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श्रीमद्राजीवलोचनमहात्म्यम् |
यह पुस्तक पण्डित चन्द्रकांत पाठक काव्यतीर्थ के द्वारा लिखी गई है। राजीम पर संस्कृत में यह एक मात्र पुस्तक है। किंफगेश्वर नरेश इस किताब को मुद्रित की थी। पृ : १अथ श्री विश्वनाथवंशावली प्रारम्यते।। यं स्वांतस्थम पीक्षते न मनुज: स्वास्यं यथान्धोजनोमूका: स्वाद भिवापि सर्वनिगमा वक्तुं न चाहान्ति यमू। यं वा लब्धुमहर्निशं मुनिजैन: कष्टं तपस्तप्यते तं विश्वोद्भंवहेतुहेतुमनिशं मायासनाथं
भजे ।।१।। भावार्थ : जिस प्रकार अन्धा मनुष्य अपने मुखको नहीं देख सकता, उसी प्रकार अन्त: करण में विराजमान रहने पर भी जिसको मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण देख नहीं सकता। फिर जिनका वर्णन वेद भी नहीं कर सकते जैसे गूंगा पदार्थो का स्वाद नही कह सकता, तथा जिनको प्राप्त करने के लिए मुनि जन कष्ट कर तप करते हैं, ऐसे ब्रह्मा के कारण तथा माया से युक्त उस ब्रह्म को मैं निरन्तर भजता हूँ ।।१।।
महानदी देवधुनी पवित्रप्राची तटे विश्रुतनामधेया। फिनगेश्वरारव्या नगरी विभाति फणीश्वरो
यत्र गणैर्विभाति ।।२।।
भावार्थ : महानदी गंगा के पवित्र पूर्व तट पर जिसका नाम संसार के प्रसिद्ध है। ऐसा फिनगेश्वर नामक नगर विराजमान है, जहां के फणिकेश्वर महादेव अपने गणों के साथ विराजमान है ।।२।।
वहत्यजस्रं सुरखातगंगा यर्दान्त के प्रग्दिशि पापभंगा। प्रोक्त हि यस्या महितीर्थराजे श्रीयाज्ञवल्केन सतां
समाजे ।।३।। भावार्थ : जिन फणिकेश्वर महादेव के सामने नगर की पूर्व दिशा में देवखातगंगा की धारा निरन्तर बह रही है, जिनकी महिमा प्रयाग राज में सज्जनों की समाज में याज्ञवल्कय जीने अपने श्रीमुख से कही है ।।३।।
एवं गुणेऽस्मिन्नगरे नृपाला ये ये व्यतीयुश्वाव विराजतेय: । तेषां च तेषां च सुनाम वक्ष्ये ब्रुवेऽधुना
वंशजनुस्तु तेषाम् ।।४।। भावार्थ : ऐसे पुवोक्त गुणों से युक्त फिनगेश्वर नामक नगर में जो जो राजा हो गये, और जो महाराज संप्रति विराजमान हैं, उनके नाम हम पश्चात लिखेंगे। अबी उनकी वंश की उत्पत्ति कहते हैं ।।४।।
जगत्प्रसिद्धारुन हंस वंश जानंति के नो जगतीत लेऽसिमन। यत्पूततांवीक्ष्य जगाद्धिधाता न्यवातरछत्र दशन
ना: ।।५।। भावार्थ : इस संसार में ऐसा कौन मनुष्य होगा जो जगत पवित्र सूर्यवंश को नहीं जानता होगा, जिस वंश की पवित्रता देख संसार के रचयिता रावण के शत्रु श्रीरामचन्द्र जी ने जिस सूर्य वंश में अवतार लिया ।।५।।
तस्मिन्विशुद्धाचरणेर्नृपालै: समार्चेते वेननृपोबभूव। य: पूर्वजन्मार्जितपापदोषाद्रगोब्राह्मणेभ्यो बहुदु: खदोऽ
