बुन्देलखण्ड में भूमिचित्र की प्रथा उतनी
समृद्ध नहीं है। भूमिचित्रों के नाम पर यहां प्रत्येक
शुभ अवसर पर बनाया जाने वाला अठकलिया चौक ही प्रमुख है। किन्तु विभिन्न अनुष्ठानों हेतु
बनाये जाने वाले भित्तिचित्रों की यहां एक
लम्बी एवं समृद्ध परम्परा है। इनमें दिवाली के अवसर पर
बनाई जाने वाली सिरौती या दीपावली एवं करवा चौथ के अवसर पर
बनाई जाने वाली करवा चौथ विशेष
रुपल से चित्रांकित की जाती है। इनक अतिरिक्त, प्रथम पुत्र की प्राप्ति पर अहोई,
भादों महा की छट को हरछट, दौज, पित्रपक्ष
में सांझी, सुअरा कवांर माह में नौरता, जन्म अष्टमी, विवाह के अवसर पर औरते, नामपंचमी पर नागपंचमी का चित्र,
रक्षा बन्धन पर श्रवण कुमार आदि बनाये जाते है।
समय के साथ चित्रांकन में प्रयुक्त सामग्रि एवं चित्र निरुपण
सैली में भी यहां परिवर्तन आया है।
अनेक घरों में तो छपे छपाये चित्रों
से काम चलाया जाता है।
प्रस्तुत विवरण १९८१ से १९८८ तक किये क्षेत्रीय
सर्वेक्षण अध्ययन पर आधारित है।
ग्वालियर के अनुष्ठानिक भित्तिचित्र
त्यौहारों और कला का कुछ ऐसा तालमेल
शुरु से ही रहा है कि कुछ कलाकर्म तो त्यौहारों का अभिन्न हिस्सा
बन गए है। ऐसा सोचा ही नहीं जा सकता कि इनमें
से एक के अभाव में दूसरा अपना पूर्ण
रुप प्रकट कर सकता है। बल्कि होता तो यहां तक है कि किसी
विशेष कलाकर्म के आरंभ होने से ही
लोग यह बात करने लगते हैं कि अब अमूक त्यौहार आने
वाला है। यह बात केवल लोक समाज
में ही नहीं आदिवासी समाजों में भी होती है वहां
भी अनेक नृत्य गान विशेष त्यौहारों पर ही किये जाते है,
लोग अपनी झोपड़ी की दीवारों पर भित्तिचित्र
बनाकर उन्हे सजाते है, धान की बालीयों के विभिन्न
सुन्दर पैटर्न बनाकर घर में लटकाते है। इस तरह त्यौहार न केवल धार्मिक और
सामाजिक परम्पराओं को जीवन्त रखते हैं
बल्कि वे विभिन्न स्थानों की आदिवासी एवं
लोक कलाओं को अभिव्यक्ति का सशक्त अवसर देकर
उनके फलने फूलने का साधन भी जुटाते है। यह कारण है कि आदिवासी एवं
लोक कलाएं अपना विशिष्ट सन्दर्भ और
अर्थ रखती है।
लोक समाज में कला, उत्सव से अभिन्न और
उत्सव समाज से तथा समाज की रीढ़ है धर्म जो इन
सभी को एक सूत्र में पिरोकर उसे तर्क
सम्मत, शुभ फलदायी, अनुष्ठान में बदल देता है। और तब हमें
लगता है कि लोककला मात्र कला नहीं वह एक
सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है जो अपने
सजावटी या गूढ़ रुप में मानव का मानव को
सम्बोधन ही नहीं बल्कि देवी देवताओं को
मानव द्वारा विनम्र आग्रह है, जिसके द्वारा
वे उन्हें अपने शुभ फलदायी निर्णय लेने के
लिये अभ्यर्थना करते हैं। किन्तु बात
वास्तव में यहाँ तक ही नहीं रुक जाती,
