दर्शन और
लोकदर्शन में दर्शन या सम्यग्दर्शन
की समानता तो है, लेकिन दोनों में
एक खास अंतर यह है कि दर्शन किसी
विशिष्ट विचारक द्वारा एक विशिष्ट
दार्शनिक मत के रुप में प्रतिपादित
होता है और उसके अनुयायी या
तो विशिष्ट दृष्टिकोण या प्रवृति स्वयमेव
निर्मित कर एक निजता प्रतिष्ठित कर लेते
हैं अथवा फिर एक संप्रदाय बना लेते
हैं, जबकि लोकदर्शन विचारक या वर्ग-विशेष
का दर्शन न होकर लोक का दर्शन
होता है और वह सदैव अनामधारी
एवं संप्रदायमुक्त रहता है । वस्तुत:
विशिष्ट दार्शनिक समय-समय पर
देशकाल की जरुरतों के अनुसार अपना
दर्शनिक मत या मान्यताएँ रखते हैं,
लेकिन उनके बासी होने पर फिर
कोई अन्य नये मत की प्रतिष्ठा करता
है और इस तरह दर्शन का विकास
होता रहता है । उनके विचार
किसी-न-किसी माध्यम से लोक तक
पहुँचते हैं और लोक उनमें से
चुनाव करता हुआ उपयोगी और
सहज विचारों को अजाने ही ग्रहण
करता है । साथ ही परम्परित
विचारों को परखकर नये
विचारों से उनका समन्वय करता है
और लोक के बीच प्रस्फुटित
विचारों का भी स्वागत करता है । उपयोगिता
और लोकहित की कसौटी पर खरे उतरने
वाले विचार लोकमान्य होकर लोकदर्शन
की संज्ञा प्राप्त करते हैं । इस तरह लोकदर्शन
में परम्परित, विशिष्ट दार्शनिक मत
से गृहीत और लोक के बीच से प्राप्त
विचारों का समन्वय होता है और
समन्वय की यह प्रक्रिया लोक द्वारा अपने
आप होती है ।
समन्वय की
इस भूमिका पर एक प्रश्न खड़ा हौ
जाता है कि लोक तो चिंतन करता
नहीं है, फिर क्या लोकदर्शन दर्शन
कहा जा सकता है । चार्वाक, माध्यमिक,
योगाचार आदि नास्तिक और न्याय, सांख्य,
वेदांत आदि आस्तिक दर्शनों के अपने-उपने
चिंतक और प्रवर्तक रहे हैं और उनका
चिंतन लिखित रुप में उपलब्ध है, किंतु
लोकदर्शन ये दोनों शर्तें? पूरी
नहीं करता । असल में लोकदर्शन की प्रक्रिया
सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक है, जिसे
समझने के लिए लोक से साक्षात्कार
करना आवश्यक है । अंचल के लोक में
हर तरह के व्यक्ति होते हैं और
सब अपनी क्षमताओं के अनुरुप
चिन्तन-मनन करते हैं । व्यक्ति के
विचार वैयक्तिक होते हैं, जो उसकी
कविताओं , कहानियों आदि रचनाओं,
विविध लोकोत्सवों पर उसकी भागीदारी,
लोक में उसके द्वारा संपादित कार्यीं,
अपने विचारों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति
आदि से जाने जाते हैं । जब वैयक्तिक
विचार लोक द्वारा स्वीकृत हो
जाते हैं और लोक उन्हें अपना बना लेता
है, तब वे लोकदर्शन के अंग बन
जाते हैं । अब एक दूसरा प्रश्न है कि लोकदर्शन
का पता कैसे चले और उसकी अभिव्यक्ति
कहाँ होती है । उत्तर में लोककाव्य,
लोककथाएँ, लोकनाट्य, लोकोक्तियाँ
आदि लोकसाहित्य के विविध अंग; लोकचित्र,
लोकमूर्ति आदि लोककलाएँ; लोकासमाज,
लोकपंचायत, मेले, लोकोत्सव आदि
लोकसंस्थान; लोकदेवों की पूजा, व्रत-उपवास,
लोकपर्व आदि धार्मिक मान्यताएँ तथा
लोकमूल्यों या लोकादर्शों के अनुरुप
लोकाचरण जैसे लोकव्यापार
गिनाए जा सकते हैं ।
सैद्धांतिक
दूरुहता, जटिलता और सांप्रदायिकता
लोकदर्शन में नहीं होती । वह सरल,
सहज, समन्वयकारी और
व्यावहारिक होता है, क्योंकि लोक
का सोच लोकजीवन से ही सोते
की तरह फूटकर निकलता है । लोक
की आस्था और विश्वास का प्रमुख आधार
लोकदर्शन है और लोकदर्शन ही लोकधर्म
और लोकमूल्य का मार्ग प्रशस्त
करता है । लोकदर्शन की गति धीमी
हो सकती है, लेकिन उसकी संकल्पित
दृढ़ता लोक के निर्माण को पक्का
करती है । लोकदर्शन बदलता है,
तो लोक बदलता है और लोक तो
लोकदर्शन । इस तरह दोनों का संबंध
इतना घनिष्ट है कि लोकदर्शन की उपेक्षा
नहीं की जा सकती ।
लोकमन का
जन्म तभी हुआ, जब लोक बना और लोक
तभी बना, जब मानव ने लोक के बारे
में सोचना शुरु किया । पहले
बहुत छोटे-छोटे समूह थे, फिर
धीरे-धीरे कई समूह एक साथ
गुफाओं में रहने लगे । जैसे ही
खेती करना शुरु हुआ, मैदानों में बस्ती
बसने लगी । गुफा और कुषि-युग,
दोनों में लोकदर्शन का स्वरुप
जागतिक रहा है । गुफा-युग में उसका
आधार रक्षा और भय का समाधान है,
जबकि कृषि-युग में सृजन और संवर्द्धन
की समस्या । बुंदेलखंड में आर्येतर
वन्य जातियाँ-पुलिंद, निषाद, शबर
आदि निवास करती थीं । समुदाय में
रहते हुए उन्हें उतना ही जगत् मालूम
था, जितना उन्होंने अपनी आँखों से
देखा था । प्रत्यक्ष या ऐंद्रिक ज्ञान ही उवके
अनुभवों का केन्द्र था । इसलिए उन्हें
जगत् में दो तरह की वस्तुएँ मिलीं-उपयोगी,
जो भोजन, पेय, प्रकाश आदि देती थीं
और घातक, जो शारीरिक दु:ख और