भूत् ।।६।। भावार्थ : पवित्र आचरण से युक्त राजाओं से पुजित जिस सूर्यवंश में वेन नामक राजा हुआ, जो अपने पूर्वजन्मार्जित पापों के कारण गायों, तथा ब्राहमणों को महान दु: खप्रद हुआ ।।६।।
संवीक्ष्य चैवं निखिला मुनीशा विचारयन्ति परस्परं यत। नृपाधम: सर्वजनेभ्य एष व्यसहम दु: खानि
ददात्यजस्रम् ।।७।। भावार्थ : ऐसा देखकर समस्त मुनिजन परस्पर विचार करने लगे कि हे भाइयो ! राजाओं में अधम यह वेन राजा समस्त प्रजाओं को सदा असहय दु: ख देता है ।।७।।
सवकीयराज्ये पृथिवीश्वरो य: स्वनीतिदोषेण विदु: खितान्नन्। स्वचाक्षुषा पश्यति सोत्रसाने समेति
नूनं नरकं करालम् ।।८।। भावार्थ : जो राजा अपनी नीति के दोष से अपनी प्रजाओं को दु: खित देखता है, वह राजा अवश्य भयंकर नरक का भागी होता है ।।८।।
इत्थं विजानन्नपि वेनभूपो ददाति दु: खानि सदा जनेभ्य: । अपायकाले समुपागते हि न्नृणां विरुद्धा भवतीह
बुद्धि: ।।९।। भावार्थ : ऐसा जानता हुआ भी वेनराजा सदा प्रजाओं को दु: ख देता है, ठीक ही कहा गया है कि विनाश के समय आजाने पर मनुष्यों कि बुद्धि दूसरी ही हो जाती है ।।९।।
इत्थं समालोच्य ततिर्मुनीनां तूर्ण प्रत्स्थे सविधे नृपस्य। गत्वा च तम्मै समुपादिदेश राजन् ! कुमार्गे
न मनो विधेयम् ।।१०।। भावार्थ : ऐसा विचारकर समस्त मुनिजनों ने अपने स्थान से प्रस्थान किया और वेन राजा के समीप जाकर उनको उपदेश देने लगे, कि हे राजा ! कुमार्ग की ओर ध्यान न देना चाहिये ।।१०।।
कुरुष्व पित्रोर्जगत: पदाम्बुजे भर्जिंक्त तथा पालय धर्मत: प्रजा।। श्रुत्वा मुनीनां वचनं सभूपति: क्रोधेन
रक्ताक्ष उवाच दुर्मति
।।११।। भावार्थ : और संसार के माता पिता श्रीपरमेश्वर के कमलस्वरुपी चरणों मे भक्ति करते हुए धर्म से प्रजाओं की रक्षा कीजिये। ऐसे मुनियों के वचन सुनकर वड़ कुबुद्धी वेन राजा क्रोध के मारे आखों को लाल लाल करके बोला ।।११।।
भो बालिशा ज्ञानविहीनमानसा हतो विवेक: किमु वो हि वेधसा, धर्मस्वरुपं क्षितिपेन मेनसा
ब्रूध्वे न जिहीथ विलज्जमानसा:
।।१२।। भावार्थ : हे मूर्ख मुनिगण ! आप सबों को कुछ भी ज्ञान नहीं है।क्या विधाता ने आप सबों का ज्ञान हर लिया ? जिससे धर्मस्वरुप राजा को पापयुक्त कहते हैं ।।१२।।
यदा न शुश्राव वचो मुनीनां तदाच ते कोपवशा हि भुत्वा। शापं ददुर्वेनधराधिपाय म्रिय रे
दुष्ट नृपात्मदोषत् ।।१३।।
भावार्थ : जब वेन राजा ने मुनियों का कहना न माना तो मुनियों ने क्रोध में आकर वेन राजा को शाप दिआ, कि अरे दुष्टराजा। अपने दोष से मरजा ।।१३।।
अथ द्विजेंद्रा: कृपयार्द्रचिता: सर्वे मिलित्वा व्यदधुर्विचारम। ॠते नृपात्कुम्भिलकादिदुषृ। नेष्यन्ति
नाशं हि जगत्समग्रम ।।१४।।
भावार्थ : जब वेन राजा गतांयु हो गया, तब कृपा से आद्र समस्त मुनिजन आपस में विचार करने लगे, कि विना राजा के चोर आदि दुर्जन जन समस्त संसार को नष्ट कर देंगे ।।१४।।
