ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित कथाएं
मथुरा की कलाकृतियों में इस प्रकार की कथाओं की संख्या बहुत ही थोड़ी है। निम्नांकित कथा-दृश्य विशेष महत्त्वपूर्ण है :-
(१) वसुदेव का कृष्ण को गोकुल ले जाना (सं. सं. १७.१४३३, चित्र ५८)
एक शिलाखण्ड पर कृष्ण-चरित्र से सम्बन्धित इस कथा का अंकन किया गया है। उन दिनों मथुरा में कंस का शासन चल रहा था उसके पिता उग्रसेन के एक मंत्री का नाम वसुदेव था। वसुदेव के कार्यों से प्रसन्न होकर कंस ने अपनी बहन देवकी उनके साथ ब्याह दी पर बारात के समय ही भविष्यवाणी हुई कि वसुदेव और देवकी के आठवें पुत्र के हाथ से कंस का निधन होगा। यह सुनते ही कंस ने दोनों को कारागृह में डलवा दिया और वहाँ पर
उत्पन्न इनके छह पुत्रों को भई मार डाला। सातवां पुत्र उत्पन्न ही नहीं हुआ अथवा उसकी उत्पत्ति गुप्त रखी गई। आठवें कृष्ण थे। इन्हें कंस के कठोर पंजों से बचाने के लिये वसुदेव ने जन्म के बाद तत्काल ही अपने मित्र नन्द के यहाँ गोकुल पहुँचा दिया। ऐसा करने के लिये उन्हें यमुना को लांघना पड़ा। पानी बरस रहा था, रात का समय था परन्तु कथा हमें बतलाती है कि मार्ग में शेषनाग अपने फणों से इनका संरक्षण करते रहे। प्रस्तुत शिलाखण्ड में यमुना नदी, दोनों हाथ उठाए हुए वसुदेव और शेषनाग स्पष्ट पहिचाने जा सकते हैं।
(२) श्रीकृष्ण का केशी के साथ युद्ध (सं. सं. ५८, ४४७६, चित्र ६४)
कृष्ण-लीला से सम्बन्धित कुषाण काल की यह दूसरी कलाकृति है। ऐसा लगता है कि यह भार-संतुलन का कोई एक साधन था जिसके बाहरी भाग पर कृष्ण लीला के दृश्य बने थे। प्रस्तुत शिलाखण्ड पर एक उछलता हुआ पुष्ट घोड़ा बना है जिसकी गर्दन पर किसी पुरुष की लात पड़ रही है। मल्ल विद्या से श्रीकृष्ण का सम्बन्ध होने के कारण हो सकता है कि यह केशी-वध की घटना का अंकन हो। कथा के अनुसार गोकुल में रहने वाले बालक श्रीकृष्ण को मारने के लिए कंस ने अपने अनेक अनुयायी भेजे जिन्होंने विवध रुप लेकर कृष्ण को नष्ट करने का असफल प्रयत्न किया। केशी भी उनमें से एक था जिसने घोड़े का रुप बनाकर कृष्ण पर आक्रमण किया पर अन्त में वह कृष्ण द्वारा मारा गया।१
(३) कालिय नाग का दमन (सं. सं. ४७,३३७४ चित्र ८९)
गुप्तोत्तर काल में कालिय दमन की घटना को अंकित करना कलाकारों का प्रिय विषय रहा है। प्रस्तुत मूर्ति भी उसी प्रवृत्ति का एक नमूना है। वैष्णव कथाएं हमें बताती हैं कि उन दिनों यमुना में कालिय नाम का एक भंयकर विषधर सांप रहता था जिसने सम्पूर्ण वातावरण को विषमय बना रखा था। यमुना के जल में गिरे हुए गेंद को निकालने के बहाने से श्रीकृष्ण जल में कूद पड़े और कालिय को पकड़कर उसके फण पर नाचने लगे। कृष्ण ने कालिय पर पूर्ण रुप से विजय पा ली किन्तु नाग की रानियों द्वारा विनय किये जाने पर उन्होंने नाग के जीवन को बचा दिया। कालिय को श्रीकृष्ण ने उस स्थान को छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी।२
(४) श्रीकृष्ण का गोवर्द्धन पर्वत उठाना (सं. सं. डी. ४७, चित्र ९०)
यह कलाकृति गुप्तोत्तर काल की है जो श्रीकृष्ण के गोवर्द्धन पर्वत धारण करने के दृश्य
को अंकित करती है। यह लाल चित्तेदार पत्थर पर बनी है जिसकी गणना मथुरा कला को सुन्दरतम कलाकृतियों में की जा सकती है।३
मूल कथा का स्वरुप निम्नांकित है :