मृत्यु का कारण सिद्ध हुईं । दोनों
को सजीव मानकर उन्हें प्रसन्न करने
की भावना ही उनके लोकदर्शन का सत्य
था । कृषि-युग में एक दूसरा सत्य भी
उससे जुड़ गया और वह था-सृजन के
रहस्य का ज्ञान । पुलिंद और शबरों
की मातृदेवी और भूदेवी की पूजा
से प्रकट है कि इस जनपद में सृष्टि
के रहस्य को समझने और सृजनशक्ति
को सर्वीपरि मानने का प्रयास हुआ
था । कृषि-युग में जीवन की तकनीक पूरी
तरह बदल चुकी थी, इसलिए लोकमूल्यों,
लोकदर्शन और लोकधर्म में परिवर्तन
स्वाभाविक था ।
रामायण-काल
में दार्शनिक ॠषियों के द्वारा वैदिक
दर्शन का प्रचार-प्रसार हूआ था, लेकिन
इस जनपद पर उसके प्रभाव के प्रामाणिक
साक्ष्य नहीं मिलते । इसी तरह
नाग-वाकाटक युग के पूर्व किस
तरह का दार्शनिक विकास यहाँ
हुआ, उसका अनुमान ही किया जा सकता
है । वैदिक, ब्राह्मण, जैन, बौद्ध-दर्शनों
एवं तंत्रवाद ने अपनी दार्शनिक मान्यताओं
को यहाँ भी फैलाया और यह निश्चित
है कि लोक ने उनका आस्वादन किया
था । लेकिन यक्षकालीन मान्यताएँ अपनी
निजता को सुरक्षित रखे रहीं । इस
समय (' गाँव-गाँव
कौ ठाकुर और गाँव-गाँव कौ बीर'
से) ठाकुर गोंड़ों के ग्रामदेव) और
बीर (यक्षदेव) की महत्ता थी । गोंड़ों
का प्रभाव इस प्रदेश पर इतना अधिक
रहा है कि इसका नाम ' गोंड़वाना'
और ' गुड़ाना' रहा है
। गोंड़ों के लोकगीतों से पता चलता
है कि सृष्टिकर्ता तो परभू (प्रभु) भगवान्
है और उसकी माया लीलाएँ करती
रहती हैं । (धन धन परभू जी की माया
हो, देखो संसार में कैसी लीला
छाया है ।) लेकिन संसार की सत्ता बड़कादेव
के हाथ में है । एक लोककथा के अनुसार
बड़कादेव ने जिसे हल और नागर
दे दिया, वह गोंड़ हो गया; जिसे मछली
का जाल, वह केवट; जिसे लेखनी,
वह ब्राह्मण और जिसे तलवार, वह
क्षत्रिय हो गया । मानव का शरीर
क्षणभंगुर है, उसका कोई ठिकाना
नहीं (तन नैहा ठिकाना) । हंसारुप
जीव प्रियतम के दर्शन के लिए गाँव
की गली-खोर में फिरता रहता है और
उनके बिना रात में ही उड़ जाता है । जश
गीत गोंड़ों के धार्मिक गीत हैं,
जिनमें उनके देवों का यश रहता है
। उनके देवी-देवता अनेक हैं,
खैर-खूँट-मुठिया देव से लेकर सुरज
देवता तक । लेकिन अधिकांश देव सांसारिक
हैं, किसी-न-किसी सांसारिक बाधा या
शुभ व्यापार से जुड़े हुए । सभी आदिवासी
भय, रक्षा और उपयोगिता की चिंता
करते हैं । उनके लिए यह जगत् ही
सब कुछ है, परलोक की कल्पना पर
उन्हें भरोसा नहीं । इस प्रकार यक्षकाल
का लोकदर्शन सीधा-सरल,
व्यावहारिक और जागतिक है ।
यक्षा की पुजा
अमृत के लिए की जाती थी । लोकविश्वास
था कि यक्ष के पास अमृत है, जिसे पान
कर मनुष्य ' अमर'
हो जाता था । अमरत्व का अर्थ है-काम,
क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार और
शरीर को अपने वश में करने से प्राप्त
सुख । महाभारत के एक श्लोक में (मोक्षधर्म,
१७१/५२) यही अर्थ दिया गया है, जिससे
स्पष्ट है कि पहले यक्ष-पूजा से यही
सुख प्राप्त करने का उद्देश्य रहा
होगा, लेकिन बाद में उसके प्रतीक-' अमरत्व'
को ही लोक ने मान्य कर लिया था और
यह प्रचलित हो गया था कि कुबेर या
यक्ष के पास अमृत का घट है । इससे
यह भी अर्थ निकलता है कि उस समय
मानव की अमरता के बारे में सोचा
जाने लगा था । मानव वृद्ध होकर
जवान बन सकता है और अंधा भी
नेत्र प्राप्त कर सकता है । महाभारत
में, कहा गया है-" यत्
प्राश्य पुरुषो मत्र्यो अमरत्वं
निगच्छति। अचक्षुर्लभते चक्षुर्वृद्धो भवति
वै युवा ।" -१
मनुष्य की वृद्धता और मृत्यु एक समस्या
बनी हुई थी, जिसका हल यक्ष-दर्शन
में मौजूद था । आपको यह जानकार
आश्चर्य होगा कि भगवान् बुद्ध ने भी
मानव की इन्हीं समस्याओं को सुलझाने
के लिए एक नया दर्शन दिया था । लोकदर्शन
की कोख से ही शास्रीय दर्शन
जन्मने का यह प्रमाण दोनों तरह के
दर्शनों के संबंधों को स्पष्ट करता
है ।
बौद्ध-धर्म और
दर्शन में लोकतत्त्वों का समावेश
किया गया था, यहाँ तक कि यक्ष-पूजा
और यक्ष-दर्शन भी मान्य कर लिये
गए थे । लेकिन जैसे ही बौद्ध धर्म
विजातीय तत्त्वों से जुड़ा, उसके
विरुद्ध एक व्यापक प्रतिक्रिया हुई और
एक नये धर्म एवं दर्शन ने जगह ली ।
नाग और वाकाटकों ने शैव और
गुप्तों ने वैष्णव धर्म की पताकाएँ
फहरायीं । नाग-वाकाटक काल में
ही यक्ष-दर्शन का स्थान शैव-दर्शन ने
ले लिया। बुंदेलखंड की निषाद
जातियों में शिव के भयंकर रुप की
उपासना पहले से प्रचलित थी, यही
कारण है कि यहाँ भैरव रुद्र लोकमान्य
थे । यक्ष देव पूजित रहे, लेकिन यक्षों