तन्मन्थनीय: क्षितिपस्य देह: स्यान्निर्गत: कश्विावदतस्ततस्ते। पूंर्व क्षितीशस्य ममन्थुरुरुं तस्या जनोऽभूत
प्रकटोथ सत्कृत ।।१५।।
भावार्थ : इस कारण वेन राजा के शरीर का मथन करना चाहिये। सायद इस शरीर से कोई पुरुष निकले, ऐसा सोचकर मुनियों ने पहिले राजा के शरीर का मथन किया, जिससे एक पुरुष प्रकट हुआ ।।१५।।
यद्वेंश्यभूपा किल राज गोडारव्यया प्रसिद्धा इह मध्यदेशे । राजन्तयजस्रं नृपघर्मनिष्ठास्रिविषृपे
देवगणा इवालम् ।।१६।। भावार्थ : जिनके वंश में उत्पन्न राजा लोग इस मध्य प्रदेश में राजगोड़ इस जाति से प्रसिद्धड़ी हैं, और राजा के धर्म में परायण हो निरंतर उसी प्रकार बिराजमान हो रहे हैं, जिस प्रकार स्वर्ग में देवता ।।१६।।
नत्वा मुनीशान् स पुमानुवाच जानीत विप्रा निजकिड्करं माम्। आकर्ण्य मिषृं वचनं तदीयं द्विजा
निषेदेति तमुक्तवन्त:
।।१७।। भावार्थ : वह पुरुष उन मुनीयों को प्रणाम करके बोला, कि हे विप्रगण। मैं आपका दास हूँ। उस पुरुष का ऐसा मीठा वचन सुनकर मुनियों ने बैठो, ऐसा कहा ।।१७।।
अथ द्विजेन्द्रा मुदिता तस्मै शशीप्रभच्छत्र सुचामराणि। दत्तवा वननां नृपकिंत्त च कृत्वा तं प्रैषयेत्सोपि
वनं जगाम ।।१८।। भावार्थ : अनन्तर मुनिजनों ने प्रसन्नता के साथ उनको चन्द्रमा के समान स्वच्छ छत्र तथा चामर देकर तथा वन का राजा बना भेज दिया वे भी वन को चले गये ।।१८।।
तस्यान्ववाये शरदिन्दुनिर्मले बभूव कश्चित्स कृदुर्वराधिप। य कारणेनैव विना क्षितीश्वरो विहाय
गेहं चलितस्तत पुरात ।।१९।। भावार्थ : शरतकाल के चंद्रमा के समान निर्मल जिस वंश में एक कोई राजा हुये जो विना कारण के ही अपना भवन छोड़कर अपने पुर से चलें ।।१९।।
आगत्य दिल्लीसविधे विधातुमारब्धावन् देवग ढाख्य राज्यम्। काले गते दीर्धतमेऽथ दिल्ल्या श्चौहानराजप्रभुता
बभूव ।।२०।। भावार्थ : वे राजा देहली के समीप देवगढ़ नामक राज्य में आकर वहां का राज्य करने लगे। बहुत समय बीतने के पश्चीत् वहां का आधिपत्य चौहान राजा के हस्त में आ गया ।।२०।।
अथो धराधीशसुगोडवंश्यश्चौहानभूपस्य वशम्वद: सन्। स्वधर्मकर्माचरण प्रवृत्त: शशास
राज्यं ससुखश्चिरेण ।।२१।। भावार्थ : बाद गोड़राज की स्न्तान ने चौहान राजा के अधीन में रहकर अपने धर्म और कर्मपर आरुढ हो बहुत दिनों तक देवगढ़ के राज्य का शासन किया ।।२१।।
भयड्कर जन्यममूद्यदाऽथ गजाभिधाने नगरे तदाहि। चौहानराज: सच गोडवंश्यस्ततो विनिर्गत्य
पलयितौ तौ ।।२२।। भावार्थ : जब देहली में महान युद्ध प्रारभं हुआ तो चौहान राज और गौड़ राज की सन्तान दोनों नगर से निकलकर कही भाग गये ।।२२।।
अन्तर्वत्न्यौ भूपपत्न्यौ समास्तां तस्मिन् काले द्वेऽप्यथो तूर्णमेव। सर्वो तयक्तवा सम्पदं दु: खयुक्ते