कृष्ण के कहने पर बृज के लोगों ने वर्षा देवता इन्द्र की पूजा करने की अपनी पुरानी परम्परा छोड़ दी और उसके विपरीत वे गोवर्द्धन पहाड़ की पूजा करने लगे। इस अपमान ले क्रुद्ध होकर इन्द्र ने बृज पर घोर वर्षा करना प्रारम्भ किया। डरे हुए बृजवासी श्रीकृष्ण के पास पहुँचे। इस पर श्रीकृष्ण ने अपने हाथ पर गोवर्द्धन पर्वत उठाकर बृजवासियों के लिए एक विशाल सुरक्षित स्थान का निर्माण किया। सम्पूर्ण बृज को बहा देने के प्रयत्न में अपने को असफल देखकर इन्द्र का गर्व चूर्ण हो गया और उसने आकर श्रीकृष्ण से क्षमा प्रार्थना की।४
(५) रावण द्वारा कैलाश को उठाना (सं. सं. ३५.२५७७, चित्र ८३)
गुप्तकाल से मध्यकाल तक इस कथा का अंकन शैव कलाकारों का प्रिय विषय रहा। प्रस्तुत शिलाखण्ड पर एक पर्वत-शिखर पर शिव-पार्वती बैठे हुए दिखलाई पड़ते हैं जिसे एक राक्षस कंधों पर उठाने का असफल प्रयत्न कर रहा है।
इस दृश्य से सम्बन्धित कथा हमें बतलाती है कि एक बार लंका का राजा रावण कुबेर को पराजित करके लौट रहा था। शरवन नामक स्थान के पास आते ही उसके विमान की गति अकस्मात अवरुद्ध हो गई। कारण का पता लगाने पर उसे मालूम हुआ कि उक्त स्थान पर शिव-पार्वती विहार कर रहे हैं। अतएव वहाँ किसी का भी जाना रोक दिया गया है। अपनी गति को कुंठित जानकर अपमानित रावण न क्रोध से समूचे कैलाश को उखाड़ डालने की निश्चय किया और पूरी शक्ति लगाकर वह ऐसा करने लगा। कैलाश कम्पित हो उठा और उमा भयभीत हो गई। शिव ने इस बात को जान लिया और अपने पैर के अंगूठे से कैलाश को दवा दिया जिसके नीचे रावण भी दबने लगा। अब रावण ने क्षमा प्रार्थना की और बाद में शिव ने उसे क्षमा दान दे दिया।५
(६) श्रृंगी ॠषि की कथा (सं. सं. ००. जे ७; ११-१५१)
मथुरा से मिले हुए एक वेदिका स्तम्भ पर तरुण श्रृंगी भौचक्का-सा खड़ा है। दूसरे स्थान पर उसे हम राजकुमारी के साथ प्रणय-क्रीड़ा करते हुए पाते हैं।
श्रृंगी ॠषि की कथा ब्राह्मण साहित्य में ही नहीं बौद्ध साहित्य में भी मिलती है।
श्रृंगी एक ॠषि का बेटा था। वह वन में जन्म से ही ऐसे स्थान पर रहा था जहाँ स्रियों का दर्शन दुर्लभ था। एक राजा चाहता था कि उसके राज्य में पड़े हुए अकाल की शांति के लिए यह तरुण ब्रह्मचारी वहां आए। अतएव उसने उसे बुलाने के लिए राजकुमारी को भेजा। शनै: शनै: राजकुमारी की काम चेष्टाओं का प्रभाव ब्रह्मचारी पर पड़ता गया और एक दिन वह उसके साथ नौका पर बैठ कर चल पड़ा। बाद में राजा के द्वारा वह राजकुमारी उसके साथ ब्याह दी गई।६
फुटकर दृश्य
यहां की कलाकृतियों में जैन कथाओं का तो अभाव सा है। एक शिलाप पर, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में है (लखनऊ संग्रहालय संख्य जे. ६२६) तीर्थकर महावीर के गर्भ के संक्रमण की कथा अंकित है।
दूसरे एक वेदिका स्तम्भ के टुकड़े पर (लखनऊ संग्रहालय जे. ३३४) पंचतंत्र की एक कथा का दृश्य बना हुआ है जिसका सम्बन्ध तीक्ष्णविषाण नामक बैल और प्रलोभक नामक सियार की कथा से जान पड़ता है।
१. विष्णुपुराण, पंचम अंश,
सोलहवाँ अध्याय।
२. विष्णुपुराण, पंचम अंश, ५,७,४४ (गीताप्रेस प्रति)
आनम्य चापि हस्ताभ्यामुभाभ्यां मध्यमं
शिर:।
आरुह्याभुग्न शिरस: प्रणनर्त्तोरुविक्रम:।।
३. गोवर्धनधारी कृष्ण की कुषाण-गुप्तकालीन
मृण्मयी मूर्ति रंगमहल से मिली है जो आज
बीकानेर संग्रहालय में है--ललितकला,
संख्या ८, फलक २१, चित्र १।
४. विष्णुपुराण, पंचम अंश, १०वाँ अध्याय।
५. गोपीनाथ राव, Elements of Hindu
Iconogrpahy, खण्ड २, भाग १, पृ. २१७-२१८।
७. वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum,
FUPHS , खण्ड २४-२५ पृ. ७-१०।
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