में वह संहारकारी रुप नहीं था,
इस कारण विदेशी आक्रमण होने पर
शिव का रौद्र रुप उभरा । लोक में यक्षों
के स्थान पर शिव के चौरे बनना शुरु
हुए । एक व्यापक परिवर्तन इसी समय
आया, जिसने लोकसंस्कृति, लोकधर्म
और लोकदर्शन में नये युग का प्रवर्तन
किया ।
नाग और वाकाटकों
के इतिहास, विदिशा और पवाँया
में प्राप्त प्राचीन अवशेषों तथा तत्कालीन
ग्रंथों से पता चलता है कि उस समय
शिव, विष्णु, सूर्य, यक्ष देवों और
गंगा, नन्दी, गाय आदि परिकरों की उपासना
प्रचलित थी और सबके समन्वय से
धार्मिक एकता की भावना सर्वीपरि थी ।
लोकजीवन में इसी समन्वयवादी लोकधर्म
और लोकदर्शन का स्वरुप मिलता
है । लोक एक ब्रह्म को
मानता हुआ उसके सभी अवतारों को
एक-सी श्रद्धा देता था । शैवों की योग-साधना
और त्यागमय जीवन, वैष्णवों की भक्ति
और यक्षों की भुक्ति का समन्वयकारी
रुप लोकदर्शन में भी मिलता है । लोगों
को विश्वास था कि मानवशरीर दु:खमय
और नश्वर है, लेकिन उसी के द्वारा
जगत् के सुखों का भोग और दुखों
से मुक्ति संभव है । इसलिए मनुष्य
को साधना द्वारा उसे दोनों के योग्य
बनाना चाहिए । यह जगत् सुख-दु:खमय
है । माया से छुटकारा तभी मिलता
है, जब मानव संसार में रहते
हुए त्याग और वैराग्य का जीवन बिताता
है और ईस्वर या उसके अवतार के प्रति
भक्ति-भावना रखता है । इस तरह
ज्ञान, कर्म और भक्ति की समन्वित
दृष्टि अपनाकर तत्कालीन लोक ने
धार्मिक और सांस्कृतिक एकता-२ को वैचारिक
सम्बल दिया था ।
आठवीं-नौवीं
शती में शंकराचार्य
ने एक दार्शनिक क्रांति की थी और अद्वेैतवाद
के रुप में नये दर्शन का प्रसार
किया था, जो आज भी भारतीय दर्शन
का मूल है । साथ ही वह भारतीय लोकदर्शन
की रीढ़ भी है । दसवीं से लेकर
चौदहवीं शती तक चंदेलों ने इस प्रदेश
को एकता, दृढ़ता और सुख-समृद्धि प्रदान
की थी । उनहीं के समय बुंदेली
लोकभाषा जन्मी और लोककाव्य का
विकास हुआ । एक तरफ प्रबोध-चंद्रोदय,
रुपकषटकम् जैसे संस्कृत ग्रंथ रचे
गए, तो दूसरी तरफ लटकनिया फाग,
दिवारी की साखें, देवीगीत,
कारसदेव की गोटें और गहनई
जैसी चरागाही गाथाएँ, कजरियन के
राछरे और आल्हा जैसा
लोकमहाकाव्य । चंदेलनरेशों ने
शिव और विष्णु के मंदिर खड़े किए,
तो मनियाँदेव, आदि भवानी,
चंडिका, भैरव, पार्वती या गौरा, शंकर
आदि हर घर-गाँव में पुजने लगे ।
प्रबोध-चंद्रेदय और रुपकषटकम् से
मालूम होता है कि इस समय जैन,
बौद्ध, कापालिक, चार्वाक आदि
विभिन्न दार्शनिक मतों का खंडन और
वैष्णव मत का प्रतिपादन हो रहा
था तथा उच्च वर्ग इसी मतभेद,
विवाद एवं ऐक्य के प्रयासों में उलझा
था । लेकिन लोकगीत, लोकगाथाएँ और
राछरे इस तध्य के प्रामाणिक गवाह
हैं कि लोकदर्शन में न तो इस
तरह का विद्वेष और विवाद था और
न इस तरह का उलझाव । लोक के
देवी-देवता भले ही घर-घर और
गाँव-गाँव के हों, पर उनके संबंध
में लोकचिंतन एक-सा था । युग की परिस्थितियों
के अनुरुप वैचारिक एकता को बनाये
रखने का संकल्पी । आल्हा का कुछ पंक्तियाँ
देखें-
मानुस
देही जा दुरलभ है आहै समै न बारंबार
।
पात
टूटं के ज्यों तरवर को कभउँ लौट
न लागै डार ।
मरद
बनाये मर जैवे कों खटिया पर
कें मरै बलाय ।
खटिया
पर कें जे मर जैहें नाँउ डूब पुरखन
कौ जाय ।
जे
मर जैहें रनखेतन मा साखौ चलो
अँगारुँ जाय ।।
शरीर और
मृत्यु का यह लोकचिंतन तत्कालीन लोक
की जागरुकता का प्रमाण है । मनुष्य
का शरीर दुर्लभ वस्तु है, क्योंकि
वह बार-बार नहीं मिलता । जिस प्रकार
पेड़ का पत्ता एक बार टूटने के बाद
फिर उस डाल में नहीं लगता, उसी प्रकार
मृत्यु के उपरांत मानव शरीर का
फिर मिलना कठिन है । इसलिए
पुरुष को शय्या पर पड़े-पड़े नहीं मरना
चाहिए, वरन् युद्ध-क्षेत्र में मृत्यु का
वरण का यश अर्जित करना चाहिए । इस
तरह की वैचारिकता इस युग की
गाथाओं, राछरों और देवी-गीतों में
मिलती है । गहनई और कारसदेव
की गोटें गोचारण गाथाएँ हैं, लेकिन
उनमें भी शौर्य का आख्यान है । विदेशी
आक्रमणकारियों के खिलाफ शौर्य और
एकता की प्रेरणा देना उस युग के लोकदर्शन
का आंतरिक लक्ष्य था । एकता के
उदाहरण यात्रा गीत और दिवारी
गीत की पंक्तियों में देखें-
नरबदा
अरे माता तो लगै रे,
अरे
माता लगै रे तिरबेनी लगै मोरी
बैन रे, नरबदा हो...।
एक
पेड़ मथुरा जमो, डार गयी
जगन्नाथ रे,
फूलो
फूल जो द्वारका, फल लागे बद्रीनाथ
रे ।
नर्बदा और
त्रिवेणी में माता और बहिन के पारिवारिक
उपमान तथा मथुरा, जगन्नाथ, द्वारका और
बद्रीनाथ का एकता के लिए वृक्ष का रुपक
कितने सटीक हैं, इसकी कल्पना हम आज
के राष्ट्रीय गीतों से कर सकते हैं