दासी दासं चेल तुस्तन्नगयी:
।।२३।। भावार्थ : उस समय उन दोनों राजाओं की दो रानियां गर्भयुक्त थीं, वे दोनों रानियां अपनी समस्त सम्पत्तियों को तथा दास दासियों को छोड़कर साथ ही साथ अपने स्थान से चलीं ।।२३।।
शनै: शनैस्ते नरराजपत्न्यो वलागिरादिं पटनां समेत्य। ज्ञाताद्विजेन्द्रस्य च तत्र कस्याचिद षयामासतुरालयं
हि ।।२४।। भावार्थ : धीरे धीरे वे दोनों रानियाँ पलांगिर पटना नामक नगर में आई। वहां एक परिचित ब्राहमण के घर में रहने लगी ।।२४।।
अथाग्रजन्मापि सते ररक्ष पुत्री त्ति बुद्धचा बिभरांचकार। क्रमेण काले नरराजपत्न्यौ ते सूतवत्यौ
वरसूनुरत्ने ।।२५।। भावार्थ : अनन्तर वे ब्राहमण भी पुत्री इस बुद्धि से उन दोनों रानियों की रक्षा तथा भरनपोषण करने लगे। बाद दशवें मास में उन दोनों रानियों ने क्रम से सुन्दर दो पुत्ररत्न उत्पन्न किये ।।२५।।
भूनिर्जर: क्षितिपराजसमार्चेतांर्धि: कृत्वा मुदाथ सुतयो: शुभजातकर्म। एकस्य नाम कचनाधुरुवेति चक्रे चान्यस्य दिव्यरमईयुतदेवनाम
।।२६।। भावार्थ : ऐसा देखकर जिनके कमलस्वरुपी चरण राजाओं से वन्दित थे ऐसे ब्राहमणदेव ने हर्ष के साथ दोनों पुत्रों का जन्म संस्कार करके गोड़ राज की सन्तान का कचनाधुरुवा और चौहान राज की सन्तान का " रमई देव" ऐसा नाम रक्खा ।।२६।।
अथार्भकौ तावति सुन्दराननौ गाश्चारयन्ता वतिवीर्यशालिनौ। अवापतुर्वृद्धिमतीव सुन्दरौ वलर्क्षपक्षे
क्षणदाधिपो यथा ।।२७।। भावार्थ : बाद बल्वीर्य तथा सुन्दर मुख से भूषित उन दोनों बालकों ने गायों को चराते शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह वृद्धि पाई ।।२७।।
वेला व्यतीता खलु भोजनस्य नचागतौ तौ भवनं कदाचित। आलोक्य चेत्थं क्षितिनिर्जरस्तावन्वेषुकामो गहनं
जगाम ।।२८।। भावार्थ : एक दिन वे दोनों बालक गायों को चराने के लिए वन को गये। भोजन का समय बीत गया पर न आये, ऐसा देख उन दोनों बालकों को खोजने के लिए वे ब्राहमण देव वन को गये ।।२८।।
स विप्रवर्यो विपिने लुलो के सुप्तौ शिशु तौ सुतरोरधस्तात् एक: फणीश: फणया स्वया सच्छयां तयो: संविदधत समास्त
।।२९।। भावार्थ : वहां जाकर जब देखते हैं कि एक सुन्दर वृक्ष के नीचे वे दोनों बालक सोए हुए हैं। और एक विशाल सपं अपनी फणासे उन दोनों को छाया करता हुआ बैठा है ।।२९।।
दशामिमां वीक्ष्य स चाग्रजन्मा बभूव चिन्तार्ण वमग्नचित्त: अथ द्विजं वीक्ष्य बुधाग्रगण्यं तूर्ण
स सपं: स्वबिलं ससपं
।।३०।। भावार्थ : ऐसी हालत देखका वे बाहमण चिन्ता समुद्र में मग्न हो गये। बाद वह सर्व विद्वानों में श्रेष्ठ उन ब्राहमणदेव को देखकर तुरन्त अपने बिल में धुस गया ।।३०।।
अथ प्रसन्नो द्विजराजवर्य: प्रतापिनौ तौ पुरुषावगत्य। उत्थांप्य तूर्ण च विनपृचिन्तस्ताभयां च
