देवनारायण फड़ परम्परा  Devnarayan Phad Tradition

देवनारायण का जन्म एवं मालवा की यात्रा

साडू माता को बालक देवनारायण को साथ लेकर मालवा जाना


साडू माता सोचती है कि रोज कोई न कोई यहां आता है, कहीं रावजी सेना भेजकर बच्चे को भी न मरवा दे। यह सोचकर वह गोठांंं छोड़ कर मालवा जाने की तैयारी करती है। और दूसरे ही दिन सा माता अपने विश्वासपात्र भील को बुलवाती है। बच्चे का जलवा पूजन करने के पश्चात सा माता बालक देवनारायण, भील, हीरा दासी, नापा ग्वाल और अपनी गायें साथ लेकर गोठांंं छोड़ मालवा की ओर निकल पड़ती है।

साडू माता और हीरा अपने-अपने घोड़े काली घोड़ी और नीलागर घोड़े पर सवार हो बच्चे का पालना भील के सिर पर और नापा ग्वाल गायें लेकर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर निकल पड़ते हैं।

रास्ते में भील एक गोयली को देखता है तो बालक देवनारायण को वहीं एक खोल में रख कर गोयली का शिकार करने उसके पीछे भाग जाता है।

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उधर सा माता और हीरा काफी आगे निकल जाते हैं। रास्ते में एक जगह एक शिकारी हिरनी का शिकार कर रहा होता है। हिरनी के साथ उसके बच्चे होते हैं। हिरनी अपने बच्चों को बचाए हुए दौड़ रही होती है। ये देख कर साडू हीरा से कहती है कि देख हीरा ये हिरनी अपने बच्चों को बचाने के लिये अपनी जान जोखिम में डाल रही है। शिकारी का तीर अगर इसे लग जायेगा तो ये मर जायेगी। ये बात हिरनी सुन लेती है और कहती है कि मैनें इसे जन्म दिया है, इसे झोलियां नहीं खिलाया है। इसलिए मैं अपनी जान देकर भी इसकी जान बचा

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हिरनी की बात सुनकर साडू को अपने बच्चे की याद आती है और उसे ढूंढती हुई वो वापस पीछे की ओर आती है। वापस आकर सा माता देखती हैं कि बच्चे का पालना एक पेड़ के नीचे खोल में पड़ा हुआ है और एक शेरनी उसके ऊपर खड़ी देवनारायाण को दूध पिला रही है। सा माता यह देख अपना तीर कमान सम्हाल कर शेरनी पर निशाना साधती है। शेरनी कहती है सा माता रुक जा, तीर मत चलाना। मैं इसे दूध पिलाकर चली जा बच्चे को भूख लगी है, इसके रोने की आवाज सुनकर मैं आयी हूं। इससे पहले मैं इसे ६ बार दूध पिला चुकीं हूं। यह सातवीं बार दूध पिला रही हूं। यह बात सुनकर सा माता चौंक जाती है और पूछती है कि इससे पहले कब-कब दूध पिलाया। तो शेरनी उसे पिछले जन्मों की सारी बात बताती है।

वहीं से सा माता अपने बच्चे के साथ-साथ चलती है। चलते-चलते वो माण्डल पहुंचते हैं, जहां थोड़ी देर विश्राम करते हैं। यहां बगड़ावतों के पूर्वज मण्डल जी ने जल समाधी ली थी वहां उनकी याद में एक मीनार बनी हुई है जिसे माण्डल के मन्दारे के नाम से जाना जाता हैं।

मण्डल से आगे चलकर रास्ते में मंगरोप गांव में सब लोग विश्राम करते हैं। वहां सा माता और हीरा दासी बिलोवणा बिलोती है। वहां बची हुई छाछ गिरा देती है। कहा जाता है मंगरोप में बची हुई छाछ से बनी खड़ीया की खान आज भी है।

मंगरोप से रवाना होकर दो दिन बाद सब लोग मालवा पहुंचते हैं। सा माता अपने पीहर में पहुंचकर सबसे गले मिलती है। मालवा के राजा सा माता के पिताजी थे। मालवा में ही रहकर देवनारायण छोटे से बड़े हुए थे। वह बचपन में कई शरारते करते थे, अपने साथियो के साथ पनिहारिनों के मटके फोड़ देते थे। जब गांव वाले राजाजी को शिकायत करने आते और कहते कि आपका दोयता रोज-रोज हमारी औरतों की मट्की फोड़ देता है, रोज-रोज नया मटका कहां से लाये, तो राजाजी ने कहा कि सभी पीतल, ताम्बे का कलसा बनवा लो और खजाने से रुपया ले लो।

देवनारायण वहां के ग्वालों के साथ जंगल में बकरियां और गायें चराने जाते थे और अपनी बाल क्रिड़ाओं से सब को सताया करते थे।

 

 
 

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