लोक कलाएं, लोक मंगलाकांक्षी तो खोती ही है
साथ ही वे लोक मानस को उनकी रचनात्मक और
सृजनात्मक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का अवसर देकर
उनकी मानसिक भूख भी मिटाती है। लोक चित्रों
में लोक कलाकार, देवी देवताओं को
सम्बोधित कर केवल धार्मिक अनुष्ठान ही पूरा करते
बल्कि वे उनमें देवी देवताओं को अर्पित करने के हेतु एक कला सृष्टि
रचते हैं जैसी कि देवताओं ने उनके उपयोग के
लिये विश्व में की है और तब वह अनुष्ठान
संपन्न करने वाले भक्त के साथ साथ एक
सृजक रचनाकार का आनन्द भी पाते हैं।
उत्सवों में कार्तिक अमावस्या को मनाई जाने
वाली दीपावली का स्थान सर्वोपरि है,
सारे भारत में इसे किसी न किसी
रुप में मानाया जाता है यही कारण है कि इसका प्रभाव
लोक जीवन में अत्यन्त व्यापक है। दीपावली
रामकथा से तो जुड़ी है ही परन्तु इस दिन
लक्ष्मी पूजन की प्रथा भी बहुत पुरानी है।
शायद यही कारण है कि इस पूजा का
बढ़ा चढ़ा प्रचलन व्यापारी बनया वर्ग
में सबसे अधिक दिखता है। दीपावली पर भित्ति चित्र
बनाकर लक्ष्मी पूजन की प्रथा अनेक स्थानों पर पाई जाती है, परन्तु ग्वालियर
में यह प्रथा अपना अत्यन्त विशिष्ट और परिष्कृत
रुप रखती है।
दीपावली का भित्तिचित्र बनाने की प्रथा
सभी हिन्दु जातियों में है। परन्तु नीची
समझी जाने वाली जातियों में यह भित्तिचित्र बहुत ही साधारहण स्तर पर
बनाए जाते हैं या फिर बाजार से खरीद कर
लाए गये लक्ष्मी जी के पन्ने से ही काम चला
लिया जाता है। जबकि कायस्थ, बनिया और
ब्राह्मणों में यह भित्तिचित्र काफी कलात्मक ढ़ग
से बनाए जाते हैं। यूँ दीपावली के भित्तिचित्र का
संबंध लक्ष्मी और उनकी पूजा से ही है परन्तु
ब्राह्मण कायस्थ और बनिया तीनों जातियों
में इस भित्ति चित्र का रुपगत विन्यास और आकृति
संयोजन स्पष्टत: भिन्नता लिये दीखता है। यही नहीं कायस्थों और
बनियों के विभिन्न उपवर्गों में भी इस भित्तिचित्र की
बनावट कुछ बदल जाती है। मुझे बताया गया कि
भटनागर श्रीवास्तव और सक्सैना कायस्थों
में बनने वाले दीपावली के भित्तिचित्र
में आकृतियों की संख्या, स्थान और चरित्र अलग अलग होते हैं। ऐसी
मान्यता है कि जो कायस्थ स्रियां उत्तर प्रदेश के नगरों
से यहां ब्याह कर आती है वे इस चित्र को कुछ अलग ढ़ंग
से बनाती है। स्थानीयता का यह प्रभाव
बनियों द्वारा बनाए चित्रों में सबसे अधिक
मान्य है। ग्वालियर वाले अग्रवाल बनिये अपने आपको इस भित्ति चित्र
बनाने में सर्वोपरि मानते हैं वे कहते हैं कि
मारवाड़ी बनियों की स्रियां यह भित्तिचित्र
उतनी सूक्ष्म विवरणात्मकता से नहीं बना पाती जितनी की
उनकी स्रियां। परन्तु मुझे ग्वालियर