सार्द्ध स्वगृहं जगाम ।।३१।। भावार्थ
ब्राम्हनों में श्रेष्ठ वे ब्राह्मणदेव बहुत प्रसन्न हुये। और उन दोनों बालकों को प्रतापी जाना, बाद उन दोनों बालकों को शयन से उठाकर तथा चिन्ता से रहित हों शीध्र उन दोनों के साथ घर चले गये ।।३१।।
बलाड्गि रादे: पटनानगर्या यासीत्तदानीं क्षितिपाल पत्नी। तन्नासिकात: प्रतिरमेवमाशीविषो निर्गता एक आसीत ।।३२।।
दृष्टों नवीनं क्षितिपालकं य सदंश्य रात्रौ नरराजपत्न्या: ध्राणं समाश्रित्य वसन्नभूत्तन्नृप: पुरे
तत्र नवोनवोऽभूत ।।३३।। भावार्थ : उस समय बलांगिर पटना नगर की जो रानी थी उसकी नासिका से प्रत्येक दिन एक सपं निकलता था वह दुष्ट सपं बलांगिरपटना के जो राजा बनाये जाते थे उनको काटकर फिर उस रानी की नासिका में जा बैठता था, जिस कारण बलांगिर पटना में प्रत्येक दिन नए नए राजा होते थे ।।३२।। ।।३३।।
चौहानराजरमईयुतदेव कस्य पर्याय आगत इति प्रनिशम्य माता। तारस्वरेण च रुरोद तदा प्रतापी
श्रीगोडराजकचनाधुरुवेत्युवाच ।।३४।। भावार्थ : जब क्रमसे चौहानरज रमई देव की बारी आई, तब ऐसा सुनकर माता बहुत ज़ोर से रोदन करने लगी। ऐसा देख गोडं राज की सन्तान महाप्रतापी कचनाधुरवा बाले ।।३४।।
जहीहि शोकं च कुरुष्व धैर्यमलंधनीया जननी खरज्ञा। विपत्तिसम्पत्तिविधौ विवेकी समानतां सूर्य
इवादधाति ।।३५।। भावार्थ : हे माता। शोक को छोड़ो , धैर्य धारण करो, हे माता ! ईश्वर की आज्ञा का लंधन किसी से भी नहीं हो सकता। ज्ञानी मनुष्य सम्पत्ति और विपत्ति में समान ही रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य भगवान् उदय और आस्त समय लाल ही रहते हैं ।।३५।।
सम्बोध्य मातरमथो निजागाद तूर्ण चौहानराजरमीयुतदेवविज्ञम भ्रात: । कुरुष्व मुदितोऽस्य पुरस्य राज्यं कस्माभ्दयं
तव भवेन्मयि विद्यमाने ।।३६।। भावार्थ : इस प्रकार रमई देव की माता को समझाकर श्रीकचनाधुरुवाने रमई देव से कहा, कि हे भाई ! आप प्रसन्न होकर इस नगरका राज्य कीजिये, हमारे जीतेजी आपको किससे भय हो सहता है? ।।३६।।
चौहानराजरमईयुतदेव इत्थं भ्रातुर्बलं समधिगत्य बभूव राजा। ध्रणान्निशीथसमयेऽथ निसृत्य राज्ञ्रया यावत्स चैहत फणी नृपतिं प्रदषृभ ।।३७।।
ता वत्सुवीरकचना धुरुवामिधेयस्तं पन्नगं निशितखड्गवरेण खण्डं। खण्डं विधाय चपलं निजगेहमत्य सुष्वाप सम्मदममुद्र निमग्निचित्त:
।।३८।। भावार्थ : इस प्रकार श्रीकचनाधुरुवाका बल पाकर श्री रमई देव वलांगिरपटने के राजा हो गये। बाद उसी दिन की आधीरात में पहले के समान वह सरप ज्यों ही काटना चाहा कि त्यों ही बडे वीर कचनाधुरुवाने अपनी तेज तलवार से उस सूपं को खण्ड खण्ड कर दिया और आनन्द रुपी समुद्र में निमग्न हो अपने घर में आकर सो गये ।।३७।। ।।३८।।