। लोकदर्शन द्वारा लोक-जागरण का
उदाहरण मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता
की कलम से उद्धृत है-" हिन्दू
वीरांगनाओं ने अपने जवाहरात बैच
डाले, अपने स्वर्णाभूषण गला डाले और
इस धर्मयुद्ध से संचालन के लिए
उन्होंने दूरस्थ देशों से भी अपनी
सहायता भेजी ।" -३
इसके
विपरीत लोकदर्शन की एक दूसरी
दिशा भी थी, जिसका संकेत लोकगीतों
में मिलता है । उसके अनुसार यह
जगत् एक धंधा है, मिध्या है, माया
है, इसलिए उसे नष्ट हो जाने दो-" निकरचलौ
दैकें टटिया रे, अरे दैकें टटिया रे
धंधे में लगन देव आग रे, निकर चलौ
हो....। " क्योंकी ब्रह्मा
के दर्शन की बेला आ पहुँची है- " दरस
की तौ बेरा भई रे, अरे बेरा
भई रे पट खोलो छबीले भैरों लाल
हो, दरस की तौ बेरा भई...।
" दर्शन के लिए भैरों
लाल यानी भैरव अथवा भैरों नाथ
यानी शिव हों, तो कोई फर्क नहीं
पड़ता ।-४ दर्शन की बात अलग है, केवल
स्नान से ही पाप कट जाते हैं-" सपर
लेव कासी जू की झिरियाँ रे अरे
कासी जू की झिरियाँ कट जैहें जनम
के पाप रे, सपरलेव हो...। "
एक गीत में ' जीव' को पर्वत
का सुआ (परबतबारे सुअना) और ' जगत्'
को घर-आँगन बताया गया है । जीव
को घर-आँगन अच्छा नहीं लगता । (घर आँगना
न सुहाय हो माँ...), इसलिए वह (तोता)
उड़ जाता है और ' कैलास-सिखर'
में पहुँचने की इचछा करता है ।
इस तरह का आस्तिक दर्शन ही लोकप्रचलित
था, जो लोकगीतों में जगह-जगह उभरा
है ।
दरअसल
गुप्त-युग से (अर्थात् ईसा की चौथी
शती से) लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं
शती तक पौराणिक दर्शन के
प्रवाह ने लोकदर्शन को बहुत प्रभावित
किया था । पुराणों की प्रमुख विशेषता
थी औपनिषदिक दर्शन को कथाओं में
पिरोकर जनसाधारण के योग्य बनाना
और ज्ञान-कर्म-भक्ति के समन्वय तथा
दैवी एवं प्राकृतिक शक्तियों के सामंजस्य
से दार्शनिक एकता स्थापित करवा । उनमें
असुरों के संहार की अनेक कथाएँ
इस रुप में बुनी गयीं कि शक्ति का
महत्त्व और महिमा लोक में छा गाए ।
ओजत्व की इस कल्पना के साथ-साथ पुराणों
ने तत्कालीन शैव, शाक्त, वज्रयानी या
तांत्रिक आदि विभिन्न मतों में निहित
शक्तियों को एक में संयुक्त कर एक अनुपम
शक्तिपुंज खड़ा कर दिया, जो देवी
के रुप में किसी भी विदेशी असुर
को विनष्ट करने में समर्थ था । लेकिन
पुराणों के कर्मकांड इस सीमा तक
जकड़ने लगे थे कि लोक में आडम्बरी
प्रवृत्ति का प्रसार हो गया था ।
जंत्र-मंत्र, शकुन-अपशकुन, टोने-टोटके
और असाधारण चमत्कारों से संबंधित
लोकविश्वास इतने प्रबल हो गये
थे कि कर्मनिष्ठा तक प्रभावित होने
लगी थी । इन सीमाओं के बावजूद पुराणों
ने लोक को एक नयी उदारता,
व्यावहारिकता और अभिव्यक्ति-शौली
प्रदान की थी ।
पुराणों की
कथाशैली का उपयोग तोमरकालीन
कथाकाव्यों और लोकगाथाओं में
हुआ है । कथा के द्वारा लोक को प्रेरणा
देने का काम तोमर-काल की
जरुरत थी । मुस्लिम सत्ता के कुछ
केन्द्र स्थापित होने के बाद सूफी और
इस्लाम दर्शन भी यहाँ पहुँच
चुके थे, इस कारण लोकदर्शन को और
भी व्यापक होना पड़ा । उसने एक तरफ
अपनी परम्परित वैचारिकता को सुरक्षित
रखा, तो दूसरी तरफ विदेशी मतों
से संपर्क भी रखा । वैसे उच्च वर्ग यानी
कि विदेशी मुसलमान हिन्दुओं को
सहन नहीं कर पाते थे और हिन्दुओं
की जाति-व्यवस्था में सूफी या इस्लाम
के अनुयायियों के लिए कोई स्थान
नहीं था, लेकिन साधारण हिन्दू और
मुसलमान मिलकर रहना पसंद
करते थे। इसी लोकचेतना को
पहचानकर भक्तिप्रधान दर्शन शुरु
हुआ । संतों ने किसी विशिष्ट सामाजिक
और धार्मिक संप्रदाय से न बँधकर
बहुदेववाद और कर्मकांड का
विरोध करते हुए एक ब्रह्म या ईश्वर
की भक्ति को मोक्ष का साधन विरुपित
किया । उन्होंने सभी तरह के भेद-भाव
से मुक्त हृदय में ही ईश्वर का
निवास बताकर मूर्ति-पूजा,
जाति-प्रथा, छुआछूत आदि का जोरदार
खंडन किया और इस तरह एक सहज
एवं सरल लोकदर्शन का प्रतिपादन
किया ।
दूसरी
तरफ विजातीय तत्त्वों की कट्टरता
के खिलाफ एक संघर्षमयी चेतना का उदय
हो चुका था, जिसमें शैव-शाक्त-वैष्णव
और अन्य दर्शनों के भेदभाव भुलाकर
एकता पर बल दिया गया था और
जिसके कारण बुंदेली काव्य और लोककाव्य
में संप्रदायमुक्त धर्म और दर्शन
को महत्त्व मिला था । ग्वालियर के सांस्कृतिक
केन्द्र में रामायण, महाभारत और
गीता को केन्द्र में रखकर राम-कृष्ण
को ही ईश्वर मानकर उनकी कथाओं
के द्वारा संघर्षधर्मी लोकचेतना
को प्रेरणा दि गयी थी । बुंदेली के प्रारंभिक
भक्तिपरक लोकगीतों में इस प्रवृत्ति