वाले जैन बनियों के घरों में जो दीपावली के भित्तिचित्र की परम्परा कहीं नहीं है परन्तु ग्वालियर के जैनों
में यह स्थानीय प्रभाव से प्रचलन में आ गया प्रतीत होता है। और आश्चर्य की
बात यह है कि इस कला को इन लोगों ने इतना
समृद्ध कर लिया है कि देख कर आश्चर्य होता है। ग्वालियर
में चमेली बाई जैन का घर तो जैसे
सारा का सारा ही चित्र वीथि बना हुआ है। आंगन के तीनों और
बरामदें की दीवारों खम्बो और गलियारों पर दीपावली का चित्र
बना हुआ है और वह भी इस प्रकार कि खम्भों की
बीच में आने पर भी चित्र चाहे जिस कोण
से देखा जाय उसी निरन्तरता भंग नहीं होती। खम्भों के चारों पहलुओं पर चित्र
बने है।
यहाँ बनियों में दीपावली का भित्तिचित्र सिंरोती कहलाता है जबकि
अन्य जातियाँ आमतौर एक सिरौती नहीं कहती। यही नही चित्र की
मूलभूत आकृति भी सिरोती की कायस्थों और
ब्राह्मणों की दीपावली या दीवाली से इस
मायने में अलग रहती है कि सिरोती के
मुख्य तीन भाग होते हैं पुंज, बगीचर, और पुजापा, इनके अतिरिक्त
बनाई गई आकृतियाँ अपना औचित्य तो
रखती है परन्तु अनिवार्य नहीं होती। सिरौंती की आकृति
उतनी एथ्रोपामाफिक नहीं होती जितनी की जयामितिक। परन्तु दीवाली की
मूलभूत आकृति मानवतारोपी अधिक प्रतीत होती है क्योंकि इसमें दीवाली को नारी आकृति
अथवा लक्ष्मी का रुप देने का प्रयास किया जाता है। इस
मानवतोराजी दीवाली चित्रम का प्रभाव कहीं कहीं
बनियों की सिरौती में भी देखने को
मिलता है मैने एक ऐसी सिरौती देखी जिसमें
सारी ज्यामितिक आकृति बनाकर उसका चेहरा हाथ और पैर
बना दिये गए थे। दीवाली के चित्र में पुंज
बगीचा और पुजाये का कोई समग्र
समनिवत मोटिफ नहीं होता, बल्कि यहाँ दीवाली की केन्द्रीय आकृति के चारों ओर
लक्ष्मी जी से सम्बन्धित प्रतीक और शुभ
वस्तुओं का चित्रण कर दिया जाता है। कभी कभी तो स्रियाँ करवा चौथ
अथवा अहोई अष्टमी का चित्र दीवाली के चित्र के
साथ मिलाकर सारी दीवार चित्रित कर देती है। दानाओली नाम के एक
मुहल्ले में मैने सरस्वती देवी श्रीवास्तव की
बनाई अहोई आठे और दीवाली का
सम्मिलित चित्र और शोभा श्रीवास्तव द्वारा चित्रित करवा चौथ और दीवाली का ऐसा
सम्मिलित भित्तिचित्र देखा जिसने कमरे की एक पूरी की पूरी दीवार घेर
रखी थी।
आमतौर पर सिरौती उस कमरे में बनाई जाती है जिसमें तिजोरी
रखी जाती है अथवा घर का मूल्यवान
सामान रखा जाता है। किन्तु कायस्थ और
ब्राह्मण इसे किसी भी कमरे की दीवार पर
बना लेते है।
यूँ चित्र का कोई माप निश्चित नहीं होता परन्तु
साधारणत: यह उपलब्ध स्थान और इसे
बनाने वाली स्री को इसे चित्रित करने के
लिये मिलने वाले समय पर निर्भर करता है। स्रियाँ इस करवा चौथ के
बाद बनाना आरंभ करती है, इसके