अथ प्रभातेऽ खिल कर्मचारिण: पूर्वप्रतीत्या नृपतिं दिधक्षव: । यावत्समीयु: क्षितिरक्षिणं स्थितं दृष्टा
बभूबुर्निरेता: स्वकर्मसु
।।३९।। भावार्थ : जब सबेरा हुआ तब पहले के विश्वास से उस दिन भी कर्मचारी लोग राजा को अग्निसंस्कारार्थ लेने को आये, परन्तु उस दिन राजा और रानी को सानन्द देख खुसी के साथ अपने काम में लग गये ।।३९।।
धीर: सुवीरकचनाधुरुवामिधेय श्रौहानरजारमईयुतदेवपाश्र्वे। तिष्ठन् प्रमोदसहित्रो दिवसे निशायां गच्छन्
नयागढपुरं अमराय चासीत ।।४०।। भावार्थ : बाद बड़े वीर तथा धीर श्री कचनाधुरवा दिन में आनन्द के साथ चौहान राज रमई देव के समीप रहते थे और रात्रि में नयागढ़ जाकर युद्ध किया करते थे ।।४०।।
यस्यां नगर्यो क्षितिपस्य कस्यचिन्म हाबलिष्ठो रणकर्मदुर्द्धर। विचारशाली सचिको महामना अंचीकरत्प्राज्यसुराज्यम
दुतम् ।।४१।। भावार्थ : जिस नयागढ़ नगर में उस समय किसी एक राजा के बड़े बलवान तथा युद्ध करने चतुर और विचारमान मांत्री राज्य करते थे ।।४१।।
सुखेन हत्वा समरेऽमरप्रभोऽमरप्रभं तं सचिवं बलिषम। आपृच्छयं राजानमथो जगाम राज्यं
विधातुं स न्यागढस्य ।।४२।। भावार्थ : देवता के समान शोभा से युक्त तथा बड़े पराक्रमी उस मंत्री को देवता के समान शोभा से विभूषित श्रीकचनाधुरुवादेव ने संग्राम में लीला के साथ मार डाला। अनन्तर चौहान राज से पूछकर नयागढ में जा राज्य करने लगे ।।४२।।
अब्दे शुभे मासि वरे सुपक्षे रम्ये दिने दिव्यतिर्थो वरर्क्षे। रतिप्रभातस्य धराधिपस्य प्रासोेषृ
भार्या क्रमशस्रिपुत्रान् ।।४३।। भावार्थ : बाद गोडराज कचनाधुरुवा देवकी रात के समान सुन्दरी पटरानी ने सुन्दरवर्ष सुन्दरमास दिव्यपक्ष रम्यादिन, और सुन्दर तिथि में, तथा सुन्दरनक्षत्र में त्रम से तीन पुत्र उत्पन्न किये ।।४३।।
पश्वाचात्भूपकचनाधुरु वामिधानो स्वराज्यधरणक्षमसर्वसुनून्। संस्थाप्य राज्यनिखिलं भरमात्मजाग्य्रे गोलेकमैद्धरिपदं ह्मदये
दधान :
।।४४।। भावार्थ : जब कचना धुरवा देवने देखा, कि हमारे पुत्र राज्य करने में समर्थ हो गये तब राज्य का समस्त भार अपने राजकुमार के ऊपर रखकर श्री जगदीश्वर को हृदय में रखकर वे गोलोक को सिधारे ।।४४।।
अथ: द्वितीयस्तनय प्रतापी नृपस्य तस्याहितचित्ततापी। छूरामिधग्रामवराधिपत्यं लेमेऽग्रजाव्धाहरतश्वाव
सत्यम् ।।४५।। भावार्थ : अनन्तर कचनाधुरुवादेव के महान प्रतापी तथा शत्रुओं को तपाने वाले दूसरे पुत्र ने सत्यभाषण करने वाले अपने ज्येष्ठ भाई से छूरा नगर का राज्य प्राप्त किया ।।४५।।
अर्थाग्निकोणे फणिकेश्वरस्य सार्द्धत्रिकोशोपरि शर्मदातृ। निरमाय हम्र्ये क्षितिपातृतीयतनू जनुर्वासमचीकरध
।।४६।।
भावार्थ : तत्पश्चात् कचनाधुरुवदेव के तीसरे राजकुमार ने फिनगेश्वर से साढे तीन कोश पर अग्निकोण में सुख देनेवाला एक सुन्दर महल बनवाकर उसमें निवास किया ।।४६।।