का आभास मिलता है । एक गीत की कुछ
पंक्तियाँ देखें-
पवन
जू के हनुमत हैं रखवारे ।
आँधी
बैहर खां बंद करत हैं, डीलन
काज सँवारे ।। पवन जू. ।।
हमरे
हनुमत ऐसें गरजत हैं, जैसें इन्दर
अखाड़े ।। पवन जू. ।।
हमरे
राम जू ऐसें गरजत हैं, जैसें इन्दर
अखाड़े ।। पवन जू. ।।
हमरे
किस्नजू ऐसें गरजत हैं, जैसें इन्दर
अखाड़े ।। पवन जू. ।।
बुंदेली से
निर्गुनिया लोकगीतों में हिन्दी के
संतकाव्य जैसी मस्ती ऐर फक्कड़पन
है । उनका ब्रह्म या पुरुष कबीर जैसा
है । लोकदर्शन में कबीर-दर्शन का अनुकरण
है, पर वह लोकस्तर पर सरल और
सहज हो गया है और उसमें गोरख
या नाथ मत का भी पुट है । इसी समय
हिन्दू और इस्लाम तथा सूफी दर्शन
के समन्वय के लिए कलगी-तुर्रा वाली
लावनी का प्रसार हुआ, जिसमें शक्ति और
शिव की पक्षधरता लेकर प्रतियोगिता
शुरु हुई और दर्शनपरक संवाद
से लोक में समन्वयकारी दर्शन का
विकास हुआ । लोकप्रचलित जनश्रुति
है कि चन्देरी राज्य के संत
तुकनगिरि (मध्यदेशीय तुकनगीर) और
फकीर शाह अली के बीच इसी संवाद
का दंगल होता था । एक बार राजदरबार
में दंगल हुआ, जिसमें चन्देरी-नरेश
ने प्रभावित होकर पहले को
तुर्रा और दूसरे को कलगी भेंट में
दी और दोनों का सम्मान किया ।-५
तभी से तुर्रा कलगी की फड़बाजी प्रारम्भ
हुई । तुर्रा दल ब्रह्म और कलगी शक्ति
या माया को श्रेष्ठ ठहराने का प्रयत्न
करता है । कलगी पक्ष का तर्क है कि शक्ति
ही शिव की उत्पत्ति का कारण है या शिव
शक्ति के पुत्र हैं जबकि तुर्रा पक्ष शक्ति
को शिव की पत्नी मानता है । इसी
को लेकर दोनों दलों में प्रतिस्पर्धा
रहती है और कूट दार्शनिक प्रश्न उठाये
जाते हैं, जो लोकदर्शन को प्रभावित
करते हैं ।
१५वीं शती
में बुंदेलखंड एक उदार-व्यापक लोकचेतना
का नेतृत्व करता है और अपने
साहित्य एवं लोकसाहित्य द्वारा
हिन्दू-मुस्लिम एकता के द्वार खोलता
है । उदाहरण के तौर पर
नारायणदास के ' छिताईचरित'
और बैजू-बख्शू के पदों को रखा जा
सकता है । ' छिताईचरित'
में अलाउद्दीन के चरित्र-चित्रण और बैजू-बख्शू
के पदों में देवताओं और उनकी लीलाओं
के सम्प्रदायमुक्त वर्णनों से इस समन्वय
का पूरा-पूरा आभास मिल जाता है ।
ग्वालियर के तोमरकालीन देसी संगीत
ने सूफियों को बहुत प्रभावित
किया था । वस्तुत: संगीत या कोई
कला किसी भी तरह के भेदभाव से
दूर रहती है । इसी वजह से
चंदेरी में लावनी या ख्याल गायकी
में तुर्रा-कलगी का पक्ष लेकर
तुकनगिरि और शाहअली का जोड़ी बनी
। बैजू और बख्शू की जोड़ी की तरह ।
सबसे पहला सशक्त माध्यम संगीत
ही था, जिसने ग्वालियर और
जौनपुर के घरानों में मेल
करवाया था । जब जौनपुर पर लोदियों
ने अधिकार कर लिया, ततब सुल्तान
के पुत्र लाद खाँ का ग्वालियर में आश्रम
लेना, तोमरनरेश कल्याणमल्ल
(ई. १४८०-८६) द्वारा मुसलमान नबी
हजरत सुलेमान-विषयक ' सुलैमच्चरित'
ग्रंथ की संस्कृत में रचना और
मानसिंह तोमर के दरबार में
महमूद लोहंग, बख्शू आदि-६ का संगीतपरक
पदकाव्य में योगदान इस तध्य का साक्षी
है कि हिन्दू-मुस्लिम समन्वय का
व्यावहारिक स्वरुप ग्वालियर की
ही देन है । ' मानकुतूहल'
नामक ग्रंथ में 'ढफ' के प्रचलन का उल्लेख
है ।-७ चंदेरी पर मुसलमान शासन
रहा और उसका प्रभाव संगीतकारों
पर भी पड़ा । संगीत-नृत्य के अखाड़े-८
ग्वालियर में थे, चंदेरी-९ में भी
प्रतिष्ठित रहे और उनसे प्रकट है कि
प्रतिद्वेंद्विता की प्रवृत्ति ने कलाकारों
में प्रश्नोत्तर शैली का विकास किया
था । वैसे तो प्रश्नोत्तर शैली यक्षों
की देन है, लेकिन इस समय अखाड़ों
ने उसे उत्कर्ष पर पहुँचा दिया था । कलगी-तुर्रा
की दार्शनिकता का आधार सिद्धों और
नाथों का परवर्ती चिंतन है और ग्वालियर-क्षेत्र
में नाथों के गाढ़-१० मौजूद थे । इन प्रामाणिक
साक्ष्यों से स्पष्ट है कि तुर्रा-कलगी
का उद्भव और विकास सबसे पहले
यहीं हुआ था ।
कलगी-तुर्रा
के अनुयायी और कुछ विद्वान्
तुकनगिरि और शाहअली को मधयप्रदेश
में चंदेरी का निवासी मानते हैं और
इन आदि गुरुओं से ही दोनों दलों
की परम्परा चली हे । निश्चित है कि
चंदेरी की कलगी-तुर्रा शैली बुंदेलखंड
से चलकर महाराष्ट्र, निमाड़, मालवा
और राजस्थान पहुँची है । डॉ. श्याम
परमार ने अपने लेख ' तमाशा'
में लिखा है कि " महाराष्ट्र
में लावनी की रचना यों देखें तो पानीपत
युद्ध के पश्चात् विकसित हुई ।" -१२
इसका तात्पर्य है कि १५२६ ई. के बाद
ही महाराष्ट्र में लावनी फली-फूली
। उनका मत है कि " मालवा
में कलगी-तुर्रा का प्रवेश उन्नीसवीं शाताब्दी
में हुआ" ।-१२ डॉ.