लिये सोमवार या शुक्रवार अथवा
सातें और आठें के दिन शुभ माना जाते है। चित्रण किसी
भी आकृति के प्रारंभ किया जा सकता है परन्तु स्रियाँ पहले दिन पाँच
या सात बुन्दकियाँ बनाकर फिर उन्हें विस्तार देना आरंभ करती है। आजकल
बुन्दकियों का ग्राफ बनाकर और सीधे ही
रेखांकन शुरु करके इन दोनों ही पद्धतियों
से चित्रण किया जाता है।
परन्तु मान्यता यह है कि
बुन्दकियों का ग्राफ की जाने वाली चित्रण पद्धति प्रमाणिक और प्राचीन है, परन्तु धीरे धीरे
लोग इसे या तो भूलते गए या फिर
शीघ्र काम निपटा देने की प्रवृत्ति के कारण पतली तीली हो सहायता
से सीधे रेखांकन द्वारी ही चित्रण करना पसन्द करने
लगे है। आजकल ऐसे चित्रों की संख्या
सर्वाधिक रहती है जिनका कुछ भाग तो
बुन्दकियों के ग्राफ से बनाया गया होता है और कुछ
सीधे रेखांकन से। बुन्दकियाँ द्वारा
बनाये गए चित्र पूर्णत: नपे तुले और ज्यामितिक
स्वभाव के बनते है जबकि मुक्त हस्तसे किये गए
रेखांकन से इन चित्रों में विविधता तो आती है
साथ ही नयी नयी आकृतियों का भी चित्र में समावेश होने
लगा है।
सिरोती में बनाई जाने वाली आकृतियाँ है
बगीचा, पुंज, पुजापा परन्तु इसके चारों और
अनेक आकृतियाँ बनाई जाती है। जिनका
उद्देश्य खाली स्थान ही सजावट के साथ
साथा प्रतीकात्मक भी होता है। ये आकृतियाँ है गाय,
बछड़ा, कुम्हार कुम्हारिन, स्याऊ, म्याऊ और
उनके सात बच्चे, रई, मथंनिया, पंडरी, तुलसी, जुआरी,
लिखरी, छीप, सातिया, राजा, रानी, नार नवरिया, जेठ, जेठूला,
सात चिड़िया चिड़वा अमृत का प्याला, हाथी, तोते, पांच पांडव, १५
बूंद का फूल, १६ बून्द का फूल, कमल,
मोर आदि। इनमें सिरोंती की आकृति केन्द्रीय और प्रमुख होती है। जिसके शीर्ष पर पुंज तथा नीचं पुजापा और
बीच में बगीचा बनाया जाता है। अन्य आकृतियाँ इसे चारों ओर
बनती है जिन्हें एक बाउडर युक्त हाशीये
से घर दिया जाता है। यहाँ हाशीया
विशेष रुप से ध्यान खींचते है और
ये भील आदिवासियों द्वारा ईन्द्रपूजना के
लिये बनाए जाने वाले पिठौरा भित्तिचित्रों
में बने हाथियों की याद दिलाते हैं।
सिरौती को देवी रुप माना जाता है इसलिये
सारे चित्र के नीचे एक पीढ़ा चित्रित किया जाता है और ऐसा
माना जाता है कि सिरौंती पीढ़े पर विराजमान है। चित्रण स्रियाँ बहुत ही
भक्तिभाव से किया जाता है स्रियाँ स्नान करने के
बाद बिना कुछ खाए पिये चित्रण करती है। लोहिया
बाजार की शान्ति बाई अग्रवाल बताती है कि सिरौंती के भित्तिचित्र
में बनी आकृतियाँ का बड़ा महत्व होता है,
अनेक वस्तुएँ तो दो-दो बार बनाई जाती है। जो
वस्तुएँ पुजापे के बाहर चित्रित की जाती है वे सभी चित्रित देवताओं के लिये होती है परन्तु पुजापे के
