ०
गुप्त ने बुंदेलखंड के आधार और
व्यवहार में आदिवासी जीवन पद्धतियों
का समावेश संस्कृति की आधारशिलाओं
के रुप में स्वीकार किया है। इस
विकास यात्रा में वैदिक पद्धतियों का
समावेश भी होता गया है। वैदिक
पद्धतियों में भी बुंदेली लोकचारों
ने दखलंदाजी की है। स्वीकृति और वर्जनाओं
का समावेश भी मिश्रित लोकसंस्कृति
की तासीर में हुआ। डॉ० गुप्त ने इस
ग्रन्थ में बुंदेली लोकचारों और
लोकव्यवहारों का विशद विवेचन
किया है। लोक देवता के रुप में लक्ष्मी,
मनियादेव, हरदौलजू आदि का ऐतिहासिक
और दार्शनिक विवेचन बुंदेली लोकसंस्कृति
को मौलिक अवधारणा को प्रस्तुत करता
है। बुंदेली व्रत, उपवास, त्यौहार,
पूजापाठ और ललित कलाओं का विकासात्मक
विवेचन कला के ऐतिह्य पक्षों को उजागर
करने वाला है। कजरियां सुअटा, नौरता,
दिवारी, फाग, मामुलिया में खोंटी
बुंदेली पहचान केन्द्रित है। यह
विस्तृत अध्ययन एक ओर जहाँ बुंदेली
संस्कृति की अस्मिता का विश्लेषण करता
है -- वहीं इसमें निहित लेखकीय निष्कर्ष
बुंदेली लोकसंस्कृति के इतिहास
की धारणाओं को लोक की सीमा से
ऊपर उठाकर इतिहास की क्रियाशील
पूंजी के रुप में व्यक्त करते हैं। विद्वान्
लेखक ने अपने तर्कों और अपनी मान्यताओं
की पुष्टि हेतु इतिहास, काव्य, लोककाव्य,
लोककथाएँ, लोकमान्यताओं और लोकविश्वासों
के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। कुछ एकदम नवीन
और मौलिक स्थापनायें लेखक ने अपनी
नैष्ठिक शोध क्षमता के आधार पर स्थापित
की हैं। मसलन यक्ष-पूजन का विकास बुंदेलखंड
में एक लोकदेव के रुप में मनियादेव
की पूजा के प्रसंग के रुप में प्रत्यक्ष
होता है। मणिभद्र यक्ष ही मनियादेव
हैं। गाँव-गाँव के ठाकुर के रुप में
मणिभद्र यक्ष ही पूजे जाते हैं। मध्यकाल
में अखाड़ो की परंपरा जो कलाओं के
क्षेत्र में अपने संपूर्ण विस्तार में प्राप्त
होती है- एक तरह से संगीत और कविता
के विकास में बहुत सहायक रही
है। इस अखाड़ा-परंपरा का ऐतिहासिक
निदर्शन संभवत: पहली बार इस
कृति के माध्यम से हो सका है। लोक
समितियों में फाग का भी विस्तार से
वर्णन फाग के एतिहासिक विकास को
प्रस्तुत करता है। निश्विाचत ही यह ग्रंथ
ऐतिहासिक महत्व का है जो इतिहासपरक
अध्ययन को नयी दृष्टि प्रदान करने में
समर्थ है। लोकांचलों की सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि का राष्ट्र की अस्मिता संरचना
में कितना कुछ योगदान हो सकता
है -- इस तथ्य-प्रश्वान का भी सकारात्मक
उत्तर यह ग्रन्थ है। इतिहास की यह परंपरा
निश्विाचत ही इतिहास के क्षेत्र में भारतीय
दृष्टि का सम्यक् प्रतिपादन कर सकेगी।
लेखक ने यह शोध परंपरित शोध
दृष्टि न अपनाकर शोध की सही गहराईयों
को छूकर की है। इसलिये इसमें ताजगी
है -- नैरंतर्य है और सप्राणता है।
अन्य लोकांचलों की लोकसंस्कृति के
इतिहास का सिलसिला इस ग्रन्थ से प्रारंभ
हो सकता है। श्यामसुन्दर
दुबे अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, शासकीय महाविद्यालय हटा (म०प्र०) |