महेंद्र भानावत ने अपने लेख ' ख्याल'
में प्रसिद्ध विद्वान् देवीलाल सामर
का एक उद्धरण प्रस्तुत किया है, जिसके अनुसार
ख्याल की लोकधर्मी परम्परा आगरा
के निकट शुरु हुई थी और वही
१८वीं शती में राजस्थान में आई ।-१३ इससे
स्पष्ट है कि तुर्रा-कलगी के ख्याल आगरा
के दक्षिण चंदेरी में शुरु हुए और
ग्वालियर से होकर कई प्रदेशों
तक फैले । ग्वालियर उस समय बुंदेलखंडी
ही नहीं, भारतीय संस्कृति का कंन्द्र
था और वहीं से गायकी फैलती थी
।-१४
इस
जनपद में संत तुकनगिरि और
रिसालगिरि के तुर्रे का जोर अधिक
रहा । जहाँगीरबाद के लावनी-कलाकांत
पं. हरिवंशलाल शर्मा के सुपुत्र
दिनेश कौशिक ने जो वंशवृक्ष १९८४
ई. के खयाल-लावनी-समारोह की
स्मारिका में प्रस्तुत किया है, उससे
रिसालगिरि १७वीं शती के ठहरते
हैं । बुंदेलखंड के ख्यालों में
रिसालगिरि का नाम अवश्य आता है,
इससे स्पष्ट है कि रिसालगिरि ने
ही इसे उत्कर्ष दिया था और तुर्रा या
वेदांत का सरल सहज रुप ही लोकदर्शन
पर छाया रहा । वसंत निरगुणे ने
अपने लेख-' कलगी-तुर्रा'
में गोगावाँ निवासी तुर्रा गायक
सुमेरसिंह सुमन के पूर्वज केशव
बल्लभ की १७०० ई. की ख्याल रचनाओं
का उल्लेख किया है, -१५ जिससे रिसालगिरि
की तिथि और पीछे खिसक जती है और
तुकनगिरि का १५वीं शती में होना
सिद्ध हौ जाता है । इस तरह दर्शनपरक
लोककाव्य का उद्भव बुंदेलखंड में
ही १५वीं शती में हुआ था, नहीं तो
गोगावाँ का लोकगायन या डॉ. श्याम
परमार और रामनारायण अग्रवाल
जैसे दूसरे जनपदों के विद्वान्
चंदेरी की लोकश्रुति को इतना
महत्त्व न देते ।
मध्ययुग
में भक्ति-आंदोलन से लोकदर्शन में
परिवर्तन आवश्यक था। शुरु में तो
वह संप्रदायमुक्त था, इसलिए उसने लोकचिंतन
पर जादू-सा प्रभाव डाला और
राम-कृष्ण को ब्रह्म का पर्याय बना
दिया । शिव पहले ही उस उच्च कोटि में
मान्य थे । ब्रह्म और विष्णु
तिरोहित-से हो गए थे । लेकिन
बैष्णव दर्शन का व्यावहारिक स्वरुप
लोक में अपनी जड़ जमाये था । ब्रह्म,
जीव, जगत् और माया के संबंध
पहले जैसे ही रहे, अंतर केवल
यह हुआ कि इस काल में भक्तिपरक भजन
ही सबसे महत्त्वपूर्ण साधन बन
गया । लोककवि पुकार उठा-
भजन
बिन सूनी देहिया रे,
अरे
सुनी देहिया, हिरदे में बसा लेव
सीताराम हो... ।
सुरत
मोरी तुमसें लगी रे,
अरे
तुमसें लगी, बंसीवाले सें लगे
दोई नैन हो...।
भजन
बोलो सिया रघुबर के,
अरे
सिया रघुबर के, भजनई सें लगा
देव बेड़ा पार हो... ।
राम, कृष्ण और
शिव लोकदर्शन की कविता में प्रतीक
के रुप में प्रयुक्त हुए हैं, उनका सांप्रदायिक
रुप कभी नहीं उभरा । व्रज में विभिन्न
संप्रदायों के बनने और उनके इस
जनपद में प्रचलित होने के बावजूद
लोकदर्शन में कोई जटिलता और
सांप्रदायिकता नहीं आ पाई । ईश्वर
के रुप में राम, कृष्ण, शिव, विष्णु आदि
में से किसी एक के प्रति सर्वाधिक आस्था
होने पर भी दूसरे के प्रति श्रद्धा बनी
रहती था । तुलसी की रामचरित मानस
ने समन्वयकारी चिंतन से लोकदर्शन
की अंतरात्मा को और अधिक मजबूत
किया था । उसमें निहित प्रवृत्ति,
निवृत्ति और नियतिपरक मान्यताएँ लोकदर्शन
का ही प्रतिबिम्बन कहती थीं । तुलसी
की प्रमुख विशेषता यही है कि उसने
लोकदर्शन की वैचारिकता को यत्र-तत्र
गूँथ दिया है । लोक में माया के प्रति
वैराग्य की भावना निवृत्तिपरक दर्शन
का संकेत देती है, जिसे लोककवि
ने अपने ढ़ग से व्यक्त किया है-
बाबा
भागो बिलैया झपटी ।
ब्रह्मा
खों झपटी बिस्नू खों झपटी, नारद मुन
खों लगाई दयी पटकी ।
इनद्र
खों झपटी फनींद्र खों झपटी, स्रंगी
रिसि के सीस पै मटकी ।
गोरख
खों झपटी व्यास खों झपटी,
विस्वामित्र के गले में अटकी ।।
बिलैया रुपी
माया अच्छों-अच्छों को चपेट लेती है,
फिर साधारण आदमी की क्या हस्ती
! इसीलिए पर्वत में रहने वाले सुआ
(तोता) रुपी जीव को घर-आँगन रुपी
यह संसार अच्छा नहीं लगता-" उड़
चल रे परबतवारे सुअना, घर अँगना
न सुहाय मोरी माँय।"
अगर बिलैया से मौत का अर्थ लें तो
भी मानवजीवन की क्षणभंगुरता उभरती
है और इसी वजह से संसार की असारता
प्रकट हो जाती है । कवि फिर शरीर
या मानव-योनि की उपयोगिता समझ
लेता है-" भजन
करो सिया रघुबर के, सिया रघुबर
के, ऐसी दैहिया न मिलहै बारंबार
हो, भजन करो हो...। "
इस रुप में प्रवृत्तिपरक चिंतन के दर्शन
होते हैं । नर-देह को पाकर पुण्य
कर्म करना चाहिए और पुण्य कर्मीं में
त्याग-बलिदान, कर्तव्य-धर्मनिर्वाह,
परहित या लोकहित आदि आते हैं । लोक
ने कर्म को प्रधान माना है और लोक
कहावत है-" भूखें
भजन न होंय गोपाला" ,
लेकिन उसके साथ उसने भाग्य को भी
महत्त्व दिया है । मध्ययुग में प्रचलित
अनेक लोककथाओं में भाग्य की
महिमा प्रतिष्ठित हुई है, उदाहरण
के लिए " भग्य बलवान्"
और " अपनो अपनो भग्य"
। उसके साथ " जैसी
करनी वैसी भरनी"
और " पसीने की
कमाइ" जैसी लोककथाओं
में कर्म का पलड़ा भारी है । तात्पर्य
यह है कि व्यक्ति को भाग्य और कर्म,
दोनों पर भरोसा करना चाहिए और
प्राप्ति पर संतोष ।
मध्ययुग की
एक दार्शनिक लोरी में लोकदर्शन
का बिम्ब कितना स्पष्ट उभरा है-
कोंड़ी
के रे कोंड़ी के,
पाँच
पसेरी के ।
उड़
गये तीतुर, बस गये मोर
सरी
डुकरिया लै गये चोर ।
चोरन
के घर खेती भई,
सरी
डुकरिया मोटी भई ।
एक
तीर मोये मारो तो,
दिल्ली
जाय पुकारो तो ।
कारे
हैं करयान से,
गोरे
हैं गुरयान से
मन-मन
पिसै मन-मन खाय,
बड़े
गुरु सें जूझन जाय ।
बड़े
गुरु की छपन छुरी,
तासें
काँपै मदनपुरी ।
मदनपुरी
के आये वीर,
कर
में बाँधें सौ-सौ तीर ।
राजा
के कुँवर आउत हैं,
न
कोऊ छींकियो, न पादियो,
धुतू...धुतू...धुतू...