तत्रत्यहम्र्यं ध्याथ बीजमन्तरा विहाय सुख्याख्यसरित्तटे नृप: । प्रासाददिव्यं विरचय्य तस्थिवान् कार्यो विचित्रं ह्याखिलं मनस्विनाम्
।।४७।।
भावार्थ : कुछ दिनों के पश्चात् उक्त राजासाहब बिना कारण के ही उक्त स्थान को छोड़कर सुखिनी नामक नदी के तट पर एक दिव्य महल बनवाकर उसमें निवास करने लगे। यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं क्यों कि मनस्वियों के तमाम काम अलौकिक ही होते हैं ।।४७।। कुर्वन स्थाने तत्र भोगंं विलासं रक्षन् नीत्या स्वप्रजा: स्वप्रजावत। ध्यायंश्चित्ते रामचन्द्रंध्रिकलं भूपोनूपोयापयत्कान्यहानि
।।४८।। भावार्थ : उक्त राजा साहब ने सुखिनीनदी के तट पर भोग विलास करते तथा न्याय से अपनी सन्तानों के समान अपनी प्रजाओं की रक्षा करते और श्रीरामचन्द्र के कमल स्वरुपी चरणों का ध्यान करते कितने ही दिन बिताये ।।४८।।
भूप: कदाचिन्मृगयां विधातुं फिनगेश्वरारव्यं नगरं समागात्। मृगेन्द्र शार्दूलमुखैरख्यानि यत्रचासी व्धथिता तदानीम्
।।४९।। भावार्थ : एक समय उत्त राजा साहब शिकार खेलने के प्रसंग से फिनगेश्वर आये, जहां कि उस समय सिंह और बाघ आदि जानवरों से व्याकुल एक दुर्गम वन विराजमान था ।।४९।।
स मन्दिरे वीक्ष्य फणीश्वरं शिवं तथा तदग्रे सुरखात निम्नगाम्। अपूर्व शोभां च वनस्थलीं ह्याथो
दघे मनस्तत्र निवस्तुमुत्तुक ।।५०।। भावार्थ : उस वन के मध्य में एक सुन्दर मन्दिर मे भगवान् फणिकेश्वर महादेव को, उस मंदिर के सामने देवखातगंगा को और विशेष शोभासे युक्त वहां की वनस्थली को देखकर उक्त राजा साहब ने वहां निवास करने की इच्छा की ।।५०।।
आरात्फणीश्वरशिवस्य सुमन्दिरस्य आनन्द कन्द शिवदस्य ककुम्युदीच्याम्। संछेध सर्वगहनं निबिडं क्षितीशो निंर्माय
हम्र्यपरिखे सततं न्युवास ।।५१।। भावार्थ : अनन्तर उक्त राजासाहब अतिशय आनन्द और कल्याणा देने वाले श्री फणिकेश्वर महादेव के मन्दिर की उत्तर दिशा दिशा में सघन समस्त वन को कटवाकर वहां राजमहल बनवा और महल भी चारों ओर खाई बनवाकर निवास करने लगे ।।५१।।
सुजनताजलधि: स नराधिप: सुजनविज्ञजनानतिमाद्दणन्। खलजनान सकलान खलु मर्दयन्
सुविदधें निजराज्यमनुत्तमम् ।।५२।। भावार्थ : सुजनता के समुद्र जिन्होंने सज्जनों और विद्वानों को आदर करते तथा समस्त खलों का मर्दन करते अपना श्रेष्ठ राज्य किया ।।५२।।
इस किताब में 115 पृष्टायें है। सन् 2002 में इसे छत्तीसगढ़ शाषण संस्कृति विभाग द्वारा (दुर्लभ ग्रन्थ) प्रकाशन किया गया ।
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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee
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