अन्दर चित्रित वस्तुएँ उन देवताओं के लिये होती है जिनका सिरौंती पूजन
में आह्मवाहन किया
जाता है। यही कारण है कि चित्र में स्रियाँ
वे सभी वस्तुएँ बनाने का प्रयास करती है जिनकी इस त्योहार पर आवश्यकता होती है।
परन्तु स्रियाँ अपनी सिरौंती दूसरो के ज्यादा
सुन्दर और बड़ी बनाने की प्रतिस्पर्धा और किसी
विशेष देवी देवता के प्रति अतिरिक्त झुकाव के कारण इस भित्ति चित्र
में अनेक देवी देवताओं के चित्र बना देती है।
मैने पाया कि, हालांकि यह उत्सव और भित्तिचित्र
लक्ष्णी और रामकथा से जुड़ा हुआ है परन्तु इसमें कृष्म और
उनकी लीलाओं के भी चित्र छोड़ दिए जाते है। जैन स्रियों द्वारा
बनाई सिरौंती में जैन तीर्थांकर महावीर
स्वामी अथवा पार्श्वनाथ तो अवश्य ही चित्रित किये जाते है।
रंग योजनाओं की दृष्टि से सिरौंती बहुत ही
समृद्ध होती है हालांकि इनमें
विशेष और उपलब्ध मिट्टी या चूने के
रंगों का ही प्रयोग होता है परन्तु उन्हें इस प्रकार घोंट कर तैयार कर
लगाया जाता है कि उनकी चमक और प्रभावकता
लम्बे समय तक बनी रहती है। सबके पहले आकृतियों का
रेखांकन किया जाता है, इसके लिये काला
रंग कोयले के कपड़े से छने बारीक चूर्ण
में थोड़ा सा गुड़ मिलाकर घोल तैयार किया जाता है। गुड़
मिलाने से रंग पक्के, चमकदार हो जाते हैं। जब
सारी आकृतियाँ रेखांकित हो जाता है तब
उनमें रंग भरे जाते हैं। प्रमुख रंग है गेरु, पेवड़ी, सिन्दूर, नील महावर, तोतिया। परन्तु आजकल इसमें
रंगों का परम्परागत आग्रह समाप्त होता जा रहा है पढ़ी
लिखी स्रियाँ रेडिमेड पोस्टर कलरों का प्रयोग करने
लगी है। कई स्थानों पर तो मैने पाया कि
लोगों में सिरौंती का चित्र कागज पर
बना कर मढ़वा लिया है जिसे वे पूजा के
लिये प्रयुक्त कर फिर रख देते है। कुछ
लोगों ने दीवार पर आइल पेन्ट से स्थाई चित्र
बनवा लियेहै, एक स्थान पर तो टीन के
बोर्ड पर आइल पेन्ट से बनी सिरौंती
मैने देखी। बाजारों में बी अब दीवाली के प्रिन्टेड चित्र
बिकते है और लोग उनसे ही काम चला
लेते है। परन्तु फिर भी दिवाली के भित्ति चित्रण की प्रथा खत्म नहीं हुई है। उसमें कुछ कमी जरुर आ गई है।
करवा चौथ
पति की दीर्घायु के लिये की जाने वाली इस पूजा में स्रियाँ करवा चौथ चित्रांकित कर उसकी पूजा करती है।
करवा चौथ की परम्परागत चित्रण पद्धति
में दीवार पर पृष्ठभूमि हरे रंग की
बनाई जाती है। हरे रंग के लिये तुरैया के पत्तों के
रस का प्रयोग किया जाता है। किया यह जाता है कि हरा
रंग भरने के लिये पत्तों की दीवार पर
रगड़ा जाता है। इस प्रकार तैयार पृष्ठभूमि पर चावल के आटे के पेस्ट से चित्रांकन किया जाता है जिस पर महावर के गुलाबी
रंग की टिपकिया लगाई जाती है। बनाई जाने