।
उक्त पंक्तियों
में कितना गहरा अर्थ है । लोककवि
कहता है कि मानव-शरिर पाँच
तत्त्वों (पाँच पसेरी) का बना है, पर
उसकी कीमत एक कौड़ी भी नहीं है । जब
(यौवनावस्था आने पर) ज्ञान (तीतुर)
उड़ जाता है और (उसकी जगह पर) भावुकता
(मोर) बस जाती है, तब माया (सरी
डुकरिया) लोभ-मोह-मद-मत्सर (चोरों)
के नियंत्रण में ऐंद्रिक सुख (खेती-इंद्रयों
द्वारा उत्पन्न भोग) पाकर सशक्त (मोटी)
हो जाती है । इतनी शक्तिशाली कि ब्रह्म
(बड़े कुरु) से लड़ने को तैयार
रहती है । (माया के प्रबल होने पर
ब्रह्म की प्राप्ति कठिन होती है) । ब्रह्म (बड़े
गुरु) की शक्ति (छपन छुरी) से काम (मदनपुरी)
भी काँपता (भयभीत) है, फिर भी
काम के सैनिक इच्छा रुपी तीर चलाते
हैं और काम का तीर लगने पर मन
दिल्ली (परमात्मा के केन्द्रीय निवास)
तक पुकार लगाता है । वहाँ बुरे लगने
वाले पाप कर्म (कारे) और अच्छे (गुरयान
या गुरीरे-मीठे) प्रतीत होने वाले
पुण्य कर्म (गोरे) खड़े रहते हैं और
(उनमें ही एक यानी पुण्य कर्म चुनने पर)
ब्रह्म (राजा) के अंश अर्थात् जीव (कुँवर)
आते हैं (पुण्य कर्मीं का साथ आत्मा
देती है ) । ऐसे समय (आत्मा के
सबल होने पर) कोई भी बाधा या
अव्यवस्था (छींकना-पादना) नहीं फैलाता
और यही स्थिति चरम आनंद की है (धुतू...धूत-एक
विशेष वाद्य, रमतूला की ध्वनि, जो बुंदेलखंड
में सुखद मानी जाती है) ।
आत्मा की
सबलता का परिज्ञान होने के बावजूद
उत्तर-मध्ययुग का मानव निराशावादी
होने लगा था, बिल्कुल डूँड़ा बैला
की तरह, जो निम्न पंक्तियों का
नायक है-
थाई-थाई
थप्पी,
गैया
ब्यानी बच्छी ।
बच्छा
भओ सेर,
नाँउ
धराओ गनेस ।
(शुरु
की कोई अँगुली पकड़कर)
जा
बाई की, जा दादा की,
जा
जिज्जी की, जा नन्ना की,
जा
बूढ़े बब्बा की,
(हथेली
पर घेरा बनाकर)
बीच
कौ चंदा मोरो ।
येई
में खाओ, येई में पिओ,
येई
में सब कछू करो ।
डूँड़ा
बैल पात की छई,
चल
मेरो डूँड़ा रात भई ।
चलत
पारिया टूटे सींग,
बारा
बरसें लादी हींग ।
चल
मेरो डूँड़ा रात भई,
गुलू..गुलू...गुलू...
।
इन पंक्तियों
में कहा गया है कि मानव माता (गैया)
की कोख से पैदा होकर विकास (सेर
भओ) करता है और उसको अच्छा-सा (गनेस)
नाम मिलता है । इसके बाद उसका संबंध
माँ-बाप, बहिन-भाई आदि सभी से
होता है । फिर वह अपना धंधा
चुनकर उसी में खो जाता है । माया और
भोग (खाओं पिओ आदि) में लिप्त वह
असहाय (डूँड़ा, जिसके सींग न हों)
निंरतर (बैल-सा) जुता रहता है, जबकि
यह संसार पत्तों की छाया है (उसका
कोई भरोसा नहीं है) और जीवन
का चढ़ाव (पारिया या पहाड़ी)
चढ़ते-चढ़ते मानव निरुत्साह और
शक्तिहीन (टूटे सींग का) हो जाता है
तथा परिश्रम के बोझ से दबा
रहता है (लादी हींग) । जब मृत्यु (रुपी
रात) घिर आती है, तब उसे सजग
होकर मुक्ति-मार्ग की तरफ चलना
चाहिए और इसी में उसका आनंद (गूलू...गुलू-बच्चे
को हँसायार जाना) है । मतलब
यह है कि इस समय के लोकदर्शन
में निराशावादी प्रवृत्ति पनप चुकी
थी ।
ऊपर के
दो साक्ष्यों में लोकदर्शन की क्रमिक
गति दिखाई पड़ती है और वह आगे पुनरुत्थान-काल
में अलग दिशा ग्रहण करती है । निराशा
के अँधेरे छ्ँटने की आशा और रात
की दुरभिसंधि तोड़ने का उत्साह
फिर उगने लगते हैं । लोकगीत व्यंजना
में बोल पड़ता है-
बौ
दुदुआ मोरे बिरन जो पिहैं,
पीहैं
अरे बे लैहैं असुर दल जीत ।
वीरा,
मोरे इंद्र अखाड़े खेलियौ ।।
सावन में
गरजने और भादों में बरसने से
धरती में घास जम आई है । अपनी माता
से खुररपी और टोकरी माँगकर युवती
घास खोदने जाती है, क्योंकि उसे
विश्वास है कि घास खाकर गायें
गगरी भर दूध दःैंगी जिसे पीकर उसका
भाई असुर-दल (अराष्ट्रिय तत्त्वों
को) जीत लेगा। बुंदेली नारी का उपने
भाई को अखाड़े (आजादी की लड़ाई) में
भेजना ओजत्व का प्रतीक है । १८५७ ई. में
यही उत्साह और संकल्प था, लेकिन अंग्रेजों
द्वारा पराजित और दमित होने से
निराशा की वही छाया फिर घिर
आई थी । लोकप्रतिनिधि-लोककवि ईसुरी
-१६ ने कहा था-" बखरी
रइयत हैं भारे की, दई पिया प्यारो
की... ।" अर्थात् यह शरीर
किराये का घर है, जिसका मालिक
ईश्वर है । उसकी दिवारें कच्ची माटी
की हैं, जिन पर चारा-फूस छाया
हूआ है । वह बेबंधेज है और उसी
में दस दरवाजे (इंद्रियाँ) हैं
जिनमें किवाड़ और ताले कुछ नहीं
हैं । चाहे ईश्वर (मकान-मालिक)
कभी निकाल दे, उसकी परवाह इसलिए
नहीं कि वह किसी मतलब की नहीं
है । शरीर का यह रुपक लोकचर्चित
हो गया है । इसी प्रकार तन की
क्षणभंगुरता (तन कौ कौन भरोसो
करनै, आखिर इक दिन मरनै), संसार
