देवनारायण फड़ परम्परा Devnarayan Phad Tradition देवनारायण का जन्म एवं मालवा की यात्रा देवनारायण की मालवा से खेड़ा चौसला में वापसी वहां से भांगीजी को साथ लेकर नारायण का काफिला मंगरोप में आकर रुकता है जहां सा माता और हीरा दासी ने ११ वर्ष पहले बिलोना बिलोया था और बची हुई छाछ नीचे गिरा दी थी। माता साडू नारायण से कहती है कि नारायण अब अपनी धरती आने वाली है उससे पहले आप पीपलदे के साथ फेरे पूरे करो नहीं तो कलयुग में तीन फेरे लेने की प्रथा हो जायेगी। वहां देवनारायण पीपलदे के साथ बाकि के फेरे लेकर उसे अपने बाये अंग लेते हैं। वहां पीपलदे के पिताजी धार के राजा भी आते हैं और पीपलदे का डायजा (दहेज) हथलेवा भरते हैं। जिसकी जितनी श्रद्धा होती है उतना पीपलदे की झोली में डालते हैं। कोई १ मोहर, कोई २ मोहरें, कोई ५ मोहरें और कोई १० मोहरें पीललदे की झोली में डालते हैं। वहां एक भील होता है, उसके पास उस वक्त पीपलदे को देने के लिए कुछ भी नहीं होता है। इसलिए वो जंगल में से बेल पत्र पेड़ से एक बिला तोड़ कर लाता है और पीपलदे की झोली में डाल देता है। ये बिला भगवान देख लेते हैं और पीपलदे की झोली में से उठा लेते हैं। पीपलदे जी पूछती है कि भगवान आपने इन सब चीजों में से इसे ही क्यो उठाया ? नारायण कहते हैं पीपलदे जी ये बिला है, इसमें बिला-बिली पल रहे हैं। आप इसे रुई में लपेट कर सावधानी से रख दे। जैसे मां के गर्भ में बच्चा पलता हैं वैसे ही उस बिले में देवनारायण पीपलदे के बेटा-बेटी (बिला-बिली) बड़े होते हैं। मंगरोप
से डेरा उठता है और काफिला आगे
बढ़ता है और रास्ते में माण्डल आकर
रुकता हैं। जहां भगवान और छोछू
भाट दोनों साथ-साथ तालाब की पाल
पर घूमते हैं। छोछू भाट नारायण को
बताते हैं कि यह तालाब आपके दादा
परदादा ने बनाया है। देवनारायण
कहते है कि तालाब तो काफी बड़ा बनाया
है और अपने नीलागर घोड़े को तालाब
की पाल पर पानी पिलाने के लिये लाते
हैं। नीलागर घोड़ा तालाब का पानी नहीं
पीता है। देवनारायण भाट जी से पूछते
हैं कि क्या बात है, इस तालाब का पानी
घोड़ा नहीं पी रहा हैं ?
छोछू भाट कहता है कि इस तालाब
में आपके पूर्वज मण्डल जी की समाधी
है और भाट जी सारी बात विस्तार
से बताते हैं कि बिसलदेव जी के डर
से मण्डल जी अपने घोड़े के साथ पानी
में उतर गये। तब से इस तालाब का नांगल
नहीं हुआ है। भगवान
देवनारायण वहीं डेरे डालने को
कहते हैं और तालाब का नांगल करवाते
हैं। ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं।
हवन, यज्ञ, दान और १०० गायों का दान
करते हैं। माता
साडू और हीरा दासी तालाब पर बने
मण्डल जी के मन्दारे पर चढ़ कर अपने
गांव की ओर देखती है और हीरा से
कहती है कि हीरा अपना गांव तो उजाड़
पड़ा है, वीरान हो गया है। वहां जाकर
कैसे रहेगें ?
वहां तो भूत-प्रेतों का वास हो गया
होगा। भगवान देवनारायण का काफिला माण्डल से आगे बढ़ता है। रास्ते में दो गांव पड़ते हैं। कावंल्या और जीवंल्यां। ये दोनों गांव बगड़ावतों की दासियों के नाम पर बसे हुए थे। माता साडू देवनारायण से यहीं रुकने को कहती है तो देवनारायण कहते हैं माताजी यहां का तो हम पानी भी नहीं पीयेगें। यह तो हमारे दासियों का गांव है। अब तो ये सवारी गोठांंं जाकर ही रुकेगी और वहीं अपनी नई बस्ती खेड़ा चौसला बसायेगें। माता साडू कहती है गोठांंं तो उजड़ गया हैं। वहां तो राण का राजा हमें आराम से नहीं रहने देगा। देवनारायण कहते हैं ये बात आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिये।
देवनारायण का काफिला गोठांंं में आकर रुकता है और वहीं देवनारायण अपना नया गांव खैड़ा चौसला बसाते हैं और उसकी नींव पूनम (पूर्णिमा) के दिन रखते हैं।
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