वाली आकृतियाँ पाँच भाई, एक बहन,
बड़ का पेड़, सूरज, चाँद, सतिया, करवा तुलसी का पेड़। यह आकृतियाँ
बनाना आवश्यक है इनके अतिरिक्त अलंकरण हेतु कोई
भी आकृति बनाई जा सकती है। कुछ स्रियाँ इसमें
सीता राम और अपने पति का नाम भी
लिख देती है। आजकल तो करवा चौथ चित्रित करने हेतु पोस्टर कल एवं अइल
कलर का भी प्रयोग किया जाने लगा है।
करवा चौथ का चित्रण कायस्थ एवं ठाकुरों
में सर्वाधिक किया जाता है। मैने पाया कि ठाकुरों
में बनाई जाने वाली करवा चौथ परमपरागत ढंग
से एवं आकार में छोटी बानाई जाती है। इनमें आकृति विधान पूर्ण
रुप से परम्परागत होता है जिसके निरुपण
में आदिम चित्रलेखों की सादगी, सहजता दिखती है। आकृतियाँ मिथकीय ऊर्जा
से प्रदीप्त विवरण रहति होती है। किन्तु कायस्थों
में इस अतिरिक्त रंगों के प्रयोग एवं
अत्याधिक विवराणत्मकता से चित्रित किया जाता है।
वे इसमें करवाचौथ से सम्बन्धित किवदन्ति का पूर्ण
इलस्टेशन सा करते प्रतीत होते है।
अहोई आठे
इसे अहोई अष्टमी भी कहते हैं। करवाचौथ के चौथे दिन अहोई अष्टमी
मनाई जाती है। इस दिन पुत्रवती हुई नव
वधु पुत्रों की दीर्घायु के लिये अहोई चित्रित कर उसे पूजती है। अहोई
माँ देवी का स्वरुप मानी जाती है। अहोई का परम्परागत चित्रण
अत्यन्त सरल एक प्रतीकात्मक ढंग से किया जाता है। जिसमें एक चौक के
मध्य में चाँदी का रुपया अहोई माता का प्रतिनिधित्व करता है जिसके दोनों ओर
लाल और काले सात सात प्याऊ बनाये जाते है। किन्तु कुछ स्रियाँ इससे
सम्बन्धित किवदंती का पूर्ण विवरणात्मक चित्रण करती है।
वे इसमें गेरु से सात बहु, सात बेटे,
सात स्याऊ, सात काले स्याऊ, कुम्हार, कुम्हारिन, तुलसी का पेड़, चाँद,
सूरज, तारे, स्वास्तिक, चिड़िया, देवरानी, जिठानी, पलंग, सुहाग पिटारी, नर्तनी आदि अंकित करती है। इसे
रेखांकन में चूने की पृष्ठभूमि पर गेरु, नील, महावर, पेवड़ी, तोतिया आदि
रंगों का प्रयोग किया जाता है।
अनेक स्थानों पर मैनों पाया कि स्रियाँ करवा चौथ एवं अहोई आठे की चित्रांकन एक
साथ मिलाकर कर लेती है। अनेक घरों
में कमरे की सम्पूर्ण दीवारें ही इन चित्रों
से भरदी गई थी। इन्हें बनाने का स्थान निश्चित नहीं होता। अधिकांशत: इन्हें किसी कमरे के
अन्दर बनाया जाता है।
श्रवण कुमार
सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में समस्त लोक जातियों की स्रियाँ
विशेष रुप से किशोरिया, रक्षाबंधन के त्यौहार पर
श्रवणकुमार की पूजा करती है। ताकि
उनके भाई भी श्रवणकुमार की तरह अपने
माता पिता की सेवा करें इनके आज्ञाकरी
बने। इस दिन घर के प्रवेश द्वार या फिर
मुख्य कमरे के प्रवेश द्वार के दोनों ओर
श्रवण कुमार की आकृति अंकित की जाती है। इसके अंकन हेतु गेरु