की नश्वरता (जौ संसार ओस कौ बूँदा,
पवन लगे र्तृ ढरनै) और माया की भास्वरता
(जे सब माया के चक्कर हैं, बिरथा
फिरत भुलाने) से यह जीव रुपी
हंस विथकित होकर इस देस को
छोड़ (इहाँ बकन के थाने-बगुलाओं
द्वारा रक्षा) अपने देस (समुद भरे
हैं अगम उतै चल सुक पाबै मनमाने)
जा रहा है । जगतु से पलायन का
यह भाव इस काल में प्रधान नहीं था,
वरन् लोककवि ने मानव जीवन
को सबसे कीमति माना था-" चोला
और दूसरौ नइयाँ, मानस का सानी
कौ । जोगी-जती, तपी-सन्यासी, का राजा-रानी
कौ ।" इस नर-देह
में सभी कुछ है-
तन
के सुभ लच्छन सब जाके, दया करन
हैं ताके ।
जनबाई
जड़, पेड़ धीरता, साखा सीलन छाके
।
अर्थ-धरम
और काम-मोक्ष फल, पुन्न पुरातन पाके
।
पतिब्रता
के धर्म-कर्म में, उनजस होत उमा
के ।
होत
चीकने पात ' ईसुरी',
होनहार बिरवा के ।।
देह के वृक्ष
में हि चतुराई की जड़, धैर्य का
तना, शील का शाखाएँ तथा अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष
के फल होते हैं । इसीलिए
मनुष्य-योनि बड़े भाग से मिलता
है (मानसु बड़े भाग से होबै...), लेकिन
मनुष्य कर्म से महान् बनता है (मानसु
बड़ौ होत करनी सें...) । उसे इस संसार
में सँभलकर चलना पड़ता है । धर्म
का मार्ग अपनाना, ब्रह्म को स्मरण
करना और परश्वार्थ के लिए जुटना स्वर्ग
पाने के लिए जरुरी है (चलबू करे
धरम कौ मारग रामै नई बिसारौ,
जो तन परस्वारथ के लानें, जो कोऊ
जोग-जुगत कर जानें चड़-चड़ जात बिमानें)
। ब्रह्म जल-थल, अग-जग समेत सबका
ध्यान रखता है और उसी पर
धरती-आसमान सबका भार है । वे सभी
की रक्षा करते हैं और नृसिंह का स्वरुप
धारण कर हिरणकश्यप जैसे असुर
का संहार करते हैं (जीके रामचंद्र
रखवारे, को कर सकत दगा रे । धर
नरसिंग रुप कड़ आये, हिरनाकुस
खों मारे ।।) । इस प्रकार ईसुरी के
लोकदर्शन में लोकहित और लोकरक्षा
का उद्देश्य भी प्रमुख है । पुनरुत्थान-काल
के साहित्य में भले ही मानवतावाद
की प्रधानता रही हो, पर
लोकसाहित्य में मानवतावाद के साथ
लोकरक्षा की दृष्टि ही सर्वीपरि
रही है । फिर भी व्यक्ति इतना दबा
हुआ था (सिर पै बात जबर की) कि उसका
लोक-मन उतना स्वतंत्र नहीं हो पाता
था ।
देश की आजादी
की लड़ाई के समय लोकचिंतन सें ब्रह्म
का शक्तिमय रुप उभरा था, जिससे लोक-मन
ने प्रेरणा ली थी और वह जूझने के
लिए तैयार हुआ था । असल में लोककाव्य
का अध्ययन बहुत सावधानी से करना
चाहिए, प्रसिद्ध लोककवि खुबचंद (राठ,
हमीरपुर) की कुछ पंक्तियाँ देखें-
कामादिक
खल मार कें, मोह फाँस कर अंत ।
जग
की केतिक बात है, कालहू डरत न
संत ।।
जग
में संत सिपाही लरते, बरबस
जाय उभरते ।
बस्तु-बिचार
कृपान बाँध कटि, काम-सीस पर
धरते ।
बख्तर
छमा अभेद पहर तन, क्रोधै पकर पछरते
।
सर-संतोष
लोभ-उर मारत, इनसें नेक न
ड़रते ।
' खूबचंद'
हन मोह विकट भट, राज अकंटक
करते ।।
उक्त पंक्तियों
में संत का सिपाही काम-क्रेध-लोभ-मोह
को पराजित करता है और अकंटक राज
करने की भावना से भरा रहता है
। उसे इस मायावी संसार से क्या,
काल (समय या मौत) तक से डर
नहीं है । क्या इन दार्शनिक पंक्तियों
से एक निडर योद्धा की तस्वीर नहीं उभरती,
जो दुश्मनों को हराकर स्वराज्य पाना
चाहता है ? यदि यह सच है, तो
यह कहने में संकोच नहीं है कि लोकदर्शन
ने आजादी की लड़ाई को सम्बल
दिया था और अपनी लोकधर्मिता को प्रमाणित
किया था ।
आधुनिक
काल में लोकदर्शन
संक्रमण की स्थिति में है । लोक की आस्थाएँ
और मान्यताएँ बदल रही हैं । बौद्धिकता
और भौतिकता के प्रति अतिरिक्त लगाव
के कारण ब्रह्म-जीव, जीव-जगत्,
जीव-माया आदि के पूर्वस्थिर संबंध
काफी ढीले पड़े हैं । जगत् से जीव
का वैराग्य और मोक्ष पाने का
उत्साह अब उतना प्रभावी नहीं रहा । ब्रह्म
और जीव या परमात्मा और आत्मा-संबंधी
चिंतन बहुत कम हो गया है । मनेविज्ञान
के विविध क्षेत्रों में शोध के कारण
प्रश्नों की कतारें खड़ी हो गई हैं ।
जागतिक सुख-सुविधाओं के अभाव के
परिणामस्वरुप लोक में उनके प्रति
चिंता बढ़ी है, जिससे लोकमन वैराग्य
की भावना को बिल्कुल भूल गया
है । मनुष्य व्यकितिधर्मी होने के
कारण लोकधर्मा चिंतन को त्याग
रहा है और वैयाक्तिक स्तर पर उभरते
लोकदर्शन में एक खतरनाक स्थिति
यह है कि चिंतन की गंभीरता ही
नहीं है । गाँव के लोग आज भी पुराने
लोकदर्शन का अनुसरण रुढि की
तरह करते हैं, लेकिन नगर की लोकचेतना
में विश्रृंखलता और बिखराव
ज्यादा है । फिर भी यह निश्चित है
कि गाँव और नगर का लोक लोकदर्शन
की रुढियाँ तोड़कर स्वतंत्र दिशा
खोजने के पक्ष में है ।