से दरवाजे के दोनों ओर चौक बनाया जाता है जिसमें
श्रवण कुमार की आकृति चित्रित की जाती है।
मुख्य चित्र कंधे पर कांवड़ लिये युवक की होती है। कांवड़ के दोनों पल्लों
में स्री, पुरुष बनाई जाती है, जो
श्रवण कुमार के माता-पिता का प्रतिनिधित्व करते हैं। कभी-कभी केवल
श्रवण कुमार ही चित्रित किया जाता है, चौक नहीं
बनाया जाता। चित्र का आकृति निरुपण ज्यामिति एवं पुरातन परम्परागत
सादगी एवं सहजता लिये होता है।
मौरते
बुन्देलखणड की लोक जातियों में विवाह के
समय मौरते चित्रित कर उन्हें पूजने की प्रथा
अत्यन्त प्राचीन है। इसका सम्बन्ध यह दूल्हादेव
अथवा हरदौल की पूजा जोड़ा जाता है। विवाह के उपरान्त जब
वर
वधु प्रथम बार घर में प्रवेश करते हैं तब
वे गृह प्रवेश के पूर्व मौरते पूजते हैं। इनका अंकन प्रवेश द्वार के दोनों ओर किया जाता है। गेरु की
सपाट चौकोर पृष्ठभूमि पर चावल के आटे के घोल
से इन पर एक ओर बहू बेटा, चौक,
स्वास्तिक एवं दूसरी ओर पांच या सात खजूर चित्रित की जाती है। कभी-कभी
बेटे के घोड़े पर सवार तथा बहू को पालकी
में बैठा चित्रित किया जाता है। इसका अंकन प्रतीकात्मक ढंग से किया जाता है।
गोवर्द्धन
दीपावली के दूसरे दिन गोवर्द्धन पूजा की जाती है। इस दिन
भूमि पर गोबर से गोवर्द्धन बनाया जाता है। गोवर्द्धन का निरुपण
अनेक प्रकार से किया जाता है। कुछ स्रियाँ गोबर के पाँच पिणड
बनाती है तो कुछ इसे मानवरुप में निरुपित करती है। कुछ स्थानों पर
मैनें देखा कि गोवर्द्धन के चारों ओर चौक
भी पूरा गया था।
पशुओं पर चित्रांकन
समस्त बुन्देलखण्ड में प्रथा है कि दशहरे के दिन विसेष तौर पर कुम्हार अपने गधों एवं घोसी अपनी गया
भैसों की पूजा करते हैं। वे इन्हें अपनी जीविक कमाने पर
साधन मानते है एवं उन्हें विभिन्न रंगों की चित्रकारी कर
सजाते है। कई बार रंग के स्थान पर मेंहदी का
भी प्रयोग किया जाता है।
भित्ति अलंकरण एवं
लिपाई
विवाह एवं त्योहारों के अवसर पर
अनेक छोटी समझी जाने वाली जातियों के
लोग अपने घरों को सुन्दर भित्तिचित्रों
से सजाते हैं। वे इसके लिये चूने
अथवा मिट्टी के रंगों से सुन्दर फूलों
वाले गमले, बेले एवं पशु पक्षियों के चित्र अंकित करते हैं। दरवाजे एवं खिड़कियों के चारों ओर
विशेष बार्डर बनाये जाते है।
घर के आंगन एवं कच्चे भाग की लिपाई
विशेष रुप से की जाती है। इसके
लिये आंगन के चारों और सफेद बार्डर
बनाया जाता है तथा मध्य भाग में लाल मिट्टी एवं गोबर के पतले घोल
से सपाट लिपाई की जाती है। कोनों
में बुन्दकियों एवं रेखाओं की पुनरावृत्ति
से सुन्दर सजावट की जाती है। इस ढिंग देना कहा जाता है।
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